एफ.एम पर रात को नौ बजे दिल को सुकून देने वाले नगमो के बीच मेघा
यंत्रवत सी रसोई में खाना पकाते जा रही थी. उसके हाथ बैंगन का भर्ता बनाने के लिए
वैसे ही चले जा रहे थे जैसे कोई उत्साह ही शेष न रहा हो. रोज़ सोचती है पवन से बात करेगी, पर नहीं कर
पाती. उसे लगने लगा था कि पवन के साथ रहने का उसका निर्णय कहीं गलत न हो. शायद
सम्बन्धों को जो आभूषण जोड़ते थे, वह उसने कभी पहने ही नहीं थे, उसे लग रहा था कि
शायद अग्नि के सामने उसने फेरे नहीं लिए थे, तभी संदेहों की अग्नि उसे जलाए जा रही
है. गाने पे गाने चले जा रहे थे और उसके हाथ भी.
“आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें ज़िन्दगी
बिता दो पल जो ये जाने वाला है”
गाना आते ही उसके हाथ रुक गए, यही गाना तो था जिसे
सुन सुन कर वह और पवन गुनगुनाया करते थे. वह उसकी जुल्फों से खेलता था, और जब वह
उसकी जुल्फों से खेलता तो उसे बहुत ही प्रेम आता और उस आसक्ति के वशीभूत होकर उसे
देखती रहती. खाना पकाते पकाते गाने के बहाने वह पवन के साथ में जैसे कहीं खो सी
गयी. उसे पवन पर बहुत ही प्यार आता था,
उसके घुंघराले बालों में हाथ फेरना उसे पसंद थी, जैसे उसके बालों में उंगली फेरते
हुए वह एक संगीत सा महसूस करती थी. पवन के माथे पर जैसे ही पसीना आता वह उसका पसीना पोंछ देती, और जैसे ही वह
उसकी तारीफ करता वह उसकी उँगलियों को अपने होंठों तक लाती, फिर छोड़ देती. पवन
अचकचा जाता, अकबका कर बोलता
“यार, ऐसे न किया करो, बीच में न छोड़ा करो, अरे यार
मंजिल तक तो पहुंचा करो” कुछ शरारत सा करता हुआ कहता और वह खुद में ही सिमट जाती.
“अरे हटो, तुम्हें तो लोकलाज का भय नहीं है पर मुझे तो
है”
“अच्छा क्या लोक लाज? और मर्यादाएं” वह तुनकता “पराई
जात के एक लड़के के साथ एक ही छत के नीचे एक ही कमरे में रहना”
“ए, मुझे छेड़ो नहीं,”
“क्यों, बड़ी आई मर्यादा वाली”
वह मुंह फुला लेती और रूठने मनाने का सिलसिला इण्डिया
गेट से होता हुआ कनॉट प्लेस के उसके मनपसन्द रेस्टोरेंट में कोने की सीट तक चलता
और वहां से घर तक पहुँचते पहुँचते गुस्सा पिघल जाता और धीमे धीमे एक दूसरे की बाहों
से होते हुए वे नींद की आगोश में चले जाते.
परांठा सेंकते हुए मेघा ने ठंडी सांस ली, और उन दिनों
को याद किया जब बंधन मुक्त होकर वे दोनों
रहा करते थे. वह रंगमंच की अभिनेत्री थी
और पवन उभरता हुए लेखक. कला के प्रति प्रेम ही इनदोनों को एक साथ ले आया. दोनों को कुछ ही मुलाकातों में लग गया कि वे एक
दूसरे के पूरक है, फिर क्या था मेघा ले आई अपना सामान पवन के यहाँ. कुछ सोचा नहीं,
बस स्वतंत्र सोच ने उसे यह करने के लिए विवश कर दिया. इस कदम ने उसे प्रेम की
दुनिया में क्रान्ति का वाहक बना दिया.
