हर शब्द की अपनी एक ख़ास उत्पत्ति होती है और एक विशेष इतिहास
होता है। जब भी हम किसी शब्द का प्रयोग करते हैं, वह कुछ विशेष अर्थ समेटे हुए
होता है! किसी का छोटा अर्थ होता है तो किसी का विशिष्ट, परन्तु होता अवश्य है और
यह अपने मूल से अपना स्वरुप प्राप्त करता है। हिंदी के अधिकाँश शब्दों ने अपना
स्वरुप संस्कृत से प्राप्त किया है एवं संस्कृत ने संस्कृति से, संस्कार एवं
सदियों से चलती आ रही परम्पराओं से! इसी प्रकार अंग्रेजी शब्द ने अपने समाज से,
अपने धर्म से कुछ शब्द प्राप्त किए हैं, जिनमें उनकी संस्कृति, उनका सामाजिक आचरण
झलकता है। जिस प्रकार भूमि के खनन के बाद अवशेष खोजे जाते हैं, उसी प्रकार शब्दों
के अर्थों के खनन के उपरान्त हम उस शब्द ही नहीं बल्कि समाज की संस्कृति को जान
पाते हैं। हिंदी के शब्दों की यदि हम बात करें तो लगभग हर शब्द विशिष्ट है और हर
शब्द स्वयं एक संस्कार और एक संस्कृति को प्रस्तुत करता है, और यह कोई भारी भरकम
शब्द न होकर बहुत ही छोटे एवं आम शब्द हैं एवं सहज प्रयोग में लाए जाते हैं जैसे
छात्र, भिक्षा, भिक्षुक, विद्यार्थी, शिक्षक, विवाह, देश, राष्ट्र, धर्म, अनुवाद,
श्रमण ब्राह्मण, आदि!
इसी प्रकार हर शब्द के कुछ न कुछ
पर्यायवाची होते हैं, और जिन्हें वाक्य में अर्थ के अनुसार प्रयोग किया जाता है।
हर पर्याय का सन्दर्भगत अर्थ होता है जैसे जल! जब किसी धार्मिक कार्य के लिए
प्रयोग करना होगा तब उसे जल कहा जाएगा! और कुछ शब्द संस्कृति गत होते है जैसे
गंगा, राम, रावण, यशोदा आदि!
यही स्थिति अंग्रेजी के शब्दों के
साथ है। जैसे जैसे सभ्यता का विस्तार होता गया वैसे वैसे शब्द अपनी प्रासंगिकता के
साथ विस्तार पाते गए!
अब यदि बात करें इन अवधारणात्मक या
सांस्कृतिक शब्दों के अनुवाद की तो यह बात तो निश्चित है कि समतुल्यता के सिद्धांत
का पालन करते हुए, लगभग हर शब्द का निकटतम शब्द हम प्रयोग करते हैं एवं अनुवाद को
सेतु के रूप में प्रयोग करते हुए स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में आते हैं। यदि हम
अनुवाद और उसके अंग्रेजी पर्याय ट्रांसलेशन की ही बात करें तो पाएंगे कि अनुवाद को
शायद ट्रांसलेशन नहीं कहा जा सकता है और ट्रांसलेशन के लिए भाषांतरण शब्द का
प्रयोग ही करना उपयुक्त होगा। अनुवाद की यदि बात करें तो संस्कृत के कुछ कोशों में
इसका अर्थ प्राप्तस्य पुन: कथनम या ज्ञातार्थस्य प्रतिपादनम् प्राप्त होता है। इसी
प्रकार भारत में ज्ञान की मौखिक परम्परा रही है, अर्थात गुरु के द्वारा कहे गए
वाक्यों को दोहराकर उसे कंठस्थ करने की। इसी प्रक्रिया को अनुवचन या अनुवाद कहा
जाता था। अर्थात अनुवाद का अर्थ होता था कथन के ज्ञान को पुन: प्राप्त करना। इसमें
एक भाषा से दूसरी भाषा में भाषांतरण का सन्दर्भ प्राप्त नहीं होता है। भ्रतर्हरी
ने भी अनुवाद शब्द का अर्थ पुन: कथन के रूप में प्रदान किया है, अनुवृत्तिरनुवादो
वा”। जैमिनीय न्यायमाला में भी अनुवाद का
“ज्ञात का पुन:कथन” के अर्थ में हैं।
प्राचीन परिभाषाओं पर दृष्टि
डालने से यह ज्ञात होता है कि अनुवाद का जो अर्थ हम अभी प्रयोग कर रहे हैं, वह मूल
में था ही नहीं! ज्ञान को प्राप्त करने वाला शब्द कालान्तर में भाषांतरण में
