नताशा
उसने कहा "आज तो रुको"
वो बोला नहीं आज नहीं,
"क्यों क्या हुआ है, अभी तो सवेरा भी नहीं हुआ है"
बस ऐसे ही" उसने सिगरेट सुलगाई, शर्ट उठाई, और धीरे से बोला, "सवेरा तो नहीं हुआ है, पर मन में कैक्टस से कोई चुभो रहा है"
तुम्हारे कमरे में घुटन सी हो रही है, आओ छत पर चले,"
वो बोली "ऐसे"
उसने एक वितृष्णा सी हंसी हंसी,"अब और कोई भी होगा क्या, तुम्हारी पीठ देखने के लिए"
"सुनो, यहीं बैठकर बात करो न"
वो बोला "न, अब नहीं, अब या तो छत पर चलो, या फिर मुझे जाने दो, ये जो छन छन कर चाँदनी आ रही है, वह धुप के जैसी जला रही है, तुम वह नहीं हो, और मेरी प्यास भी नहीं हो, बस यूं ही हो, तुम्हारे देह के उभार भी मेरे दिल से उसे नहीं निकाल पा रहे हैं, तभी ये चाँदनी, धुप बन कर जला रही है, चाँद को नजदीक से देखूं तो शायद इस भ्रम से बाहर निकल सकूं"
वो बोली "नहीं, फिर तुम जाओ, चम्पा को गुलाब मन समझ कर ग्रहण करोगे, तो कैक्टस ही चंपा लगेगी"
वो बोला नहीं आज नहीं,
"क्यों क्या हुआ है, अभी तो सवेरा भी नहीं हुआ है"
बस ऐसे ही" उसने सिगरेट सुलगाई, शर्ट उठाई, और धीरे से बोला, "सवेरा तो नहीं हुआ है, पर मन में कैक्टस से कोई चुभो रहा है"
तुम्हारे कमरे में घुटन सी हो रही है, आओ छत पर चले,"
वो बोली "ऐसे"
उसने एक वितृष्णा सी हंसी हंसी,"अब और कोई भी होगा क्या, तुम्हारी पीठ देखने के लिए"
"सुनो, यहीं बैठकर बात करो न"
वो बोला "न, अब नहीं, अब या तो छत पर चलो, या फिर मुझे जाने दो, ये जो छन छन कर चाँदनी आ रही है, वह धुप के जैसी जला रही है, तुम वह नहीं हो, और मेरी प्यास भी नहीं हो, बस यूं ही हो, तुम्हारे देह के उभार भी मेरे दिल से उसे नहीं निकाल पा रहे हैं, तभी ये चाँदनी, धुप बन कर जला रही है, चाँद को नजदीक से देखूं तो शायद इस भ्रम से बाहर निकल सकूं"
वो बोली "नहीं, फिर तुम जाओ, चम्पा को गुलाब मन समझ कर ग्रहण करोगे, तो कैक्टस ही चंपा लगेगी"
“नहीं, सुनो, अपना तिल तो दिखाओ”
“वो तो तुमने ही हटा दिया था”
“उहनू”, वो चादर हटाते हुए बोला “धत, चल झूठी”
उसने अपने बाल हटाते हुए कहा “न, सच कह रही हूँ,
रात को ही तुमने हटाया था, वो जो कल मैं नया नेलपॉलिश रिमूवर लाई थी”
“देखा, आज फिर वह चली गयी”
“फिर से छुआ, और चली गयी” वह उठा और खिड़की से छन
कर आ रही चांदनी से लड़ने का असफल प्रयास किया, “मुझे बख्श दो, चांदनी जाओ, आज
तुम्हारे पास कोई बादल नहीं है, जाओ”
“और तुम क्या बेशर्मों की तरह सो रही हो, उठो”
“क्या करूं मैं”
“कुछ और नहीं, तो मुझे उसकी याद ही दिलाओ”
“क्यों”
“क्या तुम्हें पता नहीं”
“नहीं, ये हमारे रिश्ते की शर्त नहीं थी”
“नहीं थी” उसने उसकी गर्दन पर अपनी उंगलियाँ
गढाते हुए कहा
“पर मैं ऐसा ही हूँ, तुम वह नहीं हो सकती हो, वो
आ नहीं सकती है, मेरी बाहों की उसकी आदत है”
मेरी देह को उसकी गंध पसंद है, तुमने डीओ भी
नहीं लगाया था, उसके वाला, अब क्या करूं? कैसे उसे हटाऊँ”
“तुम मेरी बिलकुल भी मदद नहीं करती हो”
अपने शरीर पर एक झीनी सी चादर उसने लपेटी, जिससे
उसके हर अंग पर चांदनी भी अधिकार पूर्वक आ जा सकती थी, और उससे कहा “चलो छत पर
चलते हैं”
उसने उसे लगभग समेट सा लिया, और अपनी बाहों में
उठाया, वह झीनी चादर कहीं छिप गयी और उसके शरीर की परछाईं लगभग उसके शरीर पर छा
गयी. अँधेरे में जैसे दो बिल्लियाँ आतुर होकर एक दूसरे से चिपक रही थी, वैसे ही इन
दोनों की देह एक दूसरे पर छा रही थी.
