आज तो बड़ी नामालूम सी
हरकतें करने लगी थी वह। जैसे ही वह उसके सामने पहुँची, उसकी बातों सा सिरा एकदम से
उस पर थी ठहर गया। हां, ठीक है, वह तो अनमना सा था ही पर वह क्यों अनमनी सी हो गयी।
परिचय की चादर हलके से उतरी तो पर कहीं
अटकी सी कहीं पर थी। वह चाह रहा था कि परिचय की चादर उतर तो जाए, पर इतनी भी नहीं
कि कोई अनछुआ सिरा आज उसकी पकड़ में आए। वह
परत कहीं तो किसी कोने में एकदम हल्की हो जाती थी तो कहीं किसी कोने में जाकर गहरी।
वह आखिर में उस परत में कुछ छिपाना चाहता था? या वह खुद ही छिपना चाहती थी। दोनों
ने ही परिचय की पहली सीढ़ी पार की। पर दूसरी सीढ़ी पर चढ़ने के लिए दोनों ही अभी
तैयार नहीं थे। दोनों की ही इच्छाएं नाचने के लिए तैयार थीं, पर एक दूसरे की देह
पर नाचने के लिए वे अभी एक दूसरे को समय देने के लिए तैयार थे। ये समय का कैसा
चक्रव्यूह था जिसमें वे फँस रहे थे। वह आज जैसे मत्स्यगंधा बन गयी थी, दोनों ही अपने
अपने भावों से घिरे हुए थे, वे तब चौंके, जब उसने मुंह से बुदबुदाया “आज तो जैसे
दिन बहुत ही लंबा हो गया है”
उसने
खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा “क्या सच में”
वह
बोली “हां मयंक, आज तो मन नहीं हो रहा बाहर जाने का”
“तो
किसने कहा”
“रुक
जाऊं?”
“हां
तो?”
“पर
क्या करूंगी रुक कर?”
“घर
जाकर ही क्या करोगी?”
उसके
बालों से खेलती हुई वह बोली “हां, यार करना तो कुछ नहीं है, फिर एसी भी गया है
मरम्मत के लिए, जरा और चिल्ड करो न कमरा?, बहुत गर्मी है”
“ठीक
है, कितना कर दूं?”
“18
पे सेट करो न”
“18!!!!”
“ऐसे
क्यों चीख रहे हो, मुझे अन्दर से गर्मी लग रही है, ऐसा लग रहा है, भयंकर प्यास है,
जिसे मैं बुझा लूँ!”
“ऐसा
क्या हुआ है?”
“तुम्हें
नहीं पता!”
“नहीं,
एशट्रे में डालो यार, ये राख, मुझे गन्दगी पसंद नहीं अपने कारपेट पे”
“ओह,
भूल गयी, तुम्हें दूं?”
“हां,
अपनी ही बची हुई दे दो?”
“जाओ,
तुम भी, चलो न छल्ले बनाते हैं, देखते हैं, कौन किसका बनाता है?”
“हां
मेरा तो मेरे सपनों का होगा”
“हा
हा, और मेरा?” वह जैसे अपने से ही बोली!
“तुम्हारा
होगा, तुम्हारा होगा, शायद उन्हीं भूतहा इच्छाओं का, जो तुम्हें अन्दर से डराती
हैं?”
