शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

डिस्ट्क्शन मोड





उसका आना कहीं से भी उसे अकेला नहीं लग रहा था. उसका फोन आया सुबह सुबह “आओ, मिलना है”
पर वह तो थाईलैंड गया था!
ओह, सुबह के चार बजे हैं, क्या वह आ गया!
मेरा फोन बज रहा है लगातार. आधे घंटे पहले उसने फोन कर कहा था “आओ मिलना है” अब ये सूरज तो उगने दे.
मैंने अलसाई हथेलियों से फोन उठाया
“दरवाजा खोलो, मैं बाहर खड़ा हूं”
अरे ये पागल है क्या, ये क्यों आ गया! पर अभी तो आ गया था, कहीं मकान मालिक को पता चला कि अकेली लड़की को उन्होंने घर दिया है और उसमें तड़के चार बजे एक अजनबी का आना हो, ये कैसे बर्दाश्त होगा. पर अभी क्या करूं, अभी तो उस पागल के लिए दरवाज़ा खोलना ही होगा.
“ओह, निशा! मैं आ गया!”
उसने दरवाजा खुलते ही कहा. उसे देखकर ऐसा लग रहा था न जाने कितने जन्मों का पुण्य कमा कर आया है. उसके चेहरे पर एक संतोष की रेखा थी. जैसे हरिद्वार होकर आया हो.
उसके कंधे पर कोई बोझ सा मगर लटक रहा था. मुझे पता था कि मुझे बिना बताए वह मानेगा नहीं. और मेरी सुबह क्या, आज ऑफिस भी की भी छुट्टी करनी होगी.
महीने का एक दिन मुझे अपने इस पागल दोस्त के लिए रखना होता है. वह एकदम से आ जाता था, पत्रकार था, न जाने कैसे पत्रकारिता करता होगा. ओह! मैं अपना सिर पकड़ कर बैठी थी.
“चाय नहीं पिलाओगी? सीधा यहीं आया हूं!” उसने सोफे पर साधिकार पसरते हुए कहा.
“हां, क्यों नहीं! अब तुमने मुझे इतना बड़ा सरप्राइज़ दिया है” मैं बडबडाती हुई किचेन में चली गयी
“आ गया है, अब न जाने कब जाएगा” मैंने भुनभुनाते हुए गैस जलाई, और दो कप पानी चढ़ाया.
“अगर तुम चाहती हो तो मैं चला जाऊंगा!” मुझे पीछे से आवाज़ आई.
अरे, वह कब किचन में आ गया. वह बहुत ही मायूसी और थकान से बोल रहा था.
“अरे नहीं” मैं जैसे सकपका गयी
“नहीं, मैं जा रहा हूँ,” वह बाहर की तरफ जाते हुए बोला
“सुनो जाते हो तो जाओ, पर मुझे वह बताते जाओ, जो तुम बताने के लिए सीधे आ गए हो, नहीं तो तुम चाय भी नहीं उड़ेल पाओगे” मैंने जैसे उसे चुनौती दी.
उसके बढ़ते कदम रुक गए.
मेरा और उसका रिश्ता था ही ऐसा!
न जाने कब एक अजनबी केवल एक लेख को एडिट करने के बहाने से मेरे जीवन में घुस आया था. कई बार लगा कि वह मेरा क्या है, मेरे हाथों में शून्य ही आता.
खैर, अब उसकी कहानी सुननी ही थी.
बॉस को सुबह छह बजे बुखार का मेसेज करूंगी.
चाय लेकर मैं उसके साथ अपने कमरे में चली गयी. मैं बिस्तर में घुस गयी और वह दूसरे कोने पर बैठ गया.
“आराम से बैठो” मैंने लिहाफ ओढ़ते हुए कहा
वह भी बैठ गया. उसने अपने जूते उतारे और बहुत ही बेफिक्री से मेरे लिहाफ में घुस गया.
कभी कभी मुझे उसकी इतनी बेफिक्री सुहाती नहीं थी.
वह उतनी ही बेफिक्री से मुझे अपने जीवन की पिछली बातें बताता था. मुझे याद है वह एक दिन, जब उसे उसकी प्रेमिका से बिछड़े हुए एक साल हुआ था.
और वह फिर आ गया था, ऐसी ही रोनी सूरत बनाकर, ऑफिस में आते ही रिसेप्शन पर हंगामा कर दिया. किसी तरह से बॉस को समझा बुझा कर मैं उसे लेकर आई.
आते ही उसने बियर खोली. मेरे लिए स्कॉच लाया था, उसे पता था कि मुझे स्कॉच बहुत पसंद है.
“पी लो, कभी कभी पति के बिना भी पीना चाहिए” वह हंसा था.
“तुम ये नाटक करने के लिए मुझे घर लाए हो” मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था.
मगर मेरे लिए स्कॉच बनाकर वह एकदम से शांत बैठ गया. उसे पता है कि मैं यहाँ पर पति के बिना रहती हूं. मेरे पति इंदौर में हैं. मैं भी वहीं थी, पर नौकरी के चक्कर में आ गयी. यहाँ पर अकेले रहती हूं. हां, अब यह साधिकार आ जाता है.  
“आज ही का दिन था, जब वह गयी थी”
“वह?” मेरा घूँट गले में ही फँस गया.
“हां, वह” वह बियर गटकते हुए बोला
“कौन? तुम्हारी बीवी तो है तुम्हारे साथ?” मैंने कहा
“यार, तुम अजीब अहमक हो” वह बियर को एकदम से नीचे रखते हुए बोला
“वह, माने गीतिका”
“गीतिका? अब ये गीतिका कौन है” मैं चौंकी!