प्रेम करना तो सरल और सबसे आसान था पर इस रूप में प्रेम को जीना! जब भी पवन
कुछ सोच रहा होता, कलम को मुंह में दबा कर सोच रहा होता, वह उसके बालों में जाकर
हाथ फेर देती और उसका कलम लेजाकर उसकी विचार श्रंखला को केवल खुद तक ही समेट देती.
कब पवन और मेघा प्रेम की परिभाषा रच जाते, उनकी देहों को भी पता नहीं चलता. आज दस
वर्षों बाद वह उन पलों को फिर से जीना चाहती है, पर पवन की विचारों की श्रंखला उस
तक जैसे आती ही नहीं है, वह देह की ऊपरी सतह तक ही रह जाती है. ऐसा क्यों? कई बार
सोचती है, पर जबाव नहीं पा पाती है.
छन चन्नन
कढ़ाही से भर्ते के जलने की आवाज़ आई तो उसने देखा, हाथ
जल गया उसे बचाने में, दर्द और जलन से तड़प कर रह गयी. पर यह दर्द और जलन पवन द्वारा की जा रही उसकी
उपेक्षा से बहुत ही कम थी. आज भी सामाजिक
और धार्मिक अनुबंध के बिना वे दोनों एक साथ रहते हैं. एकदम नायक और नायिका की तरह.
अंतरंग क्षणों में वह उससे असंतुष्ट हो यह
वह नहीं कहती, और न ही उसे अपूर्णता का अहसास होता है पर जब वह सुबह उजाले में पवन
की आँखों में अपरिचय की एक परत पाती है तो कहीं अन्दर तक कट कर रह जाती है. नाश्ता करते समय वह पवन की उँगलियों को थामना
चाहती है पर वह उन्हें सिकोड़ लेता है. वह उसका मनपसन्द भोजन बनाती, जैसे आज बनाया
है, जिससे इस रिश्ते को संजो सके. जब उसने सबसे पहली बार उसका मनपसन्द बैगन का
भर्ता बनाया था, तो कैसे अमोल पालेकर के जैसे सिगरेट का कश सुलगा कर कितनी तारीफें
की थी.
“अरे वाह, बहुत ही बढ़िया खुशबू आ रही है, क्या बनाया
है?” पवन ने घर में घुसते ही कहा!
हां, तुम्हारे लिए बैंगन का भर्ता और परांठे बनाए
हैं”
“सुनो, पान खाओगी? अरसा हुआ है तुमसे बात करे !” एक
मनुहार से जैसे पवन ने कहा,
मेघा कहीं अन्दर तक पिघल गयी, वो कैसे पवन के बारे
में बुरा सोच लेती है.
खाना खाने के लिए पवन आया तो मेघा खाना लगा चुकी थी.
मेघा का हाथ थाम कर पवन ने कहा
“बहुत परेशान हो आजकल? क्यों?
“ऐसे ही, तुम इतना बिजी जो रहते हो, तुम्हारे पास तो
मेरे लिए समय ही नहीं है!”
“ऐसा न कहो, ऐसा कैसे कह सकती हो तुम मेघा, तुम तो
मेरी ज़िन्दगी हो, जीवन हो,”
“अच्छा तो इतने दिनों से मुझे इग्नोर क्यों कर रहे
हो”
“इग्नोर नहीं कर रहा हूँ, कुछ सोच रहा हूँ, मेरी एक
बात मानोगी?”
“बोलो!”
“सुनो, थिएटर ज्वाइन कर लो, नया ग्रुप बन रहा है, आज
मेरे पास इसके निर्देशक आए थे. तुम भी जुड़ो न”
“मैं, मैं कैसे”
“हां तुम”
“पर मैं, तुम, थिएटर
................................ मेरा मतलब” और मेघा के सामने फिर से वही दिन
सामने आ गया जब उसने रंगमंच की दुनिया को त्यागा था. उसकी आँखों के सामने पांच
वर्ष पूर्व का समय जैसे पानी की तरह बहने लगा. वह उभरती हुई अभिनेत्री थी और एक
चरित्र को जीने की उसकी चाह एकदम चरम पर थी. वह जीना चाहती थी, वह अमर होना चाहती
थी. उसके चम्पई रंग पर मखमली आवाज़ जैसे लोगों को दीवाना बना देती थी. उसे बहुत
अच्छी तरह याद है “चाँद फिर दीवाना हुआ” नाटक के मंचन की रात. मेघा ने इस नाटक और
रूपा के चरित्र के लिए अपना सर्वस्व जैसे अर्पण कर दिया था. उसके सौन्दर्य और
अभिनय का मिश्रण चर्चा का विषय बन गया था.