“हां,
और फिर वे तुम्हारे रूप में बदल जाती हैं”
“हां
डियर, ये परिचय की पहली सीढ़ी है, जिसमें तुम्हारी भूतहा इच्छाएं, मुझमें बदल जाती
हैं, हा हा हा”
और
दोनों के ही ठहाके, उस अट्ठारह डिग्री की गर्माहट में खो गए।
“सुनो,
शाम हो चली है, घर जाऊं या न जाऊँ”
“तुम्हारी
मर्जी, वैसे तुम्हारा कमरा खाली ही पड़ा है, चाहो तो उसमें ही रह लो”
“हां
यार रह तो लूँ, पर माँ, चलो डिनर के बाद ही जाऊंगी”
“एज
यू विश! डियर,”
“पर
तुमने मेरा कमरा अभी से क्यों तैयार कराकर रखा हुआ है, जैसे मैं आ ही जाऊंगी” नैना
ने अपनी आँखों के कठपुतली को घुमाकर पूछा
“बस
ऐसे ही, सोचा तुम्हें जानते जानते, तुम्हारे कमरे से को भी जान लूं, तुम्हारे
अंधेरों और उजालों को भी जान लूँ!, तुम्हारे कमरे में जब रंग कराए तो मुझे लगा
तुम्हारी भूतहा इच्छाएं हैं, तो देखो ब्राउन शेड कराया!”
“अच्छा,
ये फिर घंटियाँ क्यों टांग रखी हैं”
“ओह,
ये! ये तो बस तुम्हें याद दिलाने के लिए कि जब मैं तुम्हारे कमरे में पैर रखूंगा,
तो तुम्हारे दिल के दरवाजे भी ऐसे ही बजेंगे, हलके हलके, रुनझुन रुनझुन!”
“ओह
मयंक, सो स्वीट!”
“हां
नैना”
ऐसा
लगा जैसे नैना का काजल और भी गहरा होने लगा, और उसकी रेवलोन की लिपस्टिक का रंग
मयंक के होंठों में समा गया। शायद परिचय की दूसरी सीढ़ी पे पहला कदम रखा जा रहा था।
रंगों
के परस्पर विनिमय के बाद, वह एक दूसरे के पास फिर से आ कर बैठ गए
“सुनो,
तुम कुछ कह रही थी न!”
“मैं,
नहीं तो”
“हां,
यही कि तुम्हें आज इतनी गर्मी क्यों लग रही थी”
“ओह,
वो”
“हां,
वही”
“बस
ऐसे ही”
“नहीं
तुम, जरूर कुछ छिपा रही हो”
“नहीं,
बस ऐसे ही लगा सूरज की तपिश जला देगी मुझे”
“अरे,
ऐसा क्या हुआ, ऑफिस गयी थी तुम?”
“हां,
रजनीश आया था, मेरे पास”
“हां
तो, तुम्हारा बॉस है”
“हां,
पर बॉस के नाते नहीं”
“तो?”
“कुछ
मांगने आया था”
“क्या”
“उफ
कैसे बताऊँ?”
“अरे
बताओ न!”
“वह,
वह, वह”
“अरे
यार हकलाओ नहीं, तुमसे तुम्हारे शरीर के साथ इन्ज्योमेंट चाह रहा होगा! यही न!”
“हां,
पर तुम्हें कैसे पता चला”
“मुझसे
उस दिन उसने डिस्कस किया था”
“हैं,
और तुमने मुझे नहीं बताया”
“क्या
बताता?, कि वह तुम्हारे साथ सोना चाहता है!, यार गिव हिम व्हाट ही वांट्स?”
“अरे,
ये तुम कह रहे हो”
“हाँ!”
“और
तुम!” नैना की आंखों में परिचय का जो प्रवेश अभी हुआ था, वह कहीं चला गया! कैसा था
मयंक! शायद तभी दोनों ही परिचय की दूसरी सीढ़ी पर अटके हुए पड़े थे।
“अरे
यार, कौन सा वह तुम्हारे साथ ज़िन्दगी भर चाहता है, उसकी बीवी है, बच्चे हैं क्यों
जाएगा तुम्हारे पास, कह रहा था मुझसे, कि उसे बस तुम्हारे साथ कुछ पलों का साथ
चाहिए। तुम्हें भी वह अच्छा लगता है, सच कहना अगर मैं तुम्हारी ज़िन्दगी में नहीं
होता तो कम से कम तुम उसके साथ कुछ पल तो बिता ही सकती थी?”