छत पर जाकर हरसिंगार के फूलों से वह उसका सिंगार
करने लगा. हरसिंगार के फूल अभी खिले नहीं थे, हलके हलके से खिल रहे थे, पर उनसे
निकलने वाली मादक सुगंध से जब सांप खिंच आ रहे थे, तो वे कैसे इसके मोह से वंचित
रह जाते.
एक एक हरसिंगार के फूल को वह अपने होंठों पर
लाता, उसका नाम पुकारता और उसके शरीर पर पड़ी झीनी चादर पर रख देता. वह झीनी चादर
एक समय में एकदम से सफेद और केसरिया हो गयी.
“अरे, वह क्या है?”
“सुनो, आओ न”
“नहीं, देखो तुम्हारा तिल भी नहीं है, तुमने ही
कहा था न, तुम उसकी याद कभी भी न आने दोगी”
“तुमने ही तो तिल हटाया था”
“पर तुमने मना क्यों नहीं किया”
“अच्छा, सुनो, अपने बाल तो हटाओ”
“तुम्हीं हटा दो, और कहकर पलट गयी, झीनी सी चादर
एकदम से उसके बदन से हट गयी”
छत की एक ओर तो कहीं बिल्ली अँधेरे में कुत्ते
से डर रही थी, सहम रही थी, कबूतर बिल्ली से बच रहे थे, नीम के पेड़ से निम्बोरी भी
गिर रही थी, और उनकी कोटरों में बैठे कठफोड़वे भी जैसे इस रात के बीतने का इंतज़ार
कर रहे थे. हवा का झोंका आया, और गुलमोहर की एक शाखा को हिला गया, अब बदन एकदम हरा
हो गया, गुलमोहर के नीचे लेटी नताशा, हां, वह उसे नताशा के नाम से ही बुलाता था, उसका
अपना नाम क्या रहा होगा, उहूं, क्या फर्क पड़ता है, नाम से. ओस भी गिरने लगी थी,
बदन पर अब चादर फिर आ गयी थी और ओस से भीगने लगी थी. नीम के पेड़ पर पडा झूला भी
हिलने लगा था. और वह अब ओस से भीगे हुए बदन पर रात की रानी के अधखिले फूल सजाने
लगा था.
नाभि पर रात की रानी का फूल रख कर उसे चूमते हुए
कहा “सुनो, नताशा, मैंने तुम्हें बहुत दुःख दिया है, अब मैं कोई दुःख न दूंगा”
“सुनो, तुम्हारी पीड़ा के आगे तो मेरा यह दर्द
कुछ भी नहीं है, मैं तुम्हें इस दर्द में जलते हुए नहीं देख सकती हूँ, तुम अपने
शरीर से उसकी छुअन को हटाने के लिए कितनी बार नहाते हो?, डीओ लगाते हो, दिन भर
टालकम पाउडर लगाते हो, तुम्हें पता कल तुम
कितनी बार नहाए थे?”
“पता नहीं, यार, बस लगता है वह चली जाए, मेरे
दिल से, दिमाग से, और मेरी देह के हर कोण पर उसने जैसे अपना आधिपत्य स्थापित कर
दिया है, वह ससुरी जाती ही नहीं है, आँखों से निकालता हूँ, तो गाल पर चिकोटी काटती
हुई आ जाती है.”
हम्म, तभी फिर से एक झोंका आया और रात की रानी
के फूल भी उड़ गए, और चादर फिर से अकेली रह गयी. चांदनी फिर से आने लगी, उसने उसकी
टांगों को छूते हुए कहा, पता नताशा, उसकी ही टाँगे इतनी उजली थी, इतनी ही, जैसे
दूधिया चांदनी होती है, और उसकी कमर, मेरी हथेलियों में समा जाती थी, वह मुझसे दूर
नहीं जा सकती थी, मेरे सीने पर अपना सर रखती थी, और फिर मुझे हलके से सहलाती थी,
और धीरे से कहीं इतनी अन्दर चली जाती थी, जहां तक मैं भी नहीं जा पाया हूँ, उसकी
पतली पतली उंगलियाँ जब मेरे बालों में कुछ निशाँ बनाती थी तो ऐसा लगता था कहीं से
मारीच की खोज में कोई आ गया हो”
“हां, तुम्हारी टाँगे, उतनी उजली नहीं है, पर
चलो,”, उसके होंठों पर सिगरेट फिर आ गयी थी, चांदनी रात में वह धुंए के छल्ले उछाल
रहा था, पर लग रहा था एक सिगरेट उसके अन्दर भी सुलग रही थी. वह धुंए से लड़ने की
कोशिश करने लगा, “तुम ही तो थे, जिसने उसे छुआ था, तुम जाओ, वो मेरी है”
अब तक वह करवट बदल चुकी थी, और उठने की कोशिश
करने लगी थी. उसने आकर उसे पीछे से पकड़ लिया “देखा, तुम भी जा रही हो, उसके जाने
के बाद तुम भी चली जाओगी?”
