डॉ. ने अब और इंजेक्शन लाने के लिए मना कर
दिया था! अब जरूरत नहीं थी। अब इंतज़ार था। इंतजाम चल रहे थे। दिल्ली भीग रही थी।
हर जगह पानी था। पानी से भर गया था सब कुछ! एम्स के बाहर झमाझम झड़ी लगी थी। बाहर
से आए मरीज और उनके घरवाले इधर उधर बैठ गए थे. जहां जिसको जगह मिली थी, वह वहीं
बैठ गया था. हर कोई किसी न किसी का इंतज़ार कर रहा था, कोई डॉक्टर का, कोई दवाई का
तो उसके जैसे भी थे, जो उस पल का इंतज़ार कर रहे थे, जिसकी कल्पना भी संभव नहीं थी!
वह और लोगों के दर्द और अपने दर्द के बीच कोई सिरा खोजने की फिराक में थी. वह धीरे धीरे कमरे से बाहर निकलने लगी. धीमे
धीमे चलते चलते वह गलियारे में आ गयी! जिधर देखो उधर ही दर्द का संसार था, कहीं
कोई रो रहा था, तो कहीं किसी में राहत के भाव थे. डॉक्टर के प्रति किसी के मन में
गुस्सा था तो कोई अपने बच्चे के सही हो जाने के कारण, डॉक्टर के प्रति कृतज्ञ था.
वह इस कृतज्ञता के बंधन से बाहर निकल गयी थी. उसके पेट में दर्द उठा! दर्द का हौला
उठा! पेट का निचला हिस्सा बहुत दर्द कर रहा था। इतना दर्द तो आज से तीस साल पहले
ही हुआ था! आंगन की ओखली में बैठी बैठी मिर्च कूट रही थी. एम्स से पैदा हुआ दर्द
छोटे से गाँव में पहुँच गया.
गर्भ चढ़े पूरे नौ महीने हो गए थे. दसवां
चालू हो गया था. मगर पेट की हलचल बाहर निकलने का नाम भी नहीं ले रही थी. वकील साहब
उसे चिढ़ाते, “काहे, मन नहीं है का लल्ला को बाहर आन को?” और वह लजाकर दोहरी हो
जाती. अम्मा जो कुछ कहतीं, वह सब करतीं! भाभी भी नौंवा महीना ख़त्म होते ही आ गयी
थीं और अकेली कहाँ आई थीं, उनके साथ न जाने कितनी तरह की हिदायतें चली आईं थीं
उसकी माँ की तरफ से. ननद और भाभी की चुहलें चलतीं और दोनों ही आने वाले मेहमान की
बातें करते! उस दिन भी दाई के ही कहने पर ओखली में मसाला कूटने लगी थी. कि उसे लगा
जैसे दर्द का एक समुद्र ही उसके पेट में समा गया हो! पानी की थैली फट गयी थी! घर
का आंगन था, तब ओखली पर काम करते करते उसके हाथों से मूसर छूट गया था।
उसने देखा पानी बहकर उसकी साड़ी को भिगो रहा था और अंदर से बच्चे की हरकतें भी तेज हो गयी हैं।
“काहे बड़ी बहू, अब एकदम से ही बहुत जल्दी होय गई, लल्ला को आन की!” उसकी
सास ने आंगन में आते हुए कहा था।
नेवी ब्लू और कत्थई रंग की साड़ी उसने इसीलिए पहनी थी कि कुछ गड़बड़ हो तो
गहरे रंग की साड़ी में पता न चले!
उस दिन भी बहुत तेज बारिश हो रही थी। मई के महीने में बहुत ही कम होने
वाली बारिश उस दिन आंधी के बाद एकदम से तेज हो गयी थी। और उसके साथ ही तेज हो गया
था उसके पेट का दर्द!
बड़ी हवेली में उस छोटी सी कोठरी में वह दिन भर दर्द से तड़पती रही थी। दाई
आई थी, उसने आकर अम्मा जी से कह दिया था।
“अभी देर है!”
दर्द से तड़पते हुए उसने दाई की तरफ देखा था,
“देर! यह दर्द तो प्रान ही ले लेगा जीजी!”
“सबर करो, बड़ी बहू, अभे देर है!”
भाभी का हाथ उसके कंधे पर और कस गया था!
अचानक से उसने फिर से कंधे पर एक कसाव महसूस किया!
“क्या हुआ? कुछ कहा तुमने?” उसने चौंक कर पूछा
“बड़ी अम्मा, अभी थोड़ी देर है! डॉ. बोल रहे हैं एक दिन लग सकता है या फिर हो सकता
है शाम तक ही!” सरस के कहे आगे के शब्द उसके मुंह में ही दब गए “आपके लिए चाय
लाऊँ!” उसका छोटा बेटा उसके पास आकर बैठ गया था!