“गीतिका मेरी ज़िन्दगी थी, मेरा प्यार थी. मेरी गर्लफ्रेंड थी!” वह बोलता जा रहा था
“और तनया?” मैंने पूछा
“मेरी बीवी है यार वह!” वह झुंझला रहा था
“सुनो मेरा दिमाग न खराब करो, तुम्हारी शादी को दस साल हुए. दो बेटे हैं. तनया है. अच्छी खासी ज़िन्दगी है, फिर गीतिका कौन है?” मैं झुंझला रही थी.
“मेरा प्यार!” वह बोलता जा रहा था
“क्या?” मेरे हाथ से गिलास गिरते गिरते बचा
“यार बीवी और प्यार में जमीन आसमान का अंतर होता है. तनया मेरी बीवी है, सही है. पर मैंने प्यार गीतिका से किया था!” उसके गले में दुःख के कारण दर्द होने लगा था. वह बार बार अपना गला दबा रहा था. वह बार बार बियर गटकते हुए न जाने कौन सी कहानी गटक रहा था.
“तनया मेरे जीवन का हिस्सा है, और गीतिका आत्मा का”
बोलते हुए वह मुझे पागल सा बना रहा था, मेरे लिए एकदम अजीब था यह सब! मेरी कल्पनाओं से परे! शादी हो गयी तो बाद में दिल का भटकना कैसा? पर वह ऐसा नहीं था, उसके लिए शादी और प्यार दोनों ही अलग बाते थीं. वह बोलता जा रहा था और मैं उसकी कहानी में खोती जा रही थी.
गीतिका से उसे बहुत प्यार था, ऐसा उसका कहना था. पर इस प्यार की शुरुआत भी उसने नहीं की थी, गीतिका ने की थी. वह ही बिना दस्तक दिए चली आई थी उसकी ज़िन्दगी में. एक उभरती हुई पत्रकार थी गीतिका. छोटे शहर की थी. सुंदर, बेबाक और अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने वाली. चैनलों की दुनिया में अपना नाम देखने वाली. महत्वाकांक्षा से लबरेज. उसने खुद को बहुत रोका. उसके सामने तनया का चेहरा था, उसके दोनों बच्चों का चेहरा था. मगर गीतिका ने जैसे उसके किले को ढहा दिया. गीतिका के प्यार के सामने वह एकदम बेबस हो गया था. तीन साल उसने गीतिका के साथ जिए.
उसके हिसाब से उसने गीतिका को ही प्यार किया, तनया की इज्ज़त करता था.  तनया ने उसे सामाजिक रूप से पूरा किया था और गीतिका ने शारीरिक. वह दैहिक रूप से अगर ज़िन्दगी जी सका था तो केवल गीतिका के साथ. देह से पूर्णता क्या होती है, यह गीतिका ने उसे बताया. उसके सामने जैसे जीवन का एक नया अध्याय शुरू किया. गीतिका के लिए वह क्या था, ये उसे नहीं पता था. पर गीतिका उसके लिए उसके लिए वह घटा थी जो केवल उसपर ही बरसने के लिए थी. उसमें केवल उसीके लिए ही पानी है, रस है. वह केवल उसकी है.
“यार सोशली तनया ही मेरी बीवी है, सब कुछ दिया उसने! स्टेबिलिटी दी, फाइनेंशियली, मेंटली. मगर फिज़िकली!”
वह बोल रहा था.
“फिजिकली क्या?, क्या तुम्हारे लिए केवल प्यार फिजिकली ही है?” मैंने गुस्से में पूछा. उस समय शाम ढलने लगी थी. रात अपने पैर पसारने की तैयारी में थी. मुझे खाना भी बाहर से ही आर्डर करना था. वैसे दिल्ली में यह सहूलियत है कि खाना कभी भी घर पर आ जाता है.
मगर, अब मेरे मन में उसके आदर्शवादी विचारों और निजी ज़िन्दगी को लेकर एक अजीब द्वन्द था. वह तमाम आदर्श बांचता था अपने ब्लॉग में. संस्कार, धर्म और निजी ज़िन्दगी में? निजी जिंदगी में ये ऐसा?
“बेवकूफ हो तुम!” वह गुर्राया
“अगर फिजिकली ही सब कुछ होता, तो तुम पर अभी तक अटैक न किया होता? मैं राक्षस हूं क्या? जबकि मैं जानता हूं, कि आज जिसे हां कर दूं, वह मेरे बिस्तर पर हो! द ग्रेट नीरज हूं मैं! द ग्रेट ब्लॉगर, फेमस राइटर. जानती हो न कितने नेताओं से जान पहचान है!” वह बियर के नशे में गुर्राता जा रहा था.
मुझे इस दिन उससे बहुत डर लगा! ओह, वह ऐसा ही था!
क्या सो कॉल्ड इंटलेक्चुअल ऐसे होते हैं? मैं डरती जा रही थी. पर मेरा डर निर्मूल साबित हुआ. उसे तो खुद इस समय सहारे की जरूरत थी. जैसे जैसे घड़ी की सुई आगे बढ़ रही थी, उसका नशा, उसका दर्द और उसकी तड़प आगे बढ़ रही थी.
वह  बियर की रौ में कहानी सुनाता रहा था, और मैं पागलों की तरह सुन रही थी. वह रो रहा था और मैं उसे चुप कैसे कराऊँ? मैं कौन थी उसकी. एक परिचित ही तो, जिसका लेख उसने कुछ दिन पहले एडिट किया था. और वह उसके घर में उसके सामने बैठकर अपनी जिंदगी के पन्ने खोले बैठा है.
