शुक्रवार, 5 जून 2020

कौशल्या




वह राजा की प्रिय रानी नहीं थी, परन्तु वह राजा की सबसे बड़ी रानी थी. बहु विवाह के उस युग में पति के ह्रदय में अधिक स्थान पाने वाली रानी ही शासन पर अपना अधिकार स्थापित करती थी एवं उसी की बातों का महत्व होता था. वह इस तथ्य से परिचित थीं कि उनका स्थान हो सकता है शेष रानियों से नीचा हो, परन्तु उनके हृदय में कभी भी ईर्ष्या नहीं आई. यह उनकी परिपक्वता थी. वह युग स्त्रियों के मध्य परस्पर प्रतिस्पर्धा का संभवतया नहीं था, या हो सकता है यह कहें कि संतानों के माध्यम से प्रतिस्पर्धा हो. कहा नहीं जा सकता. काल से परे आकर दूसरे काल का विश्लेषण करना तनिक कठिन कार्य प्रतीत होता है.

परन्तु स्त्रियों का तो इतिहास हर काल में ही अपने पति, अपनी संतान से जुड़ा होता है. ऐसे ही भानुमति का था. कोसल देश की अत्यंत सौन्दर्यवती राजकुमारी जिसका विवाह अयोध्या के शासक दशरथ के संग हुआ. कोसल देश के नाम पर उनका नाम कौशल्या हो गया, एवं इतिहास में वह अपने प्रांत के कारण या कहें उनका प्रांत उनके कारण जाना गया.

आनंद रामायण के अनुसार रावण को एक भविष्यवाणी से अपने अंत के विषय में ज्ञात हो गया था. उसे यह ज्ञात हुआ था कि दशरथ और कौशल्या का पुत्र उसका अंत करेगा. यही कारण था कि उसने कौशल्या का हरण कर लिया था. परन्तु काल से कौन बच पाया है. दशरथ अपनी पत्नी को सकुशल वापस ले आए थे. युद्ध के माध्यम से!
इस प्रकार कौशल्या के जीवन का आरंभ ही ऐसे कष्ट के साथ हुआ जिसके विषय में उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी. कौशल्या के विषय में वाल्मीकि ने एक ऐसी स्त्री के रूप में चित्रित किया है जिसकी अपनी स्त्रियोचित भावनाएं हैं.
अपने एकमात्र पुत्र, को वनवासी के रूप में देखना किसी भी ऐसी माँ के लिए अत्यंत पीड़ादायक क्षण रहा होगा, जो एक क्षण पूर्व तक अपने पुत्र के राज्याभिषेक की तैयारी में लगी थी. वाल्मीकि रामायण में जब कौशल्या पर यह प्रकटन होता है कि युवराज राम अब चौदह वर्ष तक वनवास में रहेंगे, तो वह स्त्री एवं मातृसुलभ भावनाओं के कारण मूर्छित हो जाती हैं, वह कैकई की निंदा करती हैं और अपने पति की भी निंदा करती हैं. यहाँ वह किसी आदर्श के रूप में नहीं हैं. वह ऐसी माँ के रूप में है जिसे अब चौदह वर्षों तक अपने पुत्र के वियोग में दिवस काटने हैं.
तुलसीदास अपने काल खंड के अनुसार स्त्री चरित्र को आदर्श बनाते हुए उन्हें ऐसी स्त्री के रूप में प्रदर्शित करते हैं जो अपने पुत्र के वनवास के समाचार को सुनकर विचलित तो होती है परन्तु वह धैर्य रख लेती हैं.
कम्ब रामायण ही संभवतया ऐसी रामायण है जिसमें उन्हें अनुपम सुन्दरी के रूप में चित्रित किया गया है. उन्हें सुकोमल, घुंघराली अलकें, बिम्बाफल सदृश अधरोष्ठवाली कोसल्या बताया गया है.
राजा राम को जन्म देने वाली कौशल्या का एकमात्र मंदिर छत्तीसगढ़ में है. कहा जाता है कि यहाँ का नाम कोसल था. यहीं पर माता कौशल्या का मंदिर स्थित है. चंदखुरी में माता कौशल्या का मंदिर जलसेन तालाब के मध्य स्थित है. इस तालाब में एक सेतु बनाया गया है. मंदिर में कौशल्या का माता रूप ही प्रदर्शित है.  अपने पिता की एकमात्र पुत्री होने के कारण कोसल नरेश भानुमंत का साम्राज्य भी राजा राम को ही उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था. इससे एक बात यह स्पष्ट होती है कि पुत्र न होने पर पुत्री ही अपने पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारी होती थी.
कौशल्या की विशेषता मात्र राम की माँ होना ही नहीं है, अपितु कौशल्या की विशेषता वह स्नेह है, जिसकी डोर में बंधे हुए भरत उनसे क्षमायाचना करने के लिए आ जाते हैं. कौशल्या को रामचरित मानस में शप्तरूपा का अवतार भी कहा गया है.
जब वह अपने पुत्र को वनवास जाने की अनुमति देते हुए उनकी रक्षा की बात कर रही हैं, तो हमें ऐसी स्त्री के दर्शन होते हैं, जिसके पास ज्ञान का भण्डार है. उन्हें पता है कि वन में क्या क्या हो सकता है, कौन कौन से हिंसक जीव होंगे एवं योग आदि के माध्यम से वह मानसिक शान्ति की भी बात करती हैं. अत: यह भी कहा जा सकता है कि वह एक शिक्षित स्त्री थीं, जिनके पास इतिहास का भी ज्ञान है. कौशल्या को वृत्तासुर एवं इंद्र के मध्य हुए युद्ध का ज्ञान है, अमृत मंथन का ज्ञान है.
कौशल्या प्रतीक है प्रेम का, स्नेह का, एवं संयम का!  