“हम्म! नहीं चाय नहीं! कमरे में बहू है क्या? बहू से क्या कहा है?” उसने
अपने बेटे की आँखों में आँखें डालकर प्रश्न किया
“भाभी, बच्चों के साथ हैं! उन्हें अभी कुछ नहीं कहा है! कालका जी मंदिर
जाने के लिए कह दिया है!” उसके बेटे ने उसकी गोद में एक छोटे बच्चे की तरह सिर रख
दिया
वह उसके बालों में हाथ फिराने लगी,जैसे कुछ खोज रही हो
“जे ठीक करो! बहू को डॉ. से बात
न करने दियो! अभी उमर ही का है बाकी! चलो कमरे में चलें!”
“चलो बड़ी अम्मा!”
एम्स में उस कमरे में चलती चलती वह फिर से दर्द के उसी सागर में चली गयी,
जो तीस बरस पहले कोठरी में हो रहा था.
भाभी पूरी रात उसके माथे पर हाथ फिराती रही थीं,“कछु न होइए! तुम्हारा
लल्ला देखना कित्तो सुन्दर अइए! एकदम वकील माफिक! हीरो!”
वह उतने दर्द में भी मुस्करा उठी थी।
उसके दूल्हा के चर्चे तो पूरे गाँव में थे! जब उसे ब्याहने आए थे, तब पूरे
गाँव के मुंह पर ताला लग गया था। ऐसा लगा था जैसे खुद राजा राम आए हों! और वह सीता
की तरह उन्हें छिप छिप कर देख भी न सकी थीं! और यही भाभी थीं, जो उनके दूल्हा को
देखकर उन्हें छेड़ने आ गईं थीं! भाभी बोली थीं, “बिट्टो, पता कर लियो, तुम्हाए ससुर
की कोई गोरी मेम तो दुल्हन नहीं थी, जो इत्ते गोरे हैं हमाए जमाई!”
और लाल रंग में सांवली सी गठरी बनी वह अपने में सिमट गयी थी। इत्ते गोरे
और सुन्दर वे और वह खुद!
दांत से जब उसने होंठ दबाए तो दर्द में भी वह अजीब मुस्करा उठी!
“भाभी, कित्तो और दरद? और कब तक बच्चा को सर नीचे अइये?” उसने भाभी का
हाथ पकड़ कर पूछा था
“नेक देर तो सबर करो बिट्टो!” भाभी ने उसका हाथ दबाया था कि तभी दर्द की
एक लहर आने से उसे लगा जैसे किसी ने उसे झकझोर दिया!
“मम्मी, मम्मी! कहाँ खोई हैं! हम लोग मंदिर जा रहे हैं! आपके लिए कुछ
मांगकर लाएं क्या? अब डॉ. जल्दी ही इन्हें तो छुट्टी देने ही वाले हैं। हमने सोचा
मंदिर ही हो आएं! आप तो हो ही यहाँ!” उसकी बहू उसे झकझोर रही थी! अरे! वह दर्द के
एक सागर से जैसे दुसरे में एकदम से स्थानांतरित हो गयी! वह उस कोठरी से बाहर निकल
कर एम्स के इस कमरे में आ गयी!
“हम्म! नहीं बहू! अब सब कुछ तो मिल ही रहो है! अब इन्हें लेकर घरे तो चल
ही रहे हैं! हम सब एक साथ ही रहन वारे हैं, तो अब और का मांगे! बस इत्तो मांग
लियो, कि तुम्हाई महतारी को दर्द कम कर दें!” उसने अपनी सीधे पल्ले की साड़ी से इस
तरह से आंसू पोंछे कि बहू न देख पाए!
चौबीस बरस की तो है! अभी कुछ समझ नहीं आता इसे! डॉ. से बचाएं या उसके जेठ
या देवर से! उसका मन अपनी बहू को देख देखकर फटा जाता है! कैसी जिम्मेवारी दे दई
लल्ला! वह उस कमरे में लेटे शांत अपने बेटे की तरफ देखकर सवाल पूछती है! उसे पता
है कि अब यह इस सवाल का जबाव नहीं मिलेगा! कुछ सवालों के जबाव नहीं होते, वह बस
सवाल होते हैं! खुद ही जबाव खोजने होते हैं!
यह वह अपने बेटे को तब समझाती थी, जब वह अपने सौतेले भाइयों के साथ खेलते
हुए असहज महसूस करता था! वह उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहती जाती “कुछ बातों
के जबाव नहीं होते, समय पर छोड़ दो!” और तमाखू खाते हुए फिर काम में लग जाती! आज
फिर से उसी मोड़ पर आकर खड़ी है, जहां सवाल मुंह बाए खड़े हैं, और वह अपनी बहू के साथ
अकेली! कहाँ जाए? क्या करे? उसका मन हुआ अपना सिर फोड़ ले, या सामने से आ रही किसी
भी बस के सामने आ जाए! कितनी देर लगेगी उसके मरने में! आज शाम से पहले वह ही मर
जाती है, मगर यह नहीं...........