मेघा की महीनों के अथक प्रयासों ने रूपा के चत्रित्र को जैसे जीवंत कर दिया
था. जैसा सब की अपेक्षा थी, इस नाटक ने
मेघा के लिए अवसरों की जैसे कतार लगा दी. रूपा का चरित्र रंगमंच की उभरती नायिका
के चरित्र के रूप में जाना जाने लगा. लोग बिछ बिछ गए थे मेघा के सामने. एक साधारण से परिवार की लड़की ने कैसा जादू कर
दिया था, रंगमंच की दुनिया में ये चर्चा का विषय हो गया था. कौन न दीवाना हुआ था ग्रुप में भी. ऐसे में पवन
तो खुश था ही, साथ में खुश थे उसके ग्रुप के निर्देशक दिवाकर. वे तो जैसे इस चरित्र के दीवाने ही हो गए थे.
हमेशा कहते थे मेघा से “मेघा तुममें बहुत प्रतिभा है, और तुम्हारी इस प्रतिभा को
इस जग के सामने लाना मेरा काम है, मेरा सपना है”
और वह पुलकित हो उठती. भाव विह्वल होकर दिवाकर के चरण
छू लेती. दिवाकर उससे कहते “इससे काम न चलेगा, कुछ और ही चाहिए होगा”
वह चिंहुक कर कहती “दादा, बताओ, न क्या चाहिए, मैं
तुम पर जान देने में भी न हिचकूंगी”
“हट भला, मरें तुम्हारे दुश्मन मेघा, चलो जाओ”
मध्यम आयु वर्ग के दिवाकर का चेहरा एक अजीब से भाव
में आ जाता. जैसे कहना बहुत कुछ चाह रहे हों, पर मौन उनके होंठों पर आ जाता था.
उनका गला रुंध सा जाता था. अपनी अधपकी दाढ़ी को सहलाते हुए कहते “समय आएगा तो
बताऊंगा”
क्या दिन थे वे. मंचन के बाद ग्रुप का हिट होना और
ग्रुप का उसके सामने आकर कहना “अरे रूपा, आओ तो जरा”
और मेघा जैसे आत्ममुग्धता के एक युग को जी रही थी. प्रेस
और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के एक हिस्से की वह पसंदीदा अभिनेत्री बन गयी थी. उसके
सामने जैसे अलीबाबा के खज़ाने जैसा कोई खज़ाना खुल गया था, पर उसे क्या पता था कि
चोर तो आते ही हैं खज़ाने को लूटने. उसकी खुशियों पर जैसे उस दिन ग्रहण लग गया था
जब वे लोग दूसरे शहर में नाटक के मंचन की बात कर वापस लौट रहे थे. और दिवाकर के
साथ वह कार में अकेली थी.
“मेघा” दिवाकर ने बहुत ही अपनेपन से कहा
“जी दादा” मेघा ने भी उसी स्नेह से उत्तर दिया.
“तुम खुश तो हो न”
“हां दादा, खुश क्यों न होऊँगी? मेरे पास आज एक सपना
है जीने के लिए, एक उड़ान है भरने के लिए”
“अच्छा एक बात तो बताओ, मेघा!”
“पूछिए, दादा”
“तुम अपने जीवन की उड़ान से संतुष्ट तो हो न?, तुम
जीवन में अपना मनचाहा कर पा रही हो?”
