वो कौन है? कोई भी तो नहीं
उसका? एक परिचित भी तो नहीं है? न ही कोई पहचान वाला है? जैसे जब बरसात का कोई
अतिरिक्त महीना होता है और बारिश होने लगती है झमाझम, तो वैसे ही वह है. वह उसके
जीवन का एक्स्ट्रा साल्ट है. न जाने क्या सोचती हुई जा रही थी. वह वाकई में एक्स्ट्रा साल्ट ही तो है तो वह उस
एक्स्ट्रा साल्ट से अपने जीवन में क्यों खुशियाँ बीन रही थी? अब वह रुक गयी.
मेट्रो का वह स्टेशन आ गया था जहां पर उसे अपने लिए मेट्रो पकडनी थी. रात के समय
टोकन खरीदना कठिन नहीं होता. पर चूंकि उसके पास कार्ड था तो कार्ड में ऑटोमेटिक
कीओस्क से पैसे डलवाकर वह सुरक्षा जांच से गुजरती हुई, मेट्रो स्टेशन में प्रवेश
कर गयी. एस्केलेटर से चढ़ते समय वह यही सोच रही थी कि कभी कभी कोई शायद इन्हीं
एस्केलेटर की तरह होता है. वह अपने आप ही आपके जीवन में प्रवेश कर जाता है. खूब
लगाए रहो, नैतिकता की छतरी. खूब गाते रहो भजन, खूब डूबे रहो जीवनसाथी के प्रेम
में. वह छप्प से आ तो जाता ही है. हा हा, वह भी न जाने क्या सोच रही है. वह भजन
गाती रही थी, वह भक्तिभाव में डूबी रही थी, पर वह क्यों हठी की तरह चला आया था? वह
पागल है! खैर जैसा भी है अब वह उसके जीवन का हिस्सा है. पर वह उसे वह अपने जीवन के
ऐसे हिस्से के रूप में देखती है जिसे जब चाहे डिटैच करके अलग कर रख दे. जैसे डिटैचेबल रेज़र आते हैं न वैसे ही. हाय रे, उसे मैंने रेज़र के साथ तौल दिया? पर
वह भी तो यही करता है. वह स्त्री सम्बन्धों को जैसे गढ़ता है. उसने शरीर से प्रेम
को अलग करके रखा हुआ है. किंगफिशर की बियर पीते पीते हम दोनों ही अपनी दोस्ती के
बारे में अनाप शनाप बोलते रहते हैं. लोग भी सोचते होंगे कि कितने अनैतिक और बेशर्म
लोग हैं. छि! पर ऐसे परवाह करते रहे तो
घूँघट के पीछे भी न जी पाएंगे. इस जीवन में हमें कोई न कोई तो चाहिए ही न,जिसके
संग हम आपने आकाश में रंग भर सकें. एक तरफा जीवन जीते हुए जैसे आकाश केवल एक ही
रंग का हो जाता है. हालांकि उसमे जीवन की शायद कोई कमी नहीं होती है. मेट्रो में
एक लडकी चेतन भगत का थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ पढ़ रही है. शायद उसे रस भी बहुत आ
रहा है. लडकी ने घुटने से ऊपर की स्कर्ट पहनी हुई है, काफी दुस्साहसी लग रही है
क्योंकि उसके बगल में बुर्का रखा हुआ है. उसके साथ ही उसकी शायद माँ है. मुझे ऐसी
