बहुत सुना था नीलाभ जी के बारे में, तमाम विवाद उनकी झोली में थे. ऐसे
में एक कार्यक्रम में केवल उन्हें देखने का मौक़ा मिला. पता चला यही नीलाभ जी हैं.
साहित्य से मेरा परिचय नया था. तो बस उन्हें देखकर ही शिमला से वापस आ गयी. दिल
में फेसबुक पर तमाम विवादों के चलते उनकी जैसे एक छवि बन गयी थी. फिर शोध के दौरान
जब कविताओं के अनुवाद की बात हुई तो मुझसे कई लोगों ने कहा “नीलाभ जी ने कई अनुवाद
किए हैं, पढ़ना उन्हें, मिलो जाकर.” कई लोगों ने सलाह दी, पर नीलाभ जी से मिलने की
हिम्मत और साहस यह दिल नहीं कर सका. और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के हिसाब से ही
काम शुरू किया. मन बहुत चाह रहा था कि कहीं से कुछ ऐसा हो कि मैं नीलाभ जी से मिल
सकूं. मगर उनके जैसे विराट व्यक्तित्व से मिलना ही एक उपलब्धि थी. मुझ जैसी किसी
मामूली शोधार्थी के लिए वे समय देंगे? और अगर देंगे भी तो क्या मेरे सवालों के
जबाव के लिए उपलब्ध होंगे? ऐसे तमाम प्रश्न मेरे मन को मथ रहे थे.
पर, मेरे लिए वह सुअवसर शीघ्र ही आया जब नीलाभ जी से मिलने की हल्की सी
उम्मीद दिखाई दी. रंग प्रसंग के सह-संपादक प्रकाश झा जी के माध्यम से दिसंबर 2015
में रंग प्रसंग के अंक के लिए श्री भीष्म साहनी पर श्री आर. के. रैना के द्वारा
अंग्रेजी में लिखे गए लेख का हिंदी में अनुवाद करने का मौक़ा मिला. वह लेख अनुवाद
करते समय मन में संशय, भय, और जैसे परीक्षा में बैठने की भावना थी. पता था नीलाभ
जी की आँखों के सामने से होकर गुजरेगा. उस लेख का अनुवाद किया और भेज दिया. महीना
भर हुआ, कोई प्रतिक्रिया न पाकर मन में नकारात्मक सा कुछ होने लगा. प्रकाश जी से
पूछा तो पता चला कि लेख तो प्रकाशन में है और नीलाभ जी को अनुवाद बहुत पसंद आया. इस
एक वाक्य ने मुझे जैसे सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. “सच में?” पूछा मैंने
प्रकाश जी का जबाव था “हां”
मैंने कहा “मुझे उनसे मिलवा दीजिए, न प्लीज़”.
वे बोले “कभी भी आ जाइए एक बजे के बाद”. वह एक सपना सच होने का क्षण था.
वह एक ऐसा क्षण था जिसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता था. अनुवाद के क्षेत्र में
एक परम्परा स्थापित कर चुके किसी वरिष्ठ से मुझे मिलने का मौक़ा मिलेगा, मैं यही
सोच सोच कर एक आह्लाद से भरी जा रही थी. दो ही दिन बाद, मैं उनसे मिलने जा रही थी
जिनसे मिलने का मेरी आंखों में एक सपना था. जिनसे मैं अनुवाद के बारे में बात कर
सकती थी. मैं अपने शोध में उनके विचारों को स्पष्ट रख सकती थी. दो दिन बाद मैं
एनएसडी में तमाम आशंकाओं और एक संकोच, एक भय के साथ पहुँची.
अप्रेल का महीना था. गर्मी अब एकदम से दस्तक देकर मैदान में आ चुकी थी.
पर एनएसडी में प्रवेश करते ही सारी गर्मी न जाने कहाँ चली गयी.
प्रकाश झा जी ने मेरा परिचय कराया, “ये सोनाली जी हैं, इन्होने अनुवाद
किया है पिछले अंक में”
उन्होंने मुझे देखा और कहा “अरे सोनाली, तुम तो बहुत बढ़िया अनुवाद करती
हो!” ओह! नीलाभ जी के मुंह से ये सुनने पर ऐसा लगा कि यही मेरे जीवन की बहुत बड़ी
उपलब्धि है. एनएसडी में रंग प्रसंग के कार्यालय में वे कंप्यूटर पर एक नज़र रखे थे
और दूसरी तरफ मुझसे बात भी करते जा रहे थे. मेरे मन में तमाम तरह के भाव चल रहे
थे, यही है वह विवादित व्यक्तित्व? इतना सहज, इतना सुलभ! उन्होंने मुझसे पूछा “और
क्या करती हो?” मैंने कहा “प्रकाश झा जी की जूनियर हूँ. कविता के अनुवाद पर शोध कर
रही हूँ”
वे हँसे. उनकी हंसी से निश्छल हंसी हंसी शायद ही कोई मैंने अनुभव की थी.