उफ, मैं क्या करूं? पति के अलावा आज तक किसी आदमी को इतना नज़दीक नहीं देखा था, और इस तरह दिल खोलते हुए तो पति को भी नहीं देखा था. देह का रिश्ता तो केवल एक ही तह का होता है. जैसे ही संतुष्टि की चादर ओढ़ी, वैसे ही देह का पृथक्कीकरण हो जाता है. जैसे एक भाप बनकर उड़ गया, बिस्तर के एक कोने में और दूसरा भी निढाल सा चादर पर लेट गया.
ऐसे में ये आदमी मेरे सामने रो रहा है, उफ! ये पागल आदमी ने किस मुसीबत में डाल दिया. मैं उस दिन को कोस रही थी, जिस दिन मैंने इससे मदद माँगी थी. अब भुगतो.
मैंने स्कॉच का गिलास रखा! उसका चेहरा उठाया.
उसकी निर्दोष आँखों से गिरते हुए आंसू मुझे भी भिगो रहे थे. कोई आदमी ऐसा हो सकता है? आदमी रोता भी है? और इतना खुलकर अपना मन खोलता है? अपने मन की पिटारी में वह कितना अकेला होता है? बाहर कितना भी फैन फोलोइंग हो! कितने भी प्रशंसक हों, आदमी अकेला होता है!
कौन भरोसा करेगा कि जिस आदमी के सोशल मीडिया में पांच हजार दोस्त थे, दस हजार से ज्यादा फोलोअर, और जिसकी हर पोस्ट सैकड़ों में शेयर हो, वह मेरे सामने ऐसे बैठा है, वह हजारों आंसू बहा रहा है, वह केवल एक लड़की के पीछे रो रहा है. और मुझे उस समय अजीब से भाव आ रहे हैं, आखिर क्या ख़ास होगा उसमें? जो उसके पीछे इतना नामी आदमी रो रहा है, और वह भी मुझ जैसी लडकी के सामने?
मैंने उसे रो लेने दिया. उसका जूनून थी गीतिका. कोई लडकी किसी शादीशुदा आदमी का जूनून हो सकती है, ये मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं था.
स्कॉच का नशा गायब हो गया था.
उस रात वह मेरे ही साथ रहा. वह सोफे पर बैठा रहा, न जाने कितनी गिरहें खोलता रहा! न जाने कितनी कथाओं की सैर कराता रहा. वह खोज रहा था, पिछले एक साल से गीतिका को! न जाने किस किस में? वह बहुत ही भटक रहा था! पिछले एक साल में गीतिका जैसे समर्पण के लिए न जाने कितने दरों पर दस्तक दे चुका था. पर जैसे ही वह देह के द्वार खोलता, उसकी यादों में बैठी गीतिका की जैसे वहां आ जाती.
वह उस देह के द्वार ब्रा के हुक के साथ बंद कर देता. और भाग जाता.
वह भाग रहा था.
गीतिका थी नहीं! तनया को इज्ज़त देता था, वैसे भी तनया अपनी नौकरी और दोनों बच्चों के साथ अपना पत्नी धर्म सही तरीके से निभा रही थी.
वह अपने हर दर्द को अपने लेखों में पिरो देता. एक बार फिर से तमाम लडकियां उसकी लेखनी की फैन हो जातीं. “ओह सर, वाऊ, सच अ नाईस पोस्ट?” आदि से उसकी सारी पोस्ट भर जातीं,
और उसके सामने आ जाते तमाम मोती, पर वह किसी मोती को अपनी अंगूठी में नहीं डाल पाता. वहां पर अद्रश्य रूप से गीतिका बैठी हुई थी. वह गीतिका को हटाकर किसी और को उंगली में ले ही नहीं पाता.
उसके दिल के एक कोने में बैठी गीतिका ने न जाने उस पर कौन सा मंतर फूँक दिया था.
खैर वह रात बहुत भारी थी, मेरे लिए भी क्योंकि मेरे सामने पति के अलावा एक गैर मर्द बैठा था! और वह अपनी तमाम कथाओं के बीच ऐसा दर्द लेकर बैठा था, जिसमे उसे छूना आम था. स्वाभाविक था. पर मेरे लिए, मेरे लिए वह इतना स्वाभाविक न था!
ओह, वह रात! मैंने उसे बहने से रोका और खुद को भी!
उस रात के बाद हमारी दोस्ती गहरी हो गयी. अब वह बेशर्म सा हो गया था, जब चाहता रात के कितने भी पहर चला आता. जब मेरे पति आते थे तब उनसे मिलने शाम को आता, हम तीनों की महफिलें जमतीं. खैर, उसकी लोकप्रियता ही इतनी थी कि मेरे पति को जरा सा भी संदेह न था कि उनकी बीवी जैसी साधारण महिला के जीवन में और कोई भी आ सकता है.
“ओ हेलो” उसने लिहाफ के अंदर मेरे पैर के अंगूठे को नोचा!
मैं जागकर वर्तमान में आई.
“ये क्या बदतमीजी है!” मैंने तुनक कर कहा
“अरे यार, तुम्हारे यहाँ आकर मैंने पंद्रह मिनट की एक झपके ले ली, तारो ताज़ा हो गया और तुम?” उसने पूछा
“मैं?” मैं जैसे जागी
“चलो चाय गर्म कर के लाओ” उसने कहा
वह अब ताज़ा लग रहा था, अब वह कहने के एकदम मूड में था. और मैं भी उसके कथा संसार में घूमना चाहती थी.
सच कहूं तो मुझे अच्छा लगता था, बहुत गुदगुदाता भी था, कि इतना पोप्युलर और खूबसूरत शख्स मेरे सामने दिल और देह की सब बातें खोल देता है.  उस समय मैं खुद को टॉप ऑफ द वर्ल्ड समझती, पर जैसे ही गीतिका और तनया की महानता के किस्से वह कहने लगता वैसे ही मैं झाड से जमीन पर आ जाती.
