मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

रानी का कमाल



रिया की आँखों से आंसू बह रहे थे थोड़ी देर पहले ही उसे लग रहा था कि वह इस जंगल से बाहर नहीं निकल पाएगी, मगर जंगल में रानी को देखकर वह चौंक गयी थी और रानी के पीछे पीछे वह जंगल से बाहर निकल आई थे। उसने रानी से कुछ कहना चाहा तो रानी ने कहा “अभी समय नहीं है, दीदी और मैं अकेली थोड़े ही न आई हूँ, मैं तो मोती के साथ आई हूँ, मोती यहाँ तक लाया है!” रिया आँखों में आंसू भरे मोती और रानी को देख रही थी। जंगल में काँटों से फंसकर उसके कपडे भी फट गए थे और उसे ठण्ड भी लग रही थी, वह चल भी नहीं पा रही थी। रानी ने उसे सहारा दिया, वह धीरे धीरे रानी के साथ मोती के पीछे पीछे चल रही थी। रिया को सब कुछ याद आ रहा था।
वह अपने मम्मी पापा के साथ दिल्ली से आई थी। दिल्ली में कितनी सुविधाएँ हैं, कितने बड़े बड़े पार्क थे, कितने बड़े बड़े मॉल! और उसके पास कितने सारे गैजेट हैं! उसके पास खुद का एक लैपटॉप है। मगर पापा की पोस्टिंग इस छोटे कसबे में होने से उसे भी कुछ दिनों के लिए यहाँ आना पड़ा था। रिया को याद आ रहा है कि कैसे उसने यहाँ की हालत देखकर मम्मी पापा के सामने आंधी तूफान मचा दिया था, पापा को दिल्ली के मुकाबले में इस शहर में बहुत बड़ा घर मिला था, मगर रिया तो कुछ सुनने के लिए ही तैयार नहीं थी।
“मम्मी, पापा आप लोगों को यहाँ रहना है रहिये, मैं नहीं रहूँगी!” पंद्रह साल की रिया को जरा भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह कितनी बड़ी जिद्द कर रही है। रिया का कहना था कि वह शुरू से ही बड़े शहरों में रही है, वह कैसे छोटे शहर में रह सकती थी। पापा की जिद्द थी कि वे बड़ी होती रिया को अकेली दिल्ली में नहीं छोड़ेंगे! वैसे भी रिया की इस साल दसवीं की बोर्ड की परीक्षा थी और उसके बाद पापा का स्पष्ट कहना था कि रिया उनके साथ ही रहेगी और रिया के लिए उन्होने वहां का सबसे अच्छा स्कूल भी खोज लिया था। अब रिया का विरोध करना बेकार था।
जंगल में चलते चलते रिया बार बार रानी का हाथ पकड़ रही थी। वैसे भी रिया का हाथ रानी ने बहुत मजबूती से पकड़ रखा था, और वह उसे भरोसा दिला रही थी कि वह उसे कुछ नहीं होने देगी। रिया ने उसकाहाथ बहुत मजबूती से पकड़ रखा था और उसे याद आ रहा था वह दिन जब वह पहले दिन अपने स्कूल गयी थी। दसवीं में उसके बहुत ही अच्छे ग्रेड आए थे तो पापा की पोस्ट और अपने ग्रेड के साथ उसे स्कूल में तुरंत ही एडमिशन मिल गया था। रिया को अपना दिल्ली वाला स्कूल याद आ रहा था, वहां की सहेलियां, दोस्त और वहां की कैंटीन, जहाँ पर खूब बढ़िया बढ़िया खाने को मिलता था, दिल्ली के मॉल की चमक, वहां की रंगीनियाँ! सब कुछ! और अब इधर! वह क्या करे? रिया के मन में चिडचिडापन बहुत बढ़ गया था। उसे न तो पापा का प्यार दिख पा रहा था और न ही और कुछ! इधर वह कुछ दिनों से देख रही थी कि जैसे ही वह अपना लैपटॉप खोलकर बैठती थी, एक छोटी लड़की रानी उसके पास आकर खड़ी हो जाती थी। उससे दो तीन बरस तो छोटी रही ही होगी और उसके साथ आ जाता था मोती।
पता चला वह वहां की आया की बेटी थी, किसी सरकारी स्कूल में पढने जाती थी और दोपहर का खाना खाकर वापस आ जाती थी। उसके साथ ही उसका कुत्ता  मोती आ जाता था। रिया लंच के समय में अपना लैपटॉप लेकर कोने में आ जाती थी और वहीं वह स्टडी मैटेरियल खोजने लगती। कुछ प्रोजेक्ट्स के लिए स्कूल में कक्षा 11 और 12 के बच्चों को लैपटॉप लाने की अनुमति थी।
रिया को रानी की मासूम और कुछ खोजती आँखें पसंद तो आने लगी थीं, मगर जैसे वह उसके लैपटॉप की तरफ हाथ बढ़ाती, रिया उसे झिड़क देती। रिया को एक तो वैसे भी यह शहर पसंद नहीं था, यहाँ उसकी कोई सहेली नहीं थी, और दूसरी तरफ ये रानी आ जाती थी उसे परेशान करने के लिए।
ऐसे ही एक दिन वह उसके घर भी पहुँच गयी थी।
“तुम?” रिया उसे देखकर चौंक गयी थी!