“हां
यार, पर वह तब जब तुम मेरे साथ नहीं होते?” नैना ने जबाव दिया, उलझा सा। कहीं दूर
से उसे अपनी आवाज़ आती हुई सुनाई दी। वह चाह रही थी कि वह अपनी ही आवाज़ की दूरी
मापे, पर ऐसा कुछ हो नहीं पाया। वह कहीं दुबकी ही रह गयी।
“देखो,
मैं तुम्हारे साथ जीवन भर का साथ, और वह कुछ पलों का, सोच लो, ऑफर बुरा नहीं है!”
“ओह,
अब रिलेशन में भी ऑफर मिलते हैं,” वह हंसी
“और
मुझे जब कोई ऐतराज नहीं, तो तुम्हें क्या?, अब तुम्हारी देह तो मेरी ही है न। इस
पर अधिकार तो है न”
“अरे,
ये कब हुआ, अगर अधिकार ही देना होता तो शायद मैं कन्यादान के माध्यम से खुद का
अधिकार किसी को सौंप चुकी होती, पर मैंने ऐसा नहीं किया, तो तुम्हें लगता है क्या
ऐसा”
उसे
ऐसा लगा परिचय की सीढ़ी चढ़ते हुए वह फिर ठिठक गयी। उसे लगा ऐसा तो नहीं कि कमरा
बनवाने में वह जल्दी कर रही है, अभी कमरे में रंग भी नहीं हुआ है, और वह इतना
अधिकार! क्या बिना अधिकार के समर्पण की कोई परिभाषा नहीं है। उसे सम्मान सहित केवल
समर्पण चाहिए, उसे ये मीडिवल एज वाला अधिकार वाला समर्पण नहीं चाहिए, तो क्या यह
भी वही पुरुष ही साबित होगा या फिर कुछ अलग होगा। हालांकि अभी देह का किला फतह
नहीं हुआ है, अभी तो शायद किले का पहला दरवाजा ही खुला था, फतह करने के लिए तो अभी
घुड़सवार को कई मापदंडों पर खरा उतरना है, तो क्या यह अधिकार वाले मापदंड पर फेल हो
जाएगा?
“सुनो,
कॉफी पीनी है?, बट शुगर फ्री दूंगा” उसने उसे जगाते हुए कहा,
“नहीं
यार चीनी” वह जैसे नींद से जागी।
“कमऑन
यार, डोंट बिहेव लाइक द यूपी एंड बिहार वाला टाइप!”
“मीन्स”
“ओह,
डोंट बी ओर्थो यार”
यू
मीन ऑर्थोडॉक्स!”
“हां”
“देखो
मयंक, रिश्तों और देह को लेकर मेरे विचार तुम जानते ही हो, ये सच है कि मैं अभी
तुम्हारे साथ ही इतनी सहज नहीं हो पाई कि, खुद को पूरी तरह सौंप दूं! अभी भी बहुत
कुछ अनदेखा है, मैं चाहती हूँ कि जब तुम्हें मैं समर्पण करूँ तो कहीं का कोई भी
कोना ऐसा न हो जो तुम्हें पता न हो, और मेरा दिल और देह दोनों ही तुम्हें खुद में
समेटने के लिए पूरी तरह तैयार हों”
“अरे,
मेरी बात अलग है डार्लिंग, मैं कौन सा भगा जा रहा हूँ, तुम्हें जानने के लिए कमरा
भी खुद खड़े होकर तैयार करा रहा हूँ और जब तक परिचय का वह चरण नहीं आ जाता जब तुम
मुझे खुद बुलाओ, तब तक मैं नहीं आऊँगा, सच में, तुम्हारे किसी भी अंग को तब तक
नहीं छुऊँगा, जब तक वह तैयार न हों”
“सुनो,खिड़की
खोलो न”
“अरे
कैसे तुम्हारा अट्ठारह डिग्री का तापमान आग के गोले में बदल जाएगा, फिर बैठी रहना
तुम?”