“हां, दादा, मैं अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूँ,
उसी तरह से उड़ान भर पा रही हूँ, जैसा सोचा था, वैसा जीवन जी पा रही हूँ और जी रही
हूँ, मेरे सामने संभावनाओं का असीम आकाश है, पवन है, मेरा जीवन है”
“और मैं? मैं कौन हूँ मेघा?” एक याचक सी द्रष्टि से
दिवाकर ने कहा
चौंक सी गयी मेघा दिवाकर की ऐसी आवाज़ सुनकर. उसे लगा
जैसे कोई अजनबी व्यक्ति की एक अजनबी आवाज़ उसके कानों में आ रही है. उसे दिवाकर उस
समय अपने प्रिय न लगकर ऐसे व्यक्ति लग रहे थे जो उसे कहीं दूर खड़े होकर पुकार रहा
था, और वह, वह जैसे मौन कहीं दूर खड़ी होकर उस आवाज़ को पहचानने की कोशिश कर रही हो.
उसे अपने शरीर पर उनकी चुभती हुई नज़रें महसूस हो रही थीं और वह बार बार अपनी साड़ी
को सही कर रही थी, जबकि आज से पहले उसे बिलकुल भी ऐसा नहीं लगता था. दिवाकर के साथ
उसे कभी ये नहीं लगा कि उसे अपने परिधानों में क्या पहनना है और क्या नहीं. एक
स्नेहिल सखा की तरह रहे थे, जिनके सामने संकोच भी उसे कुछ नहीं होता था! पर ये तो
उसके वे दिवाकर नहीं थी, साड़ी के अन्दर तक उनकी निगाहें जैसे उसे भरी सड़क पर उसके
ही सामने निर्वस्त्र करे दे रही थी. वह अचकचा कर बोली:
“आप, आप दादा मेरी प्रेरणा हैं, आप मेरी शक्ति हैं,
आपने ही मेरा निर्माण किया है, आप तो मेरे लिए देवतुल्य हैं”
“सच कह रही हो”
“हां दादा, कार से बाहर निकलो दादा, मुझे कुछ अच्छा
नहीं लग रहा, बहुत ही बेचैनी हो रही है, मुझे घर जाना है” मेघा की टाँगे जैसे मन
मन भारी होने लगी थी. उसके शरीर से पसीना आने लगा था. घबराहट के कारण वह पागल सी
होने लगी थी. नहीं दिवाकर, मुझे जाने दीजिए, वह चीखना चाह रही थी, पर बाहर जून की
तपतपाती धूप थी, कार के अन्दर के एसी में जब वह ऐसे पसीने पसीने हो रही थी तो धूप
में क्या हाल होता? यही सोचकर वह कुछ न कर सकी. उसकी कनपटी से होता हुआ पसीना उसकी
गर्दन पर पहुँच चुका था. दिवाकर ने उसके हावभाव से अनजान होते हुए उसके साड़ी के
पल्ले से उसका पसीना पोंछते हुए कहा,
“अच्छा, तो अपने देव पर भेंट न चढाओगी?”
“कैसी भेंट दादा? सब कुछ तो तुम्हारा ही है, मैं, यह
ग्रुप, नाटक, सब कुछ?” अपने ही आप में बुदबुदाती हुई सी मेघा बोली.
उसकी घबराहट से अनजान होने का अभिनय करते हुए दिवाकर
ने उसका पसीना पोंछना चालू रखा. उनके हाथ गर्दन से होते हुए जब वक्ष तक पहुंचे तो
अजीब से स्पर्श की सिहरन से जैसे मेघा में तंद्रा आई
“नहीं दादा, क्या कर रहे हैं, मैं आपको अपने स्पर्श
का अधिकार नहीं देती”
“अभी तो कह रही थी, सब कुछ मेरा है, तुम, नाटक,
ग्रुप” दिवाकर ने कहा
“नहीं दादा, वो दूसरी बात थी, मैं, इस शरीर से केवल
पवन की हूँ”, दादा, न करो ये, मुझे दो भागों में मत बांटो! ये नहीं दे सकती, ये तो
पवन का है, मेरी देह तो केवल पवन की है, इसे कैसे, न दादा, कुछ और मांगो न, ये
नहीं”
“और कुछ क्या मांगू? जैसे पवन के साथ हो बिना किसी
सम्बन्ध के, वैसे ही मैं नहीं बांधूंगा तुम्हें किसी भी बंधन में! मान जाओ न!”
