गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

डेस्डीमोना मरती नहीं



उफ, आज फिर से नींद आने का नाम नहीं ले रही है। ये नींद भी कमबख्त हो चली है, न तो आती ही है और न जाती ही है। उनींदा सा हर क्षण रहता है। सामने वाले फ्लैट से फिर लड़ाई की आवाजें आ रही थी। मैं डेस्डीमोना   को पढ़ते पढ़ते घर से बाहर आ गयी थी। ये शेक्सपियर भी न, खुद तो चले गए और हमारे पास छोड़ गए हमारे जीवन में समाते हुए चरित्र। वाह, क्या क्या न कहते हैं, जियो शेक्सपियर जियो। डेस्डीमोना   मुझे आकर्षित करती है हमेशा। हर घर से एक डेस्डीमोना   झांकती है, वह ज़िंदा सी है, लगभग हर घर की खिड़की से झांकती है। अभी तो सामने वाले घर से ही आवाजें आ रही हैं। मेरा मन हो रहा है कि काश मेरे पास उड़ने वाली झाडू होती चुड़ैल वाली, तो मैं भी चली जाती उड़कर, उस घर में हैरी पॉटर में जैसे हम चुड़ैल देखते थे, पर वह झाडू मेरे पास नहीं है और मैं अभी अपने घर की बालकनी में खडी होकर डेस्डीमोना   को महसूस कर रही हूँ और बीच बीच में सामने वाले घर से आती हुई आवाजों को सुन रही हूँ, वह भी मुझे आकर्षित कर रही हैं, सोचती हूँ चली ही जाऊं। रात के बारह बज चुके हैं,  वैसे तो कॉलोनी का गार्ड  मुझे अब वापस भेजने के लिए आमदा है पर मैं नहीं जाना चाह रही, मैं अंगद के पैर की तरह एक ही तरह जैसे जड़ सी हो गयी हूँ, पर वह है कि मान नहीं रहा, उधर से आवाजें और तेज होती जा रही हैं “अरे, दुष्ट, एकदम वैश्या हो तुम, you are such a whore,” चटाक, चटाक उफ, लग रहा है, गृहयुद्ध हो रहा है, गृहयुद्ध कैसे? युद्ध में तो दो तरफा वार होते हैं, पर यहाँ पर तो शायद एक ही ओर से वार हो रहा है, जैसे डेस्डीमोना  झेलती थी, अपने पति के वार। ओथेलो भी तो इसी आदमी की तरह अपनी पत्नी को मारता था, तो वो क्या करती होगी? शेक्सपियर से परे अगर मैं चलूँ तो मैं बताऊँ, अगर इस औरत की तरह होती तो शायद वह अपना गाउन उठाकर अपने घुटनों के बल अपने पति के पैरों में बैठकर उससे क्षमा मांगती, जो शायद वह मांगती थी, वह उसे पापी, परपुरुष गामी कहता होगा और वह क्या रोकर ही केवल उसे अपनी तकदीर मान लेती होगी, पर ऐसा ही तो सीता ने भी किया था। हां संभवतया, राम ने स्वयं सीता के चरित्र पर शक नहीं किया था पर उन्होंने सीता को केवल चरित्र की ही परिभाषा के कारण जंगलों के हवाले कर दिया था। तो ऐसे में भला इस पुरुष की क्या बिसात? ये तो वही कर रहा है जो इसने देखा है। मैं भी न जाने अपने घर की बालकनी में खड़े खड़े रात को बारह बजे किन हवाओं में खो रही हूँ, एक हवा मुझे डेस्डीमोना  की ओर लेकर जा रही है तो दूसरी हवा मुझे हर उस स्त्री की ओर लेकर जा रही है जो शक का शिकार होती है। ये डेस्डीमोना, फिर से आ गयी कमबख्त, मुझे हंसी भी आ रही है, वह मेरी रूह में अन्दर तक समाई हुई है, वह मुझे कभी आकर अचंभित भी करती है, जैसे ही सामने वाले फ्लैट से किसी भी स्त्री के रोने की आवाज़ आती है वह मुझे उसी खिड़की पर आकर जैसे आवाज़ देती है, बोलती है “देखो, मैं आ गयी, इस बार मोटा गाउन नहीं पहने हूँ, इस बार मैं तुम्हारे यूपी और बिहार में जाकर देखो साड़ी पहनकर आ गयी हूँ, पर सुनो केवल चोला ही बदला है, मेरी पीड़ा अभी भी वहीं है और उसी तरह की है जब ओथेलो मुझे मेरे पिता के घर से लाते समय तो प्रेम से लाता है पर मुझ पर अधिकार के बाद वह मुझ पर छोटी छोटी बातों पर शक करता हुआ, मुझे ही मरने को सहर्ष तैयार हो जाता है”।
