बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

वेतन में लैंगिक भेदभाव



आज  महिलाएं रोजगार के हर  क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, वे हर उस क्षेत्र में कदम रख रही हैं, जहां पर अभी तक पुरुष का आधिपत्य था। कई  बाधाओं को पारकर वे आगे बढ़ रही हैं, और वे निरंतर ही अपनी पहचान को मुकम्मल करती हुई  चल रही हैं। इस  समय सोशल मीडिया पर महिलाओं की उपलब्धियों का बखान करते हुए तमाम पेज और ग्रुप हैं, जिनमें न केवल उपलब्धियों की बातें बल्कि महिलाओं के संघर्षों के भी किस्से हैं।

भारत में एक महिलाओं का एक बड़ा तबका कामकाजी है। आज के दौर में महिलाएं शिक्षा, पत्रकारिता, क़ानून, चिकित्सा या इंजीनियरिंग, वकालत आदि के साथ साथ राजनीति, पुलिस और सेना जैसे क्षेत्रों में भी अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं।

बदलता दौर अगर हम देखें तो महिला सशक्तिकरण के लिए जाना जाएगा। पर इतने जगमगाते चित्र के बावजूद कहीं कुछ धुंधला सा है क्या? कहीं कुछ अँधेरा सा है? आखिर वह अंधेरा या धुंधलापन क्या है? कभी कभी महिलाएं कुंठित हो जाती हैं, और उन्हें एक दायरे में सीमित कर दिया जाता है? महिलाएं इस समय दोहरे मोर्चे पर लड़ रही हैं।  पहले महिलाओं को केवल शायद बच्चे पैदा करने की मशीन माना जाता था, जबकि अब इस आधुनिक युग में महिलाएं न केवल बच्चे पैदा करने बल्कि मनचाहा पैसा घर लाने की भी मशीन हो गयी हैं।  ऐसे में कई महिलाएं एक विकल्प चुनने के लिए विवश हो जाती हैं, और वह विकल्प होता है, उनके कैरियर को बलिदान करने का।
आज के युग में कई महिलाएं मां बनने के बाद नौकरी छोड़ देती हैं। एक सर्वे के मुताबिक़ लगभग 40% महिलाएं अपने बच्चों के लिए यह कदम उठाती हैं। क्या यह भी दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि ऑफिस और घर की दोहरी जिम्मेदारी निभाने के कारण वह अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करती है और इस खिलवाड़ में उसका साथ देता है समाज। क्योंकि वह अपेक्षा और उम्मीदों का एक ऐसा बोझ महिलाओं के कन्धों पर लाद देता है कि वह न चाहते हुए भी एक लाइफस्टाइलडिसऑर्डर का शिकार हो जाती हैं। एसोचैम के एक सर्वे के अनुसार लगभग 78प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी लाइफस्टाइल डिसआर्डर का शिकार हैं। आज युवा महिलाओं में दिल की बीमारी का खतरा बढ़ रहा है।
वे घर और कैरियर में इतना बंट गयी हैं कि अपने बच्चों को होने वाली छोटी बीमारी के लिए भी खुद के कैरियर को दोषी ठहरा देती हैं। और वे अपने बच्चों और परिवार को समय न दिए जाने के अपराधबोध से पीड़ित होने के कारण जो भी समय मिलता है उसमें अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा समय देने का प्रयास करती हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि यदि वे घरेलू जिम्मेदारी न सही से उठा सकीं तो समाज की नज़र में दोषी साबित हो जाएँगी। वैसे भी हमारा समाज इतना उदार नहीं है कि महिलाओं के द्वारा की गयी गलती को क्षमा कर सके।
इतनी समस्याओं एवं पूर्वाग्रहों का सामना करती हुई महिलाओं को क्या पुरुषों के समान वेतन प्राप्त होता है? जबकि वर्क प्रोफाइल और काम तो वे पुरुषों के समान ही करती हैं। असंगठित क्षेत्र तो महिला श्रमिकों को दोयम दर्जे का व्यवहार मजदूरी के स्तर पर झेलना होता है। उन्हें पुरुषों से कम दैनिक मजदूरी मिलती है। इसी बारे में एक ईंट उठाने वाली एक महिला रिंकू (बदला हुआ नाम) से बात की तो, उसने कहा “दीदी, हम औरतों को मर्दों जितना पैसा नहीं मिलता है, चाहे उनसे ज्यादा ईंटें उठा लें या उनसे बढ़िया मसाला मिला दें। पर क्या करें, अपनी देहरी छोड़कर आ गए हैं, चार पैसा कमान खातिर, तो का करें, अब जो है सो है। अब चाहे हम पंद्रह या बीस ईंटें लेकर चढ़ें। आपसे क्या कहें, बाथरूम जाने तक पर ठेकेदार चीखता है।”
आज हर छोटे बड़े शहर में तमाम बड़ी छोटी इमारतें बन रही हैं उनमें गावों से रोज़ ही कई परिवार रोजगार के लालच में आ रहे हैं, उन परिवारों की महिलाएं भी पुरुषों के साथ मिलकर बेलदारी का काम कर रही हैं, पर उन्हें अपने पति या पुरुष  सदस्य की तुलना में काफी कम मजदूरी मिलती है। इस भेदभाव के खिलाफ शायद ही कोई आवाज़ कहीं सुनाई देती हो।
और अगर आपको यह लगता है कि यह भेदभाव केवल असंगठित क्षेत्रों या मजदूरों में है तो ऐसे में हालिया प्रकाशित कई रिपोर्ट इस भ्रम से पर्दा उठाने के लिए पर्याप्त हैं। कुछ दिन पूर्व मोंस्टर की सेलेरी इंडेक्स के अनुसार भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन में 27% का अंतर है।