“सुनो,
कॉफी पीकर मैं निकलूँगी?”
“अरे,
कहाँ”
“घर!”
“सुनो,
रुको न! न जाओ, यार अभी तो मजा आने लगा है”
“नहीं
बहुत धुंआ सा लग रहा है?”
“रुको,
तुम्हारे कमरेमें बैठते हैं, तब तक ये धुंआ भी निकल जाएगा, मना करता हूँ, मेरी
बुरी आदतें न अपनाओ!”
“हा
हा, नहीं, वह कमरा पूरा बन जाने दो, फिर चलेंगे, अधूरे की क्या बात करना?” जैसे
भीगो भी तो आधे अधूरे, मन प्यासा रह जाए और शरीर भीग जाए, बन जाए फिर चलेंगे”
“ओके,
फिर लिविंग रूम में बैठें”
“यार
ये कौन सा डेथ रूम है”
“हा
हा डेथ रूम! पर यहाँ पर कोई तो है जो तुम्हारे लिए कुछ न कुछ तो डेड बना रहा है”
हैं,
सच में”
“हां
यार! जरा सोचो, अब सही है, और सुनाओ लीना से बात हुई?”
“नहीं,
यार वह मेरी बात सुनती नहीं, अब जब से उसके मन में तुम्हें लेकर फाँस चुभी है, वह
निकली नहीं है!”
“कैसे
निकलेगी, और निकलेगी भी तो तुम नहीं निकलने दोगे! है न!”
“नहीं
यार, मेरे जीवन में कभी ऐसा कुछ हुआ नहीं जो मैंने उससे छिपाया हो, उसे मैंने शादी
से पहले ही बता दिया था कि अपने जीवन का कुछ कतरा मैं उसके साथ कभी नहीं शेयर
करूँगा, शुरू में तो उसे ये बहुत
क्रांतिकारी लगा, कि वह एक सीधी सादी औरत एक क्रांतिकारी से शादी कर रही है, पर दो
साल बाद, दो साल बाद वह क्रान्ति इस हद तक असफल होगी, ये नहीं पता था। मैं उससे
बहुत प्यार करता हूँ, पर यार, उसे प्यार करना अलग है और उसके पहलू में बंधे रहना,
यह एकदम अलग”
“हां,
यार, ये तो तुम ठीक कह रहे हो”
“चलो
कॉफी पियो, चियर्स यार”
“अरे
सुनो!” वह चौंकी, जैसे उसे कुछ याद आया “सुनो, खुद पर तो अधिकार तुम्हें पसंद
नहीं, और मुझपर, मुझपर और मेरी देह पर इतना साधिकार बात कैसे कर सकते हो?”
“मैंने,
कब अधिकार किया?, या कहा?”