मैं एक पल को रुक जाती हूँ, अब मेरी हंसी गायब हो गयी है, अब डेस्डीमोना  छाने लगी है, जैसे भूत या आत्माएं किसी भी काया में प्रवेश करती हैं वैसे ही वह मुझमें प्रवेश कर रही है, मैं वह और वह मैं बनने सी लगी है, तभी मैं एकदम से किताब अपने हाथ से फ़ेंक देती हूँ, वह किताब में से झाँक कर कहती है, “तुम बच पाओगी” हा हा, अब वह हिंसक हो गयी है, खिड़की से आवाजें भी तेज हो रही हैं और डेस्डीमोना  का मेरे स्वामी, मुझे माफ करो कहना भी तेज होता जा रहा है। उफ, ये हिंसक हंसी! मैं दोनों ही तरफ से फांसी पा रही हूँ, अब मेरी आवाज़ घुट रही है, पर ये दोनों, ये दोनों तो जैसे जंगली बिल्ली की तरह लडती ही जा रही हैं, एक ओर वह खिड़की के अन्दर से माफ कर दो, अब बात नहीं करूंगी, अब मैं नहीं झाकूंगी, अब माफ करो”  बोलती जा रही है, और दूसरी ओर किताब के अन्दर से वह भी बोल रही है, और इतना बोल रही है कि मेरा मन हो रहा है किताब को उठाकर मैं उसे नाली में फ़ेंक दूं। ठीक है, शेक्सपियर जी, इतना खूबसूरत नाटक लिखे पर ऐसा भी नहीं कि वह पाठक का ही सर्वनाश कर दे। अब देखिये ये कैसे सर पर नाच रही है और अपन को भी नचाए हुए हैं। उधर गार्ड कह रहा है “मैडम, अभी कोई चोर घुस आएगा, आप प्लीज़ घर में जाएं” मुझे वह किताब के अन्दर से जीभ चिढा रही है, मैंने उससे कहा भी “नहीं, अब हिंसा कम हुई है” और इस बात पर वह अपना पेट पकड़ कर हंस रही है, मुझे बोलने का मौक़ा तो दे ही नहीं रही है, अब मेरे पति के खर्राटे भी दीवार तोड़कर बाहर आने लगे है। मुझे हंसी आई, और बहुत ही आश्चर्य हुआ कि अरे, देखो ये मर्द लोग कैसे सो लेते हैं, बेझिझक! एकदम बिना किसी परेशानी के। इन्हें मतलब नहीं होता कि घर के सामने कोई किसी को पीट रहा है, कोई मरे, जिए इन्हें मतलब ही नहीं। इन्हें मतलब नहीं होता कि घर के सामने कोई हिंसा का शिकार हो रहा है या फिर कोई प्रतिहिंसा का शिकार हो रहा है। उफ!
हां, तो किताब से फिर से झांकती है और मुझसे बात करती है मेरी डेस्डीमोना , अब मुझे वह बहुत ही टूटी हुई कातर सी दिखती है, जो मुझे आजकल लगभग हर ही स्त्री लगती है। कोई किसी भी तरह से टूटी है तो कोई किसी। पर हां, सब में एक बात कॉमन है कि उनके अस्तित्व को नज़रंदाज़ करने की हिंसा हो रही है। जैसे राम आदर्श पुरुष है, आदर्श बेटे हैं, आदर्श भाई हैं, आदर्श राजा हैं, पर पत्नी के अस्तित्व को नज़रन्दाज़ कर वे आदर्श पति न बन पाए। ऐसा क्यों होता है कि स्त्री का अस्तित्व दबाने की एक हिंसा होती है, जो हमारे सामने होते हुए भी हमें नज़र नहीं आती। कितना अजीब होता है कि एक पुरुष के लिए हर किसी का अस्तित्व महत्वपूर्ण होता है, हर किसी को वह महत्व देता है, पर वह केवल अपने जीवन से जुड़ी हुई सबसे महत्वपूर्ण स्त्री अर्थात पत्नी को ही महत्व नहीं देता, वह उसके अंगों पर अधिकार जमाना चाहता है, उसे चादर बनाकर ओढ़ना चाहता है, उसे बिस्तर की तरह बिछाता है पर न जाने क्यों एक नौकर की तरह उसके अस्तित्व को नकारता रहता है।  