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

विवाह मन्त्र रचने वाली सूर्या सावित्री




“विवाह एक नियत आयु पर ही किया जाना चाहिए एवं वधु को एक विशेष वाहन में ही पतिगृह लेकर जाना चाहिए.” सूर्या सावित्री ने ऋग्वेद में लिखा है. ऋग्वेद के दसवें मंडल में 85वें सूक्त में 47 मन्त्रों की रचना सूर्या सावित्री नामक स्त्री ने की थी.

यह कहा गया कि स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार नहीं है और उसका जीवन मात्र विवाह उपरान्त घर की देहरी ही है. जब यह कहा जा रहा था तब विडंबना यह है कि विवाह में उन्हीं मन्त्रों को पढ़ा जा रहा था जिनकी रचना एक स्त्री ने की थी एवं वह भी विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ में की थी.

क्या यह विरोधाभास था कि जब स्त्री को बार बार यह कहा जा रहा था कि जो कुछ उसके श्वसुर गृह में उसके साथ हो उसे हर मान अपमान से परे होकर सहना है, उसी विवाह में जो मन्त्र थे वह कुछ और कह रहे थे. मन्त्र कह रहे थे कि वधु का सम्मान ही विवाह का प्रथम नियम है.
उसे पतिगृह की स्वामिनी बताया जा रहा था. सूर्या सावित्री लिखती हैं:

सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवाम् भव
ननान्दरि सम्राज्ञी भाव सम्राज्ञी अधि देवृषु.  (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र 46)

अर्थात वह अपने श्वसुर गृह की साम्राज्ञी बने, अपनी सास की साम्राज्ञी बने, वह अपनी नन्द पर राज करे एवं अपने देवरों पर राज करे.

सूर्या सावित्री ने तब उन मन्त्रों की रचना की जब विश्व की कई परम्पराएं देह एवं विवाह के मध्य संबंधों को ठीक से समझ ही रही होंगी.

इन मन्त्रों में सहजीवन के सहज सिद्धांत हैं जो अर्धनारीश्वर की अवधारणा को और पुष्ट करते हैं. मन्त्र संख्या 43 में संतान की कामना के साथ ही एक साथ वृद्ध होने की इच्छा है.

आ नः प्रजां जन्यातु प्रजापति राज्ररसाय सम्नक्त्वर्यमा
अदुर्मंगलीः पतिलोकमा विशु शं नो भव द्विपदे शम् चतुष्पदे . (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र 43)

अर्थात पति पत्नी द्वारा प्रजापति से मात्र अच्छी संतान की कामना ही नहीं है अपितु वृद्ध होने पर अर्यमा से रक्षा की भी प्रार्थना है, इसके साथ ही हर पशु के कल्याण की भी कामना है.

सूर्या सावित्री बाद में प्रचलित अबला स्त्री एवं त्यागमयी स्त्री की छवि से उलट यह कहती हैं कि स्त्री अपने पति के साथ अपनी संतानों के साथ अपने भवन में आमोद प्रमोद से रहे.