उसने कुछ नहीं कहा, बस हरसिंगार समेटने लगी.
उसके शरीर के कई अंग इस समय चांदनी में साफ दिख रहे थे. उसने उस झीनी सी चादर में
वे सारे हरसिंगार समेट लिए, जो उसने उसके अंगों पर रखे थे. और पास में रखी बाल्टी
में डाल दिए. उसने ये देखकर गुस्से में दांत किटकिटाए, “कितना मना किया है
तुम्हें, ये सब न किया करो” सुनो, इधर देखो, फेंको ये फूल, फेंको, मैं कहता हूँ
फेंको”
नहीं सुनोगी तुम?”
उसने हाथ पकड़ा. “नहीं मैं सुबह इसीसे नहाऊँगी और
तुम्हें खुद में समाऊँगी, तुम मुझसे ये हक़ नहीं छीन सकते, तुमने कहा, मैं उसका नाम
रखूँ, मैंने रख लिया, तुमने कहा उसके जैसे बाल बनाओ, मैंने बना लिए, तुमने कहा
उसकी गोलाइयां भी अलग हैं, मैंने वह भी कर ली, और फिर तुमने ये भी कहा कि तुम मेरे
नहीं हो, मैंने वह भी माना, पर तुम मुझे खुद को तुम्हें मुझमें लेने से रोक नहीं
सकते”
“मैं केवल उसी का हूँ, सुना तुमने, केवल उसी का,
और ये तुमने अगर पानी लिया तो मैं तुम्हें कभी भी नहीं छुऊँगा”
“मत छुओ, वैसे भी तुम मुझे कहाँ छूते हो?, तुम
तो केवल नताशा को छूते हो”
याद करो, तुमने मेरी देह को चंपा बताया था, और
जब तुमने उसे देखा तो कैसे कहा था, हां, नताशा के यहाँ तिल था, यहाँ बारीक तिल था,
तो बाजू में नीचे की ओर लाल रंग का मस्सा था”
कूल्हे पर कहाँ पर तिल था, कहाँ पर उसकी त्वचा
चम्पई थी, कैसे तुम्हें सब याद था”
ऐसे में जाने कैसे एक चमगादड़ की चीं चीं से उसकी
बची खुची चादर भी उसके शरीर से हट गयी, और फिर से उसकी परछाईं बादलों की ओट में गए
चाँद के कारण अनावृत्त होने से बच गयी. इससे पहले चाँद बादलों की ओट से बाहर आता, वह
जुगनू से भी जैसे खुद को छिपाने लगी. सिगरेट के जैसे सुलगने लगी, चादर उठाई, और
चाँद के बाहर आने से पहले उसने चादर को अपने ऊपर तह सा कर लिया.
“मेरे शरीर में दोनों उभारों के बीच में कितनी
दूरी है, ये तक तुमने नताशा के अनुसार कर दिया है, तुम कौन से उभार में कितनी देर
के लिए जाओगे, ये सब तुम्हीं ने तय किया है? मैं हूँ ही कहाँ? हर ओर तो नताशा है?,
मेरे दांतों को भी गिनने लगे थे तुम उस दिन, याद करो” और उसकी सांस फूलने लगती है.
और वह गिरने लगती है, वह नहीं थामता, सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा है. “सुनो, ये मैंने
तुम्हें बताया था, नताशा मेरे जीवन से जुडी है, वह मेरी है, हां, वह मुझे छोड़ कर
चली गयी है, पर है तो मेरी न, मैंने उसे बनाया है, वह मेरा चरित्र है”
जैसे ये सिगरेट के छल्ले उड़ रहे हैं, न वैसे ही
वह मेरे इशारों पर कभी उडती थी, मैं उसे अपनी बाहों में लेकर रॉबर्ट ब्राउनिंग की
कविताओं पर डांस करता था,
I and my mistress, side by side
|
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Shall be together, breathe and
ride,
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So, one day more am I deified.
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Who knows but the
world may end to-night?
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“मैं गाता, क्या पता
दुनिया आज ही ख़त्म हो जाए, कल आए ही नहीं”
सुनो, फूल फेंको”
“नहीं, अरे देखो हठ मत
करो”
सुना नहीं, तुम भी
नताशा बन गयी हो, जिद्दी, ढीठ”
बीच बीच में उल्लू भी
नताशा को डरा रहे थे, हवा के झोंकों से नीम की पत्तियां भी शोर कर रही थी.
