शनिवार, 30 जनवरी 2016

एक्स्ट्रा साल्ट

वो कौन है? कोई भी तो नहीं उसका? एक परिचित भी तो नहीं है? न ही कोई पहचान वाला है? जैसे जब बरसात का कोई अतिरिक्त महीना होता है और बारिश होने लगती है झमाझम, तो वैसे ही वह है. वह उसके जीवन का एक्स्ट्रा साल्ट है. न जाने क्या सोचती हुई जा रही थी.  वह वाकई में एक्स्ट्रा साल्ट ही तो है तो वह उस एक्स्ट्रा साल्ट से अपने जीवन में क्यों खुशियाँ बीन रही थी? अब वह रुक गयी. मेट्रो का वह स्टेशन आ गया था जहां पर उसे अपने लिए मेट्रो पकडनी थी. रात के समय टोकन खरीदना कठिन नहीं होता. पर चूंकि उसके पास कार्ड था तो कार्ड में ऑटोमेटिक कीओस्क से पैसे डलवाकर वह सुरक्षा जांच से गुजरती हुई, मेट्रो स्टेशन में प्रवेश कर गयी. एस्केलेटर से चढ़ते समय वह यही सोच रही थी कि कभी कभी कोई शायद इन्हीं एस्केलेटर की तरह होता है. वह अपने आप ही आपके जीवन में प्रवेश कर जाता है. खूब लगाए रहो, नैतिकता की छतरी. खूब गाते रहो भजन, खूब डूबे रहो जीवनसाथी के प्रेम में. वह छप्प से आ तो जाता ही है. हा हा, वह भी न जाने क्या सोच रही है. वह भजन गाती रही थी, वह भक्तिभाव में डूबी रही थी, पर वह क्यों हठी की तरह चला आया था? वह पागल है! खैर जैसा भी है अब वह उसके जीवन का हिस्सा है. पर वह उसे वह अपने जीवन के ऐसे हिस्से के रूप में देखती है जिसे जब चाहे डिटैच करके अलग कर रख दे. जैसे डिटैचेबल रेज़र आते हैं न वैसे ही. हाय रे, उसे मैंने रेज़र के साथ तौल दिया? पर वह भी तो यही करता है. वह स्त्री सम्बन्धों को जैसे गढ़ता है. उसने शरीर से प्रेम को अलग करके रखा हुआ है. किंगफिशर की बियर पीते पीते हम दोनों ही अपनी दोस्ती के बारे में अनाप शनाप बोलते रहते हैं. लोग भी सोचते होंगे कि कितने अनैतिक और बेशर्म लोग  हैं. छि! पर ऐसे परवाह करते रहे तो घूँघट के पीछे भी न जी पाएंगे. इस जीवन में हमें कोई न कोई तो चाहिए ही न,जिसके संग हम आपने आकाश में रंग भर सकें. एक तरफा जीवन जीते हुए जैसे आकाश केवल एक ही रंग का हो जाता है. हालांकि उसमे जीवन की शायद कोई कमी नहीं होती है. मेट्रो में एक लडकी चेतन भगत का थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ पढ़ रही है. शायद उसे रस भी बहुत आ रहा है. लडकी ने घुटने से ऊपर की स्कर्ट पहनी हुई है, काफी दुस्साहसी लग रही है क्योंकि उसके बगल में बुर्का रखा हुआ है. उसके साथ ही उसकी शायद माँ है. मुझे ऐसी दुस्साहसी लड़कियां पसंद हैं. मुझे अगर याद है तो मैंने शायद ही कभी किसी नियम का पालन किया हो जब से सोच को विकसित किया. वैसे तो अपन ने भी मुट्ठी भर के सिन्दूर से आसमान को सिंदूरी करना चाहा था. और हर रंग की चूड़ियों से अपने जीवन को रंगीन किया था, पायलों की रुनझुन भी थी कभी अपने जीवन में. हां, अब ये सब जा चुकी हैं, हैं सब पर एक आभूषण के रूप में. मुझे सुंदर लगना पसंद है. हा हा, ये मन कितना चंचल है. कहाँ अपने मित्र के बारे में सोच रहा था तो अभी
इस विद्रोहिणी के बारे में सोचने लगी. उसका स्टेशन आने वाला था, वह उठकर तत्परता से अपना बाहरी कवच बाँधने लगी. ये सुरक्षा कवच है बाबू, जैसे उसने कहा हो. जहाँ पर उसका यह सुरक्षा कवच रखा था वहां पर अब चेतन भगत झाँक रहा था. वाह कितना बढ़िया था. अभी मेरा स्टेशन आने में देर थी तो अपन ने सोचा कुछ और देखने का, अब कुछ भी नहीं दिख रहा था, और मोबाइल बैठ गया था तो नो फेसबुक, एंड ट्विटर. अब फेसबुक पर कुछ डालने के लिए किस्सागोई खोजनी थी. और मेरा दिमाग उसी तलाश में था. सहसा मुझे आज उसके साथ किए गए अपने संवाद का ध्यान आ गया. बात हो रही थी, नियोग की. नियोग, जिसमें परपुरुष से संपर्क के आधार पर सन्तान पा सकते थे. क्या वाकई समाज इतना विकसित रहा होगा? हां रहा तो होगा ही? कामसूत्र हमारी ही भूमि की देन है और खजुराहो के मंदिर भी तो चुगली करते हैं. मेरा बहुत मन है वहां जाने का. देखती हूँ, कब जा पाती हूँ. खैर. बात हो रही थी नियोग की. क्या हम नियोग के माध्यम से मनचाही सन्तान हासिल कर सकते हैं? महाभारत में हमें नियोग का उल्लेख खूब मिलता है और नियोग के माध्यम से उत्पन्न संतानों को प्रेम और आदर भी भरपूर था. पांडव भी पांडू के न होकर देव पुरुषों का परिणाम थे. हाँ तो नियोग की चर्चा करते हुए, उसने मुझसे पूछा “अगर कभी हम मिले ऐसे तो तुम बनोगी मेरे बच्चे की माँ”. पर सुनो नियोग तो नितांत अपरिचित व्यक्ति के साथ किया जाता था, हां वह योग्य होता था और उसमें कोई न कोई दुर्लभ गुण होता था. पर मेरे मित्र में केवल सच्चाई और रिश्तों में ईमानदारी के अलावा कुछ नहीं है. अरे ये क्या हुआ, मैं चौंक कर उठी जैसे. नहीं नहीं मेरा स्टेशन नहीं आया था. अभी समय था. पर समय का वह पल एकदम से ठहर गया था. और ठहरता भी क्यों न? उसका प्रश्न ही ऐसा कुछ था? क्या मैं वाकई उसकी सन्तान को जन्म देना चाहती हूँ? मैंने ऐसा कुछ सोचा नहीं था, शायद वह कम्युनिकेट कर रहा था अपनी बात को? या वह मेरी टोह ले रहा था. कुछ तो कर ही रहा था? पर क्या? मुझे समझना पड़ेगा?  मैं अभी  तक उस नज़रिए से उससे मिली नहीं थी. हम लोग तो बियर पीते हैं बैठ कर, स्कॉच पीते हैं. हां सिगरेट मैं नहीं पीती, पर वह पीता है. तो हम लोगों की नियोग से उत्पन्न संतान कैसी होगी?  हा हा, मैं सोचने लगी शायद वह दूध की जगह कुछ और ही मांगे! मेरे होंठों पर एक वितृष्णा की मुस्कान आ गयी. पर क्या यह संभव होगा? क्यों नहीं होगा? मन के एक कोने ने जैसे विद्रोह किया. मैंने पूछा क्यों होगा? उसने कहा “हो सकता है” मैंने कहा “यार नहीं हो सकता” मैं कैसे किसी दूसरे के बच्चे को अपनी कोख में रखूँगी?” उसने जैसे उलाहना दिया, मन और तन साझा कर सकती हो पर कोख में उसके अंश को ठहरा नहीं सकती? मैंने उसे समझाया “देखो, वह अलग है, और कोख में अंश रखना एकदम अलग” उसने पूछा “कैसे” तुमने अपना शरीर बाँट लिया उससे? तो फिर ऐसा क्या होगा कि तुम उसका अंश नहीं रख सकोगी अपने अन्दर”
ओफ्हो, मैं अपने विद्रोही मन को कैसे समझाऊँ? वह बिलकुल भी मान नहीं रहा है. वह पागल हो गया है. वह धीरे से कहता है जैसे वह एक सुरक्षा कवच में रहकर अपने विद्रोह को बढ़ा रही है, तुम भी कर सकती हो. मैंने कहा “यार कैसे, उसका विद्रोह अलग है, मेरा अलग”
मन ने फिर से जैसे मेरी शर्ट को झटकते हुए कहा “कैसे हुआ अलग”