हज़ारों वर्ष पूर्व जब ऋग्वेद की रचना हुई तो स्त्रियों का योगदान हर स्वरुप में महत्वपूर्ण रहा था.  सूर्या सावित्री ने जब विवाह मन्त्रों की रचना की होगी तो उन्हें भी यह भान नहीं रहा होगा कि कालान्तर में कुरीतियों के चलते उन्हीं स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं प्रदान किया जाएगा जिसने इनकी रचना की है. वह भी मन ही मन दुखी होती होंगी एवं व्यंग्य में परिहास करती होंगी कि देखो मनुष्यों को, स्त्रियों पर प्रतिबन्ध भी लगा रहा है एवं एक स्त्री को वह स्वयं के जीवन में एक स्त्री के मन्त्रों द्वारा ही प्रवेश करा रहा है.

हज़ारों वर्षों से विवाह का अभिन्न अंग बने यह मन्त्र विवाह संस्था के उस रूप को जन्म दे चुके हैं, जो हज़ारों वर्षों इस देश में ही नहीं बल्कि जहाँ जहाँ हिन्दू धर्म है वहां पर अव्याहत और बिना विकृत हुए अनवरत चली आ रही है.

सूर्या सावित्री ने स्त्रियों के लिए विवाह के जब मन्त्र लिखे तो यह कामना की कि नव विवाहित दंपत्ति के जीवन की सभी बाधाएं एवं सभी शत्रु उनके जीवन से भाग जाएं, वहीं वह कालान्तर में आने वाली उन बाधाओं को नहीं रोक सकीं, जो स्त्रियों की शिक्षा में आईं.  परन्तु सूर्या सावित्री को इस भूमि की स्त्री की चेतना पर विश्वास था, और समय के साथ स्त्रियों की चेतना ने उन्हें निराश नहीं किया है.  जिस प्रकार उन्होंने स्त्री का विवाह के उपरान्त पथ सुगम करने की कामना की थी, उसी प्रकार चेतना का मार्ग भी सुगम हुआ. काल ने हँसते हुए कहा “जहाँ पर विवाह संस्था के मन्त्र ही एक स्त्री ने रचे, क्या वहां पर स्त्री का इतिहास नहीं होगा? जब तक विवाह रहेगा, मन्त्र रहेंगे, स्त्री रहेगी!”

जब किसी ने कहा कि स्त्रियों का इतिहास नहीं होता, तो इतिहास ही नहीं वेदों के झरोखों से झांककर सूर्या सावित्री मुस्कराती हैं और मन्त्र बुदबुदाती हैं

समंजन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ
सं मातरिश्वा सं धाता सं देष्ट्री दधातु नौ . (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र 47)




सुलभा नारायणी


“राजन स्व कोई पुरुष या स्त्री नहीं होता. आपको विमर्श में स्त्री और पुरुष नहीं लाना चाहिए.”

धर्मध्वज राजा जनक यह सुनकर स्तब्ध थे. मिथिलानरेश जनक एक स्त्री की बात सुनकर गहन आश्चर्य में डूब गए थे. मिथिलानरेश जनक के विषय में प्रसिद्ध था कि उन्होंने वेदों में, मोक्षशस्त्र में तथा दंडनीति में दक्षता प्राप्त की थी. वह इन्द्रियों को एकाग्र करके इस धरा पर शासन करते थे. वह नरेश्वर के नाम से प्रसिद्ध थे एवं समस्त जगत के पुरुष उन दिनों उन्हीं के जैसा होने का स्वप्न देखा करते थे.  

“परन्तु उन्हें यह बोध किसने कराया?” मिथिला नरेश के विषय में सुविचार सुनने के उपरान्त पांडव श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने कुरुकुल राजर्षिशिरोमणि भीष्म से पूछा.