पर!
यह जीवन था!
मैं चाय लेकर पहुँची तो वह संत की मुद्रा में बैठा हुआ था.
“चाय!” मैंने कहा
“हां”
अब बताओ, जो तुम बताना चाहते हो, और जिसके कारण भोरे भोरे ही तुम आ गए” मैंने चाय का कप पकड़ते हुए कहा
वह शांत हो गया. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं जो उधेड़े ये अपने विचारों का स्वेटर. बस एक ही टांका खुलने की देर थी और फिर गुल्ला मैं बनाने लगती. पर!
धीरे धीरे पांच बज गया. उसने तनया को फोन किया कि वह घर कल आएगा!
उसने चाय का घूँट भरा.
“तुम जानती ही हो कि मैं कितना भटक रहा था, न जाने कितना! गीतिका मुझमें समाई है, मैं उससे भागते हुए न जाने कहाँ तक पहुँच गया! तुम जानती हो मुझे मुक्ति चाहिए थी.
वह चाय पीते पीते बोल रहा था.
गीतिका से बचने के लिए वह रंगीनियों में खो जाना चाहता था. वह चाहता था कि वह गीतिका से सुंदर लडकी की देह का हिस्सा बन जाए. गीतिका से इतनी दूर चला जाए कि गीतिका की  छाया से भी दूर हो जाए.
पर क्या यह इतना आसान था!
गीतिका बहुत अन्दर तक उसकी नसों में थी. वह बादलों में थी, वह उसके रोम रोम में थी. वह कैसे जी लेता था ऐसी ज़िन्दगी?
गीतिका का जाना उसके लिए सदमा था, जिसे वह कभी भूल नहीं सका. वह भाग रहा था, मगर किससे? ये उसे भी नहीं पता था!
मुझे बहुत जलन होती थी गीतिका से. उस अजनबी लड़की पर मुझे बहुत गुस्सा आता. मुझे लगता कि आखिर उस लड़की में क्या खास है ऐसा जो यह आदमी इस तरह उसके पीछे पागल है. अपना कैरियर भी दांव पर लगाए हुए है. न जाने कब इस आदमी का पागलपन ख़त्म होगा. वह कब सामान्य होगा.
खैर, उसने अपनी थाईलैंड की बातें बतानी शुरू कीं.
मैं एक एक कप चाय और बनाकर ले आई थी. सच कहूं, तो मुझे उस पर तरस आता था. मुझे लगता था कि किसी छोटे बच्चे की कोई इच्छा अतृप्त रह गयी है.
वह लिहाफ में अपना मुंह घुसाए न जाने क्या बाते करता हुआ जा रहा था. और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही हो. वह मेरे सामने ऐसा हो क्यों जाता था? वह हल्की हल्की खुद की तह खोलता जाता था. ऐसे ही वह अब एक और तह खोलने जा रहा था. मैं चाय का कप लेकर तैयार थी. पर वह समय ले रहा था. जैसे उस बूंदाबांदी से खुद को बचाने की इच्छा हो. वह बहुत साहस जुटा रहा था. मुझे नहीं पता कि आखिर उसे साहस की जरूरत क्या थी?  अब तक उसका मेरे साथ बहुत ही सहज संवाद रहा था. वह आता था, अपने दिल की बात करता था, कोई संकोच नहीं. कोई हम लोगों के बीच दीवार नहीं.
“एक कप चाय और मिलेगी?” उसने उठते हुए कहा
“मुझे अब डर लग रहा है, तुम कुछ बोल क्यों नहीं रहे?” मैंने उठते हुए कहा
उसने मुझे एक नज़र देखा और कहा “चाय ले आओ न!”
ऐसा लगा जैसे वह अपने शब्दों को नाप तौल रहा हो.
चाय बनाते समय जैसे विचारों के बादल खौलते रहे. मैं झंझावातों में घिरी रही. वह उतनी देर तक न जाने क्या सोचता रहा. मैं भी उमस के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही थी. उमस बढ़ रही थी, बादल उमड़ रहे थे. बरसने की तैयारी में थे.
मुझे अब बहुत असहज लग रहा था. हालांकि सुबह के साढ़े ही पांच बजे थे, पर ऐसा लग रहा था, कि बहुत देर हो गयी थी. जैसे एक युग बीत गया हो, जैसे कोई सिगरेट बहुत देर से सुलग रही हो, जैसे कोई चातक बहुत देर से पानी का इंतज़ार कर रहा हो. उसके दिल में कोई सिगरेट सी सुलग रही थी. मैं उसकी सुलगन को महसूस कर रही थी.  वह मेरे अन्दर भी सुलग रही थी.
पूरब में हल्की हल्की लालिमा होने लगी थी. आज बादल से लग रहे थे. जून में सुबह तो ठंडी रहती है. पर जैसे जैसे दिन उगने लगता है, वैसे वैसे धूप अपने पैर पसारने लगती है. मैं चाहती थी कि धूप के आने तक वह अपनी बात कह ले. उसकी बातों की आंच और धूप दोनों को शायद मैं सह न पाऊं.
चाय लेकर मैं पहुँची तो वह सो चुका था. उसकी आंखें बंद थीं. उसकी आंखों में जैसे एक तूफान बसा हुआ था. हालांकि मैं उस तूफान को कई बार झेल चुकी थी, पर इस बार का तूफान तो जैसे अपने अंदर बहुत कुछ समेटे था.
मुझे लग रहा था कि जैसे इस बार कुछ ख़ास है. वह बुद्ध की तरह कोई ज्ञान तो लेकर नहीं लौटा है. उसकी आंखों में जिस तरह से संतोष था, उस समय अब वह एक अजीब शांति में बदल गया था. तूफान से पहले की शान्ति. मैंने उसे जगाया. वह एकदम से चौंक कर उठा, जैसे एक भयभीत कबूतर, बिल्ली के आने से चौंक जाता है. मैं डर गयी. वह लिहाफ में सिमटा बैठा था.