जैसे मैं घर पहुंचकर शर्ट के बटन खोलकर खुद को आत्ममुग्धता से देखती हूँ, वैसे ही वह मुझे देख रहा है, और मेरा मन पूछ रहा है “अरे, क्या हुआ?” मेरा तन नहीं, आज मेरा मन आत्ममुग्धता के चरण में था, यह सोचकर कि मेरा मित्र मुझसे एक सन्तान चाहता है. हालांकि मैंने उससे पुछा कि क्या उसका मन उसके जीवन में आने वाली हर स्त्री के साथ यह करने का होता है, वह हंसा खूब हँसा. इतना कि शायद उसका सारा नशा उतर गया. उसने कहा नहीं, अपनी पत्नी, प्रेमिका और अब तुम. बाकी तो केवल शरीर के लिए थी. उफ, ये कैसे इतना बोल लेता है, मेरे सामने, चुप ही नहीं होता. उसकी बातें जगजीत सिंह की गज़ल है. “मेरे जैसे बन जाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा, दीवारों से टकराओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा”. वाह क्या गाते हैं जगजीत साहब. वह अपने कैसे इश्क के साथ मुझे अपने जैसा बनाना चाह रहा है. पर मेरा मन एक कल्पना के घरोंदे में चला गया है. वह रच रहा है, मेरे और उसकी संतान का सपना. वह मेरी कोख में उसके अंश को स्थापित कर चुका है. मिलन के एक दिन का निर्धारण कर, वह चुपके से मेरी कोख में उसके अंश का प्रवेश करा चुका है. और फिर उसके बाद का क्या होगा? ये मेरा मन नहीं सोच रहा है और न ही कभी सो कॉल्ड इश्क के चक्कर में पड़कर सोचेगा. गाना चल रहा है “जाने न जाने मन बांवरा, नयनों में सावन भरा” मन बांवरा होकर कुछ भी नहीं जानता. वह शांत चला जा रहा है निरपेक्ष था, अब सापेक्ष होता जा रहा है. उसकी ही ओर बढ़ चला है. नहीं जानती कि आगे क्या होगा? मैंने मन से पूछा “हम पिज्ज़ा और बर्गर के जमाने में तो आ गए हैं, पर क्या हमने स्त्री को उसकी पसंद से संतान पैदा करने की छूट दी है” मेरा मन कह रहा है, चलो न कल्पना के एक सफर पर हम निकलते हैं. पता चल जाएगा! कि क्या हम मानसिक स्तर पर इतने परिपक्व हो पाए हैं? मैंने उससे कहा बात परिपक्वता की नहीं है, मूल्यों की है सिद्धांतों की है. अब वह हँसा, इतनी जोर से अट्टाहस किया कि मैंने अपने कान बंद कर लिए. पर हँसी तो उस पागल की मेरे अन्दर से आ रही थी. अब मेरा दोस्त तो उस मेट्रो में चल रहे मेरे ख्यालों से विदा ले चुका था, पर अब मेरे अन्दर एक दूसरा ही संसार ऊहापोह मचा रहा था. वाह, क्या कल्पना कर रहा था मेरा मन. मेरा मन उसके साथ एक बार जीवन का आनंद लेने के बाद उसकी सन्तान के सपने संजो रहा था. मैंने उससे पूछा “सुनो, पतिदेव को तो उसकी शक्ल देखकर पता चल ही जाएगा कि यह उनका अंश नहीं है, फिर ऐसे में क्या करोगे” अब मन कुछ शिथिल हुआ और मैंने चैन की सांस ली. उफ, ये मेट्रो भी आज जैसे कितना समय ले रही थी. घर पर बच्चे राह देख रहे होंगे और बच्चों के पापा भी. पर ये, एक्स्ट्रा साल्ट! कितना अच्छा नाम रखा था मैंने, एक्स्ट्रा साल्ट! ये एक्स्ट्रा साल्ट अगर मेरे जीवन में मिल गया, जो उसका क्षेत्र नहीं है तो क्या होगा? क्या होगा? यहाँ पर आकर हमारा सारा स्त्री विमर्श विफल हो जाता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि स्त्री और ज़मीन को एक समान ही माना गया है पर स्त्री एक ऐसी ज़मीन है जिस पर कौन सी फसल उगेगी यह केवल किसान और उसका हल ही तय करेगा. जैसे रबी की फसल है और खरीफ की फसल है, ऐसे ही स्त्री के शरीर से कब उसे बेटी चाहिए और कब बेटा सब, उसका वह स्वामी निर्धारित करता है, जो उसके जीवन में उसके घरवालों से सप्रयासों से सम्मिलित होता है. हा हा, कैसी स्वतंत्रता है ये! स्त्री के लिए, मेरा मन अब इतना शिथिल होने लगा था कि मुझे लगा नहीं कि उसे झकझोरा जाए. वह खुद में ही सिमट रहा था और मैं मेट्रो में बैठी बैठी मुस्करा रही थी, और सोच रही थी, कि कैसे कायदे क़ानून बने हैं कि स्त्री अपने ही दायरे में सिमट कर रह गयी है. एक मासूम इच्छा, हा हा हा, वह मासूम नहीं है, मुझे पता है, वह तो तमाम कुटिलताओं से पूर्ण है. पर मेरा मन भी तो उसी इच्छा के पीछे ही भाग रहा है, उसे कैसे रोकूँ? मैं अपने मन के सरपट भागते घोड़े पर लगाम भी लगाना चाहती हूँ, पर ये भी सच ही है कि उसके अंश को मैं अपनी कोख में रखने का सुख भी लेना चाहती हूँ. ये कैसे हो सकता है? मेरा दिमाग मुझसे अब मुखातिब है, उसने कहा “देखो, स्वतंत्रता यहाँ तक ठीक है, तुमने बियर पी लिया, पिज्जा बर्गर की दुनिया में सिमट गयी, तुमने चलो शरीर भी शेयर कर लिया, पर आधुनिकता कहें या परिपक्वता, इस स्तर पर नहीं पहुँची है कि वह तुमको उसकी संतान को अपनी कोख में रखने का अधिकार दे दे, कैसे कोई भी आदमी अपनी ही बीवी के शरीर में किसी का अंश देख सकता है, उसका पौरुष कहाँ जाएगा? और तुम्हे चरित्रहीन ठहरा दिया जाएगा. चरित्र की सभी परिभाषाएं शरीर के आसपास ही घूमती हैं, तुम्हें इतना पता नहींहै” मैंने कहा “पता है, खूब पता है, पर यार मन का क्या करूँ” उसने कहा मन को काबू में करो.” उसने कहना चालू रखा “प्रकृति और इंसान का संघर्ष बहुत ही पुराना है, ये तुम्हें पता ही है. प्रकृति हमें उन्मुक्त रखते हुए भी नियमों में बांधती है, नदी का अपना नियम है, हवा का अपना नियम है, और बारिश का अपना नियम है और जब हम इन नियमों में गड़बड़ करते हैं, ये हमें मामू बना देते हैं, है कि नहीं” मैं हँसने लगी. और अपने एन्ड्रोइड फोन को थैंक्स कहा, जिसकी  बैटरी डाउन होने के कारण मैं अपने मन और दिमाग से कम्युनिकेट कर पा रही हूँ, कितना अजीब होता है, इस तरह का कम्युनिकेशन अपने ही आप करना. बहुत ही अजीब. मैं एक ऐसी बात की कल्पना कर रही हूँ, जो पोसिबल ही नहीं है. वह अपने आप में बहुत ही अजीब है. वह प्रकृति के निकट है पर मानवीय नियमों के विपरीत है. मैं जानती हूँ, स्त्री और पुरुष कभी मित्र नहीं हो सकते. स्त्री पहले बात और फिर शरीर के सिद्धांत पर चलती है पर आदमी शायद पहले शरीर चाहते हैं. वे अपनी दोस्ती को शरीर के साथ ही प्रगाढ़ करना चाहते हैं. ये स्रष्टि का आकर्षण का नियम है और मुझे इसमें कुछ बुरा या अप्राकृतिक नहीं लगा. पर जब यह प्राकृतिक है तो इंसान ने इसे संयमित करने के लिए कितने नियम बना डाले. सम्बन्धों की बिसात पर हमेशा प्रकृति हार जाती है और तथाकथित पवित्र किताबें जीत जाती हैं. क्या वाकई प्रकृति हमसे कोई षड्यंत्र कराना चाहती है? परिवार और विवाह नामक संस्था को तोड़ने का षड्यंत्र? क्या वाकई में तमाम पवित्र किताबें प्रकृति के आकर्षण के नियम को अपनी गिरफ्त में लेने की साज़िश कर रही हैं.