“हे मैया! सक्ति दो!” वह मन ही मन बुदबुदा रही है!
फिर उसने कमरे में झाँककर देखा!
अम्मा बैठ जाओ न एक तरफ! अभी साँसे हैं, समय है अभी!” साँस शब्द पर उसने
चौंक कर नर्स को देखा! नर्स उन खोखली आँखों में देख न सकी! बस उसने उसका हाथ थाम
कर कहा “अम्मा, धीरज धरना ही होगा!”
दिल्ली में जो घर लिया है वह बहुत दूर है, और इतना बड़ा भी नहीं, कि चार
पांच लोग टिक जाएं! अब यहाँ पर तो एम्स में रात में कहीं भी सो जाओ! कहीं भी सो
जाओ! सब दर्द के साथी हैं, सब दर्द के साझीदार हैं! किसी को कहीं बोतल चढ़ रही है
तो किसी के कहीं पट्टी बंधी है! सब एक दूसरे को देखकर इस दर्द की बेला में मुस्करा
देते हैं! एक हफ्ते से वह घर नहीं गयी है! अब उस घर जाने का फायदा नहीं!” उसने एक
दिन तमाखू चबाते चबाते नर्स से कहा था!
नर्स ने कहा था “अम्मा, एक हफ्ते से आप सोईं नहीं हैं! सो जाइए, आपकी
तबियत खराब हुई तो हम कुछ नहीं कर पाएंगे!”
उसने कुछ नहीं कहा था, बस सिर हिला दिया था! नींद उसकी आँखों से कोसों
दूर थी! कभी वह दिन हुआ करते थे, जब उसे नींद नहीं आती थी, बेटा माँ के गर्भ में
ही घर बनाए बैठा था. उसपर न ही तो करवट बदली जाती थी! और पूरे पंद्रह रातों के
रतजगे के बाद आखिर वह दिन आया था, जब उसके दर्द हुआ था!
न तो बारिश ही बंद हो रही थी और न ही उसका दर्द!
भाभी उसका तलवा मलती! हर एक घंटे पर दाई आती, उसकी साड़ी उठाती, मुआयना
करती, फिर अम्मा से कहती
“अरे, मिसराइन, अभे समय है! थोड़ी तो अपनी बहू को बोले दरद सहने की आदत
डाले!”
उसकी भाभी ने आखिर दाई को झिड़क ही दिया।
“तुम तो रोज बच्चा जनाती हो, हियाँ तो इसका पहला है!”
दाई ने उसके पसीने वाले चेहरे पर हाथ फेरा!
“बेटा ही है! तुम्हें बहुत सुख देगा! तुम्हाए सारे दुःख हरेगा!”
दाई की बात सुनकर उसके चेहरे पर फिर से रोशनी छा गयी थी। सच उसका बेटा, उसका अपना बेटा! वह तो जैसे खुशी
से पगला रही थी। उसे दर्द में भी एक सुकून मिल रहा था! बार बार वह हनुमान चालीसा
पढ़ रही थी। बार बार वह अपने पेट पर हाथ लगाती। उसे लगता जैसे वह उसका हाथ पकड़ने की
कोशिश कर रहा हो!
उसे लगा जैसे उसका हाथ किसी ने पकड़ा!
“दादी दादी!” उसका पांच साल का पोता था!
“दादी, हम सब गाँव चल रहे हैं! पापा भी!” आज उसने एकदम नए कपडे पहने हुए
थे। जैसे किसी शादी में जा रहा हो! ओह हाँ, वही तो उसके लिए लाई थी! जैसे उसने
अपने बेटे के लिए सब कुछ पहले से बना कर रख लिया था।
“हाँ बेटा। हम सब गाँव चलेंगे,
चाचा, पापा, सब!”
“सच्ची! जैसे हमाए मुंडन पे गए थे!” वह उछला
“नहीं, हमेशा के लिए!” उसने प्यार से उसके सिर पे हाथ फिराया!
“नहीं, हमेशा के लिए नहीं! मुझे दिल्ली पसंद है, गाँव नहीं!” वह तुनका
यही तुनक उसके बेटे की थी। जब उसकी नौकरी लगी थी। नौकरी मिलते ही वह
दिल्ली आ गया था!
“दादी, बोलो न! हमेशा के लिए नहीं न! केवल मुंडन के बाद हम आ जाएंगे!”
उसने उसके मुंह पर हाथ रख दिया!