दुस्साहसी लड़कियां पसंद हैं. मुझे अगर याद है तो मैंने शायद ही कभी किसी नियम का
पालन किया हो जब से सोच को विकसित किया. वैसे तो अपन ने भी मुट्ठी भर के सिन्दूर
से आसमान को सिंदूरी करना चाहा था. और हर रंग की चूड़ियों से अपने जीवन को रंगीन
किया था, पायलों की रुनझुन भी थी कभी अपने जीवन में. हां, अब ये सब जा चुकी हैं,
हैं सब पर एक आभूषण के रूप में. मुझे सुंदर लगना पसंद है. हा हा, ये मन कितना चंचल
है. कहाँ अपने मित्र के बारे में सोच रहा था तो अभी
इस विद्रोहिणी के बारे में
सोचने लगी. उसका स्टेशन आने वाला था, वह उठकर तत्परता से अपना बाहरी कवच बाँधने
लगी. ये सुरक्षा कवच है बाबू, जैसे उसने कहा हो. जहाँ पर उसका यह सुरक्षा कवच रखा
था वहां पर अब चेतन भगत झाँक रहा था. वाह कितना बढ़िया था. अभी मेरा स्टेशन आने में
देर थी तो अपन ने सोचा कुछ और देखने का, अब कुछ भी नहीं दिख रहा था, और मोबाइल बैठ
गया था तो नो फेसबुक, एंड ट्विटर. अब फेसबुक पर कुछ डालने के लिए किस्सागोई खोजनी
थी. और मेरा दिमाग उसी तलाश में था. सहसा मुझे आज उसके साथ किए गए अपने संवाद का
ध्यान आ गया. बात हो रही थी, नियोग की. नियोग, जिसमें परपुरुष से संपर्क के आधार
पर सन्तान पा सकते थे. क्या वाकई समाज इतना विकसित रहा होगा? हां रहा तो होगा ही?
कामसूत्र हमारी ही भूमि की देन है और खजुराहो के मंदिर भी तो चुगली करते हैं. मेरा
बहुत मन है वहां जाने का. देखती हूँ, कब जा पाती हूँ. खैर. बात हो रही थी नियोग
की. क्या हम नियोग के माध्यम से मनचाही सन्तान हासिल कर सकते हैं? महाभारत में
हमें नियोग का उल्लेख खूब मिलता है और नियोग के माध्यम से उत्पन्न संतानों को
प्रेम और आदर भी भरपूर था. पांडव भी पांडू के न होकर देव पुरुषों का परिणाम थे.
हाँ तो नियोग की चर्चा करते हुए, उसने मुझसे पूछा “अगर कभी हम मिले ऐसे तो तुम
बनोगी मेरे बच्चे की माँ”. पर सुनो नियोग तो नितांत अपरिचित व्यक्ति के साथ किया
जाता था, हां वह योग्य होता था और उसमें कोई न कोई दुर्लभ गुण होता था. पर मेरे
मित्र में केवल सच्चाई और रिश्तों में ईमानदारी के अलावा कुछ नहीं है. अरे ये क्या
हुआ, मैं चौंक कर उठी जैसे. नहीं नहीं मेरा स्टेशन नहीं आया था. अभी समय था. पर समय
का वह पल एकदम से ठहर गया था. और ठहरता भी क्यों न? उसका प्रश्न ही ऐसा कुछ था?