हां, तो शायद डेस्डीमोना  इसी हिंसा का शिकार हुई थी, या वह किसी छल का शिकार हुई थी, पर छल कोई भी हो, हारी तो एक पत्नी ही। वह जंघा की परिधि में होने वाले युद्ध में पराजित होने वाली प्रजाति हो जाती है, हां एक पत्नी के रूप में स्त्री शायद जंघा की परिधि वाले युद्ध हारती है तभी, तभी तो छली जाती है। नहीं नहीं वह जंघा की परिधि का युद्ध नहीं होता, शायद जंघा की परिधि पर वर्चस्व कायम करने वाला युद्ध होता है। वह निरंतर संघर्ष होता है। वह चरित्र का संघर्ष है, वह तथाकथित मर्यादा का चरित्र है। एक पत्नी के रूप में स्त्री निरंतर संघर्ष रत है, वह जूझती है, पर शायद इस स्थान के वर्चस्व के युद्ध को हार जाती है।
मेरे घर के सामने की खिड़की में वाकयुद्ध अब शांत होने लगा था, वह क्यों शांत हो रहा था, ये तो नहीं पता, पर अब घर की लाइटें बंद हो गयी थी, और जोर जोर से जो चीखें आ रही थी, शायद अब दबी सिस्कारियों में बदल गयी होंगी। अब शायद उस वर्चस्व का समय आ गया होगा जिसके कारण यह पूरा युद्ध हो रहा था। अब शायद वर्चस्व की चाह में उसकी देह को मसला जा रहा होगा या मसाला लगाकर मुक्त रूप से वह भोग लगा रहा होगा। हा हा, चलो सोचूँ, नींद तो आ नहीं रही, पर अब वह स्त्री सो जाएगी या अपने स्वामी को भोग लगाने के बाद जागकर मेरे साथ मेरी डेस्डीमोना  के साथ आएगी? शायद सो ही जाएगी, अपने मर्द को ओढ़ कर, ऐसी कायर औरतें अपने मर्द को ओढ़कर सोने में ही भरोसा करती हैं, वे जागती नहीं, वे सोती रहती हैं, नींद उनकी केवल तभी टूटती है जब उनके जीवन पर संकट आता है, जैसे डेस्डीमोना  की भी तन्द्रा तभी टूटी थी न जब उसे उसका पति मारने आया होगा, या उसे लगा होगा अब यह मेरे प्राण ले लेगा। ये रात के समय शोर मचाने वाली स्त्रियाँ ऐसे ही किसी समय जागती हैं, या तो जब उनके प्राण ही संकट में आते हैं या फिर तब जब उनपर कोई बाहर से लाकर बैठा दी जाती है, नहीं तो तब तक वे अपने पतियों को ही ओढ़कर सोने में दुनिया का सबसे बड़ा सुख मानती हैं।
अब मेरी भी आँखों में नींद आने लगी, डेस्डीमोना  ने कहा सोने जा रही हो, मैंने कहा “हां”। उसने कहा रुको थोड़ी देर और, जरा मेरे जैसी एक दो और गिनाओ।” अब बारी मेरे हँसने की थी, मैंने कहा “किस किस का किस्सा सुनाऊँ, सभी में तो तुम समाई हो” वह विजयी मुस्कान के साथ बोली “देखा मैंने कहा था न, युग कोई भी हो, बरस कोई भी हो, डेस्डीमोना  तो हर घर में होगी” मैंने उससे कहा “हां, पर अब डेस्डीमोना , को मारना इतना सरल नहीं रह गया है” “हैं वह कैसे, उसने कहा, अभी सामने वाले घर में तो तुमने देखा ही है, वर्चस्व का संघर्ष”, मैंने कहा “हां सही कह रही हो, पर अब उसे विद्रोह करना आ गया है, अब देखना, थोड़े दिन वह केवल उसकी यह मार खाएगी, उसे ओढ़ेगी और बिछाएगी, फिर उसकी ही आँखों के नीचे जो काले घेरों का स्थान है, वहां पर अपना एक कोना खोजकर उसमें अपनी जगह बनाएगी” वो बोली “चल झूठी, ऐसा भी होता है” मैंने कहा “हां, होता तो है, कहो तो एक उदाहरण दूं” वो बोली “दो न”। अब वह किताब से बाहर निकल कर जैसे मेरे बगल में पड़ी कुर्सी में आ गयी। और उसकी आँखों में एक उत्सुकता थी, वह जानना चाह रही थी कि इस युग की डेस्डीमोना  आखिर करती क्या हैं!