“तुम कहीं जा रहे हो?” उसने बात बदली
“हां, मम्मी और गुड़िया के साथ मंदिर! बारिश हो रही है न! तो चाचा टैक्सी
लाने गए हैं, ऑटो में बोले हम भीग जाएंगे!” वह नन्हे जासूस सा बोला
उसके पेट का दर्द आज उसकी जान लेने के लिए उतारू था। बारिश तो भयानक ही
तांडव मचा रही थी। उसका मन हुआ कि वह रोक ले, मगर उसने नहीं रोका।
उसने अपने पति को भी नहीं रोका था। उसने हमेशा सबको उनके मन का करने दिया!
किसी को नहीं रोका था। जब अपने दूसरे ब्याह के लिए उनके पति ने उनसे पूछा तो दो मिनट
के लिए वह सन्न सी रह गईं थीं! ऐसा ही आंधी पानी उस दिन भी आया था। शादी के बाद से
डेढ़ साल तक उनकी देह में एक सूखापन था। ठठरी होती देह में नमी का नामोनिशान नहीं
था। डेढ़ साल में नमी उड़ गयी थी, कभी चूल्हे पर दाल बनाते समय, कभी रोटी बनाते समय
फूंकनी से फूंक मारते हुए! उसके आंसू वही एक क्षण था, जब उनके राम ने आकर उन्हें
छुआ था। उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर अपने मन की बात कही थी। उस दिन चूल्हे
में उसने गीले कंडे डाले थे, आँखें अभी तक जल रही थीं। पानी की रोटी खाने वाले वकील
साहेब के दिल में बहुत नमक था, जो उसकी सूखी देह के घावों पर फिरा रहे थे।
उनकी सूखी देह पर उनके राम का स्पर्श कितना नमक लेकर आया था, वह ही जानती
थी। उस रात भयानक बारिश हुई थी। टीन की छत पर अमरुद के पेड़ से गिरती हुई बूँदें
शोर मचा रही थीं। चमगादड़ भी उस रात अपनी खोह में ही थे। उसके जीवन में बारिश हर
मौके पर आई है! उस रात जब उनके राम एक अनुरोध लेकर आए थे, तब भी बादलों ने तांडव
मचाकर रखा था। डेढ़ साल में देह कितनी खोखली हुई थी, देह कितनी पीली हुई थी,
उन्होंने उस दिन लालटेन की रोशनी में देखा! सांवली देह मांसलता के अभाव में कितनी
खुरदुरी हो जाती है, सौन्दर्य हीन! देह की
देहरी से मांसलता तो न जाने कब से उड़ गयी थी। अब तो हड्डियों का ढेर थी वह! मगर उस
रात, तो बारिश हुई थी! अनुरोध की बारिश, वादों की बारिश! और उस बारिश में उसके
सामने ही बह रहे थे अग्नि के सामने लिए सात वचन!
“मैं उसे नहीं छोड़ सकता!” उन्होंने कहा था
“उसे माने!” उन्होंने जिनका अभी तक कोई मुकम्मल नाम और पहचान उस घर में
नहीं थी, ने सूखे होंठों पर जीभ फिराते हुए पूछा था।
“उसे माने, सुकन्या को!” वे बोले!
“उसे मैं अपनी पत्नी मानता हूँ!” वे एक क्षण के विराम के बाद बोले
“और मुझे?” उसने आज पहली बार सवाल किया था। अभी तक तो वह उनके सुदर्शन
व्यक्तित्व से ही दबी हुई थी। इतने बड़े घर में अम्मा उन्हें अकेला छोडती ही नहीं
थी। पहले तो बड़ी ननद का ब्याह होने तक उन दोनों के मिलने पर रोक थी। अभी दस ही दिन
हुए, ननद का ब्याह हुए, तो अब उनकी पहली मुलाक़ात थी।
“हम कौन हैं आपके लएं?” उउन्होंने फिर से पूछा
उन दोनों के बीच उस दिन सवालों की नदी थी। उस सवालों की नदी पर उन दोनों
को ही तमाम जबाव चाहिए थे। मगर वह जबाव कौन देगा? अम्मा को पता था क्या? वह अपने
मन से सोच रही थी? यह समय यह सोचने का नहीं था। यह समय उस अनुरोध को स्वीकृत करने
या अस्वीकृत करने का था। वैसे उसके पास विकल्प क्या था? उसने अपना दिमाग चलाया! वह
अनपढ़, सांवली, पिता नहीं! भाई किसान। जो पूरी तरह से खेती के आसरे! कहाँ जाएगी? जिस
भाभी की आँख का तारा है, वह उसी पर बोझ बन जाए!