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, एवं अब पांडव मोक्ष के प्रति ज्ञान प्राप्त करने के लिए भीष्म के पास ज्ञान प्राप्त करने आ रहे थे. इसी क्रम में जब युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा कि मोक्ष तत्व को गृहस्थ आश्रम का त्याग किए बिना किस पुरुष ने प्राप्त किया है.
भीष्म ने युधिष्ठिर की जिज्ञासा का समाधान करते हुए मिथिलानरेश जनक के विषय में बताया. परन्तु मिथिलानरेश की इस प्रसिद्धि की परीक्षा करने का निश्चय किया सुलभा ने.
“सुलभा? यह तो स्त्री प्रतीत होती हैं?” युधिष्ठिर ने प्रश्न किया
“हाँ, पुत्र! वह युग योग का युग था. सुलभा एक सन्यासिनी थी. वह योग धर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेले ही इस पृथ्वी पर ज्ञान हेतु विचरण करती थी. उसने विवाह नहीं किया था. जनक संग विमर्श में उसने स्वीकार किया कि उसे स्वयं के योग्य इस धरा पर कोई नहीं मिला, इसलिए उसने अविवाहित रहकर ही ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया.”
“फिर क्या हुआ? अंतत: ऋषिका श्रेष्ठ सुलभा ने किस प्रकार नरेश्वर को पराजित किया?”
“प्रश्न जय एवं पराजय से कहीं अधिक है युधिष्ठिर! शास्त्रार्थ में जय या पराजय से महत्वपूर्ण होता है तथ्यों को स्थापित करना.”
भीष्म ने पुन: कथा सुनानी आरम्भ की कि किस प्रकार जनक की परीक्षा लेने जब सुलभा एक रमणीय रूप में पहुँची तो जनक ने पहले तो उनका स्वागत किया एवं उनका अभिप्राय जानने के उपरान्त उन पर न केवल प्रश्न किए अपितु उनपर दोषारोपण भी किया. सुलभा के समक्ष जनक ने मोक्ष धर्म का वर्णन किया एवं कहा कि सुकुमारता, सौन्दर्य, मनोहर शरीर तथा यौवनावस्था सभी योग के विरुद्ध हैं, फिर भी मैं चकित हूँ कि अपमे इन सब गुणों के साथ योग एवं नियम भी उपस्थित हैं, फिर यह कैसे संभव हुआ?  आपने मेरे शरीर पर बलात अधिकार जमाया है और आप मेरी परीक्षा ले रही हैं, मैं क्या जानूं कि आप यह किसके इशारे पर कर रही हैं?”
सुलभा ने स्वयं पर सभी दोषारोपणों को अत्यंत धैर्य से सुना और फिर ज्ञानी जनक को उत्तर दिए.

भीष्म ने कहा हे युधिष्ठिर यह ज्ञानियों का प्रथम लक्षण होता है कि वह स्वयं पर आरोपित होने वाले सभी दोषों को धैर्य पूर्वक सुने, क्योंकि यदि आप में सुनने का साहस नहीं होता तो आप उत्तर कैसे देंगे? आप अपने तर्क कैसे तैयार करेंगे? सुलभा एक ज्ञानी स्त्री थी. उसे यह ज्ञात था कि किस प्रकार इनका उत्तर करना है. एवं उसने फिर जनक को अत्यंत ही मधुर शब्दों में उत्तर देना आरम्भ किया.
सुलभा ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कि वह कौन है कहा कि जिस प्रकार लाख और धूल के साथ पानी की बूँदें मिलकर एक हो जाती हैं तो उसी प्रकार जगत में प्राणियों का जन्म भी कई तत्वों के मेल से ही होता है.  यह कहकर ये युधिष्ठिर सुलभा ने जनक के उस अपरिपक्व प्रश्न का उत्तर दिया कि वह कौन है. सुलभा ने इन्द्रियों एवं चेतना की प्रकृति के विषय में जनक को उत्तर दिए.  उसने कहा कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ आत्मा से पृथक तो हैं परन्तु काष्ठ में सम्मिलित लाख के जैसे आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं. इनमें चेतना नहीं है. इसके साथ अहंकार के विषय में भी सुलभा ने बताया,
अंत में सुलभा ने जनक के समक्ष यह स्थापित किया कि मोक्ष क्या है एवं मोक्ष प्राप्त करने का अहंकार क्या है? वह कहती हैं कि हे राजन जिस प्रकार आत्मा को इससे मुक्त होना चाहिए कि यह वस्तु मेरी या नहीं, उसी प्रकार आत्मा को इससे भी मुक्त होना चाहिए कि तुम कौन हो और कहाँ से आई हो. आपके लिए इतना पर्याप्त होना चाहिए कि आपको प्रश्नों के उत्तर देने हैं.”
भीष्म युधिष्ठिर को मोक्ष के प्रश्नों के माध्यम से एक स्त्री की कहानी भी सुना रहे थे जिसने उस समय के सबसे महान राजा को शास्त्रार्थ में पराजित किया था. परन्तु जिस प्रकार भीष्म ने कहा कि शास्त्रार्थ में जय या पराजय नहीं तथ्यों की स्थापना महत्वपूर्ण होती है, यही इतिहास कहता है कि स्त्री ज्ञानी थी, स्वतंत्र थी, चेतन थी.
सुलभा ने जो कहा वह ग्रन्थों के पन्नों में है, परन्तु क्या यह हमारी स्मृति में भी है?



नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...