मैं उससे बात करती जा रही थी, जैसे कोई शराब पीकर अपनी ही रौ में बोलता रहता है वैसे ही। वह कुछ बढ़िया सुनना चाह रही थी और मैं भी उसे बढ़िया ही सुनाना चाह रही थी। उसने कहा “अब बोलो भी” मैंने कहा “सुन, शैम्पेन पीयेगी” वो बोली, तुम पियो” मैंने अन्दर जाकर एक ग्लास में अपने लिए शैम्पेन लिया और फिर उसके पास आई। मूढा उसकी कुर्सी के पास खींचा और कहा “देखो, हम लोगों ने रो रोकर आँखों के नीचे बहुत काले घेरे बना लिए हैं, जहाँ पर हमारे सपने मर गए थे” वो बोली “हां, और सपने ही क्यों मैं तो खुद ही मर गयी, मार डाला मुझे मेरे ही पति ने, जिसके कारण अपने पिता का घर छोड़कर आई, जिसके कारण मैंने पूरी दुनिया में अपने पिता को बदनाम किया और जिसके कारण मेरे पिता ने मुझसे सारे सम्बन्ध तोड़ लिए, उसी व्यक्ति ने मुझे मार डाला। उसने मेरे चरित्र पर लांछन लगाए, मुझे कुलटा, वैश्या, शरीर बेचने वाली, गैर ईसाई कहा। मैं तो ईसाई ही रही, मैंने क्या धर्म विरोधी काम किया”। उफ, सुनो, इस चरखी में ही हमें बांधा जाता है, कि तुम धार्मिक बनो, धर्म के अनुसार बनो।  पर हमारे धर्म में जो हमारे लिए कहा गया है, उसे हमारे सामने ही तोड़मरोड़ कर हमारी थाली में बचपन से परोसा जाता है और हमें उसे नाश्ते, खाने और रात के खाने में खूब मिला मिला कर पिलाया जाता है।  कि हम कहीं भाग न जाएँ, बिगड़ न जाएँ। सुनो, खूब मारपीट करने के बाद एक दिन तो ऐसा आया ही होगा जब तुम्हें भी लगा होगा कि तुम भाग जाओ, या खुद से बात करने का मन हुआ होगा? खैर तुम्हारा पता नहीं। हम स्त्रियों पर जब वर्चस्व की जंग तेज होने लगी और हमारी आँखों के नीचे काले घेरों का साम्राज्य बहुत ही बढ़ने लगा तो लगा कुछ तो ऐसा खोजा जाए जिससे न केवल यह वर्चस्व की जंग थमें बल्कि कुछ ऐसा भी हो जिससे हमारी आँखों को इस कालिमा से मुक्ति मिल सके। अरे पर ऐसा होगा क्या? हमें अपने हिस्से की ज़िन्दगी तो जीनी ही थी। सुनो, हमने सोचा कुछ करने का!
मैं रुक गयी, मैंने सोचा इसे बताऊँ क्या!, उसने मेरी बांह झकझोरी, “नशा हो रहा है क्या” मैंने कहा “न री, सोच रही हूँ कहाँ से शुरू करूँ!, हां तो जब हमारी आँखों के नीचे घेरे बहुत ही काले होते गए तो सोचा उन्हें सुनहरा किया जाए, तो हमने अपने हुनर को निखारना शुरू कर दिया। हमने स्लो डेथ मरने से मना कर दिया। हम बहुत युगों तक इस स्लो डेथ का शिकार हुए हैं, अब हमने इस हिंसा का प्रतिकार करने का मन बनाया। हमने उस संवाद हीनता को काट दिया, जो हमें अलग करता था दुनिया से, हमने अब संवाद करने का मन बनाया। हमने आँखों के नीचे के काले घेरों से ही संवाद शुरू किया, हमने पहले उन्हें विदा किया, फिर वर्चस्व की लड़ाई से स्त्री को जीतना सिखाया। स्त्री को जांघ की परिधि वाले वर्चस्व में स्वामिनी बनने के लिए कहा। हाँ ठीक है, अभी नहीं हो पाया है यह, पर शीघ्र ही यह होगा ऐसा मुझे लगता है। पर उसके लिए हमें, जरूरत थी, जरूरत थी भरी जेब की, भरी जेब से हम अपने इन कालेघेरों को सुनहरा कर सकती थी, ये हमने अहसास किया। तो हमने अपने हुनर को तराशना शुरू कर दिया।  सुनो, हमने घेरों के अन्दर ही जीना शुरू कर दिया, पर हां जो हम पर वर्चस्व करते थे उन्हें इस बात की भनक भी न लगने दी, कि आखिर ये काले घेरे सुनहरे कैसे होने लगे। वे हम पर वर्चस्व की एक लिप्सा में खुद से ही संघर्ष करते रहे और हम कुंदन बनकर और भी निखरते रहे। ठीक है, अभी कुछ स्त्रियाँ बिछा रही हैं, और ओढ़ भी रही हैं, उन्हीं के जिस्म को, जो उनपर वर्चस्व स्थापित किए थे, पर समय के साथ जैसे जैसे वे अपने हुनर को और प्रतिभा को पहचानेंगी वैसे ही वे अपना कोना कहीं और थोड़ी देर के लिए बना लेंगी, और तुम देखती रहना, यह दिन भी बहुत जल्द आएगा।”
