"तुम हवा हो,गन्ध हो" उसने
उसे छूते हुए कहा।
वह हंसी, एक सहज संतुष्ट मुस्कान उसके चेहरे पर आई। उसने फिर उसे छुआ और कहा,
"पर तुम आवारा सी हो"
कोट पहनते हुए उसके हाथ रुक गए। गोरी बाजू पर काले रंग का कोट अभी चढ़ ही रहा था। उसने एक हाथ में सिगरेट ले रखी थी। उसने पूछा "तुम्हें ऐसा क्यों लगा?" वह बोला "आवारा हवाओं की देह गन्ध बहुत नशीली होती है। जैसे मुझे नशा हो गया है।" अचानक से उसने उस धुंए को घोल दिया हवा में, और हँसी। उसकी हँसी बहुत तल्ख थी। इतनी तलखी तो खदकती हुई हांडी में भी नहीं थी। हव्वा से लेकर आज तक, श्रद्धा से लेकर आज तक, इतनी तल्ख़ी किसी की भी हँसी में न थी। हँसते हँसते उसकी आखों से लाल डोरे वाला पानी आ गया। सिगरेट बुझाने के लिए जब वह ऐशट्रे लाया, तो उसने अपनी ही लाल दहकती हुई हथेली में दबा दी। वह जली नहीं। उसने कहा "हाँ, आदम से लेकर आज तक ये मैं ही हूँ, जो ओढ़े हूँ आवारा का खोल। जो आवारा राग है, जिससे तुम हो सको महान। मैं शकुंतला हूँ, और तुम युगों से दुष्यंत"
कोट पहनते हुए उसके हाथ रुक गए। गोरी बाजू पर काले रंग का कोट अभी चढ़ ही रहा था। उसने एक हाथ में सिगरेट ले रखी थी। उसने पूछा "तुम्हें ऐसा क्यों लगा?" वह बोला "आवारा हवाओं की देह गन्ध बहुत नशीली होती है। जैसे मुझे नशा हो गया है।" अचानक से उसने उस धुंए को घोल दिया हवा में, और हँसी। उसकी हँसी बहुत तल्ख थी। इतनी तलखी तो खदकती हुई हांडी में भी नहीं थी। हव्वा से लेकर आज तक, श्रद्धा से लेकर आज तक, इतनी तल्ख़ी किसी की भी हँसी में न थी। हँसते हँसते उसकी आखों से लाल डोरे वाला पानी आ गया। सिगरेट बुझाने के लिए जब वह ऐशट्रे लाया, तो उसने अपनी ही लाल दहकती हुई हथेली में दबा दी। वह जली नहीं। उसने कहा "हाँ, आदम से लेकर आज तक ये मैं ही हूँ, जो ओढ़े हूँ आवारा का खोल। जो आवारा राग है, जिससे तुम हो सको महान। मैं शकुंतला हूँ, और तुम युगों से दुष्यंत"
अचानक से ही कमरे
में खिड़कियों से दस्तक दे दी,
उसने खिड़की खोली और धुंए की तरह उड़ ली।
बाहर दिसंबर का कोहरा था और सवाल
"आवारा लडकियां प्रेम क्यों करती हैं? या आवारा हवाएं ही घुल पाती है। और शरीफ लडकिया?" वह खुद से ही जैसे सवाल कर रही थी, हालांकि उसके सवालों में कुछ नया
नहीं था, यह समय तो सदियों से ही साथ है, फिर चाहे वह भारत का किस्सा हो या कहीं
और का। यह सवाल तो तब भी होगा जब विवाह का
आरम्भ हुआ होगा? वह कई बार सोचती है कि शादी की जरूरत क्यों पड़ी होगी और राजे
महाराजे और नवाब पत्नियों के साथ प्रेमिकाएं भी महलों में रखा करते थे। मगर एक
स्त्री के कई पति केवल द्रौपदी के दिखे! वह बचपन में सोचती क्या द्रौपदी को भी लोग
वही कहते होंगी जो घर के बाहर रहने वाली पारबती को कहते हैं। मगर वह एक सीमा से
ज्यादा सोच नहीं पाती थी।
उसने अपनी अधूरी
सिगरेट जला ली, जो उसने सुबह उसके आने से पहले बुझा दी थी।
“छोड़ो यार, तुम भी
कभी भी शुरू हो जाती हो!” उसने कंधे पर आता हुआ धुंआ उड़ाया!
रश्मि कुछ नहीं
बोली। वह बस सिगरेट पीती रही, जैसे कुछ गढ़ रही हो, कुछ कह रही हो। वह बार बार धुंआ
उड़ाते हुए बुदबुदाती!
“बस यही बात मुझे
तुम्हारी पसंद नहीं है!” अनिकेत चिढ़ा!
पचास बरस का
अनिकेत, पैंतीस बरस की रश्मि के साथ इस कमरे में अक्सर आया करता था। यह कमरा रश्मि
का ऑफिस था। मगर एक लेखिका का ऑफिस क्या? जब रश्मि ने अमित से अपने लिखने के लिए
ऑफिस की बात की थी तो अमित बहुत हंसा था।
“ऑफिस? मगर किसलिए?”
अमित ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा
“किसलिए माने, मेरे
लिए?” रश्मि ने उसके हाथों में उसका रूमाल पकडाते हुए कहा था
“अरे यार, मतलब
तुम्हें ऑफिस क्यों चाहिए? आखिर तुम्हें करना ही क्या होता है? कुछ कहानियाँ
लिखना, कुछ आर्टिकल लिखना, तो मेरे जाने के बाद और रिया के जाने के बाद दिन भर
तुम्हारा, तुम न केवल इस घर की मालकिन, बल्कि एकदम फ्री भी! फिर फालतू का खर्च
क्यों? जबकि घर का काम तो ज्योति करती ही है! मतलब न खाना पकाना, न कपड़े धोना, और
न ही कुछ और। बस रिया का होमवर्क करना और रात में हमें........................