वे बोले “एक और डॉक्टर. अभी अभी तो प्रकाश ने अपनी थीसिस पूरी की है. हमें देखो,
हम लोग तो बिना पढ़े ही हैं”
मेरे मन में जो उनकी छवि थी, वह टूटती सी दिखी. फिर उन्होंने कहा “बोलो,
क्या मदद कर सकता हूं तुम्हारी!”
मैंने कहा “सर, अनुवाद पर आपने बहुत काम किया है. आपने तमाम कविताओं के
अनुवाद किए हैं. मुझे समझना है, आपकी अनुवाद प्रक्रिया”
“ऐसा करो” वे बोले
“तुम मेरे ब्लॉग पढो. तुम्हें काफी कुछ मिलेगा. कुछ सोचा है कि किस तरह
की कविताओं का अनुवाद पढ़ोगी?”
उन्होंने पूछा
“नहीं सर, अभी तो शेक्सपियर के ही अनुवाद लिए हैं और खय्याम की रुबाइयां.
पर अगर इन पर किसी से बात करना चाहें तो कोई अनुवादक मौजूद नहीं है. आप अपनी कोई
कविता बताइए, जिसकी अनुवाद प्रक्रिया के बारे में आप बता सकें.”
इसके बाद उन्होंने मुझे अपनी पाबले नेरुदा की कविता द हाइट्स ऑफ माच्चू
पिच्चू का खुद के द्वारा किया गया अनुवाद दिया. माच्चू पिच्चू के शिखर. और कहा “इसे
पढ़ना, फिर बात करेंगे”
मैं उसे लेकर एक नए उत्साह के साथ घर आई. उस दिन अहसास हुआ कि सार्वजनिक
धारणाओं के आधार पर अपने मन में किसी के भी बारे में कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए.
विचारों के धागे न जाने कौन से रूप में मेरे दिमाग में जाला बुन रहे थे जबकि,
हकीकत कुछ और थी. मैं अनुवादक और लेखक नीलाभ से मिली थी. जो तमाम विवादों से परे थे.
वह केवल भावनाओं के अनुवादक थे. वह बिम्बों के अनुवादक थे. वे असंभव भावों को अपने
शब्दों में ढालने वाले अनुवादक थे.
उसे पढ़ना शुरू किया.
तब तक रंग प्रसंग के लिए सैम्युअल बेकेट के नाटक का अनुवाद भी मेरे
द्वारा हो चुका था और नीलाभ जी के अनुसार नाटक को भी मैंने सही पकड़ा था. साहित्यिक
अनुवाद में मुझे नीलाभ जी जैसे व्यक्तित्व का प्रोत्साहन मिला तो खुद पर एक भरोसा
जागा.
उनसे फिर अनुवाद प्रक्रिया के सिलसिले में मिलना हुआ. पिछले सप्ताह ही
उनसे मिली. पता न था कि यह आख़िरी मुलाक़ात होगी. हम सब कठपुतली हैं, बहुत कुछ सोचते
हैं, पर सब कुछ एक क्षण में जैसे अद्रश्य हो जाता है.
पिछले सप्ताह एनएसडी गयी. उनकी किताब वापस करनी थी. क्योंकि कार्यालय की
प्रति थी. और उनका स्ट्रिक्ट आदेश था कि मैं उस प्रति को वापस कर दूं, फोटो कॉपी
करा लूं. तो वह किताब वापस करने गयी
वे उस दिन थोड़े कमजोर लगे. मैंने पूछा कि तबियत कैसी है सर आपकी.
उन्होंने हंस कर कहा “एकदम बढ़िया हूँ. थोडा बहुत लगा रहता है. थोड़े दिनों
में ठीक हो जाऊंगा. वैसे चेक के साथ ही सोनाली आई है.”
उसी दिन इत्तेफाक से अनुवाद का पारिश्रमिक आया था. मैंने झेंप कर कहा “क्या
सर, मुझे तो पता भी नहीं था. ये तो आपकी किताब वापस करनी थी.”
