रविवार, 17 अप्रैल 2016

देखना एक दिन

पहाड़ों को चीर कर आती चीखों का क्रंदन
पुस्तक: देखना एक दिन
प्रकाशक: अमरसत्य प्रकाशन
लेखक: दिनेश पाठक
मूल्य: 240रूपए

तमाम विमर्शों से दूर ये पहाड़ों के दर्द को उकेरने वाली कहानियां पाठकों को एक अलग ही संसार में ले जाती हैं। दिनेश पाठक अपनी हर कहानी में पहाड़ों के जीवन की फिसलन वाली काई के नए रंग को दिखाने में सफल रहे हैं। देखना एक दिन कहानी संग्रह की हर कहानी लुप्त होते हुए मूल्यों की कहानी है। वह दुखों के संक्रमण की कहानी है। कहानी संग्रह के पहली कहानी आबोहवा में ही रचनाकार यह झलक दे देता है कि संग्रह की कहानियों में पहाड़ों का ही रंग होगा। आबोहवा में गाँव भर के बिशन दा, अपने ही बच्चों से हारे बैठे हैं, बच्चे विदेश में बसे हैं, वे गाँव की आबोहवा में ही रहना चाहते हैं। अपने खेत बचाने का दर्द है। वहीं धरोहर में भी संस्कारों के रूप में खुद की जमीन को संजोने के बेचैनी है। एक फौजी के बिल्डर माफिया से लड़ने की कहानी है। कारगिल में जिसने अपनी माता को नहीं नुकसान होने दिया वह अपनी माँ को यहाँ इन शैतानों से बचाएगा। रणचंडी में पहाड़ों की स्त्री के रणचंडी में बदलने के कहानी है। इसमें स्त्री की पीड़ा है। पिता स्वरुप उसे बेचता है और पति स्वरुप उसे खरीदता है। ऐसे में स्त्री कहाँ है? वह केवल एक वस्तु है। पर जब वस्तु रूपी बेटी पर उसका पति प्रहार करता है तो माँ रणचंडी हो जाती है। कहानी से ही स्त्री की शक्ति का वर्णन “पुराने लोग कहते हैं, औरतों के बदन में कभी ही रणचंडी उतरती है और जब उतरती है तो उसके हाथों हर अन्यायी, अत्याचारी का विनाश होकर रहता है” परपतिया उर्फ राजनीति और संवेदनहीनता का तानाबाना बुनती कहानी।सामजिक बदलाव के सिपाही को एक मोहरे में बदलनी की कहानी है। सामाजिक बदलाव का एक सिपाही कैसे राजनीतिक बिसात पर मुद्दों की लड़ाई हार जाता है, उस मकड़जाल की कहानी है। आगे बढ़ें तो देखना एक दिन पहाड़ों की औरतों की पीडाओं को रिश्तों में गूंथती है। सौतेली माँ है तो क्या हुआ, है तो औरत ही जो दिन के हर प्रहर में काम और केवल काम ही करती रह जाती है। पहाड़ पर औरतों के ही पहाड़ बन जाने की कहानी है। शायद औरतों ने ही पहाड़ों को थाम रखा है, जिस दिन औरत टूटेगी, चीखेगी पहाड़ भी पिघल जाएगा।
वहीं अरसे बाद कहानी में विकास के दौड़ में पीछे छूटते रिश्तों की कहानी है। आत्मबोध नदी में पड़े कंकड़ की हलचल जैसी कहानी है। भावों के शून्य पर पहुँच कर आत्मबोध के माध्यम से फिर से शिखर पर पहुँचने की कहानी है। आत्मालाप में वृद्धों को बोझ न समझे जाने का आग्रह है। तो वहीं सेवानिवृत्ति के दिन बाकी कर्मियों और विद्यार्थियों द्वारा उपेक्षा की जकड़न में कहीं न कहीं स्नेह की आस की कहानी है उपसंहार। रिश्तों की ठंडक के लिए तरसते गुरु जी की कहानी है। इस कहानी संग्रह में आंचलिकता की भाषा है। पहाड़ों की संस्कृति को बताने की तड़प है। यह कहानी संग्रह हर कहानी में सवालों की श्रंखला है, और पाठक के मन को झकझोरती है। लेखक ने कहानी की बुनावट को सघन किया है पर जटिलता से दूर रखा है और यही कहानीकार की सफलता है।

सोनाली मिश्रा
सी-208, G-1, नितिन अपार्टमेंट शालीमार गार्डन,
एक्स-II, साहिबाबाद,
ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
फ़ोन – 9810499064



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