“हाँ दीदी!” रानी ने उसे नमस्ते करते हुए कहा
रिया को बहुत गुस्सा आया था, “तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
“दीदी, मैं आपका कंप्यूटर देखने आई हूँ, उसमें आपने बहुत सारी तस्वीरें सेव की हैं न, वो देखनी हैं!” रानी ने उससे कहा
“वो क्या है न, मेरे मोती को भी देखना है!” रानी ने बहुत मासूमियत से कहा
पीछे से मोती ने भौंक कर उसका समर्थन किया
रिया का बस चलता तो उसे भगा देती, मगर उसने अपनी माँ को अच्छी बेटी होने का प्रोमिस किया था जिससे वह कक्षा 12 के बाद यहाँ से जा सके, तो उसने रानी को अन्दर बुला लिया और उसे अपने लैपटॉप पर खूब तस्वीरें दिखाईं। रानी की बड़ी बड़ी आँखें और बड़ी हो रही थीं, आश्चर्य से! उसने अपने साथ आए मोती से कहा “ले देख ले, कभी देखी थीं ऐसी तस्वीरें! रंग बिरंगी! जितने रंग तुमने होली में न देखे, उतने रंग दीदी ने हमें दिखा दिए! वैसे भी अब अगले ही महीने तो होली है!”
“लो रानी शरबत पी लो!” रिया ने उसे शरबत देते हुए कहा
“दीदी, आप होली खेलती हो?” रानी ने पूछा
“हाँ, दिल्ली में हम सब खूब होली खेलते थे, तुम्हें पता हम लैपटॉप पर भी रंगों के साथ खेल सकते हैं!” रिया ने उसे लैपटॉप दिखाते हुए कहा
“दीदी, वह कैसे?” रानी की आँखें फिर से चौड़ी हो गईं!
“रुको!” रिया ने लैपटॉप गोद में रखते हुए कहा
“देखो!” रिया ने पेंट तस्वीरों को पेंट में खोला और उसमें रंग भर कर दिखाए और उसके बाद उसने फोटो व्यूअर में में भी रानी को तस्वीरें दिखाईं!
“अच्छा दीदी, अब मैं चलूंगी, कल आऊँगी तो भी क्या आप दिखाओगी?” रानी ने उससे पूछा
रिया का मन हुआ उसे डपट कर भगा दे, मगर वह ऐसा कर न सकी। उसने मुस्करा कर कहा “ठीक है, तुम जब भी आना चाहो आ जाना”
रानी खुश होकर चली गयी और उसके पीछे पीछे उसका मोती भी!
तीन चार दिनों तक रानी रोज़ आई और रिया ने उसे पेंट, फोटो व्यूअर आदि पर खूब तस्वीरों में रंग भरना सिखाया! रिया के लिए ये बड़े ही मजेदार दिन थे और रानी के लिए, उसके लिए तो जैसे एक नई दुनिया ही थी। पढाई में कमजोर रानी केवल तीन चार बार में ही रंग भरना और हटाना सीख गयी थी।
रिया को होली का वह दिन याद है जब वह बाहर बैठी बैठी रानी के साथ मोबाइल पर खेल रही थी। पापा और मम्मी कोलोनी में गए थे और तभी कुछ लोग रंग लगाए हुए आ गए थे। रिया और रानी के मन में उन्हें देखकर डर की एक लहर दौड़ गयी और वे अन्दर की तरफ दौड़ीं! रानी के हाथ में रिया का मोबाइल था, रिया को उन लोगों ने पकड़ा और अपनी जीप की तरफ बढ़ने लगे! रानी भी उनकी तरफ दौड़ी मगर वे जीप में थे, रानी केवल उनकी फोटो ही खींच पाई! मोती लेकिन उनके पीछे पीछे गया। रिया को धीरेधीरे समझ में आ गया कि उसको किडनैप कर लिया है। उस शहर के बाहर निकलते ही छोटा सा जंगल था। रिया को रास्ता नहीं पता था और उसे ये भी नहीं पता था कि पापा उस तक कब तक पहुचेंगे।
इधर रानी ने जैसे तैसे रिया के मम्मी पापा को खोजा और उन्हें सारी बातें बताईं! रिया के पापा तुरंत ही पुलिस के पास जाना चाहते थे, मगर वे फोन आने का इंतज़ार कर रहे थे।
“अंकल मैंने उनकी फोटो ली है, पुलिस के पास जल्दी चलते हैं!” रानी ने रिया के पापा को फोन देते हुएकहा
“मगर बेटा ये तो सब रंगे हुए चेहरे हैं!” रिया के पापा ने फोटो देखते हुए कहा
“अंकल आप चिंता मत करिए, दीदी ने मुझे सिखाया है, फोटो से रंग हटाकर उसे सही करना!” रानी ने रिया के पापा से कहा “अंकल इन तस्वीरों को अगर आप लैपटॉप पर कर देंगे तो मैं जल्दी से इनका चेहरा आपके सामने ला दूंगी!”