इस रिपोर्ट के अनुसार सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में स्त्री-पुरुष कर्मचारियों के वेतन में अंतर सबसे अधिक 34 प्रतिशत है। सूचना प्रौद्योगिक सेवाओं में पुरुष 360.9 रुपए प्रति घंटा कमाते हैं जबकि महिलाओं की आय 239.6 रुपए प्रति घंटा है। अलग अलग क्षेत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष वेतन में सबसे ज्यादा अंतर विनिर्माण क्षेत्र में (34.9 प्रतिशत) है और सबसे कम बैंक, फाइनेंस और बीमा क्षेत्र में हैं। परिवहन, लाजिस्टिक्स, संचार में यह फासला समान रूप से 17.7 प्रतिशत है। (स्रोत इन्डियन एक्सप्रेस)

इस रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों का औसत सकल वेतन 288.68 रुपए प्रति घंटा है जबकि महिलाओं की आय 207.85 रुपए प्रति घंटा तक है। इस रिपोर्ट के लिए 8 विभिन्न क्षेत्रों- सूचना प्रोद्योगिकी, स्वास्थ्य सेवा, समाज सेवा के क्षेत्र, शिक्षा, शोध, वित्तीय सेवाओं, बैंकिंग, बीमा, परिवहन, लॉजिस्टिक्स, संचार, निर्माण और तकनीकी कंसल्टेंसी, विनिर्माण, व्यापारिक गतिविधियों एवं कानूनी व मार्केट कंसल्टेंसी में अध्ययन किया गया।

इस विश्लेषण के अनुसार “इस वेतन में अंतर में मुख्य कारण महिलाओं के स्थान पर पुरुष कर्मियों की नियुक्ति को प्राथमिकता देना है, सुपरवाइज़री स्तर पर पुरुषों को प्राथमिकता देना, और बच्चे होने पर महिलाओं का कैरियर से ब्रेक लेना और अन्य सामाजिक सांस्कृतिक कारक हैं।”

मॉन्स्टर इंडिया के एमडी संजय मोदी ने कहा है कि अधिकतर देशों में वेतन में अंतर अब मुख्य मुद्दा बन गया है, कि एक ही काम करने वाले में पुरुष और महिला के आधार पर पारिश्रमिक में कमी नहीं होनी चाहिए। पर भारत में अभी हालात संतोषजनक नहीं है, जबकि देश विकास की तरफ राह तक रहा है”

हालांकि उनके अनुसार कुछ आलोचक इस रिपोर्ट में बताए गए अंतर को महिलाओं के द्वारा शिक्षा, पेशे या परिवार के स्तर पर चुने गए विकल्पों का परिणाम कहते हैं, पर यह सत्य से कोसों दूर है।

मोदी के अनुसार सभी के लिए समान अवसरों का निर्माण करना इस समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है जो भारतीय नौकरी के बाज़ार में मुख्य योगदानकर्ता है।