“ नहीं दादा, मुझे ये करने के लिए न कहो, ये तो मैं
पवन को सौंप चुकी हूँ, आप कहें पूरी ज़िंदगी आपके ग्रूप के लिए समर्पित कर दूं! पर
ये न मांगो!”
“नहीं, मुझे बस यही चाहिए, मैंने तुम्हें गढ़ा है,
तुम्हारे लिए बरसों मैंने प्रतीक्षा की है. मैंने तुम्हें बनाया है, तुम मेरी रचना
हो, पवन की नहीं! पवन के साथ रहो न, पर
मुझे मेरा आकाश दे दो! मेरे हिस्से का अपने जीवन का कतरा दे दो, पर यूं ठुकराओ तो
नहीं, देखो मुझे जरा सी तो मेरी जगह दो, मुझे मेरे हिस्से का आसमान दे दो”
“नहीं दादा,
मुझे विवश न करो, या तो अपने हाथों को और अपनी देह को रोको, नहीं तो मैं
अभी कार से निकल जाऊंगी. इस ठंडक से तो जून की धूप भली है, कम से कम उसमें
विश्वासघात का दंश तो नहीं है”
“न जाओ तुम मुझे मेरा आकाश दे सकती हो”
“दादा, मान जाओ” मेघा ने बांह झटकते हुए कहा
“नहीं मेघा, तुम मेरी नायिका हो, मेरी रूपा हो,
तुम्हारे इस रूप और इस आत्मा पर मेरा अधिकार है, रूपा केवल मेरी है”
“दादा, इस वासना में मेरी श्रद्धा को उपहास का विषय न
बनाइए” अब वह रोने लगी थी. रोते रोते उसकी आत्मा भी चीत्कार करने लगी थी. और उसकी
काली आँखों से काजल बहकर उसकी गर्दन पर आ गया था और पसीने में लथपथ होकर जैसे उसके
साथ क्रंदन करने लगा था. वह रो रही थी और दिवाकर पर जैसे उसका कोई प्रभाव हो ही
नहीं रहा था. वे मेघा पर अधिकार चाहते थे.
पर कैसे? प्रेम में अधिकार कहाँ होता है? वे मेघा को पाना चाह रहे थे, पर पाया तो
उसे जाता है जो समर्पित होता है, और मेघा तो समर्पित थी पवन के लिए.
“मेघा, ये वासना या उपहास नहीं है, ये तृप्ति है,
नैसर्गिक अहसास है, सुनो आज मेरी आत्मा तुम्हारे साथ एकाकार होकर ही तृप्त होगी”
“नहीं दादा” रूपा ने अपने आंसुओं को पोंछ कर कहा “अगर
रूपा को जीने की यही शर्त है तो मुझे रूपा नहीं चाहिए! ये तन प्रेमिका के रूप में
पवन का है, दादा हम लोग बंधन में नहीं बंधे हैं स्वतंत्र हैं, पर मैं इस मोड़ पर
उसे धोखा नहीं दे सकती, और अगर आपकी यही शर्त है तो मुझे रूपा नहीं चाहिए, दादा
मुझे पवन चाहिए, रूपा नहीं”
“न मेघा” दिवाकर गिडगिडाए, “ऐसा न कहो, ऐसा न करो,
मैं तुम्हारे बिना इस नाटक की कल्पना भी नहीं कर सकता, देखो हमने कितने शहरों में
इसे जीना है, तुम्हारी रूपा की प्रतीक्षा कई शहर कर रहे हैं”
“न दादा, अब मैंने सोच लिया है, अब मैं नहीं जिऊंगी
रूपा को, आपको आपका चरित्र मुबारक. मेरे लिए ऐसा नहीं कि आपकी देह के साथ मिलने से
मैं अपवित्र हो जाऊंगी, पवित्रता और अपवित्रता देह की देहरी से कहीं दूर होती हैं.