“ठीक है, और बताओ, कितना हो गया तुम्हारा काम?” उन्होंने पूछा
“चल रहा है सर, छठवे अध्याय में केवल आपकी ही किताब होगी, तो आप अनुवाद
प्रक्रिया के बारे में जबाव देने के लिए तैयार रहिएगा.”
उनके पैरों में सूजन थी और उन्हें हिलने में कठिनाई हो रही थी.
मेल का प्रिंट निकालते हुए वे बोले
“सुनो, तुम क्या लिखोगी, मुझे दिखा देना, नहीं तो तुम एकदम गड़बड़ कर दो”
“नहीं सर! मैं जरूर ही आपको दिखाऊंगी. सबमिट करने से पहले आपके पास
लाऊंगी.”
पर अब क्या यह संभव है. मैं उनकी बातें याद कर रही हूँ, और मेरे दिल से
आवाज़ आ रही है “सर, ऐसा छलावा नहीं चलेगा. आपकी कविता पर मुझे बहुत कुछ बात करनी
है. मुझे आपके अनुवाद के जूनून पर लिखना है”
एनएसडी में रंग प्रसंग का वह कमरा, और उस कमरे में उन्हें मैं अंतिम बार
देख रही हूँ, अगर यह पता होता तो उस क्षण को थामने का प्रयास करती. पर जाते हुए
क्षण कभी रुके हैं क्या?
उन्होंने पूछा “तुमने पूरी किताब पढी?”
“नहीं सर, आधी पढी है, और इस अध्याय में केवल दो तीन ही पंक्तियाँ ली हैं”
मेरे उत्तर को सुनकर वे उखड गए.
वे एकदम गुस्सा हो गए.
“सुनो सोनाली, अगर तुमने कविता को अंत तक नहीं पढ़ा है, तो कुछ नहीं पढ़ा,
कितना सुंदर लिखा है नेरुदा ने –प्राचीन अमरीका, समुद्री घूँघट से झांकती वधु,
तुम्हारी उंगलियाँ भी..............
फिर क्या लिखा है
अंत देखो- और दो मुझे मौन, जल दो............
मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ, भूलने लगा हूँ. पर मेरे अनुवाद के साथ खेल मत
करना”
वे गुस्सा हो रहे थे, मैंने उनकी आँखों में उनके अनुवाद के लिए एक जूनून देखा. ओह, वह उनके
दो सालों के जूनून का परिणाम है. इस कविता का अनुवाद करने में उन्होंने अपने दिन
रात एक कर दिए थे. कविता के गलत अनुवाद की पीड़ा वे समझते थे और मुझे उस दिन समझाया
भी.
“हमेशा कविता के मर्म को पकड़ो, और सुनो उर्दू सीखो. अगर कविता का अनुवाद
करना है तो शब्दकोष भरो. अपना शब्दभंडार बनाओ.” उनका गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने
समझाना शुरू किया
मैं उनसे कई बार मिल चुकी थी और अब सारा भय गायब हो चुका था, और मैं शायद
उनके उस व्यक्तित्व की विराटता से डरती थी, जबकि वे तो सहजता से भरे थे. मुझ जैसी
अनजान को उन्होंने अपनी अनुवाद प्रक्रिया के बारे में बहुत ही विस्तार से बताया.
मैं जब भी उनसे मिलने गयी, तो उन्होंने हमेशा समय दिया.
पर सबसे अनौपचारिक बात पिछले सप्ताह की ही रही थी. न जाने किस बात पर खूब
हँसे और बोले “अब तो तुम्हें चाय पीकर ही जाना होगा. ये तुम्हारी सजा है, कि हम
लोगों के साथ चाय पीकर जाओ”
बोले “भाषा को समृद्ध करो. विचारधारा से इतर होकर अनुवाद करना सीखो.” वे
ज्ञान की खान थे. उनके सामने बहुत ही कम बोल पाती थी.
उनके साथ तमाम राजनीतिक और विचारधारा के अनुवाद पर बात करने के बाद उठी,
तो उन्होंने पूछा “अब जाओगी? सवाल ख़त्म?”