हूँ हूँ!” अमित पहले कुछ झुंझलाया था मगर बाद में रश्मि के होंठों से शरारत के मूड
में आ गया था। रश्मि मगर गंभीर थी। उसने उस प्रलोभन को किनारे कर दिया।
“देखो अमित, मैं घर
में रहकर ज्योति के साथ ही लगी रहती हूँ, कभी उसे दाल ख़त्म हो जाने की शिकायत, कभी
उसे फिनायल की समस्या, तो कभी कुछ! आई नीड माई स्पेस ऑफ राइटिंग!” रश्मि ने
प्रतिकार करते हुए कहा था
“अबे यार, अब
तुम्हारी राइटिंग के लिए भी मैं पैसा खर्च करूँ?” अब अमित झुंझला रहा था
“नहीं, तुम क्यों
करोगे! मैं फ्रीलांसिंग कंटेंट राइटिंग का इतना काम ले लूंगी, कि किराया निकल आए,
और बाकी समय अपना लिखूँगी!” रश्मि ने अंतिम पासा चल दिया था।
अब अमित के पास बहस
का कोई मुद्दा नहीं था, सिवाय इसके कि वह घर खाली बने रहने का बहाना करता, मगर अब
वह समझ गया था कि रश्मि मानेगी नहीं। रश्मि पर कोई निर्णय थोपना तो वैसे भी सरल
नहीं था, तो उसने अपना कोट पहना और उसके गाल थपथपाकर बस इतना ही कहा “ओके, आईएम
विद योर डिसीजन, अन्टिल इट इज नॉट अफेक्टिंग माई पॉकेट!” और गाल पर अपने होंठों की
मोहर लगाकर हामी भर दी थी।
रश्मि ने बहुत जल्द
ही यह फ़्लैट किराए पर ले लिया था। उसे थर्ड फ्लोर पर एकांत में फ़्लैट बहुत पसंद
आया था। जल्द ही उसने अपनी किताबें और लैपटॉप यहाँ पर शिफ्ट कर लिया था और उसके
ऑफिस में नए और वरिष्ठ लेखकों का आनाजाना होने लगा था। उसके ऑफिस में चर्चाएँ,
होतीं, कभी स्त्री विमर्श पर बातें होतीं, तो
कभी देह विमर्श पर। कभी कृष्णा सोबती का मितरो मरजानी होता तो कभी मैत्रेयी
पुष्पा। सुबह दस बजे से लेकर शाम को छह बजे तक रश्मि की अपनी दुनिया बस गयी थी,
जिसमें न तो ज्योति की दाल चावल का दखल था और न ही रिया के स्कूल का! रिया का
होमवर्क अब वह रात में कराती थी। सब कुछ ठीक चल रहा था। सब कुछ! वह दिन भर अपनी इस
दुनिया में रहती और शाम को अमित और रिया के साथ। मगर कई बार पर्दे के पीछे के
किरदार बहुत कुछ अलग करते हैं, अलग घटती हैं घटनाएं! वह शाम भी कुछ ऐसी ही थी, जब रीना
की कहानी का पाठ उसने अपने ऑफिस में रखवाया था। अमित ऑफिस के काम से एक सप्ताह के
लिए बाहर था, तो रश्मि को घर जाने की भी बहुत जल्दी नहीं थी, रिया को ज्योति खाना
खिला सकती थी, और रात को दस बजे तक ज्योति रुकती ही थी।
उस दिन रीना की
कहानी पर जोरदार बहस हुई। रीना की कहानी में स्त्री को अपने विवाह उपरान्त पति से
इतर संबंधों के कारण नायिका का आत्महत्या करनी पड़ी थी। कहानी के अंत से रश्मि सहमत
नहीं थी। उस दिन बारिश हो रही थी। कहानी पाठ के लिए अधिक लोग आए नहीं थे। वैसे भी
पौश कालोनी में बना हुआ यह बिल्डर फ़्लैट अकेला ही रहता था और उस दिन और भी अकेला
हो गया था। रीना की कहानी के साथ ही बारिश भी बढ़ने लगी थी। रीना कहानी कह रही थी,
भाव और संवेदना के शिखर पहुंचकर स्त्री का आत्महत्या करना रश्मि को नहीं सुहाया
“नहीं रीना जी, मेरे
ख्याल से आपकी नायिका को आत्महत्या नहीं करनी चाहिए थी।” रश्मि ने कहा
“मैं रश्मि की बात
से सहमत हूँ। कहानी के अंत में बहुत कुछ परिवर्तनों की गुंजाइश है! जैसे नायिका का जिंदा रखना!
आखिर उसे किस बात की सजा देंगी आप!” ये अनिकेत थे। वरिष्ठ लेखक, जिनका स्त्री
विमर्श साहित्य के बड़े मंडल में आभाओं का केंद्र था।
“आपने शायद मेरी
कहानी नावों के उस पार नहीं पढ़ी है!”अनिकेत जी ने रीना से पूछा
नवोदित लेखिका रीमा
अचकचा उठी। न केवल अनिकेत उसके प्रिय लेखक थे, बल्कि नावों के उस पार उसकी प्रिय
कहानी थी।
“नहीं सर, ऐसा नहीं
है!” वह सकपकाकर बोली
“ओह! डोंट बी
फॉर्मल! कॉल मी अनिकेत!” अनिकेत ने रीना को प्यार से डांटा!
पूरे माहौल में अनौपचारिकता
की गंध घुल गयी। आज कई बरसों के बाद औपचारिकता की गंध पिघल पाई थी। रश्मि को वैसे
भी औपचारिकता पसंद नहीं थी। घर में किसी को बुलाती थी या इस तरह की महफिलें या
गोष्ठी करती थी तो औपचारिकता की जद में फंस जाती थी। बार बार ज्योति की निगाहें,
उसे ये भी पता था कि ज्योति का आसपास की कामवालियों के साथ बहुत दोस्ती है। वह
जरूर कुछ न कुछ बोलती ही होगी क्योंकि तभी अगल बगल वाली शर्मा और मिश्रा जी पार्टी
उसके काम के बारे में बहुत सवाल करने लगी थीं। रश्मि को अपने ऑफिस में आकर हे
सुकून मिला था। अब यहाँ न ज्योति का बवाल था और न ही शर्मा और मिश्रा की आँखें!
