“मम्मी, मम्मी, पापा पापा,
कहाँ हो” पोर्टको से एक जानी पहचानी आवाज़ आई।
“सरबती , काहे, का भओ” ये
दादी बोली,
“अरे, सरबती क्या हुआ, तुम्हारा बेटा?”
“न पूछो, पापा, न पूछो, घरे
से निकार दओ”
“अरे, सुनती हो, सरबती को अन्दर ले जाओ”
“न पापा, तुम हमें हमाओ
कमरा दै द्यो, हम बई में चारे जाएं”
“अरे सरबतिया, का बात कर
रही! तुम पानी पिय ल्यो पहरे, फिर चरी जइयो जहां जानो होए” ये दादी थी।
“न मम्मी, हमें हमाओ कमरा
दे द्यो”
“हां, बड़ी बहू, सरबती को पहरे पानी द्यो, चाय द्यो, फिर सरबती के कमरा की चाबी दै द्यो”
“पर मम्मी, बा में तो कोई
और आय रहो है” ताई जी बोली
“नहीं, मना कर दियो, अब जे सरबती
है, कौन हैं अपएं लोगन के अरावा जाको,
कहाँ जइए जे”
और इसी के साथ एक महीने
पहले धूमधाम से हमारे घर से विदा हुई सरबती एक बार फिर हमारे घर में आ गयी।
गहरे सांवले रंग की सरबती हमारे
यहाँ बर्तन धोने का काम करती थी, पूरे सिंगार के साथ सरबती आती थी। सिन्दूर, लिपस्टिक, पायल और सस्ती वाली
लाल रंग की मोटे कांच की चूड़ी तो जैसे सरबती की जान थी। और उसकी जान थी हम बच्चे। हम छोटे
छोटे बच्चों को उसके कमरे में जाने की इजाजत नहीं थी, अब क्यों नहीं थी, ये भी
नहीं पता। शाम होते सरबती का कमरा हम
बच्चों के लिए एक उत्सुकता का केंद्र बन जाता। नहीं पता चलता था कि कौन आता था।
अन्धेरा ढलता और सरबती का कमरा जैसे हमारी
बाउंड्री से ही गायब हो जाता, और सुबह होते ही पूरे सोलह सिंगार के साथ सरबती झाडू पोंछा और उसकी भाषा में कहें तो बासन करने
आ जाती।
“अरे बड़ी बहू, पहले चाय तो
पिराओ”
“काहे, चाय भी नहीं बनाई
क्या? तुम एक कोठरिया में करती का हो सरबती ?”
“अरे बड़ी बहू?” अपने सीधे
पल्ले की साड़ी का पल्लू ठीक करते हुई वह कहती
“तुम्हे का बताएं!”
“सरबती , कित्ती बार कही
है, जब मौड़ा मौड़ी पास भओ करें, तो तुम केवर काम करो करो, और तुम लोग का खी खी करती
रहती हो, जाओ पढ़ो जाय के”
और हम लोग दादी की डांट
खाकर बड़ी छत पर खेलने चले जाते। पर वह कमरा हमेशा ही एक रहस्य बना रहता। हमारी बड़ी
छत से थोड़ी नीचे उतर कर छोटी छत थी जहां से सामने सरबती का कमरा दिखाई देता था। छोटी सी कोठरी, जिसमें
एक बान की चारपाई पर रुई का गद्दा बिछा रहता था। उसके ऊपर एक सस्ती सी चद्दर, जिसे
या तो दादी या चाची या ताई रिजेक्ट कर देती थी, उसे सरबती खुशी खुशी अपने बिस्तर पर बिछाती थी। पर हमने
उसे कभी भी पुरानी साड़ी पहने नहीं देखा, कभी ताई या चाची ने अपनी पुरानी साड़ी देने
की कोशिश भी की तो उसने मना कर दिया
“तुम लोग सब जानत तो हो”
“हाँ भई, तुम्हें तो रोज़ नई
नई साड़ी पहनने को मिलती हैं, तुम कहाँ हमाई साड़ी पहन्यो”
“ऐ बड़ी बहू, जे न बोलो,
बताओ हमने कबहू मांगो तुमसे कुछ?, जो तुम लोग त्यौहार पे अपईं मर्जी से दे देत
हों, हम लेय लेत हैं, तुम बताओ, हमने कबहू मना करो”
“अब जाओ” और चाची और ताई
खिस्खिसा कर हंस पड़ती। मुझे ये हँसी कभी समझ में नहीं आती थी, पर कुछ तो था।
गर्मी के दिनों में बत्ती
के जाते ही हम लोग बाहर बाउंड्री में आ जाते, बहुत कोशिश करते कि कुछ दिख जाए, पर