मैंने कहा “जी सर, फिर आऊँगी. अभी बच्चे इंतजार कर रहे होंगे”
“कितने बच्चे हैं तुम्हारे?” उन्होंने पूछा
“सर दो बच्चे हैं.” मैंने कहा
“ओह, तो तुम बीबीडी हो. प्रकाश ये बीबीडी है” उन्होंने प्रकाश झा जी से
कहा
“बीबीडी?” मैंने जरा सा पूछा
“तुम्हारी ट्यूबलाईट थोड़ा देर से चमकती है क्या?” उन्होंने मज़ाक किया, “बीबीडी
माने बाल बच्चे दार, अब जाओ, पर चैप्टर पहले मुझे दिखाना, नहीं तो सोच लेना!”
बारिश थम गयी थी. एनएसडी में सामने हरापन और हरा हो गया था.
उनसे वादा कर कि सर मैं पूरा पढकर ही लिखूँगी, मैं घर की तरफ निकल ली थी.
मंडी हाउस के मेट्रो स्टेशन की तरफ कदम बढाते समय मन ही मन सोच रही थी कि नीलाभ जी
जल्दी से ठीक हों और मैं उन्हें जल्द ही अपना चैप्टर दिखाऊँ.
पर अब संभव नहीं है! आज सुबह ही वे तमाम विवादों को पीछे छोड़कर, इस
दुनिया को छोडकर चले गए. ऐसा लग रहा है, एक उजली मुस्कान खो गयी. मैं उनसे व्यक्तिगत
परिचित नहीं थी, मैं जब भी किताब की बात करती, वे कहते “अरे तुम्हें पता नहीं है
मेरे बारे में! मैं क्या बताऊँ? पहले मिलती तो शोध के लिए अनुवाद पर तमाम किताबें
दे देता”
मुझे नहीं जानना था उन्हें व्यक्तिगत! नीलाभ जी से कुछ ही महीनों की
मुलाक़ात में उन्होंने जिस तरह से अनुवाद के बारे में मदद की, उसके एक एक पहलू को
बताया, मैं उसकी शुक्रगुजार रहूँगी. आज पहली बार अपने इस आलस का मलाल हो रहा है कि
जल्दी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देती तो उन्हें दिखा देती. उन्हें मैंने गुरु
माना! एक व्यक्ति के अचानक से चले जाने से बहुत लोग खोखले हो जाते हैं. नीलाभ जी
का जाना मेरे लिए एक बहुत बड़ा आघात है. क्यों? प्रभु से इतना ही पूछ सकती हूँ
क्यों? सुबह से ही उनकी आवाज़ मेरे कानों में गूँज रही है “मेरी कविता पर लिखो तो
मुझे दिखाना, गड़बड़ मत कर देना”
मैं किसे दिखाऊंगी आपकी कविता पर किया गया काम?
शायद, आपके अनुवाद पर एक अध्याय पूरा आपको समर्पित करना ही अपने गुरु को
सच्चीस श्रद्धांजली होगी. नीलाभ जी, पूरी कोशिश होगी, अपना सर्वश्रेष्ठ करने की.
बड़ा अच्छा संस्मरण है। शायद मैं भी नाराज़ हो जाता, अगर मेरे काम को आधा-अधूरा पढ़कर ही मेरे बारे में कोई टिप्पणी करने लग जाता। नीलाभ ठीक नाराज़ हुए। नीलाभ एक अच्छे कवि थे। लेकिन जब अनुवाद करने लगे और विदेशी कवियों को हिन्दी में उतारने लगे तो अपनी कविता लिखने का मोह जाता रहा और अनुवाद का जुनून सवार हो गया। वही जुनून मेरे ऊपर भी सवार हो गया और मैं भी अब अपनी कविताएँ लिखने का मोह त्यागकर अनुवाद करता हूँ। अनुवादक को न सिर्फ़ हिन्दी का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, बल्कि उसे हिन्दी के देशज शब्दों का, हिन्दी की देशज भाषाओं का भी ज्ञान होना चाहिए। तब अनुवाद अच्छा बन पड़ता है। हिन्दी अपेक्षाकृत नई भाषा है। हिन्दी में तो बहुत से शब्द, बहुत-सी अभिव्यक्तियाँ हैं ही नहीं, जो देशज भाषाओं में या हिन्दी की सह-भाषाओं में हैं। बहरहाल, नीलाभ को लाल सलाम ! जिन्होंने कहा कि विचारधारा को अनुवाद करते हुए बीच में नहीं आना चाहिए। मैं उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर. दरअसल जीवन की भंगुरता के बारे में पता ही न था. वो तो उस दिन ऐसे ही चली गयी थी, किताब वापस करने, सोचा था, बाद में आराम से पढ़कर वापस करेंगे. ये होगा, यकीन न था
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