उन्होंने अपने ब्याह में भैया का गर्वोंमुक्त चेहरा देखा था। वह चेहरा
उनके सामने आकर अपने गर्व को बनाए रखने की दुहाई दे रहा था।
“अगर हम मना कर दें तो?” उन्होंने जिरह की। मगर उस जिरह का कोई मतलब नहीं
था। फैसला वकील साहब जी ले चुके थे और परिवार में उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी
की नहीं थी!
“मैं तुमसे बिना पूछे भी ला सकता था! मगर मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता, तुम
मेरी जिम्मेदारी हो। और मैं अपनी बहन की शादी का इंतज़ार कर रहा था! तुमने सारी
रस्में सही से निभाई हैं, तुम इस बंगले की लक्ष्मी हो, तुम्हें छोड़ नहीं सकता!” वे
धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे! और वह उनके चेहरे को लालटेन की रोशनी में देखने की और
उनके जीवन में क्या होने जा रहा है, उसे समझने की कोशिश कर रही थीं। बाहर की बारिश
उनके अंदर की आग को बुझा नहीं पा रही थी।
“हम आपकी जिम्मेदारी हैं, तो बा कौन है?” उन्होंने उनकी आँखों में आँखें
डालकर पूछा
“वो मेरा प्यार है, ज़िन्दगी है!” उन्होंने उनके हाथों को अपनी हथेलियों
को कसते हुए कहा
क्या किसी का स्पर्श इतना जला भी सकता है? देह के सूखे ठठरीपने में
उन्होंने अपना भाग्य पा लिया था, मगर भाग्य का यह भी रूप होना था? उनका मन हुआ कि
भाग जाएं!
बस एक शब्द ने उनकी पूरी ज़िन्दगी बदल दी थी।
“तुम जिम्मेदारी हो, वह प्यार है!”
ओह, तो वे केवल जिम्मेदारी हैं! “तुम इस घर की मालकिन हो, वह दिल की
मालकिन है!”
उस छोटी सी कोठरी में भगवान की फोटो के पीछे घर की चाबियां थीं। उन्होंने
वे चाबियां उठाकर उनकी हथेली में रख दीं थीं,
“घर की मालकिन भी उसे ही बना दें!”
एकदम से बिजली कड़की! उस सांवले चेहरे की दृढता ने जैसे एक पर्वत सरका
दिया! पर्वत का सरकना इतना सरल था क्या? मगर पर्वत सरका तो था, गिरा नहीं था!
उन्होंने उन चाबियों को उसी ठठरी बनी देह के हवाले कर दिया था।
“मैं यह पाप नहीं कर सकता!, मगर उसके बिना मैं मर जाऊंगा!”
वे रोने लगे थे! बाहर की बारिश वह बर्दाश्त कर सकती थी, मगर जिसके साथ
सात जन्मों की खुशी और गम का वादा करके आईं, उसे अपने सामने रोते देखकर वे भी पिघल
गईं!
उस रात बारिश खूब हुई!
बाहर भी और अंदर भी! उस रात सूखे तिनकों में कुछ नमी आई थी। जी भर बारिश
हो जाने दी उन्होंने, न जाने बैरी बदरा, अब कब बरसे! एक बार देहरी से गए बादल कहाँ
दोबारा आते हैं! ये बादल देहरी से जाने के लिए ही तो बरस रहा था।
क्या भीगी थीं वे! ठठरी बनी देह तो जैसे भाप बनकर उड़ गई थी। उस रात बहुत
कुछ थाम लिया था, बहुत कुछ खो दिया था।
दो ही दिन में उनकी दुनिया उस कोठरी और उनके आंगन तक में सिमट गयी थी।
आंगन से परे जाना उन्होंने बंद कर दिया था। उनके देव ही कभी कभी आते थे। उन्होंने
गलत सोचा था। यह बादल तो उनकी देहरी पर खूब आता था। और शायद तभी वे उस पीड़ा से
बाहर निकल पाईं थीं!
फिर एक दिन, दाई ने बताया था कि वे पेट से हैं!
“मेरा बच्चा!, मेरा बच्चा!” एकदम मेरा, केवल मेरा!”
दाई उनकी इस आत्ममुग्धता को देखे जा रही थी।
“बड़ी अम्मा, कुछ खाओगी!” एकदम से जैसे किसी ने उन्हें उस आत्ममुग्धता से
बाहर निकाला
“हम्म, नहीं! बहू गयी! टैक्सी ही कराई है न!” उन्होंने पूछा
“हां!” सरस माने उनके छोटे बेटे, ने कहा
“और सामान सारा बाँध लिया है न! उस घर में वापस तो जाना नहीं होगा, तो
सारा सामान बांधकर रखवा लेना। ट्रक वालों को बोल देना, और स्कूटर का क्या करोगे?
यहीं बेच देना किसी को!” वे धाराप्रवाह बोलती जा रही थीं।
उस समय उन्हें ऐसा लग रहा था, जैसे कोई ऊपर से आदेश दे रहा हो!