क्या मैं वाकई उसकी सन्तान को जन्म देना चाहती हूँ? मैंने ऐसा कुछ सोचा नहीं था,
शायद वह कम्युनिकेट कर रहा था अपनी बात को? या वह मेरी टोह ले रहा था. कुछ तो कर
ही रहा था? पर क्या? मुझे समझना पड़ेगा? मैं अभी
तक उस नज़रिए से उससे मिली नहीं थी. हम लोग तो बियर पीते हैं बैठ कर, स्कॉच
पीते हैं. हां सिगरेट मैं नहीं पीती, पर वह पीता है. तो हम लोगों की नियोग से
उत्पन्न संतान कैसी होगी? हा हा, मैं
सोचने लगी शायद वह दूध की जगह कुछ और ही मांगे! मेरे होंठों पर एक वितृष्णा की
मुस्कान आ गयी. पर क्या यह संभव होगा? क्यों नहीं होगा? मन के एक कोने ने जैसे
विद्रोह किया. मैंने पूछा क्यों होगा? उसने कहा “हो सकता है” मैंने कहा “यार नहीं
हो सकता” मैं कैसे किसी दूसरे के बच्चे को अपनी कोख में रखूँगी?” उसने जैसे उलाहना
दिया, मन और तन साझा कर सकती हो पर कोख में उसके अंश को ठहरा नहीं सकती? मैंने उसे
समझाया “देखो, वह अलग है, और कोख में अंश रखना एकदम अलग” उसने पूछा “कैसे” तुमने
अपना शरीर बाँट लिया उससे? तो फिर ऐसा क्या होगा कि तुम उसका अंश नहीं रख सकोगी
अपने अन्दर”
ओफ्हो, मैं अपने विद्रोही
मन को कैसे समझाऊँ? वह बिलकुल भी मान नहीं रहा है. वह पागल हो गया है. वह धीरे से
कहता है जैसे वह एक सुरक्षा कवच में रहकर अपने विद्रोह को बढ़ा रही है, तुम भी कर
सकती हो. मैंने कहा “यार कैसे, उसका विद्रोह अलग है, मेरा अलग”
मन ने फिर से जैसे मेरी
शर्ट को झटकते हुए कहा “कैसे हुआ अलग”
जैसे मैं घर पहुंचकर शर्ट
के बटन खोलकर खुद को आत्ममुग्धता से देखती हूँ, वैसे ही वह मुझे देख रहा है, और
मेरा मन पूछ रहा है “अरे, क्या हुआ?” मेरा तन नहीं, आज मेरा मन आत्ममुग्धता के चरण
में था, यह सोचकर कि मेरा मित्र मुझसे एक सन्तान चाहता है. हालांकि मैंने उससे
पुछा कि क्या उसका मन उसके जीवन में आने वाली हर स्त्री के साथ यह करने का होता
है, वह हंसा खूब हँसा. इतना कि शायद उसका सारा नशा उतर गया. उसने कहा नहीं, अपनी
पत्नी, प्रेमिका और अब तुम. बाकी तो केवल शरीर के लिए थी. उफ, ये कैसे इतना बोल
लेता है, मेरे सामने, चुप ही नहीं होता. उसकी बातें जगजीत सिंह की गज़ल है. “मेरे
जैसे बन जाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा, दीवारों से टकराओगे, जब इश्क तुम्हें हो
जाएगा”. वाह क्या गाते हैं जगजीत साहब. वह अपने कैसे इश्क के साथ मुझे अपने जैसा
बनाना चाह रहा है. पर मेरा मन एक कल्पना के घरोंदे में चला गया है. वह रच रहा है,
मेरे और उसकी संतान का सपना. वह मेरी कोख में उसके अंश को स्थापित कर चुका है. मिलन
के एक दिन का निर्धारण कर, वह चुपके से मेरी कोख में उसके अंश का प्रवेश करा चुका
है. और फिर उसके बाद का क्या होगा? ये मेरा मन नहीं सोच रहा है और न ही कभी सो
कॉल्ड इश्क के चक्कर में पड़कर सोचेगा. गाना चल रहा है “जाने न जाने मन बांवरा,
नयनों में सावन भरा” मन बांवरा होकर कुछ भी नहीं जानता. वह शांत चला जा रहा है
निरपेक्ष था, अब सापेक्ष होता जा रहा है. उसकी ही ओर बढ़ चला है. नहीं जानती कि आगे
क्या होगा? मैंने मन से पूछा “हम पिज्ज़ा और बर्गर के जमाने में तो आ गए हैं, पर
क्या हमने स्त्री को उसकी पसंद से संतान पैदा करने की छूट दी है” मेरा मन कह रहा
है, चलो न कल्पना के एक सफर पर हम निकलते हैं. पता चल जाएगा! कि क्या हम मानसिक
स्तर पर इतने परिपक्व हो पाए हैं? मैंने उससे कहा बात परिपक्वता की नहीं है,
मूल्यों की है सिद्धांतों की है. अब वह हँसा, इतनी जोर से अट्टाहस किया कि मैंने
अपने कान बंद कर लिए. पर हँसी तो उस पागल की मेरे अन्दर से आ रही थी. अब मेरा
दोस्त तो उस मेट्रो में चल रहे मेरे ख्यालों से विदा ले चुका था, पर अब मेरे अन्दर
एक दूसरा ही संसार ऊहापोह मचा रहा था. वाह, क्या कल्पना कर रहा था मेरा मन. मेरा
मन उसके साथ एक बार जीवन का आनंद लेने के बाद उसकी सन्तान के सपने संजो रहा था.