यहाँ पर इस तीसरे
फ्लोर पर केवल चार फ़्लैट थे और उन चारों में से तीन में अविवाहित रहा करते थे
जिनके न दिन का ठिकाना और न ही रात का, तो उसका दिन अब बढ़िया कटने लगा था।
अनिकेत जी रीना की कहानी
के रेशे रेशे खोल रहे थे, और हर रेशे पर रश्मि का जी दाद देने का हो रहा था।
स्त्री को देह से परे देखना, अनैतिकता और अवैध में अंतर आदि पर अनिकेत जी बोल रहे
थे। रश्मि के पैर का अंगूठा उसके ऑफिस की वुडेन फ्लोर पर कुछ खरोच रहा था। अनिकेत
का सांवला मुंह इस समय और भी सुदर्शन हुआ जा रहा था। रश्मि उन्हें एकटक देख रही थी।
ऐसा नहीं था कि अनिकेत जी के साथ उसने कभी चर्चा नहीं की थी, बल्कि इस ऑफिस में
आने के बाद तो उसने उनके साथ खूब चर्चाएँ की थीं। और अपनी हर कहानी पर उनके साथ
चर्चाएँ की थीं। शायद हर कहानी में उनकी छाप ही थी। अनिकेत को उसकी आवारा हवा
कहानी बहुत पसंद थी, और उस कहानी ने बहुत धूम भी मचाई थी। उस कहानी ने रश्मि को एक
विवादित कहानीकार के रूप में पहचान दिलाई थी। अनिकेत ने उस समय उसका साथ दिया था,
और अपने खिलाफ खुले किसी भी मोर्चे का जबाव देने से मना कर दिया था।
तो रीना की कहानी
पर बोलते बोलते जैसे ही उनकी निगाह रश्मि पर गयी वैसे ही उन्होंने कहा “देखो,
रश्मि की नायिकाएं भी तो हैं! वे तो कभी आत्महत्या नहीं करतीं!”
“अनिकेत जी, यहाँ
मैं आपको रोकना चाहूँगी!” ये हरमीत थी। हरमीत भी एक उभरती हुई कवियत्री थी। वह
आजकल लेखन क्षेत्र में अपनी क्रांतिकारी कविताओं से छाई हुई थी। और वैसे भी दिल्ली
दरबार में कवियत्रियाँ छा ही जाती हैं, ऐसा दिल्ली के बाहर के लेखकों का कहना था।
तो अनिकेत का कहना यह था कि भाई दरबार तो हर जगह होते हैं, कहीं दिल्ली दरबार तो
कहीं पटना दरबार!
हरमीत ने कहा
“अनिकेत जी, रीना की कहानी में स्त्री का सम्बन्ध किसी मजबूरी के चलते हुआ है,
इसमें उसकी रजामंदी है तो वह किसी मजबूरी के चलते है, और वह सम्बन्धों को लेकर
अपराधबोध में है। और शायद इसी अपराधबोध ने उसकी जान ले ली! जबकि रश्मि मैडम की
कहानी में नायिका सम्बन्धों को लेकर क्लियर हैं और वे परिवार से इतर अपना जीवन जी
रही हैं। तो ऐसे में उनका अपराधबोध से ग्रस्त होना संभव नहीं है।”
“तुम सही कहती हो
हरमीत! मगर यह भी देखना होगा कि आखिर संबंधों को लेकर अपराधबोध क्यों और कब तक? अनैतिक
और अवैध में हम कब अंतर समझेंगे?”
रश्मि का ऑफिस उस
दिन खूब देर तक गुलज़ार रहा था। रीना और हरमीत और दिनेश अपने अपने घर चले गए थे और
अनिकेत रुक गए थे। उसकी कहानी पर चर्चा
करने के लिए। मगर रश्मि को कई बार लगा था, क्या वाकई अनिकेत उस दिन उसकी कहानी पर
चर्चा करने के लिए रुके थे या कुछ और! उस दिन बारिश के रुकने का नाम नहीं था और
उसने भी ज्योति से रात को घर ही रुकने के लिए कह दिया था। इतनी बारिश में निकलना
संभव नहीं था। बारिश का इरादा कुछ और था, या कहें उसने उस इरादे को घुल जाने दिया,
उसने बारिश का बहाना ले लिया था। उस रात रश्मि और अनिकेत के बीच एक नई कहानी शुरू
हुई। रश्मि को उस कहानी की शुरुआत कई दिनों से महसूस हो रही थी। ऐसा नहीं था कि
अमित के प्रति उसका प्यार कम हो रहा था, या कुछ और या वह अपने पत्नी धर्म में चूक
रही थी, वह बस अपने अन्दर कहानी लिखने से पहले बिना शर्त समर्पण की एक कहानी जीना
चाहती थी।
उसे कहीं से भी उस
रात का हस्तक्षेप बुरा नहीं लगा था। वह हस्तक्षेप सुखद था। वह हस्तक्षेप उसकी नई
लिखी जा रही कहानी के लिए एक सुखद सन्देश था। अमित के साथ सम्बन्धों की तहों में
उसे एकरसता महसूस होती थी। वही रिया के स्कूल की बातें, वही माँ की बीमारी की
बातें, और वही नन्द और देवर, या खेती की बातें। वह उससे परे खुद भी नहीं सोच पाती
थी, अन्तरंग पलों में जब वह अमित के साथ अपने चरम पर होती, उसमें वह अपनी संतुष्टि
के तुरंत बाद ही अपनी बहन का किस्सा लेकर बैठ जाता! रश्मि का मन होता वह उस अहसास
से अभी और भीगे, वह धीमे धीमे उस नशे से बाहर आने की कोशिश में होती। वह उस समय
चाँद को पीने की फिराक में रहती, और तभी अमित एकदम से उसे बजरी वाली सड़क पर खड़ा कर
देता। उसकी देह और आत्मा सब छिल जाती। उस छिलन के दर्द को देह तो महसूस न करती,
मगर मन छिल जाता, आत्मा में सिलवटें पड़ जातीं। हालांकि यह न तो कोई कष्ट था और न
ही मानसिक और शारीरिक हिंसा! यह तो बस दो लोगों के विचारों के तालमेल में बिखराव
था। अमित के साथ वह दैहिक संतोष के पायदान पर सफ़र कर रही थी। जिसमें कोई शिकवा
नहीं था, न ही कोई शिकायत।
रश्मि का सूनापन
कहीं से भी सूनापन नहीं था, वह केवल फालतू का सूनापन था, ऐसा वह खुद को समझाती।
मगर जब से उसने अलग ऑफिस लिया, उसने उस एकांत को पल पल जिया, जिस एकांत को वह जीना
चाहती थी और इस एकांत में समय बिताने के बाद, अपने साथियों के साथ मनचाहे विमर्श
के बाद उसे अमित की रसहीन बातें भी रोचक लगने लगी थीं। नन्द के परिवार का क्लेश अब
उसे परेशान नहीं करता था, बल्कि वह उसमें से मनोवैज्ञानिक एंगल खोजकर अपनी
कहानियों में रखने लगी थी। रश्मि ने सूनेपन और एकान्त में गुलमोहर भर लिए थे।
अनिकेत से पहले वह
भय खाती थी, अनिकेत के विषय में प्रसिद्ध ही था कि उन्हें नित नई प्रेरणाएं चाहिए।
शारीरिक भी और मानसिक तो हमेशा ही। कुछ ही महीनों में रश्मि अनिकेत की मानसिक
प्रेरणा बन चुकी थी, मगर दैहिक गंध से परिचित होकर भी वह अपरिचित होने का नाटक
करती। वह देह के अपुष्ट राग से बच रही थी। उसकी एक कहानी पढ़कर अनिकेत ने पूछा था
“क्या जिस तरह
तुमने इस कहानी में देह रचा है, वैसे ही किसी की देह पर अपना मनचाहा लिखा है? या
अगर अमित की देह पर लिखा है तो कब और कब से नहीं?”
