शनिवार, 30 अप्रैल 2016

वो सुबह कभी तो आएगी



पिछले दिनों मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा एकदम से गरमा गया। भूमाता ब्रिगेड की तृप्ति देसाई के नेतृत्व में उन मंदिरों में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर मांग उठी जहां सैकड़ों वर्षों से उनका प्रवेश प्रतिबंधित था। इस अमानवीय प्रतिबंध के खिलाफ आवाज़ उठाई गयी और न्यायालय के माध्यम से आंशिक जीत भी प्राप्त हुई है। आंशिक इसलिए क्योंकि यह कानूनी जीत है और यह उस सोच पर अभी प्रहार नहीं कर पाई है जो स्त्रियों को उनके शरीर की अपवित्रता के कारण धार्मिक स्थलों में प्रवेश के लायक नहीं मानती। स्त्रियों को मंदिरों में प्रवेश करने देना या न करने देना यह निर्णय क्यों धर्म के कुछ चुनिंदा ठेकेदारों तक सिमटा हुआ है? हमारा संविधान लैंगिक आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की अनुमति नहीं देता है। किंतु यह भी हास्यास्पद ही है कि स्त्रियों को आज भी मंदिरों में प्रवेश जैसी बुनियादी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। हालाँकि यह भी उतना ही सत्य है कि मंदिरों में प्रवेश की लड़ाई उन्हें मंदिरों और कर्मकांडों के और करीब कर देगी, जिससे उनकी स्वतंत्र चेतना पर विराम लगने का भी भय है, किंतु लैंगिक स्वतंत्रता के लिए इतना जोखिम तो उठाना ही होगा।
इन मंदिरों में स्त्रियों के प्रवेश न करने को लेकर कोई भी तार्किक कारण नहीं है। कारण शायद स्त्रियों की माहवारी के कारण अपवित्रता का भ्रम है। सिमोन का सही ही कहना था कि स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। और यह बात एकदम सत्य है, स्त्री को बनाया जाता है, उसके लिए नियम कानूनों और परम्पराओं की एक दीवार खड़ी की जाती है, और स्त्री को उस दीवार से परे झाँकने की भी अनुमति नहीं है, उसे उस दीवार से परे सोचने की अनुमति नहीं है। संवैधानिक रूप से किसी भी लैंगिक भेदभाव को अमल में लाना अपराध है, पर समाज की संरचना ही ऐसी है कि स्त्रियों के सामने प्रतिबंधों का इतना आकर्षक वर्णन किया जाता है कि वे सहर्ष ही इन प्रतिबंधों का हिस्सा बनने के लिए तैयार हो जाती हैं और अपनी पहचान और अस्मिता को भी धर्म और परम्पराओं के नाम पर गिरवी रख देती हैं।
भूमंडलीकरण के इस दौर में स्त्रियों के अंदर स्वतंत्र चेतना का विकास होना एक चरण था जिसके कारण स्त्रियों में अपने मुद्दों पर सोच विकसित हुई। जहां आस्था एक तरफ मध्ययुगीन धारणा है वहीं आधुनिक स्त्रियों ने आस्था के साथ साथ अधिकारों को भी चुना। स्त्रियाँ अब अपने अधिकारों को लेकर मुखर हैं, और इसमें कोई भी अनुचित बात नहीं है। आखिर उनके साथ लैंगिक भेदभाव क्यों हो? क्या किसी भी सभ्य समाज में समाज की आधी आबादी को लैगिक आधार पर कुछ स्थानों पर जाने से या कुछ कार्यों को करे जाने से रोका जा सकता है? शायद नहीं। यह लड़ाई प्रतीकों की लड़ाई है। यह लड़ाई प्रतीक व्यवस्था की लड़ाई है। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो इस पूरे अभियान को बेवकूफी बताकर केवल प्रचार पाने का माध्यम घोषित करता है और इसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह उठाता है। एक धर्मगुरु शंकराचार्य तो यह तक कह देते हैं कि शनि मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के कारण स्त्रियों के साथ बलात्कार में वृद्धि होगी! ओह, क्या वाकई? क्या सयंम के पुजारी केवल स्त्रियों की उपस्थिति मात्र से ही अपना वर्षों का अर्जित संयम खो देंगे? या धार्मिक स्थलों पर स्त्रियों को न जाने देने का यह अंतिम अस्त्र है? क्या स्त्री की उपस्थिति मात्र ही इतनी खतरनाक है कि इन स्वयंभू ठेकेदारों का सिंहासन डावांडोल हो जाता है? और वे स्त्रियों पर धार्मिक स्थलों पर प्रतिबंध लगाने के लिए आननफानन में तैयार हो जाते हैं। वाकई, आखिर उन मंदिरों में प्रवेश की ही जिद्द क्यों जिन्होंने स्त्री के अस्तित्व को ही अछूत माना है। धर्म ने अपनी सत्ता की चारदीवारी से स्त्री को हमेशा ही बाहर निकाल कर हाशिए पर फ़ेंक दिया है। स्त्री के प्रवेश को लेकर प्रतिबंध शनि शिगनापुर से लेकर हाजी अली दरगाह तक है। धर्म के आधार पर स्त्रियों के साथ भेदभाव में कोई कमी नहीं है। अगस्त 2014 में मुस्लिम महिलाओं के एक समूह ने मुम्बई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है कि उन्हें भी हाजी अली दरगाह में प्रवेश करने दिया जाए। मामला अभी विचाराधीन है और इस पर शीघ्र ही निर्णय आने की उम्मीद है।
प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर अब ऐसा क्या हुआ है जो स्त्रियों के अंदर अपनी इस स्वतंत्रता को हासिल करने के जूनून तक चली गयी हैं। धार्मिक स्थल पर प्रवेश न दिए जाने का तर्क केवल और केवल मासिक से जुड़े हुए अपवित्रता के कारण है। एक तरफ हिंदू धर्म की अवधारणा है कि इंद्र के श्राप के कारण स्त्री को रजो धर्म झेलना होता है तो वहीं यहूदियों में पवित्र आदम को निषिद्ध फल खिलाने के पाप में हव्वा और उसकी योनी की संतानों को इस श्राप का सामना करना पड़ रहा है। इंद्र और हव्वा के कारण श्राप झेल रही स्त्रियां अब बाज़ार का एक मुख्य हिस्सा बन गयी हैं। वे अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे रही हैं। किसी भी देश की जीडीपी अब केवल पुरुषों की बपौती नहीं रह गयी है बल्कि स्त्रियां अब अपनी मेहनत के साथ अपने देश की प्रगति में खून पसीना बहा रही हैं। उन्होंने घरों से बाहर निकल कर अपनी एक नई दुनिया बनाई है। जहां पर वे अपने फैसले खुद ले रही हैं। राजनीति में स्त्रियां अपनी सूझबूझ का डंका मनवा रही हैं। फिर चाहे वह दुनिया का कोई भी देश क्यों न हो। अपने आस पास के देशों पर ही नज़र डालें तो श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश में स्त्री राजनेताओं ने अपने राजनैतिक कौशल का परचम लहराया है। भारत में इंदिरा गांधी को ही शक्ति का प्रतीक ही माना जाता है। तो क्या स्त्रियों की इस बढ़ती शक्ति को केवल पुरातन नियम कायदों के कारण सीमित किया जा सकता है? शायद अब उन्हें वंचित रखने का समय चला गया हैस्त्रियों में लैंगिक आधार पर भेदभाव के प्रति एक जागरूकता आ रही है और यही जागरूकता उनमें एक विद्रोह की भावना भर रही है। उनमें अपने लिए वही आज़ादी पाने की ललक है जो पुरुषों को प्राप्त है। सुखद यह देखना है कि यह जागरूकता सभी धर्मों के स्त्रियों के बीच है। अभी हाल ही में मुस्लिम समुदाय की स्त्रियों के बीच अमानवीय प्रथा हलाला और तीन बार तलाक पर भी बहस आरंभ हुई है। पाकिस्तान और