“यह मेट्रो यहीं तक है,  कृपया उतरने से पहले अपने सामान जांच लें” लीजिए अपनी मंजिल आ गयी और इस तरह की बात करते हुए, ध्यान ही नहीं रहा कि आखिर मेट्रो आ गयी अपनी मंजिल पर. पर मेरे विचार क्या अपनी मंजिल पर आ सके हैं? नहीं वे नहीं! आखिर क्यों. मैं मेट्रो से बाहर निकल कर घर जाने के लिए रिक्शे पर बैठ गयी हूँ. रात का दस बज चुका है और सड़कें सुनसान पड़ी हुई हैं, बारिश की बूँदें मेरे तन मन को भिगो रही हैं. रिक्शेवाला देख रहा है, भीगते हुए, पर सामने पुलिस की एक जिप्सी खडी है तो शायद वह कुछ गलत करने की सोचेगा नहीं. यहाँ पर हमें नियमों की जरूरत होती है. सत्य है. पर क्या व्यक्तिगत सम्बन्धों की इंटेंसिटी को मापने के लिए भी हमें नियमों की जरूरत है, हां है शायद. क्योंकि स्त्री और पुरुष में मित्रता हो नहीं सकती, मित्रता में प्रगाढ़ता प्रेम ही तो लाती है और जहां प्रेम आया, वहीं शरीर आया और जब शरीर आया तो प्रिकॉशन आया. पर प्रिकॉशन के साथ प्रेम? हा हा, मेरा मन जलेबी की तरह जहां से चला था वहीं पर आ गया था. घर आने वाला है, पर मेरा मन सोच रहा है, एक ऐसी इच्छा के बारे में, जो प्राकृतिक हो सकती है, पर नैतिक नहीं. सामजिक संबंधों का निर्वहन हमारी जिम्मेदारी अधिक है, क्या हमारे प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी है? अरे यह सवाल सुनते ही दिमाग तो कहीं चला गया, किसी कोने में दुबक गया, देखिये अन्धेरा सड़क पर है और दुबक जनाब दिमाग रहा है. बहुत सर दर्द होने लगा है. दिल में एक सवाल पैदा कर मेरे मित्र तो बियर की एक दो और बोतल पीकर अभी तक सो गए होंगे और हम हैं कि दिल और दिमाग, नैतिक और अनैतिक  की लड़ाई में खुद को उलझाए हुए हैं. मैं भी चाह रही हूँ कि सो जाऊं, पर घर जाकर बच्चों का होमवर्क भी कराना होगा. और फिर पति के प्रति भी जिम्मेदारी है, उससे मुंह नहीं मोड़ सकती हां, इन सबसे कुछ पल चुरा सकती हूँ. पर उन चुराए पलों में ऐसे सवाल आएँगे तो कैसे काम चलेगा? पर हां, ये सवाल तो मैं पूछ ही सकती हूँ कि क्या हम स्त्री को ये अधिकार दे पाएँगे कभी कि वह अपनी कोख में कम से कम एक बच्चा तो अपने अनुसार पाल सके, उसे अपने जीवन में स्थान दे सके. अब मेरा दिमाग बहुत तेजी से चल रहा था. शायद स्त्री का यह पक्ष भी उसके आर्थिक पक्ष से ही जुड़ा है, उफ, मुझे पता नहीं. मेरा दिमाग करवट लेकर सोने चला गया है. और मन वह अभी भी उसी सवाल में उलझा हुआ है “सुनो, मेरे बच्चे की माँ बनोगी” और मैं, मैं, घर आ गया है, पति और बच्चे इंतज़ार कर रहे हैं, सबको संतुष्ट करने की प्रक्रिया का पालन करते हुए अपने कोने में रंग भरने की कोशिश करती रहूँगी, जितना अधिकार ले सकती हूँ, लूंगी और अगर कुछ छीनना हुआ तो छीनूंगी भी, पर रंग तो भरूँगी. बादल जब पूरे आसमान पर छा जाते हैं, तब भी कोई न कोई कोना तो अपने मन के आसमान पर कब्ज़ा कर लेता ही है. पूरी जिम्मेदारियों के बीच, दम तोड़ते अस्तित्व के बीच खुद को बचाने की कोशिश में जितना कोना जी सकती हूँ, उतना जीना तो है ही. एक्स्ट्रा साल्ट को एक्स्ट्रा ही रहनें दें तभी स्वाद आ पाएगा जीवन में, नहीं तो इस एक्स्ट्रा साल्ट के साथ जीवन में कडवाहट आ जाएगी. यही बात मुझे वह भी समझता है पर हाँ कंकड़ तो पड़ ही चुका है जीवन में, “क्या तुम मेरे बच्चे की माँ बनोगी”, और मेरा मन फिर से यही पूछ रहा है क्या जमीन और स्त्री को अधिकार मिलेगा कि जीवन में एक बार ही सही, अपने मन की फसल को बो सकें? क्या मिलेगा कभी? घर आ गया है, मैं रसोई में घुस गयी हूँ, बच्चों ने घेर लिया है और कुछ समय के बाद पति का भी आदेशपूर्वक निमंत्रण होगा ही. इन सबके बीच सवाल तैर रहा है, एक्स्ट्रा साल्ट का, उसके बच्चे का और हां स्त्री और उसकी कोख का. 

कथादेश में प्रकाशित ब्लडी औरत

आज तो बड़ी नामालूम सी हरकतें करने लगी थी वह। जैसे ही वह उसके सामने पहुँची, उसकी बातों सा सिरा एकदम से उस पर थी ठहर गया। हां, ठीक है, वह तो अनमना सा था ही पर वह क्यों अनमनी सी हो गयी। परिचय की चादर हलके से उतरी तो पर कहीं अटकी सी कहीं पर थी। वह चाह रहा था कि परिचय की चादर उतर तो जाए, पर इतनी भी नहीं कि कोई अनछुआ सिरा आज उसकी पकड़ में आए।  वह परत कहीं तो किसी कोने में एकदम हल्की हो जाती थी तो कहीं किसी कोने में जाकर गहरी। वह आखिर में उस परत में कुछ छिपाना चाहता था? या वह खुद ही छिपना चाहती थी। दोनों ने ही परिचय की पहली सीढ़ी पार की। पर दूसरी सीढ़ी पर चढ़ने के लिए दोनों ही अभी तैयार नहीं थे। दोनों की ही इच्छाएं नाचने के लिए तैयार थीं, पर एक दूसरे की देह पर नाचने के लिए वे अभी एक दूसरे को समय देने के लिए तैयार थे। ये समय का कैसा चक्रव्यूह था जिसमें वे फँस रहे थे। वह आज जैसे मत्स्यगंधा बन गयी थी, दोनों ही अपने अपने भावों से घिरे हुए थे, वे तब चौंके, जब उसने मुंह से बुदबुदाया “आज तो जैसे दिन बहुत ही लंबा हो गया है”
उसने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा “क्या सच में”
वह बोली “हां मयंक, आज तो मन नहीं हो रहा बाहर जाने का”
“तो किसने कहा”
“रुक जाऊं?”
“हां तो?”
“पर क्या करूंगी रुक कर?”
“घर जाकर ही क्या करोगी?”
उसके बालों से खेलती हुई वह बोली “हां, यार करना तो कुछ नहीं है, फिर एसी भी गया है मरम्मत के लिए, जरा और चिल्ड करो न कमरा?, बहुत गर्मी है”
“ठीक है, कितना कर दूं?”
“18 पे सेट करो न”
“18!!!!”
“ऐसे क्यों चीख रहे हो, मुझे अन्दर से गर्मी लग रही है, ऐसा लग रहा है, भयंकर प्यास है, जिसे मैं बुझा लूँ!”
“ऐसा क्या हुआ है?”
“तुम्हें नहीं पता!”
“नहीं, एशट्रे में डालो यार, ये राख, मुझे गन्दगी पसंद नहीं अपने कारपेट पे”
“ओह, भूल गयी, तुम्हें दूं?”
“हां, अपनी ही बची हुई दे दो?”
“जाओ, तुम भी, चलो न छल्ले बनाते हैं, देखते हैं, कौन किसका बनाता है?”
“हां मेरा तो मेरे सपनों का होगा”
“हा हा, और मेरा?” वह जैसे अपने से ही बोली!
“तुम्हारा होगा, तुम्हारा होगा, शायद उन्हीं भूतहा इच्छाओं का, जो तुम्हें अन्दर से डराती हैं?”
“हां, और फिर वे तुम्हारे रूप में बदल जाती हैं”
“हां डियर, ये परिचय की पहली सीढ़ी है, जिसमें तुम्हारी भूतहा इच्छाएं, मुझमें बदल जाती हैं, हा हा हा”
और दोनों के ही ठहाके, उस अट्ठारह डिग्री की गर्माहट में खो गए।
“सुनो, शाम हो चली है, घर जाऊं या न जाऊँ”
“तुम्हारी मर्जी, वैसे तुम्हारा कमरा खाली ही पड़ा है, चाहो तो उसमें ही रह लो”
“हां यार रह तो लूँ, पर माँ, चलो डिनर के बाद ही जाऊंगी”
“एज यू विश! डियर,”
“पर तुमने मेरा कमरा अभी से क्यों तैयार कराकर रखा हुआ है, जैसे मैं आ ही जाऊंगी” नैना ने अपनी आँखों के कठपुतली को घुमाकर पूछा
“बस ऐसे ही, सोचा तुम्हें जानते जानते, तुम्हारे कमरे से को भी जान लूं, तुम्हारे अंधेरों और उजालों को भी जान लूँ!, तुम्हारे कमरे में जब रंग कराए तो मुझे लगा तुम्हारी भूतहा इच्छाएं हैं, तो देखो ब्राउन शेड कराया!”