रश्मि उस दिन सोच
में पड़ गयी थी। यह तो बहुत ही दुविधा वाला प्रश्न था। उसे याद आ गया शादी के बाद
के दिन, जब अमित कुछ दिनों तक उसकी देह पर कुछ न कुछ लिखने के लिए उत्सुक रहता था,
अपने अनुसार! वह लिखता, वह हंसती, उन्मुक्तता की हंसी उन दिनों उसकी स्थाई मित्र
हो गयी थी। मगर रश्मि यह भूल गयी थी कि जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं होता। धीरे धीरे
यह मित्र उससे दूर होती चली गई। और बचा रह गया तो बस एक दैनिक रूटीन का हस्ताक्षर।
जैसे खाना खाना है, पानी पीना है, वैसे ही देह का एक कारज है वह निपटाना है। वह उन
क्षणों में समाधिस्थ होना चाहती थी, वह चेतना को विस्मृत कर घोल देना चाहती थी खुद
को! मगर अमित के पास हमेशा टार्गेट रहता था, वह टार्गेट पूरा करते करते देह को भी
एक टार्गेट समझ बैठा था। टार्गेट पूरा हुआ, वैसे ही आगे बढ़ा।
उस रात अनिकेत जी
जब बारिश के बहाने रुक गए, रश्मि को आभास था जैसे आज कुछ नया हस्ताक्षर रचा जाएगा।
रश्मि संभवतया इस शुरुआत के लिए मानसिक रूप से तैयार थी। तभी जब अनिकेत ने उसके
सोफे पर बैठकर उसका हाथ अपने हाथ में लिया तो रश्मि चौंकी नहीं।
“तुम चौंकी नहीं
रश्मि!” अनिकेत ने उसका हाथ सहलाया
“नहीं!” रश्मि ने
अनिकेत की आँखों में झांकते हुए कहा
“क्यों!” अनिकेत
असहज हो रहे थे
“क्योंकि मुझे पता
था कि यह क्षण आएँगे, और बहुत ही शीघ्र आएँगे! जब आप चाहेंगे कि मैं आपकी देह पर
ही कुछ लिखूं!” रश्मि सहजता में बोले जा रही थी।
अनिकेत के पैरों ने
रश्मि के पैर के अंगूठे से खेलते हुए पूछा
“तुम्हें वाकई लगता
था, मगर क्यों? तुम्हें पता है मुझे प्रेरणा चाहिए होती है, आई नीड समबडी इन माई
लाइफ! समथिंग न्यू! नहीं, फ्लर्ट करने के लिए नहीं। मैं फ्लर्ट नहीं कर सकता, किसी
के साथ नहीं, मगर मैं हर समय किसी के साथ बंधा नहीं रह सकता! बस पत्नी है, जीवन भर
के लिए उसका सामाजिक साथ दूंगा! बाकियों के साथ मैं सहज हूँ, जब तक वे सहज हैं!”
“हूँ!” रश्मि ने
अनिकेत के पैर के अंगूठे अपने पैर के अंगूठे में समेट लिया। यह संकेत अनिकेत के
लिए पर्याप्त था। वह रात बाहर बारिश जितनी तेज थी, भीतर उतना ही तेज संवेग था। एक
आवेग था। यह आवेग किसी जन्म का रुका हुआ आवेग नहीं था, यह आवेग किसी वादे इरादे का
आवेग नहीं था, यह आवेग किसी बंधन का आवेग नहीं था। बस यह आवेग था। यह रचनाओं का
आवेग था, यह उन भावनाओं का आवेग था, जो बस रचनाकार समझ सकता है। यह उन दो देहों का
आवेग था, जो इससे शब्द रचती थीं। पाप पुन्य से परे का आवेग था यह।
रात दो बजे जब
बारिश थमी, तब तक इस तीसरे फ्लोर पर वन बेडरूम फ़्लैट में बिछे हुए इकलौते सोफे पर
काफी कुछ ऐसा हो चुका था जो अब इकलौता नहीं था। बहुत कुछ देहों पर रचा जा चुका था
और बहुत कुछ लिखा जा चुका था। अनिकेत और रश्मि अपनी अपनी कहानियों में आगे बढ़ने के
लिए वह ऊर्जा ले चुके थे, जो न केवल उन्हें बांधे रखने के लिए पर्याप्त थी बल्कि
उनके रचनाकर्म को भी आगे बढाने के लिए भी कल्पवृक्ष थी।
अमित जब तक वापस
आया तब तक रश्मि पूरी तरह से संयत हो चुकी थी और अमित के प्रति और भी उदार। अब वह
उसके सेल्स टार्गेट के बारे में सुनना पसंद करने लगी थी, उसे समझ आ रहा था कि देह
की सारंगी बजाने में और निजी कम्पनियों में हाई पोस्ट पर सेल्स टार्गेट पूरा करने
में जमीन आसमान का अंतर है। उसके लिए जो महत्वपूर्ण है, वह उस दुनिया में बिलकुल
बेमजा और महत्वहीन है जिस दुनिया में अमित है। उसे अमित पर लाड़ आने लगा। दिन भर घर
से दूर रहकर वह रिया के लिए भी और संवेदनशील हो गयी थी, अब वह उसके होमवर्क का और
ख्याल रखती। उसके प्रोजेक्ट वर्क भी और क्रिएटिव तरीके से करने लगी थी।
रश्मि को भावनाओं
और कर्तव्यों के मध्य संतुलन साधना आ गया था। अनिकेत जब तब दिन में उसके ऑफिस आते
और फिर वह आवारा हवा से बनकर पूरे दिन बहा करती। आवारा हवा उसकी पहली कहानी थी!