परिवर्तित हो गया। यही एक शब्द की यात्रा होती है। वह समय के साथ भिन्न अर्थ में
प्रयोग होने लगता है। मेरे विचार से जब हम ट्रांसलेशन का हिंदी पर्याय खोजते हैं
तो वह भाषान्तरण होना चाहिए, अनुवाद नहीं। जैसा कि कैटफोर्ड ने कहा है कि ट्रांसलेशन
में समतुल्य शब्दों का प्रतिस्थापन किया जाना चाहिए। the replacement of textual material in one
language (SL) by equivalent textual material in another language।”
ट्रांसलेशन के लिए जो समतुल्य
शब्द है वह अनुवाद न होकर भाषांतरण है जो आजकल हम देख रहे हैं। हो सकता है कि
प्राचीन काल में जो धार्मिक रचनाएं होती थीं, वह कथन के ज्ञान को लेकर अपने अनुसार रूप ग्रहण करती हों, इसलिए उन्हें
अनुवाद की श्रेणी में रखा जाए! भारत में कथनों को पुन: दूसरे रूप में या समय के
अनुसार कहने की एक लम्बी परम्परा रही है जैसे वेद, उपनिषद और उनकी टीकाएँ। रामायण
और महाभारत के तो इतने रूप हैं कि जितने लेखक उतनी ही रामायण एवं उनके उतने ही
राम! दक्षिण की रामायण का अपना एक स्वरुप है, तो पूर्व की रामायण का दूसरा!
गुजराती रामायण एकदम भिन्न है, परन्तु स्रोत एक ही है! वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा
लेकर उपजी नई नई रामायण! यदि अनुवाद की प्राचीन परिभाषाओं के अनुसार हम इन राम
कथाओं को देखते हैं, तो यह पाते हैं कि उन्हें ही अनुवाद की श्रेणी में रखा जा
सकता है, न कि आज जो हम करते हैं उसे अनुवाद कहा जाए!
अब यदि हम सांस्कृतिक शब्दों के
भाषांतरण की बात करते हैं तो पाते हैं कि कुछ शब्द तो भाषांतरित हो जाते हैं,
परन्तु बहुसंख्यक शब्द दूसरी भाषा में आकर अपना अर्थ खो बैठते हैं या एकदम विपरीत हो जाते हैं। एक
शब्द का उदाहरण मैं देना चाहूंगी और वह है भिक्षुक या भिक्षा! भिक्षुक को भारतीय
संस्कृति में कभी भी भिखारी नहीं माना गया। भिक्षुक का स्थान समाज में बहुत उच्च
था क्योंकि वह समाज से भिक्षा लेकर एक स्थान से दुसरे स्थान जाकर ज्ञान का प्रचार
करता था। या जो भगवान की भक्ति का प्रचार करता था। समाज से बस वह अपने जीवनयापन
हेतु भिक्षा लेता था। गुरुकुल के छात्र भी गाँव से भिक्षा मांगकर लाते थे और उसी
प्रकार यह परम्परा चलती थी। जिसमें या तो ज्ञानी या ज्ञान की चाह रखने वाला
व्यक्ति समाज से भिक्षा मांगता था जिससे वह अपने समाज से निरपेक्ष रहकर अपने ज्ञान
की धारा को बनाए रखे। परन्तु जब हम अंग्रेजी में इसका अर्थ beggar कर देते हैं, तो
हम उसे एक दीन-हीन निराश्रितों की श्रेणी में रख देते हैं, जिसका सब कुछ लुट गया
है और जिसके पास कुछ बचा नहीं है! भिक्षुक का अंग्रेजी समतुल्य कहीं से भी beggar
नहीं है। जब भिक्षुक का अंग्रेजी पर्याय हम beggar लेकर आगे बढ़ते हैं, रचना का
सच्चा अर्थ कभी भी पाठक नहीं उठा पाएगा। गौतम बुद्ध भिक्षा मांगते थे, परन्तु
दीक्षा देने के लिए! यहाँ सांस्कृतिक शब्दों और अवधारणाओं को समझे जाने की
आवश्यकता है, यहाँ भाषांतरण तो हो रहा है, परन्तु अनुवाद नहीं! या तो इसके लिए कोई
नया ही शब्द गढ़ने की आवश्यकता है या फिर भिक्षुक को भिक्षुक के रूप में लेने की,
क्योंकि इसका पर्याय भिखारी भी नहीं है!