छोटे शहर की नन्ही तेरह साल की बच्ची पर रिया के पापा को यकीन तो नहीं हुआ मगर फिर भी उन्होंने तस्वीरों को लैपटॉप पर ट्रांसफर कर दिया।
नन्हीं नन्हीं उंगलियाँ लैपटॉप पर तुरंत चलने लगीं, जैसे किसी पियानो पर किसी वादक की उंगली चल रही हों। पांच ही मिनट में नन्हीं रानी ने उन लोगों के चेहरे उनके सामने रख दिए।
“अंकल अब आप ये तस्वीरें फोन में ले लीजिए और पुलिस के पास चलते हैं!”
रिया के पापा इस नन्ही बच्ची का कमाल देखकर हैरान थे, इधर वे लोग पुलिस के पास गए और रानी के पास मोती आ गया। वह रानी की फ्रॉक खींचने लगा।
“अंकल आप लोग पुलिस स्टेशन जाइए, मोती उनके पीछे गया था वह शायद दीदी की खबर लाया हो!” रानी ने रिया के पापा से कहा
“बेटा, तुम अकेली कैसे?” रिया की मम्मी ने पूछा
“आंटी मैं अकेली कहाँ, ये मोती है न!” कहती हुई रानी मोती के साथ भाग गयी
रिया उन लोगों से बचकर जंगल में भटक गयी थी। उसके कपडे भी फट गए थे। मगर उसकी दौड़ने की आदत ने उसे उन लोगों की पहुचं से दूर ला दिया था। अब उसे सड़क चाहिए थी जहाँ से वह जा सके, मगर वह भटक गयी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था,तभी उसे रानी की आवाज़ सुनाई दी थी। उसकी जान में जान आई!।
“सम्हल कर दीदी! देखिये सड़क आ गयी और आपके मम्मी पापा भी” रानी ने उसे सम्हालते हुए कहा
रिया की सांस में सांस आई
“बेटा, तुम ठीक तो हो न!” रिया की मम्मी ने उसे गले लगाते हुए कहा
“मम्मी मैं तो ठीक हूँ, मगर आप लोग?” रिया ने मम्मी से चिपटते हुए कहा
“ये तुम्हारी रानी है न, इसने सब कुछ आसान कर दिया। इसने उन लोगों की फोटो खींचीं थी, और फिर उन्हें लैपटॉप पर सही किया, हम उन तस्वीरों को लेकर पुलिस स्टेशन पहुंचे। पुलिस वालों ने उन्हें तुरंत पहचान लिया और एक को पकड़ पर तुम्हारा पता चला कि तुम इधर की तरफ भागी थीं।” रिया की मम्मी ने रिया को और चिपटाते हुए कहा
“हाँ, मम्मी! ये रानी वाकई में ही रानी है!” रिया ने रानी को गले लगाते हुए कहा
“अब से रानी भी रिया के स्कूल में पढने जाएगी और इसकी सारी फीस मैं भरूँगा!” रिया के पापा ने रानी को गले लगाते हुए कहा
रानी और मोती आज पूरे शहर के नायक बन गए थे! और रिया को समझ आ गया था कि छोटे शहर में सब कुछ छोटा नहीं होता, बहुत कुछ अच्छा होता है। इस बार की होली, उसके लिए नए रंग लेकर आई थी।

सोनाली मिश्रा


गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

डेस्डीमोना मरती नहीं



उफ, आज फिर से नींद आने का नाम नहीं ले रही है। ये नींद भी कमबख्त हो चली है, न तो आती ही है और न जाती ही है। उनींदा सा हर क्षण रहता है। सामने वाले फ्लैट से फिर लड़ाई की आवाजें आ रही थी। मैं डेस्डीमोना   को पढ़ते पढ़ते घर से बाहर आ गयी थी। ये शेक्सपियर भी न, खुद तो चले गए और हमारे पास छोड़ गए हमारे जीवन में समाते हुए चरित्र। वाह, क्या क्या न कहते हैं, जियो शेक्सपियर जियो। डेस्डीमोना   मुझे आकर्षित करती है हमेशा। हर