चाय के धुंए को अपने अंदर समेटते हुए उसने बताना शुरू किया.
बकौल उसके, वह अपने अंदर के तूफान को समेटे हुए कुछ दिनों के लिए दूर चला गया था.
थाईलैंड में इतनी सुंदर लडकियां थीं और वह उनकी सुंदरता में सब कुछ खो देना चाहता था. थाईलैंड में सब कुछ खुला था. मसाज सेंटर आदि के नाम पर जो खुलापन था, वह उसे बर्बाद करने के लिए काफी था. वह भी बर्बाद हो जान चाहता था. उसे खुद को उस बारूद में झोंक देना था. उसे विस्फोट में उड़ा देना था खुद को. पर वह विस्फोट किस तरह का था ये उसे भी नहीं पता था.
हां, तो वह गीतिका की देह से मुक्ति की चाह लिए देह की रंगीले संसार में पहुँच गया. जहां पर कोई रोक नहीं थी, कोई टोक नहीं थी. सब कुछ तो था. उसकी जेब में पैसे भी थे. मगर वह रीता चला आया था. देह को एकदम अनछुआ रखते हुए, किसी को भी छुए बिना!
“ये कैसे हो सकता है?” मैंने उससे पूछा! मेरे हाथ से चाय का प्याला छूटते हुए बचा
“यह सच है!” उसने कहीं दूर निहारते हुए ताकते हुए कहा
वह लिहाफ को तोड़ने मरोड़ने की कोशिश कर रहा था.
वह जैसे खुद से एक जंग लड़ रहा था.
ये कैसे हो सकता है कि जिस जन्नत में जाने के लिए, रंगीनियों की बारिश में भीगने के लिए लाखों लोग जहां जाते थे, वे देह की गंगा में गोते लगाने जाते थे, उसमें से वह एकदम कोरा चला आया. जबकि वह गया ही था,  वहां गीतिका को भुलाने के लिए.
अगर ऐसा था तो फिर उसके चेहरे पर संतोष क्यों था?
वह खड़ा हुआ, जैसे उसने कुछ झाड़ा हो!
वह कहता रहा.
जब वह अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंचा तो कई लोग तो दोपहर में ही ख़ास तलाश में निकल लिए. रात के बाज़ार को किस तरह उन्होंने दोपहर में अपने लिए तलाश लिया, इसके लिए इस महान देश के नागरिकों की तारीफ जितनी हो, उतनी ही कम. और वह वहां पर बौद्ध धर्म के मंदिरों को खोजता रहा. उसे खुद ही नहीं पता चल रहा था कि वह किस शांति के लिए आया था. बौद्ध धर्म के तो तमाम मंदिर भारत में थे, सारनाथ जा सकता था.

रात हुई, वहां के चलन के अनुसार के एक क्लब में लडकियां आपके साथ बीयर आदि पीती हैं, तो उन्हें पास बैठाकर बात करते करते कीमत तय करने के बाद उनके साथ रात बिताई जा सकती है. कार्य के प्रति समर्पित वे लडकियां पहले हाथ जोड़ कर भगवान को प्रणाम करती हैं, और फिर किसी पूजा की तरह अपने काम को करती हैं. उसकी मेज पर भी बियर की दो बोतल रखी थीं. उसने बियर की बोतल खोली. उसने आज सोच लिया था कि वह गीतिका का निशान अपनी देह से मिटा देगा.  अपनी देह पर गीतिका की हर छुअन को खरोच कर फ़ेंक देगा. बस बहुत हुआ, अब उसे जाना ही होगा, उसकी छुअन को मेरी देह से जाना ही होगा.
जैसे ही उसने बियर की बोतल खोली, उसके पास एक लडकी आ गयी. बातचीत शुरू हुई. वह लड़की बहुत ही प्यारी थी. थाई लडकी, गोरी, कोमल और मासूम. बातें करते हुए पता चला कि उसकी एक बेटी है. और वहां पर इस काम को बुरा नहीं माना जाता. अर्थव्यवस्था का आधार है ये पेशा. काम के लिए एकदम समर्पित थी. उससे खूब बातें की, दो तीन बोतल बियर की जब निपटा चुका तो वह उसे लेकर कमरे में गया.
उसके दिल में भावनाओं की सुनामी आई हुई थी. उसे नहीं पता था आखिर वह जा कहाँ रहा है? और वह आगे क्या करेगा?
गीतिका क्यों थी जिंदगी में? और क्यों आई थी? उस लड़की के साथ मिलकर उन पलों को दोहराकर वह फ़ेंक देना चाहता था गीतिका को. अगर वह नहीं तो कोई और? नहीं तो कोई और? मगर वह जाएगा तो गीतिका को भुलाकर ही! पर क्या यादों से पार पाना और जुनूनी प्यार के अवशेषों को कुचल पाना इतना आसान है क्या?
जैसे आईएसआईएस ने इतने सुन्दर पल्माइरा शहर को नष्ट कर दिया, वैसे ही वह कर देना चाहता था, एकदम से नष्ट. जैसे बामियान के बुद्ध उड़ गए थे, वैसे ही वह अपने जेहन से उड़ा देना चाहता था. उसे इस समय वह लड़की कोई हथियारों से सुसज्जित लग रही थी, और वह उस कोमल देह के नीचे खुद को दबा देना चाहता था.
पर क्या वाकई हो सका ऐसा?