अनिकेत उसे हवा कहता, अपनी देह गंध कहता, वह आत्ममुग्ध होकर अपनी देह निहारती।
बेटी होने के बाद भी मद है भरपूर! इंद्र के दरबार की कोई अप्सरा सी लगती थी वह।
अप्सरा नृत्य रचती
थीं और वह कहानी। अनिकेत के साथ होने भर से ही वह एक संतुष्ट सी आत्मा हो गयी थी।
उसकी कहानियों में वही रंग आने लगे थे, जो समय के साथ कहीं खो गए थे। रश्मि का
भावनात्मक राग उतना ही प्रबल संवेग में था जितना होना चाहिए था।
“हम्म! तो आवारा
हवा!” एक दिन अनिकेत ने उसके बालों के साथ खेलते हुए कहा। उसने अपने बालों में
पीला क्लचर लगा रखा था। उसकी कहानी आज पूरी होने को थी।
“तो तुमने अंत क्या
सोचा है आवारा हवा?” अनिकेत ने पूछा! रश्मि ने अपनी कहानी के अंत के बारे में
बताया।
“मैं सोच रही थी कि
कहानी में दीक्षा को रमण से अलग कर दिया जाए! अंत में दोनों ही अपनी अपनी रह चले
जाएं!”
“हम्म” अनिकेत ने
हामी भरी
“मगर तुम्हें नहीं
लगता कि दीक्षा को आगे बढ़कर इस रिश्ते से बाहर नहीं आना चाहिए?” अनिकेत ने उसे
टोका।
उन लोगों को इस
रिश्ते में एक साल होने वाला था। इन दिनों उन दोनों की बातों पर एक कोहरा सा छाने
लगा था। ऐसा क्यों हो रहा था? अनिकेत के
लिए अब वह एक बूझी पहेली हो गयी थी। जैसे पाकिस्तान की सारी चालें अमेरिका के
सामने खुल गयी हों और अब वह नीतियाँ उसी के हिसाब से बना रहा हो। कितना सुकूनदायक
होता है, जब आप किसी को कतरा कतरा उधेड़ते हैं, और उस कतरा कतरा उधेड़ने के बाद
निकली ऊन से स्वेटर बुन डालते हैं। मगर
बार बार उसी को उधेड़ना और उसी को बुनना, काफी कुछ एकरसता सा ले आता है। या तो एक
दूसरे के साथ छल करते रहें, या खंडन करें! अनिकेत इस छल में माहिर नहीं थे। एकरसता
होते ही उनका विरोध कहानियों के माध्यम से दिखने लगता था।
“मुझे लगता है
दीक्षा को ही इस रिश्ते से बाहर आने के लिए पहल करनी चाहिए!” रश्मि ने अपने बालों
को अनिकेत के हाथों से लेते हुए कहा
अनिकेत के काले कोट
पर अभी तक उस लाल लिपस्टिक की छाप थी, जो रश्मि ने उसे पहली बार दी थी। अनिकेत को
वह कोट बहुत पसंद था, मगर अब वह कोट अधिकतर उसी ऑफिस में रखा रहता था। अनिकेत
पिछले कुछ दिनों से उस कोट में धूल आती देख रहे थे।
अनिकेत ने उस कोट
की तरफ नज़र अटकाकर कहा “दीक्षा क्या खुद ही पहल करेगी?”
रश्मि इस गंभीरता
से सिहर गयी! यह अनिकेत क्या कह रहे हैं? क्या कोई लड़की इस तरह पहल कर सकती है? कई
बार कई सवालों का जबाव समय पर छोड़ देना होता है। रश्मि ने अनिकेत की निगाह भांप ली।
अनिकेत का कोट झाड़ते हुए रश्मि ने कहा
“अभी अंत सोचा नहीं
है!”
अनिकेत ने उसके
हाथों को अपने हाथ में लेते हुए बेचैनी से हवा का रुख बदला “ अंत कभी सोचकर नहीं
लिखा जाता!”
उस शाम अनिकेत
जल्दी चला गया। उसका जल्दी चला जाना आज न जाने क्यों रश्मि को उतना नहीं खला,
जितना पहले खलता था। आज उसे एक ताजी सी हवा का अहसास हुआ। रश्मि को लगा कि कहानी
कैसे समय बदल लेती है। अभी पिछली ही कहानी में अनिकेत के साथ बैठकर उसने ढेरों
बातें की थीं। उस कहानी में रिश्तों के अनमने मोड़ से अनिकेत ने ही निकाला था और उस
कहानी को पुष्पक जैसी पत्रिका ने प्रकाशित किया था। जिस पत्रिका ने उसकी कई
कहानियां अस्वीकृत की थीं। पुष्पक में कहानी के प्रकाशित होने को उसने अनिकेत के
साथ जोड़ दिया था। शायद उसने नहीं, बाकियों ने!