“अच्छा, ये फिर घंटियाँ क्यों टांग रखी हैं”
“ओह, ये! ये तो बस तुम्हें याद दिलाने के लिए कि जब मैं तुम्हारे कमरे में पैर रखूंगा, तो तुम्हारे दिल के दरवाजे भी ऐसे ही बजेंगे, हलके हलके, रुनझुन रुनझुन!”
“ओह मयंक, सो स्वीट!”
“हां नैना”
ऐसा लगा जैसे नैना का काजल और भी गहरा होने लगा, और उसकी रेवलोन की लिपस्टिक का रंग मयंक के होंठों में समा गया। शायद परिचय की दूसरी सीढ़ी पे पहला कदम रखा जा रहा था।
रंगों के परस्पर विनिमय के बाद, वह एक दूसरे के पास फिर से आ कर बैठ गए
“सुनो, तुम कुछ कह रही थी न!”
“मैं, नहीं तो”
“हां, यही कि तुम्हें आज इतनी गर्मी क्यों लग रही थी”
“ओह, वो”
“हां, वही”
“बस ऐसे ही”
“नहीं तुम, जरूर कुछ छिपा रही हो”
“नहीं, बस ऐसे ही लगा सूरज की तपिश जला देगी मुझे”
“अरे, ऐसा क्या हुआ, ऑफिस गयी थी तुम?”
“हां, रजनीश आया था, मेरे पास”
“हां तो, तुम्हारा बॉस है”
“हां, पर बॉस के नाते नहीं”
“तो?”
“कुछ मांगने आया था”
“क्या”
“उफ कैसे बताऊँ?”
“अरे बताओ न!”
“वह, वह, वह”
“अरे यार हकलाओ नहीं, तुमसे तुम्हारे शरीर के साथ इन्ज्योमेंट चाह रहा होगा! यही न!”
“हां, पर तुम्हें कैसे पता चला”
“मुझसे उस दिन उसने डिस्कस किया था”
“हैं, और तुमने मुझे नहीं बताया”
“क्या बताता?, कि वह तुम्हारे साथ सोना चाहता है!, यार गिव हिम व्हाट ही वांट्स?”
“अरे, ये तुम कह रहे हो”
“हाँ!”
“और तुम!” नैना की आंखों में परिचय का जो प्रवेश अभी हुआ था, वह कहीं चला गया! कैसा था मयंक! शायद तभी दोनों ही परिचय की दूसरी सीढ़ी पर अटके हुए पड़े थे।
“अरे यार, कौन सा वह तुम्हारे साथ ज़िन्दगी भर चाहता है, उसकी बीवी है, बच्चे हैं क्यों जाएगा तुम्हारे पास, कह रहा था मुझसे, कि उसे बस तुम्हारे साथ कुछ पलों का साथ चाहिए। तुम्हें भी वह अच्छा लगता है, सच कहना अगर मैं तुम्हारी ज़िन्दगी में नहीं होता तो कम से कम तुम उसके साथ कुछ पल तो बिता ही सकती थी?”
“हां यार, पर वह तब जब तुम मेरे साथ नहीं होते?” नैना ने जबाव दिया, उलझा सा। कहीं दूर से उसे अपनी आवाज़ आती हुई सुनाई दी। वह चाह रही थी कि वह अपनी ही आवाज़ की दूरी मापे, पर ऐसा कुछ हो नहीं पाया। वह कहीं दुबकी ही रह गयी।
“देखो, मैं तुम्हारे साथ जीवन भर का साथ, और वह कुछ पलों का, सोच लो, ऑफर बुरा नहीं है!”
“ओह, अब रिलेशन में भी ऑफर मिलते हैं,” वह हंसी
“और मुझे जब कोई ऐतराज नहीं, तो तुम्हें क्या?, अब तुम्हारी देह तो मेरी ही है न। इस पर अधिकार तो है न”
“अरे, ये कब हुआ, अगर अधिकार ही देना होता तो शायद मैं कन्यादान के माध्यम से खुद का अधिकार किसी को सौंप चुकी होती, पर मैंने ऐसा नहीं किया, तो तुम्हें लगता है क्या ऐसा”
उसे ऐसा लगा परिचय की सीढ़ी चढ़ते हुए वह फिर ठिठक गयी। उसे लगा ऐसा तो नहीं कि कमरा बनवाने में वह जल्दी कर रही है, अभी कमरे में रंग भी नहीं हुआ है, और वह इतना अधिकार! क्या बिना अधिकार के समर्पण की कोई परिभाषा नहीं है। उसे सम्मान सहित केवल समर्पण चाहिए, उसे ये मीडिवल एज वाला अधिकार वाला समर्पण नहीं चाहिए, तो क्या यह भी वही पुरुष ही साबित होगा या फिर कुछ अलग होगा। हालांकि अभी देह का किला फतह नहीं हुआ है, अभी तो शायद किले का पहला दरवाजा ही खुला था, फतह करने के लिए तो अभी घुड़सवार को कई मापदंडों पर खरा उतरना है, तो क्या यह अधिकार वाले मापदंड पर फेल हो जाएगा?
“सुनो, कॉफी पीनी है?, बट शुगर फ्री दूंगा” उसने उसे जगाते हुए कहा,
“नहीं यार चीनी” वह जैसे नींद से जागी।
“कमऑन यार, डोंट बिहेव लाइक द यूपी एंड बिहार वाला टाइप!”
“मीन्स”
“ओह, डोंट बी ओर्थो यार”
यू मीन ऑर्थोडॉक्स!”
“हां”
“देखो मयंक, रिश्तों और देह को लेकर मेरे विचार तुम जानते ही हो, ये सच है कि मैं अभी तुम्हारे साथ ही इतनी सहज नहीं हो पाई कि, खुद को पूरी तरह सौंप दूं! अभी भी बहुत कुछ अनदेखा है, मैं चाहती हूँ कि जब तुम्हें मैं समर्पण करूँ तो कहीं का कोई भी कोना ऐसा न हो जो तुम्हें पता न हो, और मेरा दिल और देह दोनों ही तुम्हें खुद में समेटने के लिए पूरी तरह तैयार हों”
“अरे, मेरी बात अलग है डार्लिंग, मैं कौन सा भगा जा रहा हूँ, तुम्हें जानने के लिए कमरा भी खुद खड़े होकर तैयार करा रहा हूँ और जब तक परिचय का वह चरण नहीं आ जाता जब तुम मुझे खुद बुलाओ, तब तक मैं नहीं आऊँगा, सच में, तुम्हारे किसी भी अंग को तब तक नहीं छुऊँगा, जब तक वह तैयार न हों”
“सुनो,खिड़की खोलो न”
“अरे कैसे तुम्हारा अट्ठारह डिग्री का तापमान आग के गोले में बदल जाएगा, फिर बैठी रहना तुम?”
“सुनो, कॉफी पीकर मैं निकलूँगी?”
“अरे, कहाँ”
“घर!”
“सुनो, रुको न! न जाओ, यार अभी तो मजा आने लगा है”
“नहीं बहुत धुंआ सा लग रहा है?”
“रुको, तुम्हारे कमरेमें बैठते हैं, तब तक ये धुंआ भी निकल जाएगा, मना करता हूँ, मेरी बुरी आदतें न अपनाओ!”
“हा हा, नहीं, वह कमरा पूरा बन जाने दो, फिर चलेंगे, अधूरे की क्या बात करना?” जैसे भीगो भी तो आधे अधूरे, मन प्यासा रह जाए और शरीर भीग जाए, बन जाए फिर चलेंगे”
“ओके, फिर लिविंग रूम में बैठें”
“यार ये कौन सा डेथ रूम है”
“हा हा डेथ रूम! पर यहाँ पर कोई तो है जो तुम्हारे लिए कुछ न कुछ तो डेड बना रहा है”
हैं, सच में”
“हां यार! जरा सोचो, अब सही है, और सुनाओ लीना से बात हुई?”
“नहीं, यार वह मेरी बात सुनती नहीं, अब जब से उसके मन में तुम्हें लेकर फाँस चुभी है, वह निकली नहीं है!”
“कैसे निकलेगी, और निकलेगी भी तो तुम नहीं निकलने दोगे! है न!”