“तो,
कहा तो था, कि जब तुम्हें प्रोब्लम नहीं, तो मुझे क्यों?, यार जब लगेगा कि रजनीश
मुझे कहीं अंदर तक छू रहा है, तो मैं खुद ही अपनी देह लेकर सामने चली जाऊंगी, पर
केवल इसलिए वह मेरा बॉस है और शायद वह मुझे प्रमोशन दे दे, मैं खुद को उसे परोस
दूं, ओह कमऑन, आई डोंट लाइक कामर्शियलाइजेशन ऑफ रिलेशंस, अगर मुझे लगता कि उसके
साथ अपने जीवन का एक क्षण भी शेयर किया जा सकता है तो यकीन मानो, मैं किसी से भी न
पूछती, मैं रिलेशन में किसी और के लिए नहीं, केवल अपने ही लिए जबावदेह हूँ, समझे,”
“हाँ
यार, पर यकीन मानना, मैंने किसी अधिकार के चलते कुछ नहीं कहा, मैं किसी भी तरह से
तुम पर अधिकार नहीं जता सकता, यार आई डोंट पजेज़ यू”
“ओह,
डियर, आई एम नॉट योर प्रोपर्टी और एसेट्स, यू कैन नेवर पजेज़ मी”
“हां,
प्रोपर्टी तो शायद लीना ही है, लीना? हां वह तो असेट है मेरी? सही इज माई पजेशन”
“हां
यार, वही है तुम्हारा पजेशन, मैं एक समानांतर रेखा हूँ, और उसके अलावा कुछ नहीं,
ये जो कमरा है वह भी केवल तुम्हारी ज़िद है, मैं अभी किसी भी बंधन में नहीं बंधना
चाहती और वह भी उससे जो पहले से ही बंधा है”
“हैं,
कौन बंधा है? मैं” मयंक जैसे चौंका, “हां यार लीना से बंधा तो हुआ हूँ ही, महीने
की तनख्वाह का उसे हिसाब देना, कितना आया, कितना खर्चा हुआ, पर नहीं खर्च होता है
जो, वो हैं लम्हें और प्यार, ये साला दोनों ही बदतमीज़ हैं, बच जाते हैं। और जब बच
जाते हैं, तो मैं इनका लीना को क्या हिसाब दूं, यहाँ चला आता हूँ, इस तीन कमरे में
जैसे एक समानांतर संसार बसा कर रखा हुआ है, वैसे सच कहूं तो इन्वेस्टमेंट के लिए
खरीदा हुआ ये फ्लैट इतना फायदा देगा, और ये वाला फायदा देगा कि तुम जैसी किसी के
साथ एक समानांतर ज़िन्दगी जी सकूं, ये पता नहीं था”
“हम्म,
यार घर जाती हूँ”
“सुनो,
आज न जाओ, सुबह चली जाना, अच्छा फोन करके पूछ लो कि एसी ठीक हुआ या नहीं, फिर चली
जाना, पर रुक जाओ न”
न
जाने क्यों एक बच्चे जैसा अबोधपन उसके चेहरे पर आ गया। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद
चोकलेट और कैंडी देखकर मचल जाता है वैसे ही मयंक शायद नैना के काजल के लिए मचल रहा
था। आँखों का काजल तो बिखेरने का हक था ही उसे, हां बाकी देह के लिए उसे अभी काफी
सफर तय करना था।
“देखती
हूँ, न जाने क्यों मैं तुम्हें इग्नोर नहीं कर पाती? आखिर मैं तुम्हें मना क्यों
नहीं करपाती? या मैं चाहती ही नहीं?”
“मुझे
क्या पता, चलो जाओ, पनीर और चिकन टिक्का बनाते हैं, पनीर तुम्हारे लिए और चिकन
मेरे लिए, तब तक तुम फोन कर दो! ओके”
“हां,
चलो तुम बनाओ, मैं फोन करके और फ्रेश होकर आई”
“चलो
डियर”
मंयक
के जाते ही नैना फिर से उसी सोच में पड़ गयी जिसमें वह अभी थोड़ी देर पहले थी।
हालांकि उसके रिश्ते से एग्जिट करने का रास्ता खुला था और उसने यह अधिकार अपने पास
रखा हुआ था, कि जब भी उसे जाना हो वह जा सके। और कमरा एकदम खाली कर सके। ये इन दोनों का रिश्ता सूरज की तरह चमकीला न
होकर जुगनू की तरह था जो हल्की हल्की रोशनी में एक दूसरे को ठंडक देते हैं, एक साथ
