“विवाह एक नियत
आयु पर ही किया जाना चाहिए एवं वधु को एक विशेष वाहन में ही पतिगृह लेकर जाना
चाहिए.” सूर्या सावित्री ने ऋग्वेद में लिखा है. ऋग्वेद के दसवें मंडल में 85वें
सूक्त में 47 मन्त्रों की रचना सूर्या सावित्री नामक स्त्री ने की थी.
यह कहा गया कि
स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार नहीं है और उसका जीवन मात्र विवाह उपरान्त घर की
देहरी ही है. जब यह कहा जा रहा था तब विडंबना यह है कि विवाह में उन्हीं मन्त्रों
को पढ़ा जा रहा था जिनकी रचना एक स्त्री ने की थी एवं वह भी विश्व के सर्वाधिक
प्राचीन ग्रन्थ में की थी.
क्या यह
विरोधाभास था कि जब स्त्री को बार बार यह कहा जा रहा था कि जो कुछ उसके श्वसुर गृह
में उसके साथ हो उसे हर मान अपमान से परे होकर सहना है, उसी विवाह में जो मन्त्र
थे वह कुछ और कह रहे थे. मन्त्र कह रहे थे कि वधु का सम्मान ही विवाह का प्रथम
नियम है.
उसे पतिगृह की
स्वामिनी बताया जा रहा था. सूर्या सावित्री लिखती हैं:
सम्राज्ञी
श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवाम् भव
ननान्दरि
सम्राज्ञी भाव सम्राज्ञी अधि देवृषु.
(ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र 46)
अर्थात वह अपने
श्वसुर गृह की साम्राज्ञी बने, अपनी सास की साम्राज्ञी बने, वह अपनी नन्द पर राज
करे एवं अपने देवरों पर राज करे.
सूर्या सावित्री
ने तब उन मन्त्रों की रचना की जब विश्व की कई परम्पराएं देह एवं विवाह के मध्य
संबंधों को ठीक से समझ ही रही होंगी.
इन मन्त्रों में
सहजीवन के सहज सिद्धांत हैं जो अर्धनारीश्वर की अवधारणा को और पुष्ट करते हैं.
मन्त्र संख्या 43 में संतान की कामना के साथ ही एक साथ वृद्ध होने की इच्छा है.
आ नः प्रजां
जन्यातु प्रजापति राज्ररसाय सम्नक्त्वर्यमा
अदुर्मंगलीः
पतिलोकमा विशु शं नो भव द्विपदे शम् चतुष्पदे . (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र
43)
अर्थात पति पत्नी
द्वारा प्रजापति से मात्र अच्छी संतान की कामना ही नहीं है अपितु वृद्ध होने पर
अर्यमा से रक्षा की भी प्रार्थना है, इसके साथ ही हर पशु के कल्याण की भी कामना
है.
सूर्या सावित्री
बाद में प्रचलित अबला स्त्री एवं त्यागमयी स्त्री की छवि से उलट यह कहती हैं कि
स्त्री अपने पति के साथ अपनी संतानों के साथ अपने भवन में आमोद प्रमोद से रहे.
हज़ारों वर्ष
पूर्व जब ऋग्वेद की रचना हुई तो स्त्रियों का योगदान हर स्वरुप में महत्वपूर्ण रहा
था. सूर्या सावित्री ने जब विवाह मन्त्रों
की रचना की होगी तो उन्हें भी यह भान नहीं रहा होगा कि कालान्तर में कुरीतियों के
चलते उन्हीं स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं प्रदान किया जाएगा जिसने इनकी
रचना की है. वह भी मन ही मन दुखी होती होंगी एवं व्यंग्य में परिहास करती होंगी कि
देखो मनुष्यों को, स्त्रियों पर प्रतिबन्ध भी लगा रहा है एवं एक स्त्री को वह
स्वयं के जीवन में एक स्त्री के मन्त्रों द्वारा ही प्रवेश करा रहा है.
हज़ारों वर्षों से
विवाह का अभिन्न अंग बने यह मन्त्र विवाह संस्था के उस रूप को जन्म दे चुके हैं,
जो हज़ारों वर्षों इस देश में ही नहीं बल्कि जहाँ जहाँ हिन्दू धर्म है वहां पर
अव्याहत और बिना विकृत हुए अनवरत चली आ रही है.
सूर्या सावित्री
ने स्त्रियों के लिए विवाह के जब मन्त्र लिखे तो यह कामना की कि नव विवाहित
दंपत्ति के जीवन की सभी बाधाएं एवं सभी शत्रु उनके जीवन से भाग जाएं, वहीं वह
कालान्तर में आने वाली उन बाधाओं को नहीं रोक सकीं, जो स्त्रियों की शिक्षा में
आईं. परन्तु सूर्या सावित्री को इस भूमि
की स्त्री की चेतना पर विश्वास था, और समय के साथ स्त्रियों की चेतना ने उन्हें
निराश नहीं किया है. जिस प्रकार उन्होंने
स्त्री का विवाह के उपरान्त पथ सुगम करने की कामना की थी, उसी प्रकार चेतना का
मार्ग भी सुगम हुआ. काल ने हँसते हुए कहा “जहाँ पर विवाह संस्था के मन्त्र ही एक
स्त्री ने रचे, क्या वहां पर स्त्री का इतिहास नहीं होगा? जब तक विवाह रहेगा,
मन्त्र रहेंगे, स्त्री रहेगी!”
जब किसी ने कहा
कि स्त्रियों का इतिहास नहीं होता, तो इतिहास ही नहीं वेदों के झरोखों से झांककर
सूर्या सावित्री मुस्कराती हैं और मन्त्र बुदबुदाती हैं
समंजन्तु विश्वे
देवाः समापो हृदयानि नौ
सं मातरिश्वा सं
धाता सं देष्ट्री दधातु नौ . (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र 47)