उन दोस्तों के साथ एक अधेड़ व्यक्ति भी गए थे. जो किसी तरह इस ट्रिप का तो इंतजाम कर सके थे, पर इस रंगीनी का मजा उठाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे. आज पूरी दोपहर वह उनके साथ बैठा रहा था. अपने उम्र के पचासवें पायदान पर खड़े उन सज्जन को यहां से सूने जा पाने का बहुत अफसोस हो रहा था. उनके सामने रंगीनियों का समुन्दर था, पर वे उसमें से एक बूँद से भी नहा नहीं पा रहे थे. उनका मन था, पर उन्हें अपने बच्चों के लिए गिफ्ट, बीवी के लिए कोस्मेटिक आदि लेने थे. तो बाकी इस रंगीनी में गोता लगाने के लिए उनके पास कुछ बचा नहीं था. आज वे उसे निरीह लग रहे थे, इतने निरीह जैसे किसी के सामने मिठाई का टोकरा है, पर वह खा नहीं सकता.
वह जब अपने कमरे में उस लडकी को लेकर जा रहा था, तब वे वहीं लॉबी में बैठे थे. शांत, कहीं दूर निहारते हुए. वे बियर की बोतल लेकर बैठे हुए थे.  न जाने क्या सोच रहे होंगे? वे शांतनु की तरह सत्यवती की तलाश में थे. पर उनके पास सत्यवती के आने की भी कोई शर्त होगी? शांतनु तो राजा थे, उनके पास क्या कमी? वे चाहते तो सत्यवती को तुरंत अपने आगोश में ले सकते थे! मगर सत्यवती को पाने के लिए तमाम शर्तें माननी पडीं, तब उस देह के पास सत्यवती आ पाई! देह की लिप्सा के कारण ही महाभारत की नींव पड़ी, ओह! वे किस शर्त पर एक रात के लिए अपनी सत्यवती को पा सकते हैं? नहीं नहीं! उन्हें चाहिए थी, पर वे मूल्य चुका पाने में असमर्थ थे?
ओह!
इधर उसके साथ वह लडकी कदम बढ़ा रही थी, वह एक बवंडर से गुजर रहा था. न जाने कहां से बामियान के बुद्ध उसके दिमाग में जिंदा हो गए, और आ गए उसके सामने अपनी मुस्कान लेकर. बुद्ध के इस देश में वह भी जैसे बुद्ध बन गया, वह वापस मुड़ा और उसने उस लड़की को पैसे देकर, उन सज्जन के साथ विदा कर दिया.
“तुम्हें पता” वह बोला
“क्या” मैं जैसे बैंकॉक के उस होटल की लॉबी से अपने घर में वापस आई
“मैंने जैसे ही उन्हें उस लड़की का हाथ सौंपा, उस रात के लिए, उनकी आंखों में एक अजीब सी संतुष्टि थी. मैं उनका कृतज्ञ चेहरा नहीं भूल सकता! अगर दुनिया में कोई पुण्य का काम हो सकता है, तो मैंने वह किया है. साला इतनी लड़कियों के पास गया हूं, उनकी भावनाओं को तोड़कर भागा हूं, सिगरेट पीता हूं, शराब पीता हूं इन शोर्ट साला, सारे बुरे काम करता हूं.” उसकी बोली में शब्दों का भार हो रहा था. वह जैसे छुटकारा पा लेना चाहता था.
“बहुत पापी हूं मैं, पर किसी को दैहिक संतुष्टि देना, उसके लिए एक लड़की देने का सुख, ओह निशा, मुझे लगा जैसे मुझे मेरे हिस्से का पुण्य मिल गया!” घड़ी की चाल से बेखबर वह बोलता जा रहा था
“चाय और पियोगे” मैंने पूछा, मैं ब्रेक चाहती थी.
“हां, यार ले आओ” मैं चाय फिर से बनाने चली गयी. और मैं सोच रही थी कि यह आदमी कैसा पागल था? कैसा
भ्रमित था यह आदमी? पाप-पुण्य तो मानता ही नहीं था. फिर?
वह मेरे कमरे में लगे मनीप्लांट को घूरे जा रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे एक और तूफान उसके मन में था
“सच कहूं यार!” उसने चाय और हल्दीराम की नमकीन का घूँट भरा.
जून की सुबह ही तपने लगती है और अब तो सात बज गया था. कामवाली को भी फोन करके मना किया, नहीं तो क्या सोचती?
बॉस को भी मेसेज किया कि बुखार है.
“यार, बहुत अरसे बाद मुझे संतोष मिला. देह का सुख इतना अनमोल होता है, ये तो मुझे पता ही नहीं था!”     
“हम्म!” मैंने भी कहीं दूर से ही जबाव दिया.
“यार, सुबह के समय उस आदमी के चेहरे को मैं भूल नहीं पा रहा” वह चाय सुटकते हुए बोलता जा रहा था.
“उसका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे उसे न जाने क्या मिल गया हो!”
“हां, होता है!” मैंने जैसे उसे टरकाने के लिए कहा, अब मैं थक गयी थी. सोना चाह रही थी, तीन घंटे से उसके साथ उसकी बातें सुन रही थी.
“होता है माने?” वह चिढ गया
“इधर मैं तुम्हें अपनी बात बता रहा हूं, और तुम्हारे लिए होता है, चलता है! टाइप!” वह चिढ़कर उठने लगा
मैंने उसे उठ जाने दिया, क्योंकि मुझे पता था कि अभी उसकी बात पूरी नहीं हुई है, वह जाएगा नहीं. मैं बैठी रही.
मेरा अंदाजा सही था. वह नहीं गया.
वह बैठ गया. अभी उसके मन में बहुत कुछ था.