“देखो, नताशा तुम मेरी
नताशा नहीं हो, नहीं हो तुम, मैं उसका हूँ, तुम मुझे नहीं खुद में समा सकती हो” वो
पागल जैसा इधर उधर जाता है, “नहीं नहीं, मैं केवल उसी का हूँ, तुम्हारा नहीं हूँ,
मैं कहता हूँ हटाओ फूलों को?” अपने हाथ से फूल लेकर फ़ेंक देता है, और छत पर चाँद
भी इसे नहीं देख पाता, वह भी फिर से बादलों में चला जाता है. एक बार फिर केवल
जुगनू का उजाला रह जाता है.
“तुम्हें मना किया है
न, फिर भी तुम, मैं केवल एक ही नताशा का हूँ, उसकी चादर में खुद को लपेटते हुए
कहता है. फिर से छत पर चांदनी छाने लगी है, परछाई एक होने लगी है,
“तुम्हारी बाजू कितने
कोमल है, नताशा के नहीं थे, तुम एकदम मैदा की लोई जैसी कोमल हो, वह आटे जैसी थी,
लेकिन गोरी बहुत थी, तुम नहीं हो”
नताशा, मेरी नताशा,
तुम्हें पता, तुम्हारी पीठ पर जब भी मैं अपने होंठ रखता हूँ, तो मैं उसका वह जला
हुआ निशाँ खोजता हूँ, जो मैंने हलके से सिगरेट से लगा दिया था, और उसने सर माथ पर
रख दिया था” चादर हटाता है “लेकिन तुम्हारी पीठ कैसे बेदाग़ है, ये क्यों बेदाग़ है,
उसने क्या अपराध किया था, जो मैंने उसे जलाया, जला तो तुम मुझे रही हो, ये बेदाग़
पीठ दिखाकर, तुम्हें इतना कोमल होने का अधिकार नहीं है”
वह चुप रहती है, मौन
प्रतिकार करती है. “अब छोडो भी, देखो, जुगनू शांत होने लगे हैं, कभी भी उजाला हो
जाएगा, अब जाने दो, मुझे मेरे कोने में जाने दो”
“चलो”
दो परछाइयां फिर से
चलने लगती हैं, और पीछे से हरसिंगार, रात की रानी और चम्पा भी हवा के साथ बिखर
जाते हैं, जैसे वे कल के लिए सेज बिछाने का इंतज़ार कर रहे हों.
धीरे धीरे पूरब के कोने
से किरणें उगने लगीं, पूरे गगन पर पहले स्वर्ण आभा और उसके बाद जैसे सोने को चीर
कर चांदी की किरणें फैलने को उत्सुक हो गयी. गगन पर हलचल होने लगी. अभी तक जहां पर
चांदनी का साम्राज्य था अब धुप का हो गया. कैक्टस के फूल खिलने लगे और रात की रानी
की सुगंध कहीं खोने लगी. अब चिड़िया आ गयी थी उस गुलमोहर पर जिसने कल उसे अपनी
पत्तियों से ढका था. अब धीरे धीरे पत्ते बिखरने लगे थे. उसने भी कमरे में आकर अपनी
कमीज पहनी, और जाने के लिए तैयार हो गया. वो बोली “सुनो, नाश्ता नहीं करोगे”
उसने कहा “नहीं, आज शूट
के दौरान ही खा लूंगा, तुम अपना ध्यान रखना”
अब तक वह भी नहा कर आ
चुकी थी. उसने घुटनों तक स्कर्ट पहनी थी, चम्पई टाँगे धुलने के बाद और भी सुन्दर
लगने लगी थी, ऊपर ढीला ढाला टॉप, बेपरवाह से बाल थे. वो पास आया “सुनो, यहाँ आओ”
वह आई, “आज ऑफिस से ज़रा
जल्दी आओगी न?, मैं भी शूट से जल्दी आऊँगा”
उसने सर हिला दिया,
शूट
पर जाता हुआ, वह, उसे आप कुछ भी समझ लें, कुछ भी नाम दे दें, मेरा नायक है, जिसकी
गढ़ी गयी नताशा उसे छोड़ कर चली गयी है, और एक नताशा वह गढ़ रहा है. लीवाइस की जींस
पहने है, बेनेटन की टीशर्ट पहले वह महंगे डियो का शौक़ीन है, पर आजकल केवल उसे वही डियो
पसंद आ रहे हैं, जो उसकी पसंद के नहीं थे, आजकल उसे हर बात पर लड़ने का शौक हो गया
है. संशय उसकी रग रग का हिस्सा हो गया है. उसके अंग अंग से जैसे आजकल सर्प लिपटे
रहते हैं. कमबख्त जब से उसे नताशा छोड़ कर गयी है, लेकिन क्या करे, चित्र बनाते
बनाते उनमें रंग भरते भरते कब वह जीवन में चरित्रों में रंग भरने लगा था उसे भी
नहीं पता चला था. हर बार एक नए चेहरे के साथ जुड़ता था, उनके देह के कोण को अपनी
कूची से नए आयाम देता था, कैसे उनके चेहरे से खुद को दूर से ही बाँध लेता था. नताशा
भी थी, कैसे उसकी ज़िंदगी में बिना कहे आ गयी थी. बाँध नहीं पाया था था खुद को.