“नहीं यार, मेरे जीवन में कभी ऐसा कुछ हुआ नहीं जो मैंने उससे छिपाया हो, उसे मैंने शादी से पहले ही बता दिया था कि अपने जीवन का कुछ कतरा मैं उसके साथ कभी नहीं शेयर करूँगा,  शुरू में तो उसे ये बहुत क्रांतिकारी लगा, कि वह एक सीधी सादी औरत एक क्रांतिकारी से शादी कर रही है, पर दो साल बाद, दो साल बाद वह क्रान्ति इस हद तक असफल होगी, ये नहीं पता था। मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ, पर यार, उसे प्यार करना अलग है और उसके पहलू में बंधे रहना, यह एकदम अलग”
“हां, यार, ये तो तुम ठीक कह रहे हो”
“चलो कॉफी पियो, चियर्स यार”
“अरे सुनो!” वह चौंकी, जैसे उसे कुछ याद आया “सुनो, खुद पर तो अधिकार तुम्हें पसंद नहीं, और मुझपर, मुझपर और मेरी देह पर इतना साधिकार बात कैसे कर सकते हो?”
“मैंने, कब अधिकार किया?, या कहा?”
“तो, कहा तो था, कि जब तुम्हें प्रोब्लम नहीं, तो मुझे क्यों?, यार जब लगेगा कि रजनीश मुझे कहीं अंदर तक छू रहा है, तो मैं खुद ही अपनी देह लेकर सामने चली जाऊंगी, पर केवल इसलिए वह मेरा बॉस है और शायद वह मुझे प्रमोशन दे दे, मैं खुद को उसे परोस दूं, ओह कमऑन, आई डोंट लाइक कामर्शियलाइजेशन ऑफ रिलेशंस, अगर मुझे लगता कि उसके साथ अपने जीवन का एक क्षण भी शेयर किया जा सकता है तो यकीन मानो, मैं किसी से भी न पूछती, मैं रिलेशन में किसी और के लिए नहीं, केवल अपने ही लिए जबावदेह हूँ, समझे,”
“हाँ यार, पर यकीन मानना, मैंने किसी अधिकार के चलते कुछ नहीं कहा, मैं किसी भी तरह से तुम पर अधिकार नहीं जता सकता, यार आई डोंट पजेज़ यू”
“ओह, डियर, आई एम नॉट योर प्रोपर्टी और एसेट्स, यू कैन नेवर पजेज़ मी”
“हां, प्रोपर्टी तो शायद लीना ही है, लीना? हां वह तो असेट है मेरी? सही इज माई पजेशन”
“हां यार, वही है तुम्हारा पजेशन, मैं एक समानांतर रेखा हूँ, और उसके अलावा कुछ नहीं, ये जो कमरा है वह भी केवल तुम्हारी ज़िद है, मैं अभी किसी भी बंधन में नहीं बंधना चाहती और वह भी उससे जो पहले से ही बंधा है”
“हैं, कौन बंधा है? मैं” मयंक जैसे चौंका, “हां यार लीना से बंधा तो हुआ हूँ ही, महीने की तनख्वाह का उसे हिसाब देना, कितना आया, कितना खर्चा हुआ, पर नहीं खर्च होता है जो, वो हैं लम्हें और प्यार, ये साला दोनों ही बदतमीज़ हैं, बच जाते हैं। और जब बच जाते हैं, तो मैं इनका लीना को क्या हिसाब दूं, यहाँ चला आता हूँ, इस तीन कमरे में जैसे एक समानांतर संसार बसा कर रखा हुआ है, वैसे सच कहूं तो इन्वेस्टमेंट के लिए खरीदा हुआ ये फ्लैट इतना फायदा देगा, और ये वाला फायदा देगा कि तुम जैसी किसी के साथ एक समानांतर ज़िन्दगी जी सकूं, ये पता नहीं था”
“हम्म, यार घर जाती हूँ”
“सुनो, आज न जाओ, सुबह चली जाना, अच्छा फोन करके पूछ लो कि एसी ठीक हुआ या नहीं, फिर चली जाना, पर रुक जाओ न”
न जाने क्यों एक बच्चे जैसा अबोधपन उसके चेहरे पर आ गया। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चोकलेट और कैंडी देखकर मचल जाता है वैसे ही मयंक शायद नैना के काजल के लिए मचल रहा था। आँखों का काजल तो बिखेरने का हक था ही उसे, हां बाकी देह के लिए उसे अभी काफी सफर तय करना था।
“देखती हूँ, न जाने क्यों मैं तुम्हें इग्नोर नहीं कर पाती? आखिर मैं तुम्हें मना क्यों नहीं करपाती? या मैं चाहती ही नहीं?”
“मुझे क्या पता, चलो जाओ, पनीर और चिकन टिक्का बनाते हैं, पनीर तुम्हारे लिए और चिकन मेरे लिए, तब तक तुम फोन कर दो! ओके”
“हां, चलो तुम बनाओ, मैं फोन करके और फ्रेश होकर आई”
“चलो डियर”
मंयक के जाते ही नैना फिर से उसी सोच में पड़ गयी जिसमें वह अभी थोड़ी देर पहले थी। हालांकि उसके रिश्ते से एग्जिट करने का रास्ता खुला था और उसने यह अधिकार अपने पास रखा हुआ था, कि जब भी उसे जाना हो वह जा सके। और कमरा एकदम खाली कर सके।  ये इन दोनों का रिश्ता सूरज की तरह चमकीला न होकर जुगनू की तरह था जो हल्की हल्की रोशनी में एक दूसरे को ठंडक देते हैं, एक साथ चलकर भी ऐसी रोशनी नहीं करते कि दूसरा जल ही जाए या चकाचौंध ही हो जाए उसकी नज़र। पर फिर भी आज उसकी बातों से उसे दुःख हुआ है, वह सोच रही हैं रात को रुके या नहीं, आज उसे उसकी बात से लगा जैसे उसकी औरत होने की सीमाओं पर उसने तंज कसा था। क्या वह किसी भी रिश्ते में जाए, उसकी देह पर अधिकार किसी पुरुष का ही होगा? ऐसा तो उसने कभी अपने भाई के लिए भी नहीं सोचा था। पिता तो बेचारे खूब कहते कि “लड़की शरीर की हिफाज़त कर” उसे हिफाज़त और आज़ादी में अंतर पता था तो बहुत ही आसानी से वह उनकी बातों को टाल देती।माँ तो हमेशा शरीर के आधार पर ही उसे टोकती, और परिवार में अपनी जगह अपने ही प्रतिरूप पर नित नए प्रतिबन्ध लगाकर बनाने की कोशिश करती। वह थोड़ा समझ नहीं पाती, पर विद्रोह करती रहती। ओह, क्या क्या सोचने लगी, और उधर मयंक का नैना नैना करते हुए बुरा हाल हो रहा था। ये परिचय भी कितना अजीब होता है? कहीं देह को जोड़ता तो कहीं तोड़ता है। माँ को हमेशा देह के आधार पर आहार बनकर टूटते हुए ही देखा। तब से देह के रिश्तों से जो विरक्ति हुई, वह अभी तक कायम है, पता नहीं वह अपने तटबंधों को कब तोड़कर आगे बढ़ेगी? उसे भी नहीं पता था। विरक्ति से आसक्ति का ये सफर कितना लम्बा होगा उसे भी शायद ये पता न था। उसे बहना भी था, पर बहकर वह कहाँ जाएगी, और बहने का परिणाम क्या होगा, इससे उसे भय लगता था। माँ, नदी होकर भी बह नहीं पाई, जिसमें समाई, वह उसका सागर नहीं निकला। जो सागर था उसमें समा नहीं सकी, वह अपनी माँ का यह राज़ जानती थी, और तभी शायद उसकी माँ भी उसे विवश नहीं कर रही थी, कि वह शादी करे। पर, ये सफर कहाँ तक चल सका है, माँ ने मयंक को लेकर बस इतना कहा, तुम समझदार हो, भला बुरा अपने आप सोच सकती हो, देखना, परखना, प्यार भी करना पर बुतपरस्ती करने के बाद उसे खुदा मानने का गुनाह न करना। जाने क्या सोचने लगी, उसने रात को ना आने का मेसेज माँ को भेजा और मयंक के पास आ गयी, जहां पर वह पनीर टिक्के के साथ उसका इंतज़ार कर रहा था। इधर माँ का भी मेसेज आ गया “टेक केयर, यू नो व्हाट इज टू बी डन!, बी सेफ ऑल्सो” उसने रिप्लाई बैक किया “ओह, माँ, नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं, अभी विल नॉट क्रोस द लिमिट”। उधर से माँ की ओर से स्माइली आया। उफ, माँ हमेशा कहती परिचय पहले मन से करो, देह से मन का सफर नहीं मन से देह का सफर तय करो। और वह,
“ओ मैडम, अगर स्माइली देखकर मन भर गया हो तो खा भी लो, अभी अभी ताजा है”
“हा हा, नहीं ऐसा नहीं, तुम खाओ, चटनी नहीं बनाई?”
“वाह, ये तो तुम्हारे लिए कर रहा हूँ, लीना तो वेज होते हुए भी मेरे लिए चिकन टिक्का बनाती है, और चटनी भी!”