वह जहां जाती
अनिकेत की छाया के रूप में जैसे वह विचरण करती। उसके लेखक साथी उसे अनिकेत के ही
मुखौटे से देखते। जैसे ही वह साहित्य अकादमी के सभागार में किसी भी कार्यक्रम में
प्रवेश करती, वैसे ही सब उससे अनिकेत के विषय में प्रश्न करने लगते। कई बार रश्मि को लगता जैसे उसके ऑफिस का ही
विस्तार यहाँ तक हो गया है और अनिकेत का व्यक्तित्व उसके अस्तित्व पर छा गया है।
व्यक्तित्व और अस्तित्व के बीच अब एक संघर्ष उत्पन्न हो गया था। और इस संघर्ष में
प्रेरणा कहीं खो रही थी। श्रद्धा और मनु के बीच संबंधों की जो सहजता थी वह कहीं
आवारा हवा के आवारापने में खो गयी थी। शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी के आधार पर
उसने जो अपनी कहानी लिखी थी और उसमें शकुन्तला को दुष्यंत से दूरी बरतते हुए
दिखाया था, तब भी अनिकेत ने उससे बहस की थी और अंत में शकुन्तला को दुष्यंत के साथ
ही दिखाने पर विवश कर दिया था अनिकेत ने। साहित्य अकादमी के हॉल में जब अनिकेत आते
वैसे ही साथी लेखकों के चेहरों पर विद्रूपता भरी मुस्कान आ जाती। ऐसे ही एक दिन
रीना ने उससे पूछ लिया था “मैडम, आपके पास तो कई साथी हैं न! और आपका साथ देने के
लिए आपके पति भी हैं, तो आप क्या जानेंगी कुछ समस्याएँ भी होती हैं!” रश्मि चौंक गयी थी।
जैसे खिड़की से रेत
का प्रवेश उसके कमरे में होने लगा था। रश्मि कई बार अस्तित्व की रेत में दब जाती।
वह अनिकेत के व्यक्तित्व की रेत को खुद से झाड़ते हुए खड़ी हो जाती, मगर जैसे ही वह
किसी कार्यक्रम में पहुँचती, वैसे ही वह रेत फिर से उस पर लग जाती।
जैसे जैसे रेत बढ़
रही थी, वैसे वैसे उसकी कहानियों की धार कुंद हो रही थी। अनिकेत की देह का रेशा
रेशा उधेड़ कर दूसरी बार बुन लेने के बाद, उन दोनों के बीच वही एकरसता उत्पन्न हो
गयी थी, जो अमित के साथ थी। रश्मि की कहानियों में नयापन समाप्त होने लग गया था।
ओह! वह क्या करे? एक तरफ उसे साहित्य जगत में अनिकेत की अमानत मान लिया गया है और
दूसरी तरफ अनिकेत के साथ सब कुछ परिचित और औपचारिक हो गया है। इसी औपचारिकता के
दंश ने उसे अमित से दूर किया था। मगर अमित की बात अलग है, वह उसका पति है। उसका
अधिकार है, उसकी रातों पर! वह उसकी बेटी की माँ है। अमित पर उसे लाड़ आता है, मगर
देह का उन्माद जिस चरम पर पहुंचना चाहिए और देह के माध्यम से उसे मन में जो संवेग
चाहिए, वह अमित नहीं दे सकता क्योंकि शायद अमित उस सीमा तक सोच नहीं सकता। अमित
उसके लिए सब कुछ है, मगर उस सब कुछ से भी इतर उसकी ज़िन्दगी है, जो उसे चाहिए। उसे
अपनी कहानियों में प्रवेश के लिए वह मार्ग चाहिए जो उसके एकांत और मौन से उपजता है।
और वह मौन उसे देह पर लिखी गयी इबारतों से प्राप्त होता है। उसे पता था जिस दिन
अमित को यह पता चलेगा, वह उसे छोड़ देगा। और होना भी यही चाहिए, स्त्री कैसे ऐसा कर
सकती है? मगर फिर वह अनिकेत की तरफ नज़र डालती है। अनिकेत और अन्य वरिष्ठ लोग तो न
जाने कितने गर्व से अपने किस्से सुनाते हैं। अभी पिछले दिनों ही आईसीसी में एक
लेखक के साथ दूसरी लेखिका के पति गुत्थमगुत्था हो गए थे क्योंकि दो घूँट हलक में
जाते ही उन वरिष्ठ लेखक ने अपनी वीरता का बखान करते हुए, उन लेखिका के साथ बिताए
हुए समय को रसपूर्ण तरीके से बता दिया था। और साहित्यिक हलकों में यह कई दिनों तक
चर्चा बनी रही थी। ऐसा एक बार और हो चुका था, तो रश्मि को इन सबसे बहुत भय लगता था।
वह अमित से इतना प्यार करती थी कि वह अमित के बिना जीने की सोच भी नहीं सकते थी।
हालांकि आर्थिक रूप से वह अमित पर कतई भी निर्भर नहीं थी, उसे हमेशा लगता था कि
आर्थिक निर्भरता रिश्तों पर बोझ बन जाती है। वह अमित से अपने दिल की गहराई से
प्यार करती थी, और उसकी हर छोटी से छोटी जरूरत का ध्यान रखती थी। वह अमित पर और
अमित उस पर निर्भर था।
मगर उसके साथ यह भी
सच था कि उसके अन्दर रिश्तों की और बातों की एकरसता उसे कुंठित करती थी और इसी
कुंठा से पार पाने के लिए वह हाथ पैर चलाती थी, उस हाथ पैर चलाने में शब्द आते थे
तो वह वहीं पर उमिठ जाते थे, अपने सम्पूर्ण रूप में आने के लिए उसे साथ चाहिए था।
रश्मि उस साथ को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहती थी।
रश्मि जितना सोचती,
उतना ही वह और उसी ऊन में गुंथती जाती, जो उसने उधेड़ कर फेंक दी थी। अनिकेत के
काले कोट में अब धूल चढ़ती जा रही थी। अनिकेत के चक्कर उसके ऑफिस में कम हो गए थे।
रश्मि ने भी ख़ास उसकी परवाह नहीं की थी। वह समय के प्रवाह को अवरोधित करने के पक्ष
में नहीं थी। यदि नदी के प्रवाह को मोड़ा जाए तो वह केवल विनाश गाथा रचती है और कुछ
नहीं, और रश्मि अपने जीवन में किसी भी प्रकार से विनाश या विध्वंस को नहीं चाहती
थी। अनिकेत उससे हमेशा ही डिस्ट्रेक्ट होकर रिश्ते निभाने की बात कहता था और उसे
भी अब अपने अस्तित्व की कीमत पर यही सही लगने लगा था। वह साहित्य में किसी की छाया
बनकर नहीं रह सकती थी।
रश्मि रोज़ उस काले
कोट को देखती। उस पर जिस तरह से धूल जम रही थी, वह उस धूल को झाड़ने की हिम्मत नहीं
कर पा रही थी। उसके हाथ उस कोट की तरफ बढ़ते और तभी अकादमी में धैया जी के सम्मान
वाली शाम को रश्मि की तरफ उठने वाली निगाहें उसे उस कोट को अनदेखा किए जाने पर
विवश कर देतीं।
“आइये आइये रश्मि
जी! अभी अनिकेत तो नहीं आए हैं!” उस दिन सहरावत जी बोल उठे थे।
“तो क्या हुआ!