मैंने उससे पूछा “सुनो, पतिदेव को तो उसकी शक्ल देखकर पता चल ही जाएगा कि यह उनका
अंश नहीं है, फिर ऐसे में क्या करोगे” अब मन कुछ शिथिल हुआ और मैंने चैन की सांस
ली. उफ, ये मेट्रो भी आज जैसे कितना समय ले रही थी. घर पर बच्चे राह देख रहे होंगे
और बच्चों के पापा भी. पर ये, एक्स्ट्रा साल्ट! कितना अच्छा नाम रखा था मैंने,
एक्स्ट्रा साल्ट! ये एक्स्ट्रा साल्ट अगर मेरे जीवन में मिल गया, जो उसका क्षेत्र
नहीं है तो क्या होगा? क्या होगा? यहाँ पर आकर हमारा सारा स्त्री विमर्श विफल हो
जाता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि स्त्री और ज़मीन को एक समान ही माना गया है पर
स्त्री एक ऐसी ज़मीन है जिस पर कौन सी फसल उगेगी यह केवल किसान और उसका हल ही तय
करेगा. जैसे रबी की फसल है और खरीफ की फसल है, ऐसे ही स्त्री के शरीर से कब उसे
बेटी चाहिए और कब बेटा सब, उसका वह स्वामी निर्धारित करता है, जो उसके जीवन में
उसके घरवालों से सप्रयासों से सम्मिलित होता है. हा हा, कैसी स्वतंत्रता है ये!
स्त्री के लिए, मेरा मन अब इतना शिथिल होने लगा था कि मुझे लगा नहीं कि उसे झकझोरा
जाए. वह खुद में ही सिमट रहा था और मैं मेट्रो में बैठी बैठी मुस्करा रही थी, और
सोच रही थी, कि कैसे कायदे क़ानून बने हैं कि स्त्री अपने ही दायरे में सिमट कर रह
गयी है. एक मासूम इच्छा, हा हा हा, वह मासूम नहीं है, मुझे पता है, वह तो तमाम
कुटिलताओं से पूर्ण है. पर मेरा मन भी तो उसी इच्छा के पीछे ही भाग रहा है, उसे
कैसे रोकूँ? मैं अपने मन के सरपट भागते घोड़े पर लगाम भी लगाना चाहती हूँ, पर ये भी
सच ही है कि उसके अंश को मैं अपनी कोख में रखने का सुख भी लेना चाहती हूँ. ये कैसे
हो सकता है? मेरा दिमाग मुझसे अब मुखातिब है, उसने कहा “देखो, स्वतंत्रता यहाँ तक
ठीक है, तुमने बियर पी लिया, पिज्जा बर्गर की दुनिया में सिमट गयी, तुमने चलो शरीर
भी शेयर कर लिया, पर आधुनिकता कहें या परिपक्वता, इस स्तर पर नहीं पहुँची है कि वह
तुमको उसकी संतान को अपनी कोख में रखने का अधिकार दे दे, कैसे कोई भी आदमी अपनी ही
बीवी के शरीर में किसी का अंश देख सकता है, उसका पौरुष कहाँ जाएगा? और तुम्हे
चरित्रहीन ठहरा दिया जाएगा. चरित्र की सभी परिभाषाएं शरीर के आसपास ही घूमती हैं,
तुम्हें इतना पता नहींहै” मैंने कहा “पता है, खूब पता है, पर यार मन का क्या करूँ”
उसने कहा मन को काबू में करो.” उसने कहना चालू रखा “प्रकृति और इंसान का संघर्ष
बहुत ही पुराना है, ये तुम्हें पता ही है. प्रकृति हमें उन्मुक्त रखते हुए भी