एकदम से उनके पेट में दर्द दोबारा होने लगा था!
“उफ ये दर्द नहीं जा रहा!” उन्होंने अपना पेट पकड़ते हुए कहा
“बड़ी अम्मा, तुमने दो दिन से कुछ खाया नहीं है, खा लो न! नहीं तो तुम भी
बीमार पड़ गईं तो?” सरस ने बहुत ही बुझे मन से उनसे कहा
“अरे, मुझे कुछ नहीं होगा! होना होता तो उसी दिन हो गया होता, जिस दिन
तुम्हारे पापा, तुम्हारी मम्मी को हमाए सामने ले आए हथे!, जब वो दुःख झेल गए, तो
जे तो केवल सरीर को दुःख है!” उन्होंने अपनी हथेली में तम्बाकू रखते हुए कहा
“बड़ी अम्मा! चाय तो...................... सरस के शब्द उसके मुंह में ही
रह गए थे
उन्होंने अपने हाथ से इशारा कर दिया और बाहर की तरफ देखने लगीं। “सुनो,
तुम बाकी काम कर लेना!”
“इंतजाम शुरू कर दो!”
उस दिन जब उनके दर्द शुरू हुए थे, तो तुरंत ही उनकी सास ने बिहैया माता
की थाप लगवा दी थी। माता लेकिन शायद खुश थीं नहीं! उनकी सास ने कहा था “सुनो बड़ी
बहू! जे बिहैया माता ही हमाए लल्ला की रक्षा करन के लएं हैं। लल्ला को जे ही
हंसइयें और जे ही रुलइयें”
उस दर्द में वह बार बार बिहैया माता की तरफ देखतीं, और उनसे इस दर्द से
मुक्ति की कामना करतीं! आज भी वे मुक्ति की कामना कर रही थीं! मगर कितना अंतर था,
उस मुक्ति में और इस मुक्ति में!
हाथ में तम्बाकू में चूना मिलाते समय उनकी हथेली एकदम लाल हो गयी थी।।
उन्होंने कुछ ज्यादा ही घिस दिया था। ये इंतज़ार कितना भयावह है! वे इस अस्पताल में
बाहर निकलती हैं, तो इतने दुःख हैं लोगों के कि वे वापस आ जाती हैं। अपने दुःख की
गठरी ही इतनी भारी है! बस बहुत हुआ, अब नहीं! अब वे नहीं जाएँगी बाहर! सरस है ही
भागदौड़ करने के लिए!
न जाने मुआ दर्द कब ख़त्म होगा!” जब उन्होंने उस रात यह कहा था तो भाभी
बहुत हंसी थीं!
“अरे, बन्नो! जे तो मीठा मीठा दर्द है! लल्ला आएगा तब दर्द देखना छू हो
जाएगा!”
सुबह के तीन चार बजते बजते दर्द बहुत बढ़ गया था और दाई ने अब कुछ ही देर
की बात कही थी!
तैयारियां होने लगी थीं। अगल बगल के लोग सारे आने लगे थे। घर के बाहर
पड़ोसियों की भीड़ लग गयी थी। वकील साहब के सभी परिचित आ गए थे। उनके भैया, अम्मा भी
आ गईं थीं! सब लोग अब शुभ घडी का इंतज़ार कर रहे थे! वह बार बार धक्का देती, और बार
बार दाई कहती, बस कुछ और बस कुछ और!
उसका दर्द इतना भयानक था कि उसे लगा जैसे उसकी जान ही निकल जाएगी! ओह!
कितना भयानक दर्द था। कभी पीठ के किसी कोने से होता, कभी पेट के किसी कोने से!
कोई बोला “लग रहा लल्ला आना ही नहीं चाह रहा है!”
अम्मा ने ठिठोली की “लग रहा कि अम्मा का पेट ही हमाए लल्ला को चाहिए!
अम्मा को छोड़कर आना ही नहीं चाह रहा बाहर!”
उस दिन उसे कितना प्यार आया था, ओह, उसका लल्ला! केवल उसका! वकील साहब तो
बंटे हुए हैं, मगर जे तो केवल मेरा ही होगा!
मेरा लल्ला! और यही सोचकर उसने एक बार और जोर से दम लगाया!
“बस बस, हो गया!” दाई चीखी
“थोडा और दम लगा लो, और हो जाएगा!” दाई बोल रही थी
कोठी में बाहर पीतल की थाल लेकर तैयारी हो चुकी थी। बस बँगला के राजकुमार
के आने का इंतज़ार हो रहा था। बारिश के रुकने का इंतज़ार किए बिना लड्डू आ चुके थे,
हरीरा बनाने के लिए सामान आने लगा था। वह दर्द की आख़िरी अवस्था में थी। देह तोड़
देने वाला दर्द! और उसके बाद केवल उसका बेटा, केवल उसका! यह स्वामित्व का अहसास
उसे जो सुखद अहसास दे रहा था, वह हर दर्द से परे था!