मैं आपकी क्या किसी की भी देह के साथ कुछ क्षण बिता लूंगी, मैं अपवित्र नहीं हो
सकती, पर मैं चरित्र जीने के लिए देह की शर्त पर समर्पण नहीं कर सकती”
“न जाओ मेघा”
और मेघा ने किसी की भी न सुनी. रूपा का चोला उतार कर
जो उसने अभिनय की दुनिया से नाता तोडा, फिर उस दुनिया की ओर मुड़कर नहीं देखा. उसे वितृष्णा जो उत्पन्न हुई, वह फिर उसके
ह्रदय से गयी ही नहीं. उसे हालांकि देह पर एकाधिकार की बात जैसी किसी भी बात पर
यकीन नहीं था पर वह देह के आधार पर आगे बढ़ने के विरुद्ध थी.
कुछ वर्ष तो इस उधेड़बुन में निकल गए. पर पिछले दो तीन
सालों से वह अपने अन्दर एक बेचैनी सा महसूस कर रही थी. पवन उससे रंगमंच से जुड़ने
के लिए अनुरोध करता रहा था पर उसने हामी नहीं भरी. ऐसा नहीं था कि वह करना नहीं चाहती थी अभिनय,
सत्य तो यही था कि अभिनय उसका प्रथम प्रेम था और वह चरित्रों में ही जीती थी.
“क्या हुआ मेघा?”
“कुछ नहीं”
“मेघा एक बात कहूं!” उसने मेघा के बालों में हाथ फिराते
हुए कहा,
“हां”
“मेघा, उस कल से उबरो! तुम्हें पता है कि खुद को
ठुकराते हुए तुम्हें कितने बरस हो गए हैं, मेघा बस करो, खुद को अपनाओ, ठुकराओ नहीं.
तुम्हें पता है, आज भी तुम सोते सोते रूपा बन जाती हो, उसी की रूप में बोलती हो,
उसी में जीती हो. तुम क्या सोचती हो, मैं
पहचानता नहीं! पांच साल पहले जो हुआ था वह सही नहीं था, पर अब जो तुम कर रही हो वह
तो पाप है, खुद के साथ मेरे साथ!”
“तुम्हारे साथ” वह चौंकी
“हां, तुम मेरी प्रेरणा रही हो, मेरी चेतना हो, मेरी
ऊर्जा हो, तुम्हें पता मैं दो-तीन सालों से घुट रहा हूँ, मैं घुट घुट कर जी रहा
हूँ, रोज ही मर रहा हूँ, यह सोच सोच कर कि तुम मेरी वजह
से............................ और फिर जब तुम्हारी आँखों में तड़प देखता हूँ तो और
भी खुद पर घिन आने लगती है. तुम्हारे सामने बौना महसूस करता हूँ कि अभिनय की
ऊंचाइयों को तुम छूना चाहती थी, पर तुम छू न सकी और किसकी वजह से केवल मेरी वजह
से. तुमको किसी भी बंधन में नहीं बाँधने के बावजूद मैं तुम्हारी उन्नति में सबसे
बड़ा बाधक बन गया”
“नहीं पवन, तुमने कहाँ कभी रोका मुझे. वो तो मुझे ही
समझ में नहीं आया कि क्या देह के आधार पर ही कोई रिश्ता आगे बढ़ सकता है? तुम तो
मेरे साथ हमेशा एक ऐसे संबल के रूप में रहे जिस पर मैंने स्वयं से अधिक विश्वास
किया है”
“तो आओ न” पवन में अपनी बाहों में भरते हुए कहा. चाँद
जैसे आज इधर उधर से मुलक रहा था कि उसे भी इस वार्ता का थोड़ा सा अंश सुनाई पड़ जाए.