नियमों में बांधती है, नदी का अपना नियम है, हवा का अपना नियम है, और बारिश का
अपना नियम है और जब हम इन नियमों में गड़बड़ करते हैं, ये हमें मामू बना देते हैं,
है कि नहीं” मैं हँसने लगी. और अपने एन्ड्रोइड फोन को थैंक्स कहा, जिसकी बैटरी डाउन होने के कारण मैं अपने मन और दिमाग
से कम्युनिकेट कर पा रही हूँ, कितना अजीब होता है, इस तरह का कम्युनिकेशन अपने ही
आप करना. बहुत ही अजीब. मैं एक ऐसी बात की कल्पना कर रही हूँ, जो पोसिबल ही नहीं
है. वह अपने आप में बहुत ही अजीब है. वह प्रकृति के निकट है पर मानवीय नियमों के
विपरीत है. मैं जानती हूँ, स्त्री और पुरुष कभी मित्र नहीं हो सकते. स्त्री पहले
बात और फिर शरीर के सिद्धांत पर चलती है पर आदमी शायद पहले शरीर चाहते हैं. वे
अपनी दोस्ती को शरीर के साथ ही प्रगाढ़ करना चाहते हैं. ये स्रष्टि का आकर्षण का
नियम है और मुझे इसमें कुछ बुरा या अप्राकृतिक नहीं लगा. पर जब यह प्राकृतिक है तो
इंसान ने इसे संयमित करने के लिए कितने नियम बना डाले. सम्बन्धों की बिसात पर
हमेशा प्रकृति हार जाती है और तथाकथित पवित्र किताबें जीत जाती हैं. क्या वाकई
प्रकृति हमसे कोई षड्यंत्र कराना चाहती है? परिवार और विवाह नामक संस्था को तोड़ने
का षड्यंत्र? क्या वाकई में तमाम पवित्र किताबें प्रकृति के आकर्षण के नियम को अपनी
गिरफ्त में लेने की साज़िश कर रही हैं.
“यह मेट्रो यहीं तक
है, कृपया उतरने से पहले अपने सामान जांच
लें” लीजिए अपनी मंजिल आ गयी और इस तरह की बात करते हुए, ध्यान ही नहीं रहा कि
आखिर मेट्रो आ गयी अपनी मंजिल पर. पर मेरे विचार क्या अपनी मंजिल पर आ सके हैं? नहीं
वे नहीं! आखिर क्यों. मैं मेट्रो से बाहर निकल कर घर जाने के लिए रिक्शे पर बैठ
गयी हूँ. रात का दस बज चुका है और सड़कें सुनसान पड़ी हुई हैं, बारिश की बूँदें मेरे तन मन को भिगो रही हैं. रिक्शेवाला
देख रहा है, भीगते हुए, पर सामने पुलिस की एक जिप्सी खडी है तो शायद वह कुछ गलत
करने की सोचेगा नहीं. यहाँ पर हमें नियमों की जरूरत होती है. सत्य है. पर क्या
व्यक्तिगत सम्बन्धों की इंटेंसिटी को मापने के लिए भी हमें नियमों की जरूरत है,
हां है शायद. क्योंकि स्त्री और पुरुष में मित्रता हो नहीं सकती, मित्रता में
प्रगाढ़ता प्रेम ही तो लाती है और जहां प्रेम आया, वहीं शरीर आया और जब शरीर आया तो
प्रिकॉशन आया. पर प्रिकॉशन के साथ प्रेम? हा हा, मेरा मन जलेबी की तरह जहां से चला
था वहीं पर आ गया था. घर आने वाला है, पर मेरा मन सोच रहा है, एक ऐसी इच्छा के
बारे में, जो प्राकृतिक हो सकती है, पर नैतिक नहीं. सामजिक संबंधों का निर्वहन