“वो इसलिए क्योंकि वह तुम्हारे साथ ब्याह कर आई है!, बंधन है तुम लोगों का, मैं तुम्हारे साथ बंधन में नहीं, तो तुम मुझे भी यही कहते, हा हा, खाओ डियर”
“देखो, लीना के साथ मैं कभी अन्याय करते हुए दिख जाता हूँ, पर मैं क्या करूँ? मैं एक तक सीमित नहीं रह सकता, और यार ये बात तुमसे भी है”
“वाह, अभी तो कह रहे थे तुम मेरे लिए जीवन भर के लिए हो?”
“हां, मैंने कहा कि मैं तुम्हारे लिए जीवन भर के लिए हूँ, पर मैं तो बंध कर नहीं रह सकता न। और अब तो तुमने भी रिश्ते से जाने का अधिकार अपने पास रख लिया है, जो मैं भूल गया था, तो मेरे वे शब्द अब वापस करो”
“हा हा, सुनो, रात को मैं सोऊँगी कहाँ”
“हैं सोना!”
“अरे क्यों?”
“सोना ही होता तो तुम्हें तुम्हारे घर जाने से मना क्यों करता?”
“हां, चलो आज सुट्टा पार्टी करते हैं”
“बस सुट्टा”
“हाँ यार, आज मंगलवार है आज ड्रिंक नहीं और वो भी अकेले में तुम्हारे साथ, बिलकुल नहीं, इस दुधारी तलवार पर कब अपने आप को काट बैठूं, पता नहीं। मयंक, ये जो देह के धागे हैं, न बहुत उलझे हुए हैं। वह न जाने कब सुलझेंगे, मैं नहीं जानती पर नशे में मैं ये धागे बिना सुलझाए किसी के साथ समय या शरीर बाँट लूं, उफ ऐसा पाप मैं कैसे करूँ?” नैना का काजल उसके आंसुओं के साथ बहने को हुआ, मयंक ने कहा “काजल बह जाएगा”
“न, वाटरप्रूफ है”
हा हा हा दोनों ही हँसे।
मयंक अपरिचय की उस दीवार को धीरे धीरे ही गिराना चाहता था, जो उसे और नैना को दूर करती थी। वह भी नैना की ही तरह मन से देह की दूरी पाटने के समर्थन में था। वह नैना को देह के उस भ्रमजाल से बाहर निकालना चाहता था जिसमें वह उलझी हुई थी, और वह आनंद के तिलिस्म से दूर थी। वह देह की कामनाओं को और देह को पाप मानकर बैठी हुई थी, वह केवल उसे पीड़ा का ही पर्याय और स्वामित्व की पूंजी मानती थी। वर्जनाओं और मान्यताओं की गठरी में वह देह के आनन्द को छिपाए बैठी है, वह उसे उसी गठरी से मुक्त करना चाहता है, पर बलात नहीं। उसमें सम्बन्धों को लेकर जो कांटें हैं, वह उन्हें धीरे धीरे हटाना चाहता है। संभोग शायद इकलौता ऐसा भोग है जिसमें समभाव है, अर्थात जिसमें दोनों ही इंजॉय करते हैं, और खुद को खोकर खुद को पाते हैं। पर क्या वह गाँठ खोलने में सफल हो पाएगा? इसमें मयंक को शक है! मयंक खुद ही कभी कभी नैना के सामने अपनी ही खोह में चला जाता है, उसे लीना को भी जबाव देना होता है। वह उसे इन्टीमेसी और सेक्सुअल रिलेशन के अंतर को ही नहीं बता पाता और उसके साथ दैहिक परिचय होते हुए भी मन से परिचय बाकी था और नैना से मन से परिचय हो चुका था पर देह से परिचय बाकी था।  ये खोहें भी कितनी अजीब होती हैं? कभी कभी कितनी गहरी होती हुए भी उथली होती हैं और कभी कभी उथली होती हुए भी खाई के जैसी गहरी हो जाती हैं। रात गहरा रही है, और सुट्टे यानि सिगरेट से उठने वाले धुंए के छल्ले तरह के रूपों में ढलकर नया रूप ले रहे हैं। अट्टाहास हो रहा है, “तुम्हारी भूतहा इच्छाएं, तुम्हारी दमित इच्छाएं............................
“तुम्हारे सपने, तुम्हारी लीना, तुम्हारी लीना की नाईट ड्रेस, अरे बाप रे बिस्तर पर वेट करती हुई लीना..............................।”
ये कहाँ जा रहे हैं, दोनों ही!  नैना क्या वह नदी बन पाएगी जो अपने सागर से मिलेगी?  वह देह के सम्बन्धों को हिंसा के आधार पर ही बनते हुए देखती हुई आई है, सागर में मिलने के लिए क्या वाकई  हिंसा से होकर गुजरना होता है? उसे नहीं पता, वह अपने इन्हीं सवालों को धुंए में उड़ाती है और खिलखिलाकर अपने हाथों से ही बिखेर देती है! पता नहीं वह देह को कौन से तिलिस्म में बांधे हुए है? काजल और लिपस्टिक के रूपों को बदलने तक तो वह सम्बन्धों में निकटता चाहती है, पर उससे अधिक में वह बंध जाती है, वह केवल अपने ही द्वारा बनाए प्रतिमानों को खुद में समेटे रहेगी? वह इन सवालों को भी धुंए में उड़ा रही है, वह चाहती है सवालों के जबाव, परिचय की चादर को अपनी देह से फ़ेंक देना चाहती है पर बचपन से ही शरीर को भोग लगाते हुए ही देखा है, संभोग की परिभाषा नहीं जानी कभी? हमेशा मिलन के क्षणों को जूठन की तरह ही मिलते हुए देखा माँ को, मिलन सुखद होता है, ये नहीं जाना कभी! अब मयंक के साथ जैसे ही वह जानने की कोशिश करती है, अपने सामने खडी निवस्त्र माँ उसे डराने लगती है, मयंक के होंठों से जैसे ही वह अपने विष को कम करने की कोशिश करती है वैसे ही उसकी माँ के शरीर पर पड़े कुंठा के दाग उसकी आँखें खोल देते हैं और मयंक का चेहरा उसे उतना ही अजनबी लगता है, जितना उस समय अपनी माँ का लगता था। हाँ, माँ कर रही है कोशिश उसे इस भय से उबारने की। मयंक के साथ वह वाकई में अपनी ज़िन्दगी का कडवापन दूर करना चाहती है, चाहे सुट्टा पीकर करना पड़े या उसके होंठों का रस पीकर। पर वह देह की वीभत्सता से दूर होकर देह राग गाना चाहती है। चाहती है दोनों का एक हो जाना, पर छोड़ देती है समय पर! इधर कहीं बाहर कोई धुंए के छल्लों को एक होते देख रहा है,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, उसकी आकृतियों को एक होते देख रहा है और देख रहा है धीरे धीरे अंधेरों का छाना, दोनों के बीच गुडनाईट किस का आदान प्रदान।।
और इधर अन्दर वह जा रही है लिविंग रूम में तकिया लेकर रात के दो बजे, मयंक ताना दे रहा है “रहोगी तो तुम ब्लडी औरत ही, सोओगी एक कमरे में नहीं....................... जबकि तुम्हें पता है नहीं छुऊँगा तुम्हें, पर ब्लडी औरत की परछाईं जब तक है तब तक ये परिचय की चादर इतनी ही रहेगी, और छूकर भी अनछुआ सा रहेगा सबकुछ, पाकर भी अजनबी रहेगा सब कुछ”
वह भी हंसती हुई जा रही है “हां, यार आई एम बेसिकली ए ब्लडी औरत................................”

फिर समवेत अट्टाहास, दोनों ही कमरों से लाइटें बंद हो रही हैं और धुंआ ही परिचय का आधार दे रहा है, बेस बना रहा है................................... 