“हां, तो उन्होंने मुझे रात का किस्सा बताया! बोले, “मैं आज फिर से जवान हो गया. मुझे मेरी जिंदगी के सबसे अनमोल लम्हे मिले थे. मुझे अजीब संतुष्टि दी है यार, तुमने. तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी हों” मुझे ऐसा लग रहा था जैसे शांतनु, भीष्म को आशीर्वाद दे रहे हों. मैंने अपना सुख छोड़कर उन्हें वह सुख दिया था, पर सच कहूं तो मेरा मन भी नहीं हुआ था!” वह बोल रहा था
“हां, गीतिका छाई रहती है न!”
“हां, हो सकता है, पर मैं यहां एक और बात करने आया हूँ!” बादल एकदम से जैसे गहरा गए, फिर से उमस होने लगी.
“अब क्या!” अब मैं भी उकता रही थी. इस आदमी का पागलपन कभी कभी मेरी क्षमता से ज्यादा हो जाता था. अब बता दिया कि जिस लड़की को तय किया, उन्हें उस आदमी को दे दिया. और फिर तीन दिन, दो रातों का पैकेज था ही कितना! और उस पे भी एक दिन बैंकोक में बम विस्फोट हो गया था.
अब और क्या था इस आदमी की पिटारी में?
“हां बोलो!”
फिर शांति!
दम घोटूं शांति!
बोलो” मैंने कहा
“वो, वो” हकलाते हुए बोला
“हां!” अब बोलो न
उसने अपने सूखे होंठों पर जीभ फिराते हुए कुछ कहने की कोशिश की. न जाने वह इतनी देर क्यों लगा रहा था. वह अपने और तनया के रिश्ते के बारे में, अपने और गीतिका के रिश्ते के बारे में और गीतिका की तलाश में वह जिन जिन लड़कियों के पास गया, उन सबके बारे में बताते हुए कभी नहीं हिचका. आज वह इतना हिचक क्यों रहा  था? आखिर क्या था इस आदमी के मन में? नीरज के मन में?
नीरज जो एक प्रखर लेखक था, पत्रकार था. ब्लॉगर था, अपनी कलम के जरिये झकझोर देने वाले लेख लिखता था. राष्ट्रवाद आदि पर उसकी पकड़ बेजोड़ थी. मगर, उसके दिल की बात क्या थी शायद मैं और एक दो लोग जानते होंगे.
दुनिया को खूबसूरत बनाना चाहता था. बहुत खूबसूरत! रंगों में खेलता हुआ वह कब एक रंग में रंग गया उसे ही नहीं पता चला था.
“वो..............”
“अब बोलो भी”
खिड़की के पास जाकर मेरी आठवीं मंजिल के फ्लैट से नीचे देखते हुए वह बोला “उस दिन, मैं उस लड़की के साथ नहीं जा सका!, पता है क्यों?”
“हां!, गीतिका के अलावा तुम किसी के नहीं हो सकते टाइप न!”
“नहीं!”
“तो फिर?”
“वो, तुम थीं, जिसके कारण मैं बैंकोक से रीता आ गया” वह कहीं दूर देखते हुए बोला, उसकी जीभ और भावों में जैसे तालमेल नहीं बैठ पा रहा था.
ओह नहीं! ये नहीं हो सकता!मुझ पर बम फूटा! नहीं,नहीं! यह मेरा दोस्त है! एक ऐसा दोस्त, जिसके साथ मैं बैठ कर दारू पी सकती हूं, मैं बेहिचक उसके साथ एक लिहाफ में बैठ सकती हूं, उसके साथ इतना भरोसा कि एक कमरे में सो सकती थी. ओह, ये क्या कह रहा है?
मैं जैसे जड़ हो गयी. ये कैसे हो सकता है? मैं, नहीं! मैं नहीं!
“सच कहता हूं, कहीं न कहीं, दस प्रतिशत तुम भी थीं!”  वह देखते हुए कहता जा रहा था!
मैं अपनी जगह से हिल नहीं पा रही थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है! हमेशा उसने मुझे केवल एक दोस्त या दोस्त से भी कम कहा! मैं उसकी ज़िन्दगी में शून्य से भी कम थी, शायद माइनस में. ऐसा उसने एक नहीं कई बार कहा था. पर मैं उसकी विद्वता पर फिदा थी. मैं चाहती थी कि वह केवल मेरा दोस्त ही बनकर रहे. हां, शायद जब तक गीतिका की बात मुझे पता नहीं थी, तब तक मैंने चाहा था कि उसके साथ कुछ पल जियूं!
पर अब ऐसा नहीं था, अब वह मेरा दोस्त था. उसके लिए दिल में अगाध श्रद्धा और स्नेह था. देह एकदम हट गयी थी. मैं उसे एक बच्चे की तरह देखती थी!
नहीं, नहीं, अब मेरे अंदर विस्फोट हो रहे थे! मैं उसकी जिंदगी का हिस्सा होते हुए भी हिस्सा नहीं थी!
जब मैंने देह को हम दोनों के बीच से हटा दिया, तो अब ये कौन होता है, देह को बीच में लाने वाला! शून्य से भी कम जो उसके जीवन में थी, वह कैसे अब?
“कुछ तो कहो!” वह बोला
वह मेरे पास आया, शायद कुछ करने आ रहा था.
ओह नहीं, अब तो उसकी छूअन भी अलग लगी. अब चौंकने की बारी मेरी थी.
“नहीं, नहीं! ऐसा  नहीं हो सकता!” मैं चीखी
“क्यों नहीं हो सकता” वह बोला
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया “तुम ही तो अपने दिल में मुझे जगह दे चुकी थीं”
“हां, सही है! पर वह तब की बात थी! जब से तुमने गीतिका का दर्द बताया, तब से मैं तुम्हारे दर्द को हटा रही थी, मैं हम दोनों के बीच से देह को परे कर चुकी हूं. मैं नहीं, नहीं!”