“बड़ी अम्मा! डॉ. बुला रहे हैं!”
सरस उसके पास आया!
“हम्म! क्या हुआ!” जैसे मुक्ति की अवस्था उसके पास आ गयी थी।
बारिश थमने लगी थी।
“बड़ी अम्मा, सारा इंतजाम हो गया है! घर से भी फोन आया था कि वहां भी सारा
इन्तजाम हो गया है! भाभी के घर वाले, आपके भैया, भाभी, भाभी की अम्मा, सब पहुँच
चुके हैं! अभी डॉ. साहब आपको बुला रहे
हैं!”
“हमें काहे?” उन्होंने पूछा
“बोल रहे, ले जाएं हम! भैया को!”
वे डग मगाईं!
दर्द अब चरम पर पहुँच चुका था!
उन्होंने एक बार फिर से जोर लगाया और फिर निढाल हो गईं!
दाई ने नाड़ काटी, और चीखीं “मिसराइन, पोता हुआ है! वकील जी के बेटा हुआ
है!”
कोठी में खुशी की लहर दौड़ गयी, थाली बजी, और लड्डू बाँटने के लिए न जाने
कितने लोग आ गए थे। बच्चे को नहला धुलाकर जब उनकी बगल में लिटाया तो उन्होंने उसे
अपने सीने से लगा लिया “मेरा बेटा”
“हम्म! तो बेटे के साथ लाड़ हो रहा है! मगर ध्यान रखना, बेटा तो उड़ जाएगा,
हम ही रहेंगे तुम्हारे साथ!” वकील जी ने उसकी चारपाई पर बैठते हुए अपने बेटे को
देखते हुए उन्हें छेड़ा था।
दर्द से उन्हें मुक्ति मिली थी। मगर इस दर्द का क्या! ले जाएं! कहाँ ले
जाएं?
सरस बोल रहा है। “घर पर सारा इंतजाम हो गया है! सब मौजूद हैं!”
वे एम्स के गलियारे में भागती हुई जा रही हैं!
उनके बेटे ने उनसे कहा था “अम्मा, कसम है तुम्हें, न तो तुम हमारी आँखें
मुंदती हुई देखना और न ही अपनी बहू को देखने देना! मैं तुम दोनों के लिए जिंदा
रहना चाहता हूँ! तुम्हाए पोते में मैं ही रहूँगा! जैसे ही डॉ. बोले मुझे ले जाओ, वैसे ही बहू और हमाए बच्चन को
लेकर घर चली जइयो। तुम्हें ध्यान है न हम जब तुमसे कहत हथे कि तुम्हें लेकर अमरीका
जइयें, तब तुमने हमें रोकन के लाएं हमाओ ब्याह कर दओ हथो! अब? अब तो जा रहे हैं
हम? अब कैसे रोकोगी! मुझे पता है, मेरे
पास दिन नहीं हैं बाकी! मगर तुम्हारी बहू की पूरी ज़िन्दगी पड़ी है, हो सके तो दूसरा
ब्याह कर देना उसका!”
वे उसी तरह से सन्न बैठी थीं, जैसे उस दिन सन्न हो गईं थीं, जब उनके पति
इजाज़त लेने आए थे। अब उनका बेटा इजाजत मांग रहा था, जाने की! बिहैया माता की थाप
सही नहीं लगी होगी! घर जाकर जरूर देखेंगी, बिहैया माता की थाप को!
“नहीं, नहीं! तुम ठीक हो जाओगे! तुम्हें पता है न तुम्हें पालने के लिए
मैंने कितने जतन किए हैं! किन किन अपमानों को झेल कर तुम्हें बड़ा किया है!
तुम्हारी छोटी अम्मा के कितने ताने झेले हैं! तुम्हें नहीं जाने दूंगी!”
वे न जाने कितने आवेश में बोलती गईं थीं।
“अम्मा, जाना तो होगा ही! हो सकता है कुछ ही दिनों में मैं बोलना ही बंद
कर दूं और फिर डॉ. केवल मेरी मौत का दिन
गिनें! अम्मा, भगवान के लिए मेरे बच्चों का ध्यान रखना! तुम्हारे ही जिम्मे छोड़कर
जा रहा हूँ! मेरी निम्मो को बचाकर रखना! और तुम और निम्मो दोनों ही भगवान के लिए
मुझे मरा हुआ न देखना”
वह अपने छ फुट के बेटे को एम्स में उस हालत में देख रही थी, जिस हालत में
उसे देखना असंभव था, एक माँ के लिए! उसके लिए यह सब करना और कहना असंभव था. दर्द
के सागर में गोता लगाना और बार बार उसमे तैरते रहना! उससे बार बार उसके अपने ऐसी
अनुमति लेने क्यों लेने आ जाते थे? नहीं वह नहीं जाने दे सकती, अभी उम्र की क्या
है! शादी को छ साल हुए हैं! बेटा है पांच साल का और बेटी! उसकी रुलाई छूट गयी!