ऐसा नहीं है कि मोंस्टर की यह रिपोर्ट ही इस भेदभाव की तरफ इशारा करती है। वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम (डब्‍ल्‍यूईएफ) की ग्‍लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2015 के अनुसार भारत 145 देशों की सूची में 139वें पायदान पर है। 2014 की रिपोर्ट में 142 देशों की सूची में भारत का स्‍थान 134 था। इस रिपोर्ट में आर्थिक समानता पर भारत का स्‍कोर 0.383 है, जहां शून्य असमानता को प्रदर्शित करता है और 1 उचित समानता का परिचायक है। इसमें यह भी कहा गया है कि भारत में आर्थिक भागीदारी और अवसर इंडेक्‍स में गिरावट की वजह समान काम के लिए वेतन में असमानता और महिला कर्मियों की कम प्रतिभागिता है। महिला और पुरुषों की अनुमानित आय का अनुपात भारत में 0.25 है, इसका मतलब यह हुआ कि पुरुषों की तुलना में महिला कर्मी को एक चौथाई वेतन मिलता है।

डब्‍ल्‍यूईएफ रिपोर्ट के मुताबिक,  हालांकि भारत की कुल रैंकिंग में आर्थिक, राजनीतिक, शिक्षा और स्वास्थ्य  श्रेणी के औसत प्रदर्शन के आधार पर सुधार हुआ है। 145 देशों की सूची में भारत 108वें पायदान पर है। 2014 में 142 देशों की सूची में भारत का स्‍थान 114 था। इस सूची में आइसलैंड सबसे ऊपर है। इसके बाद नॉर्वे और फि‍नलैंड का नंबर आता है। अमेरिका का स्‍थान 28 और चीन का 91 है। सीरिया, पाकिस्‍तान और यमन इस सूची के अंतिम तीन देश हैं।

पिछले दिनों मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीटयूट की रिपोर्ट के अनुसार अगर देश में लैंगिक भेदभाव को ख़त्म करने पर जोर दिया जाए तो देश की जीडीपी में 2025 तक 46 लाख करोड़ रुपयों को जोड़ा जा असकता है। अगर लैंगिक भेदभाव को समाप्त कर दिया जाए तो भारत की सालाना जीडीपी प्रगति 1.4 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने से दुनियाभर में आर्थिक संतुलन में वृद्धि होगी।

इसी बीच वूमेन इन दि वर्ल्‍ड सम्मेलन के दौरान समूह चर्चा में इस बात का खुलासा हुआ है अपना व्‍हाइट कॉलर जॉब छोड़ने वाली महिलाओं की संख्‍या 48 फीसदी है, जो एशिया के औसत 21 फीसदी से बहुत अधिक है।

कहा जा सकता है कि तमाम रिपोर्ट भारतीय नौकरी के बाज़ार में लैंगिक भेदभाव की तरफ इशारा करती हैं, यह उन पूर्वाग्रहों को भी प्रदर्शित करती हैं जिनके अनुसार महिलाएं दोयम दर्जे की कामगार होती हैं। महिलाओं को परिवार व कई सामाजिक पहलुओं को भी देखना होता है। यह भी सत्य है कि बच्चा होने पर महिलाओं को नौकरी से ब्रेक चाहिए ही होता है, चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो। अभी महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के द्वारा मातृत्व अवकाश की अवधि में वृद्धि की गयी है, जो एक सकारात्मक पहल है। पर कई कोर्पोरेट इससे बचने के लिए ऐसी महिलाओं को नौकरी देते हैं, जिन्हें मातृत्व अवकाश की आवश्यकता ही न हो।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हालांकि नौकरी और अर्थव्यवस्था का आसमान बहुत ही सुहाना है पर महिलाओं के लिए बेहतर होने में और समय लगेगा।


सोनाली मिश्रा

sonalitranslators@gmail.com

6 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन लेख। साधुवाद।
    वैसे यदि हिन्दू-मुस्लिम समुदाय की महिलाओं का विश्लेषण हो तो आँकड़े चौंकाने वाले हो सकते हैं। फिर भी कुछ पायदान की बढ़त प्रगतिशील रहने का इशारा तो यकीनन है ही।

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  2. भारतीय अर्थव्यवस्था का एक कटु सत्य!!!

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  3. भारतीय अर्थव्यवस्था का एक कटु सत्य!!!

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