परिकथा में प्रकाशित कहानी अनुवाद

अनुवाद

नाइडा के अनुवाद सिद्धांत को पढ़ते पढ़ते वह खो जाती, सोचती क्या वाकई अनुवाद संभव है? अनुवाद क्या है? क्या अनुवाद केवल एक भाषा से दूसरे भाषा में भावों का सम्प्रेषण हैं या फिर अपनी ही कोई नई भाषा या कविता गढ़ना. वह सोचती पर, किसी भी नतीजे पर न पहुँचती. उसे याद आने लगती दादी की बात, काग भाषा कोई न जाने. तब उसे पता नहीं था, दादी कहती ये कांव कांव शायद मेहमान के आने की आहट है. तो क्या दादी अनुवाद करती थी, काग भाषा का? सच में दादी अनुवाद ही करती थी, कभी काग भाषा का, कभी सांप की भाषा का. जब भी कभी बारिशों में सांप निकलता वह जैसे खड़े हो जाती, उसके सामने और कुछ सुनती, कुछ बुदबुदाती. और सांप चला जाता. दादी ने तो नाइडा को या डॉ. पूरन चंद टंडन पढ़े नहीं थे, फिर वह अनुवाद कैसे कर पाती थी? वह समझ नहीं पा रही है. अभी पढ़ती है, अनुवाद एक वफादार पत्नी या बेवफा रखैल जैसा हो सकता है, वह बहुत हंसती है, ये साला वफादार शब्द केवल पत्नी के लिए ही है, और रखैल के साथ इतनी नाइंसाफी क्यों? आखिर रखैल वफादार नहीं हो सकती क्या? रखैल भी वफादार हो सकती हैं? हम देखते ही हैं, लोग अगर पत्नी को ही वफादार माने तो आखिर रखैल के जरूरत क्यों पड़े? पर रखैल ही बेवफा क्यों? वह हंसती और बच्चे उसे देखकर कहते “माँ, कोई जोक पढ़ रही हो क्या?” पति कहते “बेटा, आजकल तुम्हारी माँ खुद ही एक जोक बन गयी है” वह  उस समय इतनी गहन कन्दराओं की ओट में चली जाती है , कि उसे उसके बच्चे या उसके पति कोई भी दिखाई नहीं देता. बस रहते है तो अनुवाद के सिद्धांत और विचार. वह  अनुवाद से निकल कर हर बार अपनी दादी की दुनिया में चली जाती है , उसे याद आता कि जब वे लोग छोटे थे तो घर के पीछे जमीन पर जो पेड़ उन्होंने लगाए थे, उनमें करोंदे के फूल हमेशा उन्हें अपनी ओर खींचते. कभी कभी जब फूल हलके आते तो उस समय वो कहती, “अरे करोंदा के फूल न छुईयो जा साल, जा साल जरा हरके आए हैं, झर जइयें” जैसे वह करोंदे की पौधे की भावनाएं समझ कर हमें सिखा रही हो. सब दादी से लड़ते, झगड़ा करते पर दादी टस से मस न होती, यही कहती रहती, नहीं हम न छुईयें दैयें, भाग जा मौडी” और सब भाग जाते, तो क्या वह करोंदे के पौधे की भावनाओं का हमारे सामने अनुवाद करती थी. सच में अनुवाद ही तो है, जो हम अपनी भावनाओं का करते हैं, ये हमारी भावनाएं ही तो हैं, जो अनूदित होकर आंसुओं के रूप में सामने आती हैं, सच में ये संवेग ही तो हैं जो हमारे आंसुओं के रूप में आते हैं, कभी कभी हमारी कुंठा अनूदित होकर दूसरे से झगड़े के रूप में सामने आती है. पर दादी, वह न जाने किस मिट्टी से बनी थी, कभी कुंठा को, निराशा को अपने पास न आने दिया. वो पढ़ती, गलत अनुवाद, कवि ने कुछ कहा और अनुवादक ने कुछ प्रकट किया, उस अनजान स्थान पर जो मूल से अनजान है, जो मूल से एकदम जुदा है. वह केवल अनुवादक पर ही कविता के लिए निर्भर रहता है, और अनुवादक जो कहता है वह उसे ही सत्य मान लेता है. ऐसा ही तब होता था जब दादी, छोटी दादी माने बाबा की दूसरी पत्नी से कुछ ऐसा तीखा सुन लेती थी, कि शायद उनका दिल छलनी हो जाता होगा, पर वे हथेली पर पत्ती की तम्बाकू रगडती हुई ऊंची आवाज़ में नौकरानी को आवाज़ देने लगती, या उन लोगों  के साथ खेलने लगती. उस समय उनकी आँखें कुछ और बोलती थी पर उनके शब्द कुछ और. वह दादी से पूछते “दादी, आप रो रही हैं” दादी उसका मुंह चूम कर कहती “नहीं लाडो”. उसे  दादी के मुंह से आती बदबू बहुत बुरी लगती थी, पर क्या करे, दादी इतना प्यार ही करती थी कि वह  कुछ खास कर नहीं पाती थी. अब लगता है दादी कितनी बुरी अनुवादक थी, जो अपनी भावनाओं का इतना खराब अनुवाद करती थी कि बच्चों को भी पकड़ में आ जाए. सच में अनुवाद, कितना मधुर शब्द लगने लगा है, अब वह  लोगों के शब्दों पर नहीं उनकी आँखों में देखती है , उसे  मजा आने लगा है शब्दों से परे की दुनिया में झाँकने में. उसके पति कभी कभी कहते भी है “तुम रहस्यमयी हो गयी हो” वह  हँसती है , बस यही कहती है  “वह  अनुवादक है , अनुवाद करने लगी है ” ये बोलते हैं, इतने सारे लोग ये काम करते हैं तो क्या सब ऐसे ही हैं. उफ, क्या समझाऊँ इन्हें, जैसे जब उसने शोर्टहैण्ड सीखा था तो उसकी टीचर कहती थी, सच्ची विद्या वही जब आप वह आपकी रग रग में रम जाए, कुछ भी कोई बोले तो आप लोगों के दिमाग में अक्षर नहीं बल्कि, शोर्टहैण्ड की रेखाएं आनी चाहिए. उसने मेहनत की और वाकई में जब तक नौकरी की तब तक उसके दिमाग से क, ख और ग या एबी सी सब गायब, हो गया था रह गयी थी तो लकीरें. ऐसे ही जब एमए कर रही थी तो शेक्सपियर सपने में आकर ओथेलो जैसे सुनाते थे. अब उसका दिमाग है ही ऐसा. अब अनुवाद करती है , जो लोगों का अनुवाद करने का मन होने लगता है. उसके मन ने दादी को चुना, दादी, जैसे जैसे वह सिद्धांत पढ़ती, उसे अपनी दादी की हर बात जैसे मन्त्र सी नजर आने लगती. हर बात रहस्यमयी लगती. दादी अनुवाद के सिद्धांतों में खोने लगती, दादी खुद ही एक सिद्धांत हो जाती. गौरैया के आने की आहट से ही वह बता देती कि गौरैया को कब खाना होगा, कब वह पंखे से होकर गुजरेगी, कब पंखा बंद करना है, गौरैया के घोंसले में जब बच्चों की चूं चूं सुनाई देती तो वह, फिर कहती, अरे बहू, घर में नए मेहमान आए. वो जैसे गौरैया या यूं कहें सृजित करने वाली स्रष्टि के हर क्षण का अनुवाद करती. क्या ऐसा कोई हो सकता है? पर उसे बहुत बुरा लगता जब दादी अपने आंसू छिपा कर, रात में पंखा झलते हुए वह अपने आंसू पोंछती जाती, बाबा जब दादी से कहते “क्या हुआ?” वो कहती “कुछ नहीं, लग रहा जुगनू ज्यादा होय गए आंगन में” बाबा कहते “अरे, अब तुम्हें जुगनू भी चुभने लगे” दादी कहती “का करें, जब जीवन अंधेरो, तो जुगनू सेओ आँखें धुंधलाय जात हैं” उसे कुछ समझ नहीं आता, बस उसे ये लगता कि कुछ तो है पर क्या वह समझ नहीं पाती.
“माँ, माँ, भूख लगी है, खाना दो न” बच्चों ने टोका तो देखा शाम का धुंधलका होने लगा था, बैठे बैठे उसे दो तीन घंटे से भी ज्यादा हो गया था और बच्चों को छोटी मोटी भूख लगने लगी थी.
उफ, बस उसके अन्दर यही कमी है, वह अपने ही काम में मग्न हो जाती है, कुछ नहीं सोचती. बस उसके दिमाग में केवल इस समय अनुवाद ही अनुवाद घुस गया है, पर हां केवल इंसानों का. वह मन ही मन में खूब हंसती है. ऐसे में उसके मन में ऐसी भावनाएं आती जिनका अनुवाद उसे असंभव लगता. वह खुद सोचती, उसमें ग्लानि है या उसमें अपराधबोध है. पर खैर, बच्चों ने अपनी तमाम फरमाइशें उसे दे दीं, और उसने फिर उसमें से कुछ उठा ली पूरी करने के लिए, बाकी समय पर उधार दे दीं, और बच्चों को खाना देने के बाद फिर से आ गयी अपनी स्टडी टेबल पर. बच्चे खुश हो गए थे क्योंकि उनका मनपसन्द मोटू पतलू आने लगा था, और बच्चों की माँ, वह खुश सी हो गयी. बच्चों के सर पर हाथ फेर कर, उनसे चुप रहकर ही तमाम बातें करने के बाद जैसे ही चलने लगी, बिटिया बोली “माँ आपको पता है न कि आप ही मोस्ट बीयुटिफुल हो” मैं हँस पड़ी, और उसका बेटा बोला “माँ, आई लव यू” दोनों ने ही अपने शब्दों में जैसे अपने भाव व्यक्त कर दिए, शायद उनके मनपसन्द चोकोज़ खाने के बाद उनकी भावनाएं इस तरह अनूदित होकर सामने आई थी.