गोरे रंग की नताशा की देह के हर निशान उसके जीवन का हिस्सा बन गए थे. नताशा के आने
के बाद उसे जीवन से भय लगने लगा था, उसे अपने आप से भय लगने लगा था, खुद को और
नताशा को वह लोगों से छिपाने लगा था. बूँद बूँद नताशा को पीता था, और फिर उसे छूकर
देखता था, अरे मैली तो नहीं हो गयी, अपने हर चुम्बन के बाद हर उस अंग विशेष को
प्रतिक्रियाफलस्वरूप देखता. पता नहीं वह कैसे नशे में हो गया था. नायक रंग भरते
भरते चरित्र में खुद को समाहित कर चुका था. उसे पता ही नहीं चला था कब नताशा की
देह के हर कोने से अपनी देह के कोनों को जोड़ चुका था और अब हर लडकी में उसे नताशा
दिखने लगी थी. उसका बेदाग़ शरीर उसे शर्मिंदा करता था, उसे वह स्वयं का उपहास करता
सा लगता था, जैसे ही वह अपना चेहरा उसके पास ले जाता, उसमें उस रूप का सामना कर
पाने की क्षमता कम होने लगती, पर वह नताशा का प्रेमी था, प्रेयस था. उसकी हथेलियों
में नताशा ही नताशा थी, उसके हर शूट में नताशा थी, उसके कैनवास में नताशा थी, और
वह पागल था नताशा के लिए. उसके अस्तित्व का एक हिस्सा थी नताशा. पर न जाने क्यों,
एक दिन कहीं चली गयी, उसे बिना बताए, नताशा के बिना जैसे वह अस्तित्वविहीन सा हो
गया, न उसके रंगों में रंग बचे, चित्रों से रंग चले गए. उसके जीवन से चम्पई रंग
जैसे गायब ही हो गया. रंगहीन जीवन में उसने रंग लाने की कोशिश की, रोज नई नताशा
बनाता, जैसे ही उनके शरीर पर नताशा के तिल उभरने लगते, उसे वितृष्णा होने लगती, वह
तिल के साथ नई नताशाओं को भी छोड़ कर भाग आता, उसे पलायन भाने लगा था. जैसे सूरज
छिप जाता था वैसे ही वह भी छिप जाता था, अपने पलायन और नैराश्य के बादलों में.
उसका ह्रदय निरंतर विद्रोह करता था पर देह को उसी की गंध पसंद थी, वह अपनी देह पर
से उसके निशाँ छुटाने के लिए रोज़ ही नहाता, पर जितनी भी बार नहाता, उसकी देह उसे
नताशा के और पास कर देती, वह खुरचता पर जैसे ही उसकी खुरच से त्वचा की एक भी परत
खुलती वह उसे नताशा के और नज़दीक कर देती, ऐसा क्या था? नताशा ने उसे अस्तित्वविहीन
कर दिया था. पर वह क्या करे? नताशा उसके जीवन पर अमरबेल की तरह छा गयी थी, वह अब
कुछ नहीं था. उसने खुद को नताशा के ही रूप में ढालने का प्रयास किया. एक नई नताशा
फिर बनाए, अब वह उसकी नई नताशा थी. नताशा के अनुसार ही उसके उसकी देह के हर कोने
को बनाया. उसकी देह में कितने कोण थे, कितने कोने थे, कितने तिल थे, कहाँ मस्सा
था, सब कुछ उसने अपनी नई नताशा में बनाया. हर रात वह उसके शरीर पर तिल बनाता, उसकी
टांगों और बाहों में तिल बनाता, गर्दन के नीचे वाला काला गहरा तिल उसे बहुत पसंद
था, जैसे ही नताशा अपने घुंघराले बाल हटाती थी, उसका वह तिल उसे आमंत्रण देता हुआ
लगता था. आखिर वह तिल, नायक हर रात को अपनी इस नताशा के बनाता, और फिर उसे चूमता
और इस तरह अन्दर तक लेने की कोशिश करता जैसे वह तिल के रूप में उस जहर को पी रहा
हो जो उसे नताशा देकर गयी है, फिर जब थक कर निढाल हो जाता तो एक घ्रणा के रूप में
उसे मिटा देता, इस कदर मिटा देता कि गर्दन पूरी तरह लाल हो जाती.