तभी मेरी नज़र मेरे बगल की खाली कुर्सी पर गयी, “अरे डेस्डीमोना  कहाँ गयी”
वह कहीं कोने में रो रही थी, मैंने उसे छुआ तो बोली “अरे, ये  कोना तब नहीं बन सकता था, जब मैं अपने जीने के लिए संघर्ष कर रही थी, जब ओथेलो अपनी ही प्रिया पर रोज ही शक कर रहा था, जब पतिव्रता होते हुए भी मैं खुद के चरित्र पर लांछन खा रही थी, जब केवल एक रूमाल के कारण मेरे कोरी चुनरी पर दाग लग रहे थे। ओह, ये कोना तब क्यों किसी ने न बनाया?, तुम्हें पता, अगर कोई कोना तब बन गया होता तो शायद मैं भी बार बार अपने स्त्रीत्व को कसौटी पर परखने के लिए मजबूर न होती, शायद डेस्डीमोना  की किस्मत कुछ और ही होती”
मैंने उसके आंसू पोंछे, गले लगाया और कहा “सुनो, तुम एक बात भूल जाती हो, कि तुम्हें गढ़ा किसने था, और कब गढ़ा था, तुम्हें गढ़ा गया था घोर सामंतवादी युग में, जहां स्त्रियों का पुरुष की मर्जी के बिना सांस लेना भी गुनाह माना जाता था, और तुम अपने लेखक से उम्मीद करती हो तुम्हारे लिए कोई कोना खोजता। अरे वह न तो वह खुद ही ऐसा करता और न ही उसे कोई यह करने देता, तुम्हें पता उसे शायद ज़िंदा ही जला दिया जाता। चूंकि उसे अपनी जान से प्रेम था और तुमसे भी, तभी तो तुममे इतनी खूबियाँ डाली, कि आज तक तुमसे प्रेम है और तुम्हारे कारण तुम्हारे लेखक से हम प्रेम करते हैं। पर है तो वह सामंतवादी और पुरुष ही न!, तुमसे गलबहियां तो नहीं कर सकता न!, तुम्हें त्याग के रूप में ही अमर बना सकता था, पर स्वतंत्र नायिका के रूप में नहीं। समझो”
वह भी आंसू पोंछती हुई बोली “हां, ये सच है तब मैं शिकार हुई शक की, जांघ के वर्चस्व के संघर्ष की, पर अब जानती हूँ अब अगर गढ़ी जाऊंगी, तो तुम्हारे ही जैसी किसी भी स्त्री के हाथों, जो इस वर्चस्व में मेरा भी योगदान बताएगी। मैं अब शक के कारण मारी न जाऊं, इस बात का ख्याल रखना, अच्छा चलूँ, सुबह होने को है”
सुबह की पहली निशानी यानि आसमान पर हल्की गुलाबी रंगत छाने लगी थी, और डेस्डीमोना  किताब में पन्नों में समा गई, मैंने उससे कहा “वादा करती हूँ, अब कोई डेस्डीमोना  किसी भी कहानी में शक की बिनाह पर मारी न जाएगी, अब डेस्डीमोना  की आँखों पर काले घेरे न होंगे और अब डेस्डीमोना  के साथ वैश्या के शब्द न होंगे, क्योंकि अब डेस्डीमोना  का सृजन शायद किसी और नजरिए से होगा, अब स्त्री शायद डेस्डीमोना  को गढ़ेगी, अब डेस्डीमोना  कहानियों में चरित्र की बलि न चढ़ेगी, विदा डेस्डीमोना”
सामने के घर में हलचल होने लगी थी, और सूजी आँखों के साथ एक नई डेस्डीमोना  शायद जन्म लेने लगी थी, वह क्या करेगी? ये पता नहीं.................................।शायद जीना तो डेस्डीमोना  को खुद ही है, हाँ, कहानियों में जीने का जिम्मा मेरा है, पर खुद का जीवन जीना, ये तो हर डेस्डीमोना  पर ही निर्भर है। हाँ विदा डेस्डीमोना, फिर मिलना कहीं किसी मोड़ पर,

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...