वह अधिक देर तक टिक नहीं पाई. उसकी टेबल उसे बुला रही थी, और वह वाकई में ही जाना चाहती थी, उसपर एक नशा है, दादी की अनकही बातें उसे बुला रही थी. जब वह अनुवाद पढती तो व्यक्तित्वों के अनुवाद में जोड़ देती. ऐसा वह क्यों करने लगी थी? आखिर क्या गुत्थी थी, जो उसे इतना व्यग्र कर रही थी. इधर वह अपने अध्याय में आगे बढ़ रही थी तो साथ ही दूसरी ओर वह अपनी दादी के जीवन को भी पढ़ती और अनुवाद में गढ़ती जा रही थी. इधर हुम्बोल्ट कहते हैं “All translation seems to me simply an attempt to solve an unsolvable problem” मतलब “अनुवाद ऐसी समस्या है, जिसका कोई समाधान ही नहीं” और कोई कहता है कि अनुवाद कालीन का उलटा हिस्सा है. पर दादी तो रामचरित मानस के मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सुदसरथ अजर बिहारी, को बहुत ही सहज तरीके से सुनाती
जो मंगल करने वाले और अमंगल हरने वाले हैं,
दसरथ पूत राम हम पर कृपा करने वाले हैं,
अब जानती हूँ कि ये गलत हो सकता हुआ होगा, पर उस समय राम को हमें समझाने के लिए वे हमेशा हमें ये सुनाती. सच में अनुवाद ही तो था यह, पर उसमें भावनाओं का पुट अधिक था, उसमें सिद्धांत नहीं थे, उसमें बच्चों को राम के बारे में समझाने के बारे में आतुरता थी. उफ, वह पढ़ अनुवाद रही है और छा रही हैं उसकी दादी. बीच बीच में उसे अपनी स्टडी टेबल से उठकर घर के भी सारे काम निपटाने होते हैं, और उस समय दादी की रहस्यमई मुस्कान उसे और रहस्यमई लगने लगती. उसे दादी की मुस्कान के पीछे का दर्द बहुत कुछ बोलता हुआ सा लगता, पर वह कभी पूछ न पाती. वह दादी से पूछती तो डांट खाती, “जे मौडिया बहुत अजीब है, जब देखो तब, दादी तुम जब हंसती तो रोती काहे हो, जे मौडिया एक दिन कहे देत हैं, बहू जी, हमाई जान ई ले लिए” फिर मम्मी भी उसे खूब डांटती. दादी और मम्मी की डांट खाकर वह उसी जगह आकर बैठ ज़ाती जहां पर दादी ने मंदिर बना रखा था. और उन मूर्तियों से बात करती. खैर दादी की उस रहस्यमई हँसी का मतलब बहुत ही जल्द पता चल गया. हुआ यूं, कि किशोरावस्था में कदम रखते हुए, अपनी तमाम कल्पनाओं के साथ वह जीने लगी, बढ़ने लगी थी. ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर दादी बेहद सजग हो गयी थी. उसका भाई आए दिन घर पर किशोरावस्था के झगड़ों के साथ आने लगा, वह चुप ही रहता पर उसकी चुप्पी ही दादी अनूदित कर लेती और कहती “काहे, आज फिर” और वह गर्दन झुका लेता, वह रोती, वह माफी माँगता पर अगले दिन वही गलती करता. एक दिन रात में जोर जोर से चिल्लाने लगा, “मुझे छोडो, मुझे छोडो, दादी मुझे कोई खींचे ले जा रहा है” घर वालों ने उठकर बत्ती जलाई, एकदम से ही पीली रोशनी फैल कमरे में फैल गयी, उसकी चादर नीचे गिरी पड़ी थी, और जगह से जो पापड़ी उपट आई थी, उस सीलन वाले कमरे में, वह उसके भाई के शोर मचाने के कारण और भी भयानक लगने लगी थी. नीले रंग की पुताई वाला वह कमरा एकदम से कांपने लगा, दादी की आँखों में भयानक डर देखा, बोली “बहू, देखना जे मौडा अपएं बाप की जगह न सोए” और अव्यक्त से भय का अनुवाद दादी ने जैसे किया. भाई का बिस्तर बदल गया और वह दूसरी जगह सोने लगा, उस जगह वह सोने लगी. दो दिन बाद उसने दादी से कहा “दादी, आज एक बच्चा मेरे सपने में आया” दादी ने उससे कहा “अरे मौडी, कौन आओ हथो” वह बोली “एक लडका, उसने कहा, मेरे साथ चलो,मैं तुम्हारे डैडी के पास ले चलूँगा, पर हमने मना कर दिया” उसकी चीख ने वीभत्स रूप ले लिया जैसे उसने कुछ बुरा सुन लिया हो. वह रो रही थी, और आज उसके आंसू और उसके बोल एकदम एक थी थे, उसके आंसूं एक कुशल अनुवादक की तरह उसकी भावनाओं का अनुवाद पूर्णता से कर रहे थे. आज उनमें कोई छल, प्रपंच नहीं था, आज आँखों में आंसू थे पर चेहरे पर मुस्कान नहीं थी, बोली “अरे, जाई जगह सपना आओ हथो, कि हमाए आँगन में खूब पानी भरो है, एकदम हमाओ कमरा डूब रहो है, पानी ही पानी, समंदर जैसो पानी, केवल हमारे कमरे में, हम डूब रहे, तुम्हाए बाप डूब रहे, हमने तुम्हाए बाप से पूछी सपने में ही, काहे जे का होए रहो है, ऊ निर्मोही बोरा, मम्मी लग रहा परलय आय गयी लग रहो तुम्हाए लए, और चरो गओ एक दिन, एम्स के बाहर खड़े रहे हम, और आय  गयी प्रलय, चरे गए, चरे गए तुम्हाए बाप, कर गए गोद सूनी, बोले जात जात, - देखी मम्मी, तुम्हाए सपने में परलय आई थी, न तुम्हाए कमरा में, आज आय गयी परलय हम सबके जीवन में, देखो हम तो जाय रहे, पर सुनो, तुम्हाओ मोतियाबिंद का ओपरेशन भओ है, तुम रोइयो न, हम आज मरे या कल, अब ये तो बीमारी ही ऐसी है, हमें जाना ही है, पर तुम रोइयो नहीं, अगर तुम रोइयो तो जे दोय छोटे छोटे बच्चा और जे तुम्हारी बहू रानी का करिए, तुम हमाए जाने पे रोइयो नहीं और जैसे ही जे डॉक्टर बोल दें, कि हम नहीं रहे, तुम हमाई डेडबॉडी न देखियो, सुनो इस परलय को केवल अपईं आँखों में ही रहन दियो, आँखों से बहन न दियो, जिस दिन जे आंसूं बह गए, समझ लियो तुम्हाए जात भए मौडा को तुमने एक बार फिर मार दयो” और दादी चीख रही थी, रो रही थी, फिर से आय गयो सपना, कभी मेरे मौडा की आंखन में, कभी मौडिया की आंखन में, अरे, बहुरिया, गजब होई गयो, आज फिर सपना आय गयो, दादी रो रही थी और माँ भी. उस दिन बहुत कुछ बहा, कारण बहे और उसे भी यह पता चल गया कि आखिर उसकी दादी के दिल की भावनाओं का अनुवाद हमेशा ही गलत क्यों होता था. दादी तो सपनो का अभी अनुवाद करती थी, कौन सा सपना क्या कहता है, वह यह भी बता देती थी. दादी की एक आँख खराब होने का भी उसी दिन उसे पता चला.

अरे वह स्टडी टेबल पर बैठी बैठी रो रही है और उसके बच्चे “माँ, रोओ नहीं” कहते हुए रो रहे हैं. सच में उसकी आँखों के सामने लिखा है पोएट्री इज अनट्रांसलेबल” यानि कविता का अनुवाद ही नहीं हो सकता, पर उसे लगता है कि अपनी ही भावनाओं का अनुवाद सही से नहीं हो सकताम क्योंकि वे होती हैं निर्भर कई वादों पर, कई भावों पर. सूरज के उगते समय और ढलते समय परछाईं बहुत लम्बी हो जाती है, और हमें पता ही नहीं चलता कि क्या वाकई में ही हम जो देखते हैं वही होता है या और कुछ परे भी होता है. सुनते हैं, कविता का अनुवाद इसलिए कठिन होता है क्योंकि जो लिखा होता है, उससे अधिक वह होता है जो अलिखित होता है, पर भावनाएं और शब्दों का घालमेल भी उतना ही अजीब होता है, आँखें कुछ कहती हैं, होंठ कुछ और कहते हैं, कुछ न कुछ तो अनकहा होता है, वही मूल होता है, जिसका अनुवाद असंभव होता है. वह शायद बंधा होता है कहीं, जो जब खुलता है, जब टूटता है बांध तो केवल प्रलय ही लेकर आता है, विनाश ही लेकर आता है. वह भी कह रही है, हां पोएट्री तो नहीं पर हां भावनाएं जरूर अनट्रांसबल हैं. वे अनूदित नहीं हो सकती. वह सोच में डूबी है और कविता की भावनाओं और संवेग का अनुवाद क्यों असंभव है, चैप्टर उसके पेन के नीचे छटपटा रहा है...................... 

नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...