“नहीं पवन, अब नहीं, अब तो वो दुनिया छोड़े हुए अरसा
हो गया, अब तो न्याय ही नहीं कर पाऊँगी, कहाँ जाऊंगी यह टूटा और अधूरा तन मन लेकर,
अधूरी प्रतिभा लेकर”
“नहीं मेघा, मुझे रूपा की अनकही तड़प तडपा जाती है.
रूपा को बाहर निकालो, मेघा रूपा की अनकही कहानी को बाहर आने दो. तुम्हें नहीं लगता
कि तुम्हें हक़ है अपनी ज़िंदगी जीने का. खुद को साबित करने का अधिकार है, तुम्हें
नहीं लगता कि पवन के गीत मेघा के बिना अधूरे हैं.
तुम्हारी भावनाएं और शरीर ऐसी गुफाएँ हैं जिसमें मैं खोना चाहता हूँ.
तुम्हरे अस्तित्व की बरसात में खुद को भिगोना चाहता हूँ. क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुमसे प्रेम
करने के नाते मेरा यह अधिकार है कि तुम्हारे अस्तित्व के हर रूप की बरसात में खुद
को भिगो लूं. यह मेरा अधिकार है कि जब तुम मुझे समर्पण करो, तब मैं उन कंदराओं के
अंत तक पहुँच सकूं. मैं मौन रूप से उन थाहों को पा सकूं जिन्हें मैं पाना चाहता
हूँ. जब मैं चरमता के उच्चतम शिखर पर
पहुंचूं तो तुम्हारी भी संतुष्टि हो. मान
जाओ, मेघा, मुझे तिल तिल कर यूं न मारो.
मुझे मेरी ज़िंदगी दे दो, मेरे चरमता दे दो, मेरा सुख दे दो, मान भी जाओ
मेघा”
अब पिघलने लगी थी मेघा, उसे लगा कुछ तो है जो टुकड़े
टुकड़े होकर बह रहा है. उसके अंग प्रत्यंग,
रोयें रोयें से कुछ बाहर सा निकल रहा था.
वह टूटी हुई शाख की तरह हिलने लगी थी. उसे भी अपनी रूपा के साथ न्याय करना
था, पर वह बिलकुल भी यह नहीं समझ पा रही थी कि वह किस प्रकार न्याय करे.
उसका हाथ सहलाते हुए पवन ने बात जारी रखी “मेघा तुम
टूट रही हो, और उसके साथ मैं भी. मैं हर
पल तुम्हारी आत्माओं की अंधेरी गुफाओं में खो सा रहा हूँ. क्या तुमने मेरे हाल में
लिखे गीतों को पढ़ा है? कितनी छटपटाहट है? क्या तुमने कभी इनकी पीड़ा को महसूस किया
है? देखो न! ये सब निराशा में डूब चुके हैं. क्या तुम नहीं चाहती कि मेरे प्रणय को
खुशी मिले? मेरे गीतों में उत्साह वापस आए. मेघा मेरे गीत, संगीत, तुम्हारे संसर्ग
के बिना अधूरा है. मैं जीना चाहता हूँ, प्रणय को नाम देना चाहता हूँ.
पवन का हाथ थामे मेघा को पवन की तड़प का अहसास हो रहा
था. मेघा को खुद पर ग्लानि हो रही थी. छि, उसे खुशी देने वाला, उसे प्रेम करने
वाला उसके समक्ष एकदम विवश होकर खड़ा है. वह निशब्द एक शांत नदी की तरह निश्चल सी
कहीं खडी है, और उसमें कितने पत्थर फेंके जा रहे हैं. पवन की तड़प, मेघा की तड़प,
रूपा की पुकार हर कोने से उस पर जैसे उलाहनों की वर्षा कर रहे थे. एकदम से वह पवन की छाती में मुंह छिपा कर रोने
लगी. पांच साल का दावानल उसे बहाए लिए जा
रहा था. उसका दुःख, उसकी पीड़ा कहीं
तिरोहित हो रही थी और व्यग्रता उसे अपने आगोश में लिए जा रही थी. पवन ने उसे रोकने
का भी प्रयास नहीं किया.