बेटी को तो पता ही न चलेगा कि उसके बाप भी था! पर क्या करे! बीमारी भी तो ऐसी लेकर
आ गया था और पता भी चली थी आख़िरी चरण में! जैसे उस दिन सम्हाल लिया था, उस दिन
एम्स के उस कमरे में सम्हाल लिया था खुद को!
“सुनो, घर में तो इंतजाम होय गयो है न!” उन्होंने सरस से पूछा
“बड़ी अम्मा, भैया को देखोगी नहीं?” सरस ने उन्हें हिलाकर पूछा
“नहीं! उसकी बंद आँखें और जिस छाती में बार बार सांस देखत रहे, उन्हें
एकदम शांत नहीं देख सकती! और हमसे कहके गए कि हमें न देखियो! हमें ज़िंदा रहन है!”
“हम बाहर जाय रहे! घरे फोन करके अपएं बाप से कह दियो, कि लल्ला उड़ गए!”
घर पर जाकर सारा इंतजाम करना है, उस दिन की तरह जब कोठी के सामने लल्ला
के आने का जश्न मन रहा था। भीड़ थी, वही भीड़ थी! स्वागत करने की भीड़ थी। सरस के घर
पहुँचते ही भीड़ होगी, घर से बार बार खबर आ रही थी, ले आओ, ले आओ!
सरस ने कहा “अब एक ही बार लाएंगे!”
उसके पेट में दर्द फिर से होने लगा है! उसे अपनी सास की बात ध्यान आ रही
है “लल्ला को अपनी अम्मा को पेट ज्यादा पसंद है!”
एम्स के गेट की तरफ वह दौड़ रही है!
बहू आने वाली होगी!
बहू को कैसे बताना है, समस्या है! मगर औरत को कहाँ कुछ समझाना होता है!
वो तो समझदार होती ही है। सरस अपना काम करने में लगा था। बहू कालका जी मंदिर से आ
गयी है!
उसका पोता ऑटो से उतर कर उसके पास ही आ गया। “दादी दादी, आप बाहर! घर चल
रहे हैं क्या?”
“हाँ बेटा! तुम्हें अपना मुंडन याद है न?” उन्होंने बड़े प्यार से उसके सर
पर हाथ फेरा!
“हाँ दादी! आपने बहुत बड़ा पेड़ा खिलाया था!” उनका पोता उनकी साडी पकड़ते
हुए बोला
“फिर से मुंडन कराना है?” उन्होंने अपनी बहू को देखते हुए अपने पोते से
पूछा
बहू हिली! उसकी आँखों में वह पूरा बादल उस एक ही वाक्य से बरस गया, जिसे
वे इतने दिनों से थाम कर रखी थीं!
“मम्मी, हमें इन्हें देखना है!” बहू भागी!
“कोई फायदा नहीं! उसकी सख्त हिदायत थी, कि हम और तुम उसे न देखें! जाते
हुए का मान रखो बहू!”
“मम्मी, तुमने कुछ भी नहीं बताया!” वह सिर पकड़ कर बैठ गयी थी
“अब यहाँ कुछ नहीं रखा! किराए का कमरा सरस ने कल ही खाली करा दिया था, आज
ट्रक वालों ने सारा घर खाली कर लिया है, वे लोग हमारी गाड़ी के साथ चलेंगे! घर चलो
निम्मो!”
“बड़ी अम्मा! घर चलिए! सब इंतजाम हो गया है! वहां पर भी सब इंतजाम हो गया
है! सब लोग पहुँच गए हैं, हमारा इंतज़ार हो रहा है!”
एकदम से उसी दिन की तरह से बारिश रुक गयी! थाली बजनी बंद हो गयी है, नाड़
जुड़ गयी है और उनके पेट में हलचल हुई!
उनके अंदर फिर से कोई समा गया!
कहीं पर कोई बाबा बोलता हुआ जा रहा था “पुण्यात्मा होगा, इतना ही समय
होगा!”
और वे अपनी बहू और पोते – पोती के साथ जा रही थीं!
घर पर इंतजाम राह देख रहे हैं...................................
सोनाली मिश्रा
सी-208, जी-1, नितिन अपार्मेंट्स
शालीमार गार्डन, एक्स-II
साहिबाबाद, गाज़ियाबाद
उत्तरप्रदेश
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