हमारी जिम्मेदारी अधिक है, क्या हमारे प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी है? अरे यह
सवाल सुनते ही दिमाग तो कहीं चला गया, किसी कोने में दुबक गया, देखिये अन्धेरा सड़क
पर है और दुबक जनाब दिमाग रहा है. बहुत सर दर्द होने लगा है. दिल में एक सवाल पैदा
कर मेरे मित्र तो बियर की एक दो और बोतल पीकर अभी तक सो गए होंगे और हम हैं कि दिल
और दिमाग, नैतिक और अनैतिक की लड़ाई में
खुद को उलझाए हुए हैं. मैं भी चाह रही हूँ कि सो जाऊं, पर घर जाकर बच्चों का होमवर्क
भी कराना होगा. और फिर पति के प्रति भी जिम्मेदारी है, उससे मुंह नहीं मोड़ सकती
हां, इन सबसे कुछ पल चुरा सकती हूँ. पर उन चुराए पलों में ऐसे सवाल आएँगे तो कैसे
काम चलेगा? पर हां, ये सवाल तो मैं पूछ ही सकती हूँ कि क्या हम स्त्री को ये
अधिकार दे पाएँगे कभी कि वह अपनी कोख में कम से कम एक बच्चा तो अपने अनुसार पाल
सके, उसे अपने जीवन में स्थान दे सके. अब मेरा दिमाग बहुत तेजी से चल रहा था. शायद
स्त्री का यह पक्ष भी उसके आर्थिक पक्ष से ही जुड़ा है, उफ, मुझे पता नहीं. मेरा
दिमाग करवट लेकर सोने चला गया है. और मन वह अभी भी उसी सवाल में उलझा हुआ है “सुनो,
मेरे बच्चे की माँ बनोगी” और मैं, मैं, घर आ गया है, पति और बच्चे इंतज़ार कर रहे
हैं, सबको संतुष्ट करने की प्रक्रिया का पालन करते हुए अपने कोने में रंग भरने की
कोशिश करती रहूँगी, जितना अधिकार ले सकती हूँ, लूंगी और अगर कुछ छीनना हुआ तो
छीनूंगी भी, पर रंग तो भरूँगी. बादल जब पूरे आसमान पर छा जाते हैं, तब भी कोई न
कोई कोना तो अपने मन के आसमान पर कब्ज़ा कर लेता ही है. पूरी जिम्मेदारियों के बीच,
दम तोड़ते अस्तित्व के बीच खुद को बचाने की कोशिश में जितना कोना जी सकती हूँ, उतना
जीना तो है ही. एक्स्ट्रा साल्ट को एक्स्ट्रा ही रहनें दें तभी स्वाद आ पाएगा जीवन
में, नहीं तो इस एक्स्ट्रा साल्ट के साथ जीवन में कडवाहट आ जाएगी. यही बात मुझे वह
भी समझता है पर हाँ कंकड़ तो पड़ ही चुका है जीवन में, “क्या तुम मेरे बच्चे की माँ
बनोगी”, और मेरा मन फिर से यही पूछ रहा है क्या जमीन और स्त्री को अधिकार मिलेगा
कि जीवन में एक बार ही सही, अपने मन की फसल को बो सकें? क्या मिलेगा कभी? घर आ गया
है, मैं रसोई में घुस गयी हूँ, बच्चों ने घेर लिया है और कुछ समय के बाद पति का भी
आदेशपूर्वक निमंत्रण होगा ही. इन सबके बीच सवाल तैर रहा है, एक्स्ट्रा साल्ट का,
उसके बच्चे का और हां स्त्री और उसकी कोख का.
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