“क्या नहीं?” वह मेरा हाथ सहला रहा था
मैंने अपना हाथ उसके हाथों से लेते हुए कहा
“अब नहीं! पर तुम्हें ऐसा क्यों लगा!”
“तुम्हें याद है, बम विस्फोट हुआ था?”
“हां!”
“तो तुमने जिस तरह से मेसेज किया और चिंता जताई, वह मेरे लिए अजीब सा था! तुम यहाँ थीं! और मैं वहां! विस्फोट होने के कुछ ही सेकंड में तुमने मेसेज किया, जब हमें भी पता नहीं था. मैं बियर पी रहा था” वह एक मिनट के लिए रुका
“फिर”
“जब मैं बियर पीते हुए उस लड़की के साथ सौदा पटा रहा था तो मेरे मन में बम विस्फोट के बारे में तुम्हारा मेसेज घूम रहा था क्योंकि तुम्हारे मेसेज के बाद ही तनया का मेसेज आया था. तुम्हारे मन में रहा था मुझे मेसेज करना”
“तो? तुम मेरे दोस्त हो!” मैंने कहा
“हां, मैं तुम्हारा दोस्त हूँ! पर उस दिन तुम्हारा मेसेज मेरे दिल को छू गया! मुझे लगा तुम मेरे लिए बहुत कुछ हो सकती हो! वैसे भी मैंने तुम्हारे साथ एक दिन बिताने का वादा किया है! उस पल बस न जाने क्या हुआ, तुम छा गयी दिमाग पर! थोड़ी ही सही! पर तुम थीं! ओह! मैं उस दिन और रात केवल तुम्हारे साथ था! गीतिका न जाने कब किस खोल में उस क्षण चली गयी! केवल कैसे हो, ध्यान रखना, वहां विस्फोट हुआ है, के सन्देश  ने मेरे सामने तुम्हें ला दिया!” वह अपने जैसे गुनाह स्वीकार करता जा रहा था.
मैं अब सुनने की स्थिति में नहीं थी, ये कैसा खेल था, जब मैं इस आदमी के लिए देह की खोल खोलने के लिए तैयार थी, मैं जीना चाहती थी उसके साथ इन पलों को, यह जानते हुए भी कि मेरे गले में मंगलसूत्र है, मांग में सिन्दूर है, मैं अपनी देह का कोई कोना उसके साथ साझा करना चाहती थी. मैं चाहती थी कि मैं खो जाऊं उसमें, पर उस समय उसकी रग रग में गीतिका थी. वह गीतिका की तलाश में था.
जब मैंने गीतिका के लिए इस जूनून को देखा तो मैंने उसे केवल एक दोस्त ही मान लिया था, यह ही क्या कम था कि वह अपना सब कुछ मेरे साथ साझा करता था.
अब ये!
मैं चुप बैठी हूं! मैं उठ नहीं पा रही हूं! मैं चाहती हूं कि काश समय का पहिया पीछे चला जाए और मैं इस आदमी से परिचय का हर पन्ना फाड़ सकूं. पर ऐसा नहीं हो सकता है! यह सच है और मेरे सामने हैं.
जिसके साथ मैं एक बार ही सही, पर लम्हें जीना चाहती थी, वह मेरे सामने था. और उस सच को स्वीकारते हुए! पर मैं क्या करूंगी!
मैं कांप रही थी! उसने मुझे उठाया. उसने मेरी ठुड्डी पकड़ी! वह मेरी आंखों में आंखें डालकर कुछ कहना चाह रहा था! मैंने अपनी देह को छोड़ दिया था. मेरा नियंत्रण मेरी देह और मेरे मन से हट चुका था.
मेरे साथ क्या हो रहा था और क्या नहीं, मैं शायद सोच नहीं पा रही थी.
उसने मेरे बाल मेरे कानों के पीछे किये और मेरे होंठों पर अपना नाम लिखने आया.
तभी अचानक से किसी मेसेज से मेरी आंखें खुल गईं,
जैसे मेरी चेतनता आई. बिजली सी चमकी जैसे और उसने मुझे उससे अलग कर दिया.
ओह, ये कैसे मुझे छू सकता था.
मैं उसे छूने दूं क्या?
एकदम से जैसे वह भी चैतन्य हुआ.
वह उन दूर जाते हुए लम्हों में मुझे भी दूर होते देख रहा था!
वह भी चैतन्य हो चुका था और मैं भी!
मैं उसे देख रही थी, “हां वह मेरी चाहत था, कुछ ही समय के लिए ही सही, था तो”
मैं खड़ी थी चुपचाप!
उसने मुझे पकड़ा, मुझमें कुछ हलचल नहीं थी!
मेरा चेहरा अपने हाथ में लेकर मेरा माथा चूमते हुए कहा “हो सकता है, मैं कुछ कमजोर पड़ा हूँ, पर अगर कुछ होगा तो तुम्हारी मर्जी से ही! चलता हूं! अब न जाने कब आना होगा! उतनी निश्चिंतता से न मैं आ पाऊंगा और न ही तुम बुला पाओगी! सहजता का अंत आज हो गया है!”
मैं कुछ नहीं कह पा रही हूं, चाहती हूं रोक लूं, पर जो कोना कभी आहत हुआ था, वह अभी आहत ही है. उसे सम्हलने में समय चाहिए.
वह जा रहा है और मैं खड़ी हूं, निश्चल, शांत, देख रही हूं एकटक दीवार पर!
एक आहत कोना कहीं हंस रहा है
मेरे आहत कोने ने उसे केवल दोस्त की श्रेणी में रख दिया है........
वह चला गया है
मैं पराजित सी विजयी मुद्रा में खड़ी हूं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...