उसका कमरा एक बार जो बंद होता था दस बजे, तो फिर न जाने कब खुलता था। जब मैं कक्षा
दस में बोर्ड के एग्ज़ाम की तैयारी में तीन बजे उठने लगी थी तो सरबती के कमरे की सिटकनी खुलने की आवाज़ आती। मैं पूछती
मम्मी से, “मम्मी, ये सरबती करती क्या है,
इत्ती सुबह उठकर”
मम्मी भी कोई कम थोड़े ही न
थी, सरबती का ज़िक्र आते ही लग जाती डांटने।
उफ, ये माएं ऐसी क्यों होती है? रहस्यों की पोटली! अब तक अमरुद का पेड़ इतना फैल
गया था और उसके बगल में एक और पेड़ निकल आया था, वह भी मिलकर मेरी नज़रों से सरबती के कमरे तक पहुँचने की क्षमता छीन लेते थे। और
उस पर रही सही कसर घर वालों की डांट पूरी कर देती थी। हाँ, हमें केवल साल में दो
बार उसके कमरे में जाने की इजाजत थी, नौवीं पर जब सरबती कन्या खिलाती थी। उस दिन सरबती का सिंगार देखते ही बनता था, ऐसा लगता था आठ दिन
व्रत रहने के बाद नौवें दिन जैसे कोई पवित्र आत्मा अपनी सारी अपवित्रता के लिए
माफी मांगती हुई हम कन्याओं के पैर छू रही हो। जहाँ बाकी लोग मीठा खिलाते थे, सरबती
हम पूरे मोहल्ले की लड़कियों को, जितनी
उसकी कोठरी में आ सकती थी, आलू टमाटर की रसे की सब्जी और सामने ही बैठकर स्टोव पर
तलकर एकदम गर्मागर्म पूड़ी खिलाती थी। कुल चार या पांच बच्चे ही तो आ पाते थे उस
जरा सी कोठरी में, कोठरी के बाहर लिपा हुआ चूल्हा था, जिसमें सरबती सर्दियों में
मक्के और बाजरे की रोटी सेंकती थी, गर्मियों में वह चटक जाता था। गर्मियों में वह
स्टोव पर खाना बनाती थी, और सर्दियों में चूल्हे पर ही साग खूब चुराकर माने खौलाकर
ही लाती थी। उसके हाथ की बाजरे की रोटी सबको बहुत पसंद थी। जैसे ही सर्दी दस्तक
देती, उसका चूल्हे का सिंगार शुरू हो जाता था।
वैसे तो उसका सिंगार पिटार
कभी कम नहीं होता था, पर जब उसका बेटा आता था तो उसका सिंगार एकदम कम हो जाता था,
या यूं कहें कि गायब हो जाता था। उन दिनों, उसकी साड़ी भी फटी हुई सी होती थी,
सिन्दूर गायब रहता था, लिपस्टिक तो एकदम ही नहीं होती थी, और सस्ती वाली मोटी मोटी
चूड़ी एकदम दो दो। और उसका कमरा भी रात में ग्यारह बारह बजे तक खुला रहता और सुबह 7
बजे ही खुलता। ये रहस्य क्या था समझ नहीं आता। ये मुझे समझ नहीं आता था। जब वह चला
जाता तो सरबती फिर से अपने उसी पुराने रूप
में वापस आ जाती। और उन चार पाँचों दिनों की रिपोर्ट दादी को देती
“का करें मम्मी, अब डॉक्टरी
पढ़ रहो है, खर्चा तो होत ही है, बाको बाप भी कछु देय देत है, और फिर महीना को
खर्चा हम भेज देत हैं। अब बस दो तीन साल की ही तो बात है, फिर सब कुछ ठीक होय जइए।”
“हाँ, सरबती , तुम्हाई
तपस्या पूरी होन बाली है, बस कुछ समय और धीरज धरे रहो, झेले रहो”
“मम्मी, सही कहें अब जे झूठ
मूठ का सिन्दूर, रोज रोज का घाव अब झेलो न जात है”
“कछु न सरबती ,”
“मम्मी, अबकी बार तो
राजेंदर ने कह दई है, कि अम्मा, अब तुम चौका चूल्हा दूसरे के घरन में नहीं करियो,
मम्मी अभें लयो बाय न पता है कि हम जे चौका, बासन तो केवल दिखान के लएं करत हैं, मम्मी
जा मौड़ा को जब सच्चाई पता चलये तो का होइए?”