पर
नताशा गयी क्यों थी और ये नताशा उसके साथ क्यों थी? ये एक तिलिस्म था, शक और संदेह
का तिलिस्म है जो उसने गढ़ लिया था, और जिससे इस नकली नताशा उसे बाहर निकाल कर लाई
है, उसे सहज बनाया है, उसकी देह के अंधेरों को निकालते निकालते वह खुद ही संदेह और
शक से बाहर निकल आया है, इस निस्वार्थ समर्पण ने ऐसा बदल दिया है नायक को कि उसे
स्वयं भी यकीन नहीं आता. अब शायद वे दोनों ही ओस की पहली बूँद की तरह हो चुके हैं.
मेरा नायक, एक बार फिर से पूरे दिन रंगों और शूट से मारामारी करने के बाद, अपनी
नताशा के पास जाने के लिए आतुर हो रहा है. उसे पता है ये नताशा की प्रतिछाया है
पर, है तो सही पर है तो उसका ही निर्माण, उसका ही सृजन, उसकी ही कृति. जैसी मूल
नताशा थी. नताशा उसके दिमाग का ही हिस्सा थी. आज भी नताशा का मनपसन्द चाइनीज़ भोजन
खरीद कर वह जा रहा है, अपनी नई नताशा के पास. पता नहीं उसके मन में क्या है, वह
स्वयं को उसके लिए क्यों मिटा रही है, ये तो उसे भी नहीं पता था,खैर, चलिए नायक के
संग चलते हैं कि उसकी नई नताशा उसके साथ आज क्या करेगी? उसने आज रात को भी उसके
साथ भला नहीं किया था, पर क्या करें वह ऐसा ही है. उसके जीवन में रस कई हैं, पर
प्रेम तो उसने नताशा से ही किया था, ठीक है नताशा उसे छोड़ कर चली गयी तो क्या करे
वह, ऐसे ही किसी को नताशा की जगह दे दे, उसे नताशा को अपनी स्म्रतियों से खरोच कर
फेंकना भी है और उसे नताशा को याद भी रखना है, क्या करे वह? वह हारता जा रहा है.
उसकी मुट्ठियाँ भींच जाती है, जब वह नताशा को सोचता है, अपने मन में लड़ता है, पर
जीत नहीं पाता है, उसे नताशा चाहिए भी और नहीं भी, इसी अंतर्द्वंद में फंसा रह
जाता है. उसके पास इस नताशा के घर के दरवाजे की चाबी है, इस एक कमरे के घर में वह
अकेली रहती है, पर आज तो उसे दरवाज़ा खोलने की जरूरत नहीं पडी, दरवाज़ा खुला था और
वह आराम से अन्दर आ गया. बिस्तर पर तह करी हुई वह झीनीचादर रखी थी जिसे ओढ़कर वह
उसे प्रेम करती है, जिसकी तहों के बीच में वह उसकी नताशा बन जाती है. वहीं पास में
काजल और आईलाइनर रखा हुआ है, जिससे वह उसके शरीर पर तिल बनाता था. उसका जीवन जैसे
इसी कमरे में घिर कर रह गया था, वह उसे इस कमरे में कितना सुकून मिलता था. धीरे से
जब वह सांकल बंद करता था, और नताशा के करीब आता था तो जैसे अपने अस्तित्व से ही
कुछ टूटता हुआ सा उसे अनुभव होता था. इस छोटे कमरे में उसके सभी रंग अपनी नई
परिभाषा पाते थे और इस कमरे से बाहर निकलते ही बिखर जाते थे. अपने आप ही रोज़ नई
तस्वीर बनाते थे, उसका कैमरा भी उनके चित्रों को अपने ही नए कोणों से खींचता था. वो
जैसे ही नताशा की देह को अपनी देह के नज़दीक लाता, परदे अपने आप ही गिर जाते और
कैमरे के बटन अपने आप ही उनदोनों के प्रेम के चित्र लेने का प्रयास करते. वह उस
चादर जैसी ही एक और चादर कैमरे पर डाल देती जिससे सब कुछ धुंधला आए. उसका चेहरा न
आए, वो कुछ कहता तो कहती “तुम नताशा के साथ हो, जो एक भ्रम है, उसकी तस्वीर लेने
का क्या, उस दिन कैमरे पर कोई चादर नहीं होगे जब तुम्हारी खुद की नताशा होगी
तुम्हारे साथ”, नेपथ्य में अंगरेजी गाना चलता है “I don’t know who you are, what you do, fron where
you are, as long as you love me” माने,
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम कौन हो, क्या करते हो, कहाँ से हो, जब तक मुझे तुम
प्यार करते हो”
पर
आज इतना मौन क्यों पसरा है, इस कमरे में, जाने कौन सा अशुभ सा आश्चर्य उसकी
प्रतीक्षा कर रहा है. नताशा कहाँ है, कैमरा भी पूछ रहा है, अरे नताशा कहां हो तुम?