अपने अन्दर मेघा को समेटने का प्रयास करते हुए कहा
“मेघा रोको मत खुद को, बह जाने दो, क्या तुम जानती हो कि आज जब मैं तुम्हारी देह
के उभारों में स्वयं को समाने का प्रयास करूंगा तो तुम्हारी आत्मा की उस पवित्रता
को और नवीनता को छूऊंगा जो मुझे पहले तुम्हारी ओर खींचती थी. तुम्हारी देह की वही
गंध न जाने मैंने कब से महसूस नहीं की थी जो मुझे खुद से ही दूर कर देती थी. आज मैं फिर से चांदनी में उसी गंध को भिगोकर
नहाऊँगा. मैं बहुत प्यासा हो चुका हूँ,
पूरे पांच साल मैं उन खोहों से दूर रहा हूँ”
वह रोती जा रही थी,
“देखो मेघा, इन पेड़ों से छन कर तुम्हारे आंचल में
समाने के लिए बेचैन हो रही है. जो तुम्हारे साथ पांच साल पहले हुआ, वह एक हादसा
था. देह की सीमाओं से खुद को बाहर निकालो. हर रात के बाद एक सुबह आती है, तुम भी
रात का अँधेरा समझ कर उसे भूल जाओ.
चलो एक नए सफर पर हम चलते हैं”
पवन की छाती में दुबकी सहमी कबूतरी सी मेघा ने कहा
“हां पवन, मैं इस भय से बाहर निकलूँगी. मैं देह की छाया से बाहर निकलकर जीने की
कोशिश करूंगी. अनकही, अव्यक्त रूपा मेरी
आत्मा में कहीं बस रही है. हर चांदनी रात को खिड़की के कोने से छनकर वह मेरी आत्मा
में बिल्ली की तरह दुबकी रहती थी. मेरी
आत्मा बहुत ही बेचैन थी. मैं तुम्हारे साथ तो चल रही थी, पर हम सफर के लिए जो
परिभाषा थी, उस पर मैं शायद खरी नहीं उतर पा रही थी. मेरी आत्मा की हालत ऐसे मेमने
की तरह हो गयी है जिस पर कसाई ने एक चीरा लगा दिया है और वह न अब मर पा रहा है और
न ही जी पा रहा है. मुझे बचा लो पवन,”
“अरे बुद्धू, तभी तो कह रहा हूँ, जाओ अभिनय करो”
“हां, पवन अब मैं जियूंगी, खुद को और हर उस चरित्र को
जीने की कोशिश करूंगी जो मैं जीना चाहती हूँ. चरित्रों को खुद में ढाल कर खुद को
पूर्ण करूंगी, मैं प्रेम करूंगी, तुमसे और खुद से, शायद जो तुमने किया है वह प्रेम है, तुमने मेरे लक्ष्यों को पूरा किया
है.”
“और तुमने मेघा, तुमने तो खुद का जीवन ही मेरे लिए
समर्पित कर दिया है, प्रेम निर्बाध है, गतिशील है, नूतन है, नवीन है, वह तुम्हारी
हथेली में समाया हुआ है, वह देह के उतार चढ़ाव में है, तो आत्मा की ऊंचाइयों और
गहराइयों में भी”
“चलो, मेघा जियें ज़िंदगी, न तुम रुको और न मैं”
“हां”
और कहीं कुछ
धुंधला सा था, जो स्पष्ट हो रहा
था................
सोनाली मिश्रा
सी-208, जी 1
नितिन अपार्टमेन्ट
शालीमार गार्डन एक्स- II,
साहिबाबाद
गाज़ियाबाद
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