चलकर भी ऐसी रोशनी नहीं करते कि दूसरा जल ही जाए या चकाचौंध ही हो जाए उसकी नज़र।
पर फिर भी आज उसकी बातों से उसे दुःख हुआ है, वह सोच रही हैं रात को रुके या नहीं,
आज उसे उसकी बात से लगा जैसे उसकी औरत होने की सीमाओं पर उसने तंज कसा था। क्या वह
किसी भी रिश्ते में जाए, उसकी देह पर अधिकार किसी पुरुष का ही होगा? ऐसा तो उसने
कभी अपने भाई के लिए भी नहीं सोचा था। पिता तो बेचारे खूब कहते कि “लड़की शरीर की
हिफाज़त कर” उसे हिफाज़त और आज़ादी में अंतर पता था तो बहुत ही आसानी से वह उनकी
बातों को टाल देती।माँ तो हमेशा शरीर के आधार पर ही उसे टोकती, और परिवार में अपनी
जगह अपने ही प्रतिरूप पर नित नए प्रतिबन्ध लगाकर बनाने की कोशिश करती। वह थोड़ा समझ
नहीं पाती, पर विद्रोह करती रहती। ओह, क्या क्या सोचने लगी, और उधर मयंक का नैना
नैना करते हुए बुरा हाल हो रहा था। ये परिचय भी कितना अजीब होता है? कहीं देह को
जोड़ता तो कहीं तोड़ता है। माँ को हमेशा देह के आधार पर आहार बनकर टूटते हुए ही देखा।
तब से देह के रिश्तों से जो विरक्ति हुई, वह अभी तक कायम है, पता नहीं वह अपने
तटबंधों को कब तोड़कर आगे बढ़ेगी? उसे भी नहीं पता था। विरक्ति से आसक्ति का ये सफर
कितना लम्बा होगा उसे भी शायद ये पता न था। उसे बहना भी था, पर बहकर वह कहाँ
जाएगी, और बहने का परिणाम क्या होगा, इससे उसे भय लगता था। माँ, नदी होकर भी बह
नहीं पाई, जिसमें समाई, वह उसका सागर नहीं निकला। जो सागर था उसमें समा नहीं सकी,
वह अपनी माँ का यह राज़ जानती थी, और तभी शायद उसकी माँ भी उसे विवश नहीं कर रही
थी, कि वह शादी करे। पर, ये सफर कहाँ तक चल सका है, माँ ने मयंक को लेकर बस इतना
कहा, तुम समझदार हो, भला बुरा अपने आप सोच सकती हो, देखना, परखना, प्यार भी करना
पर बुतपरस्ती करने के बाद उसे खुदा मानने का गुनाह न करना। जाने क्या सोचने लगी,
उसने रात को ना आने का मेसेज माँ को भेजा और मयंक के पास आ गयी, जहां पर वह पनीर
टिक्के के साथ उसका इंतज़ार कर रहा था। इधर माँ का भी मेसेज आ गया “टेक केयर, यू नो
व्हाट इज टू बी डन!, बी सेफ ऑल्सो” उसने रिप्लाई बैक किया “ओह, माँ, नहीं नहीं ऐसा
कुछ नहीं, अभी विल नॉट क्रोस द लिमिट”। उधर से माँ की ओर से स्माइली आया। उफ, माँ
हमेशा कहती परिचय पहले मन से करो, देह से मन का सफर नहीं मन से देह का सफर तय करो।
और वह,
“ओ
मैडम, अगर स्माइली देखकर मन भर गया हो तो खा भी लो, अभी अभी ताजा है”
“हा
हा, नहीं ऐसा नहीं, तुम खाओ, चटनी नहीं बनाई?”
“वाह,
ये तो तुम्हारे लिए कर रहा हूँ, लीना तो वेज होते हुए भी मेरे लिए चिकन टिक्का
बनाती है, और चटनी भी!”
“वो
इसलिए क्योंकि वह तुम्हारे साथ ब्याह कर आई है!, बंधन है तुम लोगों का, मैं
तुम्हारे साथ बंधन में नहीं, तो तुम मुझे भी यही कहते, हा हा, खाओ डियर”
“देखो,
लीना के साथ मैं कभी अन्याय करते हुए दिख जाता हूँ, पर मैं क्या करूँ? मैं एक तक
सीमित नहीं रह सकता, और यार ये बात तुमसे भी है”
“वाह,
अभी तो कह रहे थे तुम मेरे लिए जीवन भर के लिए हो?”