इसी प्रकार छोटा सा शब्द है
विद्यार्थी, अर्थात वह व्यक्ति जिसका अर्थ अर्थात जिसका उद्देश्य विद्या अर्जन
करना है। जो अपने मातापिता के साथ रहकर शिक्षा अर्जित करता है। जबकि इसका जो
पर्याय है छात्र, उसमें वह छात्र सम्मिलित होते थे जो गुरुकुल में रहकर विद्यार्जन
किया करते थे। यदि इन अर्थों के अनुसार ही हम अंग्रेजी पर्याय खोजेंगे तो परेशानी
होगी, अत: student के रूप में हम इनके निकटतम समतुल्य प्रयोग करते हैं।
इसी प्रकार अंग्रेजी के कुछ शब्द
हैं जिनके हिंदी पर्याय हम जब खोजते हैं तो हम अटक जाते हैं। हम निकटतम समतुल्य
खोजने के स्थान पर उस शब्द की मूल आत्मा को ही लगभग मार देते हैं। और यह भी बहुधा
धार्मिक ही होते हैं, जो धर्म की किसी गूढ़ बात को लेकर आगे बढ़ते हैं। जैसे
अंग्रेजी में एक शब्द है confess। इसका जब भाषांतरण किया जाता है तो उसे
प्रायश्चित कर दिया जाता है, जबकि प्रायश्चित और confess दोनों अर्थ के आधार पर
विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। चूंकि ईसाई धर्म में यह अवधारणा है कि क़यामत के दिन ही
सबके पुण्य और पापों के आधार पर फैसला होगा और किसी भी गलत कार्य के किए जाने पर
तब तक आत्मा पर कोई बोझ न रहे तो वह प्रभु के सामने यह स्वीकार करता है या करती है
कि उसने यह गलती की है, इसे गलत कार्य की स्वीकृति या achknolwdgement तो कह सकते
हैं, परन्तु प्रायश्चित नहीं क्योंकि प्रायश्चित की अवधारणा मात्र भारत भूमि की
अवधारणा है।
हालांकि तकनीकी एवं गैर साहित्यिक
तथा धार्मिक संस्कार से परे जो शब्द होते है, उनका समतुल्य खोजना बहुत आसान होता
है और जब उनका निकटतम समतुल्य नहीं मिल पाता तब या तो हम लिप्यान्तरण कर लेते हैं
या फिर कोई नया शब्द ही गढ़ लेते हैं। अधिकतर भाषा के क्षेत्र में कार्य करने वाले
पहला अर्थ ही लेते हैं।
कई बार कुछ शब्द अपनी रचनाओं से
सन्दर्भ प्राप्त करते हैं, जैसे हरक्यूलियन टास्क! यदि भाषांतरण करने वाले व्यक्ति
को इस शब्द विशेष का सन्दर्भ ज्ञात नहीं होगा तो वह अपनी भाषा में इसे हूबहू नहीं
ला पाएगा!
ऐसे एक नहीं तमाम शब्द हैं, जिनकी
व्युत्पत्ति किसी विशेष संस्कार, संस्कृति एवं अवधारणा से हुई है। जिनमें एक
संस्कृति के संस्कार है जो दूसरी संस्कृति के संस्कारों से सर्वथा भिन्न भी हो
सकते हैं एवं अपरिचित भी। ऐसा नहीं है कि मात्र यह दुविधा भाषांतरण करने में आती
है, यह दुविधा दूसरी संस्कृति के मूल लेखन में भी आती है। एडविन आर्नोल्ड की महान
कृति द लाईट ऑफ एशिया का अध्ययन यदि हम करते हैं तो कई बार पाते हैं कि आर्नोल्ड
भारतीय संस्कृति के संस्कारों को बताने में शब्दों के साथ कई प्रयोग कर रहे हैं।
चूंकि उनकी संस्कृति में अवतार की कोई अवधारणा नहीं है, स्वर्ग तो है उनकी
संस्कृति में परन्तु स्वर्ग से धरती पर अवतार लेने वाले देव नहीं है। तो वह अपनी
इस कविता में बुद्ध को waiting in that sky लिखते हैं वहीं इस कविता को हिंदी में
लाने वाले आचार्य राम चन्द्र शुक्ल या लोक लिखते हैं।
निष्कर्ष स्वरुप यह कहा जा सकता
है कि जिस प्रकार तकनीकी शब्दों को लिप्यान्तरण कर हमने एक भाषा का हिस्सा बना
लिया है उसी प्रकार कुछ अवधारणात्मक एवं सांस्कृतिक शब्दों को भी भाषांतरण करते
समय यदि लिप्यान्तरण कर प्रयोग किया जाए तो सांस्कृतिक शब्दों की आयु भी लम्बी होगी
तथा उनका मूल अर्थ पाठक को ज्ञात हो सकेगा! अभी उनके निकटतम समतुल्य खोजकर लिखने
से शब्द का मूल अर्थ कहीं न कहीं खो जाता है।
सोनाली मिश्रा
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