अनिकेत तो शायद नहीं आएँगे, क्या मैं अनिकेत जी के बिना नहीं आ सकती?” रश्मि ने
कंधे उचकाकर कहा था।
रश्मि का कंधे
उचकाना सहरावत जी को अजीब लगा था, क्योंकि अनिकेत और रश्मि पिछले एक वर्षों से एक
साथ ही आ रहे थे। सहरावत जी बात को समझने में उस्ताद थे, अनिकेत को पिछले पंद्रह
वर्षों से जानते थे, जब से अनिकेत ने लेखन का अपना सफ़र शुरू किया था। अनिकेत
स्वतंत्र लेखन ही करता था, मगर उसका अपना नेटवर्क बहुत मजबूत था, अनिकेत के परिवार
में या तो लोग आईएएस अधिकारी थे, या फिर राजनीति में। और अनिकेत में वाक्कौशल के
साथ साथ लेखन भी था। अनिकेत साहित्य में एक अनिवार्य तत्व था और अनिकेत के
व्यक्तित्व में था ही कुछ ऐसा कि लोग आकर्षित हो जाते थे। और अनिकेत का व्यक्तित्व
दूसरे के अस्तित्व के लिए बरगद बन जाता था।
सहरावत जी पिछले दस वर्षों में कई रश्मियों को मुरझाते हुए देख चुके थे,
क्या यह रश्मि भी मुरझा जाएगी? रश्मि के कंधे उचकाने से वे थोड़े भ्रमित हुए। आज तक
अनिकेत की साथी किसी भी लेखिका ने यह सुनकर कंधे बेपरवाही से कंधे नहीं उचकाए थे
कि तो क्या हुआ! सहरावत जी ने तो उन आँखों में एक मुरझायापन देखा था। बस यही
उन्हें कुछ प्रश्नों में डाल रहा था।
रश्मि की कहानी
आवारा हवा को इस वर्ष का प्रतिष्ठित सम्मान मिलने की घोषणा हुई थी। रश्मि बहुत खुश
नहीं हो पा रही थी। उसे बार बार ऐसा लग रहा था कि कहीं न कहीं अनिकेत का हाथ है।
लोग दबी जुबान में फुसफुसा रहे थे “अनिकेत का हाथ जिस पर भी पड़ा है, उसे उस वर्ष
का युवा पुरस्कार मिला है। इस वर्ष रश्मि जी नाम तय ही लग रहा था,”
रश्मि की देह का
पोर पोर दुःख रहा था। बार बार उसे लगता जैसे उसकी देह की बोली लग रही है। आज कोई
उसे युवा दे रहा है, तो कल जिसके साथ वह अपने नितांत व्यक्तिगत क्षणों को जियेगी,
वह उसे और कोई सम्मान दिलाएगा? क्या सम्मानों की कीमत यह होती है? रश्मि उस दिन
पहली बार रोई थी। रश्मि का काजल उसकी आँखों से बाहर आ गया था।
“क्या बात है
रश्मि! इतना अन्धेरा क्यों है?” किसी की आवाज़ आई!
“कुछ नहीं मन नहीं
था किसी से बात करने का!” रश्मि ने उस आवाज़ का जबाव दिया।
इस क्षण रश्मि का
अस्तित्व किसी के व्यक्तित्व की छाया तले इतना दब गया था कि वह न ही आवाज़ को पहचान
पाई और न ही उस व्यक्ति को! रश्मि को लगा कि क्या वाकई हम जिन्हें जानते हैं,
उन्हें ही पहचान पाते हैं? उसे क्या पता था कि अनिकेत उसके साथ की कीमत इस
पुरस्कार से देंगे? क्या इसी वजह से वे नहीं आ रहे थे? रश्मि रो रही थी।
“रश्मि, आज तो
तुम्हारे खुश होने का दिन है और तुम इस तरह कैकयी बनकर कोपभवन में हो?” यह अनिकेत
ही था, जो उस आवारा हवा की पनाह में आ गया था।
रश्मि ने मुंह
उठाया। उसने सिगरेट सुलगाई।
“छि! फिर से!”
अनिकेत ने उसके मुंह से सिगरेट छीन ली
“आज ऐसी हालत क्यों
रश्मि?” अनिकेत ने उसे छूते हुए उसे गले लगाने का असफल प्रयास किया
“आपने ऐसा क्यों
किया?” रश्मि न तो अनिकेत के गले लगी और न ही उसने सिगरेट बुझाई
“तुम्हारे लिए मैं
आप कब से हो गया?” अनिकेत ने सोफे पर बैठते हुए कहा
“तभी से जब से आपने
मेरी देह की कीमत दी!” रश्मि ने एस्ट्रे में राख झाड़ी
“कीमत!”
“हाँ कीमत! क्या आप
दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि यह सम्मान मुझे केवल आपके साथ संबंधों के कारण
नहीं मिला है?”