“हां,
मैंने कहा कि मैं तुम्हारे लिए जीवन भर के लिए हूँ, पर मैं तो बंध कर नहीं रह सकता
न। और अब तो तुमने भी रिश्ते से जाने का अधिकार अपने पास रख लिया है, जो मैं भूल
गया था, तो मेरे वे शब्द अब वापस करो”
“हा
हा, सुनो, रात को मैं सोऊँगी कहाँ”
“हैं
सोना!”
“अरे
क्यों?”
“सोना
ही होता तो तुम्हें तुम्हारे घर जाने से मना क्यों करता?”
“हां,
चलो आज सुट्टा पार्टी करते हैं”
“बस
सुट्टा”
“हाँ
यार, आज मंगलवार है आज ड्रिंक नहीं और वो भी अकेले में तुम्हारे साथ, बिलकुल नहीं,
इस दुधारी तलवार पर कब अपने आप को काट बैठूं, पता नहीं। मयंक, ये जो देह के धागे
हैं, न बहुत उलझे हुए हैं। वह न जाने कब सुलझेंगे, मैं नहीं जानती पर नशे में मैं
ये धागे बिना सुलझाए किसी के साथ समय या शरीर बाँट लूं, उफ ऐसा पाप मैं कैसे
करूँ?” नैना का काजल उसके आंसुओं के साथ बहने को हुआ, मयंक ने कहा “काजल बह जाएगा”
“न,
वाटरप्रूफ है”
हा
हा हा दोनों ही हँसे।
मयंक
अपरिचय की उस दीवार को धीरे धीरे ही गिराना चाहता था, जो उसे और नैना को दूर करती
थी। वह भी नैना की ही तरह मन से देह की दूरी पाटने के समर्थन में था। वह नैना को
देह के उस भ्रमजाल से बाहर निकालना चाहता था जिसमें वह उलझी हुई थी, और वह आनंद के
तिलिस्म से दूर थी। वह देह की कामनाओं को और देह को पाप मानकर बैठी हुई थी, वह
केवल उसे पीड़ा का ही पर्याय और स्वामित्व की पूंजी मानती थी। वर्जनाओं और
मान्यताओं की गठरी में वह देह के आनन्द को छिपाए बैठी है, वह उसे उसी गठरी से
मुक्त करना चाहता है, पर बलात नहीं। उसमें सम्बन्धों को लेकर जो कांटें हैं, वह उन्हें
धीरे धीरे हटाना चाहता है। संभोग शायद इकलौता ऐसा भोग है जिसमें समभाव है, अर्थात
जिसमें दोनों ही इंजॉय करते हैं, और खुद को खोकर खुद को पाते हैं। पर क्या वह गाँठ
खोलने में सफल हो पाएगा? इसमें मयंक को शक है! मयंक खुद ही कभी कभी नैना के सामने
अपनी ही खोह में चला जाता है, उसे लीना को भी जबाव देना होता है। वह उसे इन्टीमेसी
और सेक्सुअल रिलेशन के अंतर को ही नहीं बता पाता और उसके साथ दैहिक परिचय होते हुए
भी मन से परिचय बाकी था और नैना से मन से परिचय हो चुका था पर देह से परिचय बाकी
था। ये खोहें भी कितनी अजीब होती हैं? कभी
कभी कितनी गहरी होती हुए भी उथली होती हैं और कभी कभी उथली होती हुए भी खाई के
जैसी गहरी हो जाती हैं। रात गहरा रही है, और सुट्टे यानि सिगरेट से उठने वाले धुंए
के छल्ले तरह के रूपों में ढलकर नया रूप ले रहे हैं। अट्टाहास हो रहा है,
“तुम्हारी भूतहा इच्छाएं, तुम्हारी दमित इच्छाएं............................ ।
“तुम्हारे
सपने, तुम्हारी लीना, तुम्हारी लीना की नाईट ड्रेस, अरे बाप रे बिस्तर पर वेट करती
हुई लीना..............................।”