सच्चाई, ये कौन सी सच्चाई
की बात कर रही थी सरबती ! क्या सुबह तीन बजे की कुछ सच्चाई थी? क्या था? मेरे
किशोर मन में अब तमाम बातें चल रही थीं और फिल्मों की तरह कई द्रश्य आँखों के सामने
आ रहे थे। तभी एक धौल मेरी पीठ पर रखती हुई मेरी मम्मी बोली “पढ़ाई लिखाई मत कराओ
महारानी से, बस बातें करवा लो”
मेरी आँखों के सामने
अन्धेरा छा गया। और उस दिन के बाद मम्मी की मार के डर से कभी सरबती के बारे में बात नहीं की।
ऐसे ही दो साल बीत गए,
रहस्य की चादर में लिपटा रहा बहुत कुछ। फिर एक दिन सरबती ने खूब मिठाई खिलाई, उसका बेटा डॉक्टर बन गया था
और उस दिन उसने दादी से कहा “मम्मी आज से जे उधार का सिन्दूर लगाना बंद”
“हाँ, सरबती तुम्हाई तपस्या आज सफल होय गयी”
“हाँ, मम्मी, कर आए रहो
राजेंदर हमें लेन”
और अगले दिन, सरबती का डॉक्टर बेटा आ गया उसे लेने के लिए, उस दिन सरबती
ने सिंगार का त्याग किया और शालीनता की प्रतिमूर्ति बनकर चली गयी थी, अपने राजेंदर
के साथ। बाबा और दादी ने अपने घर के किसी सदस्य की तरह ही विदा किया, और सरबती खूब लिपट कर रोई।
“अरे रोय काए रहीं, तुम्हाई
तपस्या आज पूरी भई। जा दिना से तुम्हाए आदमी ने तुम्हें छोरो, बा दिना से तुमने
अपएं मौड़ा के लए जो करो, बा कोई ना कर सकए, जाओ सरबती , तुम जाओ अब, कोई बात होय
कभी तो हम तो हैं ही तुम्हाए अपने, और जे घर तुम्हाओ ही है”
“हाँ मम्मी”
पर ये क्या एक ही महीने में
गहरे सांवले रंग की सरबती एकदम कोयला बनकर
वापस आ गयी। “अरे मौडिया, देख के आओ चाय नहीं आई अभे तक?” दादी के चीखने से मैं
यथार्थ में आई।
वो दादी से बोलती जा रही थी
“का बताएं मम्मी, बाए सब बाके बाप ने बताय दओ। कि हम का करत हथे। मम्मी तुम बताओ,
जब बाको बाप ले आओ दूसरी, और घर से निकार दओ, हम अनपढ़, कहाँ जात, का करत! वो तो
तुम लोगन ने कमरा देय दयो और बा आदमी ने सहारा, नहीं तो, हम कहाँ जाते जा मौड़ा को
लेकर! आज जब मौड़ा डॉक्टर बन गओ, तो बाप आयके बोर रहो कि हम काऊ की रखैर बने रहे,
अरे बने रहे रखैर तो का, बाने छोरो तो हमें, हम तो नहीं निकरे थे,और अगर सरीर बेचो
तो जाई राजेन्दर के लए ही न! अब बाप बेटे मिलकर एक होय गए, दोनन ने मिलकर चरितरहीन
बोलकर घर से निकार दओ, मम्मी का करें अब, सरीर बेचना भी बेकार होय गयो”
सरबती पागल हो रही थी रो
रोकर और मेरे कानों में केवल चरितरहीन शब्द गूँज रहा था और एक एक कर सारे रहस्य
खुल रहे थे।
दादी बोली “नहीं सरबती ,
तुम चरितर हीन नहीं हो, चरितर केवल सरीर से ही नहीं होत है, जाओ चाय पियो, और अपएं
कमरा में जाओ, कल से काम पे आय जइयो। और सुनो, हर महीना अब पैसा ले लियो हम लोगन
से, अब तुम्हाओ खर्चा ही कित्तो है”
आँसू पोंछती सरबती बोली “हाँ मम्मी, अब खर्चा ही कित्तो है, अब न
बेटा रहा और न उसका खर्चा”
पता नहीं वह कितनी देर बैठी
रही होगी, पर मेरे कान में बहुत देर तक चरितर हीन शब्द गूँजता रहा। मैंने उसे चाय
देकर कहा “नहीं सरबती , हम सब तुम्हारे बच्चे हैं, और सुनो तुम चरितर हीन नहीं हो,
तुम चरितर हीन नहीं हो”
सोनाली मिश्रा
9810499064
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