उसके रुकने और मेरे
आने में
बहुत ही कम फासला
था,
उसके पैरों में थी,
महत्वाकांक्षा की
अठखेलियाँ,
और मेरे पास मेरे
पंखों के बादल,
रुई के फाहे को
सिरहाने रखकर
मैं अपने बादल बनाती
थी,
और वह
अपनी नींद में भी
अपनी इच्छाओं का
उन्मुक्त
मर्दन करता था.
आज,
सोचती हूं,
कैसे फैल गए बादल,
मेरे पंखों और
उसकी इच्छाओं में
छितर गए,
न ही मेरे पंख पसर
पाए,
न ही उसकी
बाजुओं में सिमट
सके,
सच,
कभी कभी तालमेल का
छाता
कितना जरूरी होता
है.
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