“नहीं, रश्मि ऐसा
नहीं है! तुम गलत समझ रही हो!” अनिकेत ने उसे समझाने का प्रयास किया
“इस वर्ष मीनाक्षी
की कहानी इस सम्मान के लिए सबसे सही थी, मगर उसे न देकर मुझे दिया गया क्योंकि
आपका हाथ इस चयन में महत्वपूर्ण है और मीनाक्षी तो पिछले वर्ष ही आपसे अलग हो चुकी
है!” रश्मि ने अनिकेत की आँखों में आँखें डालकर जबाव दिया।
अनिकेत इस सवाल से
हिल गए। यह सच है कि अनिकेत ने रिश्ते को किसी लेनदेन में नहीं बांधा था, उन्हें
बस अपने जीवन में एकरसता नहीं चाहिए थी, मगर यह भी सच है कि इस सम्मान में अधिकतर
उन्हीं का नाम आता था जो उनके साथ होती थीं। दरअसल उन दिनों उनके दिमाग पर वही
कहानियां इस हद तक छाई रहती थीं कि वे चाहकर भी उन कहानियों की आत्ममुग्धता से
बाहर नहीं आ पाते थे। और उन्हीं कहानियों
को सम्मान दे बैठते थे, जो कहानियां उनके दिलो दिमाग पर छाई रहती थीं। शायद वे
अपनी छाप को सर्वश्रेष्ठ साबित करना चाहते थे। और यह भी बात सही है कि उन्हें
प्रेरणाएं केवल इसी पुरस्कार के कारण मिलती थीं। वे नाम के महत्व को पहचान गए थे।
“अनिकेत, मैं आपके
साथ किसी पुरस्कार के लालच में नहीं आई थी। न ही जो हमारे बीच हुआ और जो था वह
आत्म संतुष्टि के लिए था, वह पूर्ण पूर्णता के लिए था, न किसी लालच के लिए, न किसी
लोभ में! और खुद की देह पर लिखी गयी संतुष्टि की कीमत पर पुरस्कार! छि! जैसे मैं
किसी साहित्यिक कोठे पर बैठा दी गयी हूँ, और जहां पर बोलियाँ लग रही हैं, ये
सम्मान, वह सम्मान! अब आपके बाद जो भी आएगा, वह मुझे कुछ और सम्मान दे देगा, उसकी
निगाह में मैं अपनी देह की कीमत लेने वाली ही रह जाऊंगी।”
रश्मि बोलती जा रही
थी। अनिकेत को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर गलती कहाँ हुई। पिछले कुछ वर्षों से यही
तो होता आ रहा था। इतने लोगों को यह सम्मान मिला है, कभी इकलौता तो कभी संयुक्त।
मगर आज तक किसी ने भी इस तरह का कोई विलाप नहीं किया। यह विलाप कैसा? यह प्रलाप
कैसा? रश्मि आर्तनाद क्यों कर रही है? रश्मि रो नहीं रही है! वह शोक में है। जैसे
नदी शोक में होती है. नदी का शोक बहुत कुछ डुबो देता है, यह शोक किसकी बलि लेगा?
रश्मि को अपनी
आत्मा के इस शोकनाद से बाहर आने में कुछ क्षण लगे। तब तक सूरज पश्चिम पथ पर चलने
को तत्पर हो चला था। खिड़कियों के रास्ते सूरज को ढलते हुए देख रही थी और शायद इस
रिश्ते के सूरज को भी अस्तांचल का रुख कर देना था।
रश्मि ने अनिकेत से
कहा “मैं इस सम्मान में अपने चयन के प्रति अपनी अस्वीकृति व्यक्त करती हूँ। मैंने इस
अस्वीकृति को लेकर चयन समिति को पत्र लिख दिया है।”
अनिकेत इशारा समझ
गया था। अनिकेत ने देखा उसके काले कोट पर धूल का अम्बार लग गया था। उस परत के नीचे
कोट पर लगी हुई लिपस्टिक गायब हो गयी थी। दिख तो रही थी, मगर धुंधली सी।
“रीना के घर आपको
जाना है न?” रश्मि ने प्रश्न किया
“तुम्हें कैसे
पता?” अनिकेत चौंके!
“मैंने इस वर्ष के
इस युवा सम्मान के आमंत्रित लोगों में रीना का नाम देखा है, और रीना ही ऐसी है
जिसे अब स्थापित होना है!” रश्मि ने सिगरेट पीते पीते जबाव दिया।
“ओह, रश्मि! तुम
जानती ही हो! मैं बंधकर नहीं रह सकता। मगर यह फ्लर्ट नहीं है” अनिकेत ने उसका हाथ
पकड़ते हुए सहलाया
“जी, तभी आपने कीमत
देने की कोशिश की! मेरे लिए यह लेनदेन से परे का रिश्ता था। एक सच्ची दोस्ती का
रिश्ता, जिसमें कोई शर्त नहीं थी, बस यह पुकार कि जब हम एक दूसरे को चाहें, पा
लें! और क्या चाहा था। पर आपने तो सम्मान देकर मेरी देह और मेरे क्षणों की कीमत दे
दी!” रश्मि के हाथ अनिकेत के हाथों पर कस गए थे।
“तुम्हें दुःख हुआ
क्या?” अनिकेत ने उसके माथे को खुद से सटा लिया था
“नहीं!” रश्मि ने
अनिकेत की कमर में हाथ डालते हुए उससे कसते हुए कहा
“मुझे रीना के आपके
निकट आने पर दुःख नहीं हुआ है। वह तो कोट पर जिस दिन से धूल झाड़ने का मन नहीं हुआ
था, तब से ही मुझे लगने लगा था, कि कहीं न कहीं हमें अब अपने अपने रास्ते चलना
चाहिए, बस मुझे अपने संबंधों की कीमत नहीं चाहिए। मुझे चोट इस बात की लगी है। यदि
मैंने इसे स्वीकार कर लिया तो कल मेरे ऑफिस में मेरे मित्र नहीं, बल्कि वे लोग
आएँगे जो किसी न किसी पुरस्कार को दे सकते हैं। सम्मानों की कीमत पर देह नहीं दे
सकती मैं!”
“यह शर्ट तो राकेश
की है न!” दीवार पर टंगी हुई लाल शर्ट को देखकर अनिकेत चौंका
“जी,!”
अनिकेत के सामने सब
स्पष्ट था। उमस छंटने लगी थी, तभी अनिकेत को लग रहा था कि रश्मि की कहानियों में
वही तेवर कहाँ से आ गए थे।
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