अन्य कई मुस्लिम देशों में इस अमानवीय प्रथा पर रोक लग गयी है या उसका दायरा काफी सीमित कर दिया है, पर भारत में यह व्यवस्था अब बुराई का रूप बनती जा रही है। पड़ोसी श्रीलंका जहां पर मात्र दस प्रतिशत ही मुस्लिम जनसंख्या है, वह इस प्रथा को लगभग समाप्त कर चुका है। इसी प्रकार पाकिस्तान और बांग्लादेश भी लगभग इस प्रथा से मुक्ति पा चुके हैं। भारत में भी मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा तबका तीन तलाक के नियम को ख़त्म करने के पक्ष में है पर शायद अभी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने महिलाओं की इस मांग की तरफ से आँखें बंद कर रखी हैं। इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने जहां सरकार से जबाव माँगा है वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे धार्मिक मामलों में दखल बता रहा है। तलाक के विषय ने मुस्लिम समाज को भी बांट दिया है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री को भी एक पत्र लिखकर इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का अनुरोध किया है। इस संगठन ने भारतीय मुस्लिम महिलाओं के बीच तीन तलाक को लेकर एक सर्वे किया और उस सर्वे के मुताबिक़ 92.1% महिलाएं मौखिक और एकतरफा तलाक पर प्रतिबन्ध की पक्षधर हैं , वहीं 91.7% महिलाएं बहु-विवाह के विरोध में हैं। 83.3% महिलाओं ने कहा कि कोडिफायड मुस्लिम पारिवारिक लॉ बनाये जाने पर मुस्लिम महिलाओं को भी न्याय मिल सकेगा। एक और बात गौरतलब है कि राय देने वाली अधिकतर गरीब तबके से थीं अर्थात ऐसे परिवार जिनकी सालाना आय 50 हज़ार से भी कम है।
स्पष्ट है कि धर्म के आधार पर स्त्रियों को उनके मौलिक आधार से वंचित करने का षड्यंत्र केवल एक ही धर्म या मजहब तक सीमित नहीं है बल्कि यह सर्वव्याप्त है। स्त्रियों की स्वतंत्रता को जितना नुकसान धर्म ने पहुंचाया है या यह कहें कि धर्म की तथाकथित भ्रमित व्याख्या ने पहुंचाया है उतना किसी ने नहीं। स्त्रियों का यह संघर्ष अब अपनी अस्मिता का है। यह भी हास्यास्पद ही है कि धर्म और मजहब के नाम पर कहीं कहीं तो जींस पहनने और मोबाइल प्रयोग न करने को लेकर फतवे तक जारी हो जाते हैं। अभी पिछले दिनों ही बंगलुरु में ही नैशनल लॉ कॉलेज में एक प्रोफेसर ने एक छात्रा के वस्त्रों को लेकर उसके चरित्र तक पर उंगली उठा दी थी और यहाँ तक कह दिया था कि आप कक्षा में बिना वस्त्रों के भी आ सकती हैं, यह आपका चरित्र है। इसके बाद विरोध स्वरुप छात्राएं शॉर्ट्स में कॉलेज आई थीं और अभी इस मामले की जांच चल रही है।
स्त्रियों को शोषित करने का और अपमानित करने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ा जा रहा है वहीं स्त्रियों की तरफ से विरोध मुखर हो रहा है, फिर चाहे वह मंदिरों या दरगाहों में प्रवेश का मामला हो, तीन तलाक हो या वस्त्रों को लेकर अपमानजनक टिप्पणी। वह लड़ रही है और न्याय की इस जंग में स्त्री जीतेगी इस में भी कोई संदेह नहीं है। सुबह का आना कोई टाल नहीं सकता।



सोनाली मिश्रा
सी-208, G-1, नितिन अपार्टमेंट शालीमार गार्डन,
एक्स-II, साहिबाबाद,
ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
फ़ोन – 9810499064



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