मुझे तुम दोनों की धुंधली तस्वीर निकालनी है, कहाँ हो तुम? नायक भी पागल हो रहा
है, “नहीं, अब तुम नहीं जा सकती हो, मुझे छोड़ कर, बहुत मुश्किल से सम्हला हूँ, अब
नहीं” मोबाइल पर सन्देश आ रहे थे ढेर सारे, घंटी बज रही थी, कैमरा भी व्याकुल हो
रहा था. परदे खिड़की पर गिरने के लिए मचल रहे थे, पर नताशा नहीं थी, नताशा कहाँ हो
तुम? उसने कहा “अच्छा अब हरसिंगार से नहा लेना, पर आ जाओ” तिल भी नहीं बनाऊंगा पर
आ जाओ?” उसकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी, उसके शरीर पर लाखों चींटियाँ रेंगने लगी
थी. उससे अब ये घुटन बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी, नताशा आ जाओ, आ जाओ”
पर
नताशा नहीं आ रही. आखिर नताशा चाहती क्या थी? आज जब वह है नहीं तो वह उसे महसूस कर
रहा है, नताशा जब उससे मिली तो संभवतया अपने जीवन में एक टूटन के स्तर पर थी. वह जीवन
के रंगों को महसूस नहीं कर पा रही थी. वह जीना तो चाहती थी पर जीवन उसकी मुट्ठी से
निकल रहा था. ऐसे में उसका आगमन इस नकली नताशा के लिए वरदान सा साबित हुआ. उसके
कंधे का उसे सहारा मिला और उसने टूटन के बाद समेटना सीखा. देह को समेटा, खुद को
समेटा, जैसे उसने अपने जीवन के हर क्षण को समेटा. वह टूटन से उबरी, उसने देह के
माध्यम से अपने अस्तित्व को संवारा. नायक को भी उसका अस्तित्व वापस दिया. जीवन के
कुछ क्षण बिताने के बाद, जैसे अपनी धरोहर को वापस अपने पास पाने के बाद, उसे अहसास
होने लगा कि यह उधार का प्रेम है. और इस उधार के प्रेम पर वह अधिक दिन नहीं जी
सकती, उसे जीना होगा, अपने प्रेम को, उसे जीना होगा अपनी देह को. आत्ममुग्धता के
क्षणों में जब वह अपनी देह को देखती तो जैसे वह पहचान ही न पाती खुद को. वह समझ ही
नहीं पाती कि आखिर क्यों उसने अपनी देह को इस प्रकार समर्पण के लिए विवश कर दिया.
पर शायद वह समय के अनुसार ही रहा होगा. पर अपनी देह और अस्तित्व को वापस पाने के
बाद उसका अस्तित्व उसे कचोटने लगा था और इस उधार की ज़िन्दगी से बाहर निकलने पर
विवश करने लगा था. वह असली नताशा को खोजने लगी थी. जो चली गयी थी, कहाँ, ये नहीं
पता, क्यों ये नहीं पता. अंतत: कुछ दिनों की मेहनत के बाद शायद उसने असली नताशा को
खोज ही लिया. नायक के पागलपन की चित्रावली प्रस्तुत की. चूंकि वह नायक की
चित्रावली की असली नायिका थी तो उसके मन का उछाह उसे नायक के पास जाने के लिए
प्रेरित भी कर रहा था. शायद नायिका की अति महत्वाकांक्षा और नायक के फक्कडपन के
कारण उत्पन्न असंतुलन का परिणाम था रिश्तों का यह मोड़. नताशा ने नकली नताशा को
अपनी पूरी कहानी सुनाई, नायक का टूट कर प्रेम करना, देह को अपनी ही मुट्ठी में
बांधना, देह को अपने अनुसार ढालना, सब कुछ. हाँ, वह ही थी जिसे नायक ने गढ़ा था पर
उसने जैसे नताशा के अस्तित्व पर ही मकड़ी की तरह जाल बन दिया था. नताशा जो वास्तविक
जीवन में भी नायिका ही थी, वह केवल उसी के रंगों में कैद होकर नहीं रह सकती थी,
उसे भी जीनी थी अपनी ज़िन्दगी, बिस्तर के कोनों पर ही नहीं उसे अपने सौन्दर्य को
नायक के कैमरे और नायक के कमरे से बाहर भी विस्तारित करना था. अपने स्त्रीत्व का
विस्तार करना था. नायक यह समझ नहीं रहा था
तभी एक दिन वह घर के हर कोने को रोता छोड़ कर चली आई थी. नायक के शक से दूर, नायक
के संदेह से दूर. या कहें नायक से दूर. वह खो गयी थी रंगों की दुनिया में, वह खो
गयी थी फोटो शूट की दुनिया में. उसे अपने स्त्रीत्व को केवल नायक तक ही सीमित कर