ये
कहाँ जा रहे हैं, दोनों ही! नैना क्या वह
नदी बन पाएगी जो अपने सागर से मिलेगी? वह
देह के सम्बन्धों को हिंसा के आधार पर ही बनते हुए देखती हुई आई है, सागर में
मिलने के लिए क्या वाकई हिंसा से होकर
गुजरना होता है? उसे नहीं पता, वह अपने इन्हीं सवालों को धुंए में उड़ाती है और
खिलखिलाकर अपने हाथों से ही बिखेर देती है! पता नहीं वह देह को कौन से तिलिस्म में
बांधे हुए है? काजल और लिपस्टिक के रूपों को बदलने तक तो वह सम्बन्धों में निकटता
चाहती है, पर उससे अधिक में वह बंध जाती है, वह केवल अपने ही द्वारा बनाए प्रतिमानों
को खुद में समेटे रहेगी? वह इन सवालों को भी धुंए में उड़ा रही है, वह चाहती है
सवालों के जबाव, परिचय की चादर को अपनी देह से फ़ेंक देना चाहती है पर बचपन से ही
शरीर को भोग लगाते हुए ही देखा है, संभोग की परिभाषा नहीं जानी कभी? हमेशा मिलन के
क्षणों को जूठन की तरह ही मिलते हुए देखा माँ को, मिलन सुखद होता है, ये नहीं जाना
कभी! अब मयंक के साथ जैसे ही वह जानने की कोशिश करती है, अपने सामने खडी निवस्त्र
माँ उसे डराने लगती है, मयंक के होंठों से जैसे ही वह अपने विष को कम करने की
कोशिश करती है वैसे ही उसकी माँ के शरीर पर पड़े कुंठा के दाग उसकी आँखें खोल देते
हैं और मयंक का चेहरा उसे उतना ही अजनबी लगता है, जितना उस समय अपनी माँ का लगता
था। हाँ, माँ कर रही है कोशिश उसे इस भय से उबारने की। मयंक के साथ वह वाकई में
अपनी ज़िन्दगी का कडवापन दूर करना चाहती है, चाहे सुट्टा पीकर करना पड़े या उसके
होंठों का रस पीकर। पर वह देह की वीभत्सता से दूर होकर देह राग गाना चाहती है। चाहती
है दोनों का एक हो जाना, पर छोड़ देती है समय पर! इधर कहीं बाहर कोई धुंए के छल्लों
को एक होते देख रहा है,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, उसकी आकृतियों को एक होते देख
रहा है और देख रहा है धीरे धीरे अंधेरों का छाना, दोनों के बीच गुडनाईट किस का
आदान प्रदान।।
और
इधर अन्दर वह जा रही है लिविंग रूम में तकिया लेकर रात के दो बजे, मयंक ताना दे
रहा है “रहोगी तो तुम ब्लडी औरत ही, सोओगी एक कमरे में नहीं.......................
जबकि तुम्हें पता है नहीं छुऊँगा तुम्हें, पर ब्लडी औरत की परछाईं जब तक है तब तक
ये परिचय की चादर इतनी ही रहेगी, और छूकर भी अनछुआ सा रहेगा सबकुछ, पाकर भी अजनबी
रहेगा सब कुछ”
वह
भी हंसती हुई जा रही है “हां, यार आई एम बेसिकली ए ब्लडी औरत................................”
फिर
समवेत अट्टाहास, दोनों ही कमरों से लाइटें बंद हो रही हैं और धुंआ ही परिचय का
आधार दे रहा है, बेस बना रहा है...................................
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