देना उचित नहीं लग रहा था. जो उस पर नित नए संदेह करने लगा था, तन मन और आत्मा से
समर्पण के बाद भी नायक द्वारा खींची गयी शक और लक्ष्मण रेखा उसे इस सम्बन्ध से
बाहर निकलने के लिए जैसे उकसा रही थी. और जिस दिन नायक का शक अपनी चरम सीमा पर गया
उसी दिन घर को रोता बिलखता छोड़कर अपनी आँखों में मुक्ति के आंसू लेकर वह निकल आई
थी. पर नायक, वह, वह तो जैसे नताशा गढ़ने लगा था, यह उसे पता न था और शक और संदेह
त्याग कर अब केवल समर्पण का पर्याय बन गया था ये भी उसे पता न था. इस नकली नताशा
ने नायक के भीतर के शक को जैसे एब्सोर्बर बनकर खुद में एब्सोर्ब कर लिया था और वह
नीलकंठ जैसी हो गयी थी. जहर निकाल चुकी थी, देह की अंधेरी गुफाओं से बाहर निकल
चुकी थी और नायक को शक की कंदराओं से बाहर निकाल कर उसे एक आम इंसान बना चुकी थी. अब
वह इस उधार के खाते में अपने जीवन की बैलेंस शीट नहीं बनाना चाहती थी. उसे अब एक
कोरी स्लेट चाहिए थी जिससे वह अपने जीवन को दोबारा से लिख सके, और वह इस उधार के
प्रेम पर नहीं हो सकता था. वह ले आई थी नताशा को वापस, अपने सुधरे हुए नायक के
पास. अपने भीतर की स्त्री को और अधिक वह मार नहीं सकती थी, इसलिए इस प्रेम कथा का
पटाक्षेप तो करना ही था, प्रेम को भी उसके अंत तक पहुंचाना ही था, तभी दोनों नताशा
ही जैसे एक दूसरे के गले लगकर रोने लगी. उन आंसुओं में क्या था, ये उन दोनों को ही
नहीं पता था, पर जो भी था उसने जैसे उन दोनों के हर क्षण की कड़वाहट को बहा दिया और
बह गया शक, पूर्वाग्रह, सब कुछ. बच गया तो केवल प्रेम. जो केवल नताशा का था और
नकली नताशा देह की अंधेरी गुफाओं से बाहर निकलकर अपने जीवन को जीने जा रही थी. देह
के समर्पण का उसे कोई पछतावा नहीं था. आज वह कोरा कागज़ बन गयी थी, नायक अपनी नताशा
के पास और इसके पास अपनी देह, अपना शरीर और अपनी पहचान.
इधर
नायक के मोबाइल पर सन्देश आ रहा है, उस
पूरे कमरे में सांप जैसे चल रहे हों, वैसा लिजलिजापन छा रहा है और नताशा तो आ ही
नहीं रही है. तभी कमरे में कोई आता है, उसकी देह एक चिरपरिचित सुगंध से महक उठती
है. नताशा, नहीं तुम नहीं, तुम कहाँ से, फिर मेरी नई नताशा कहाँ है? तुम नहीं,
नहीं नहीं तुम एक बार और नहीं, तुम नहीं.
उसकी
देह के रोम रोम में समाई वह गंध उसे खुद में समेट कर समर्पण हेतु विवश करने की
तैयारी में थी. वह विवश होता जा रहा था. उसे वह अपने वश में करती जा रही थी, परदे
मचल रहे थे, और कैमरा हतप्रभ सा था, आज किसी ने कोई भी चादर उसपर नहीं डाली है. क्या
आज वह उनकी रेखाओं को अपनी निगाहों में समेट ले? आज उससे कोई कुछ कह क्यों नहीं
रहा था? चादरों में एक होती परछाई ने बस कैमरे से इतना ही कहा “आज भ्रम नहीं है,
इसलिए तुम पर चादर नहीं है”
नायक
के मोबाइल की स्क्रीन पर दोपहर से ही एक सन्देश उभर रहा है “आज से कैमरे पर चादर
की जरूरत नहीं होगी, मेरे मित्र मेरे प्रयाण में ही तुम्हारा कल्याण है”
इधर
रात की रानी, हरसिंगार, और मेरा गुलमोहर एक नई कथा की प्रतीक्षा में है, क्या इस
नताशा के साथ भी वे रूहों की रूमानियत के चरम पर पहुंचेंगे?
गुलमोहर
को तो इंतज़ार है, और हरसिंगार, मत पूछिए उसकी कलियाँ खिल कर फूल बनने लगी हैं, सेज
जो कल अधूरी छूटी थी, फिर से सजने लगी है, और नायक की देह में नताशा की देह घुलने
लगी है.
और
मेज पर से काजल, आईलाइनर सब कुछ गिरने लगा है.
कैमरा
खुल कर इन लम्हों को जीने लगा है ............................................
सोनाली
9810499064
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