घर से एक डेस्डीमोना   झांकती है, वह ज़िंदा सी है, लगभग हर घर की खिड़की से झांकती है। अभी तो सामने वाले घर से ही आवाजें आ रही हैं। मेरा मन हो रहा है कि काश मेरे पास उड़ने वाली झाडू होती चुड़ैल वाली, तो मैं भी चली जाती उड़कर, उस घर में हैरी पॉटर में जैसे हम चुड़ैल देखते थे, पर वह झाडू मेरे पास नहीं है और मैं अभी अपने घर की बालकनी में खडी होकर डेस्डीमोना   को महसूस कर रही हूँ और बीच बीच में सामने वाले घर से आती हुई आवाजों को सुन रही हूँ, वह भी मुझे आकर्षित कर रही हैं, सोचती हूँ चली ही जाऊं। रात के बारह बज चुके हैं,  वैसे तो कॉलोनी का गार्ड  मुझे अब वापस भेजने के लिए आमदा है पर मैं नहीं जाना चाह रही, मैं अंगद के पैर की तरह एक ही तरह जैसे जड़ सी हो गयी हूँ, पर वह है कि मान नहीं रहा, उधर से आवाजें और तेज होती जा रही हैं “अरे, दुष्ट, एकदम वैश्या हो तुम, you are such a whore,” चटाक, चटाक उफ, लग रहा है, गृहयुद्ध हो रहा है, गृहयुद्ध कैसे? युद्ध में तो दो तरफा वार होते हैं, पर यहाँ पर तो शायद एक ही ओर से वार हो रहा है, जैसे डेस्डीमोना  झेलती थी, अपने पति के वार। ओथेलो भी तो इसी आदमी की तरह अपनी पत्नी को मारता था, तो वो क्या करती होगी? शेक्सपियर से परे अगर मैं चलूँ तो मैं बताऊँ, अगर इस औरत की तरह होती तो शायद वह अपना गाउन उठाकर अपने घुटनों के बल अपने पति के पैरों में बैठकर उससे क्षमा मांगती, जो शायद वह मांगती थी, वह उसे पापी, परपुरुष गामी कहता होगा और वह क्या रोकर ही केवल उसे अपनी तकदीर मान लेती होगी, पर ऐसा ही तो सीता ने भी किया था। हां संभवतया, राम ने स्वयं सीता के चरित्र पर शक नहीं किया था पर उन्होंने सीता को केवल चरित्र की ही परिभाषा के कारण जंगलों के हवाले कर दिया था। तो ऐसे में भला इस पुरुष की क्या बिसात? ये तो वही कर रहा है जो इसने देखा है। मैं भी न जाने अपने घर की बालकनी में खड़े खड़े रात को बारह बजे किन हवाओं में खो रही हूँ, एक हवा मुझे डेस्डीमोना  की ओर लेकर जा रही है तो दूसरी हवा मुझे हर उस स्त्री की ओर लेकर जा रही है जो शक का शिकार होती है। ये डेस्डीमोना, फिर से आ गयी कमबख्त, मुझे हंसी भी आ रही है, वह मेरी रूह में अन्दर तक समाई हुई है, वह मुझे कभी आकर अचंभित भी करती है, जैसे ही सामने वाले फ्लैट से किसी भी स्त्री के रोने की आवाज़ आती है वह मुझे उसी खिड़की पर आकर जैसे आवाज़ देती है, बोलती है “देखो, मैं आ गयी, इस बार मोटा गाउन नहीं पहने हूँ, इस बार मैं तुम्हारे यूपी और बिहार में जाकर देखो साड़ी पहनकर आ गयी हूँ, पर सुनो केवल चोला ही बदला है, मेरी पीड़ा अभी भी वहीं है और उसी तरह की है जब ओथेलो मुझे मेरे पिता के घर से लाते समय तो प्रेम से लाता है पर मुझ पर अधिकार के बाद वह मुझ पर छोटी छोटी बातों पर शक करता हुआ, मुझे ही मरने को सहर्ष तैयार हो जाता है”।
मैं एक पल को रुक जाती हूँ, अब मेरी हंसी गायब हो गयी है, अब डेस्डीमोना  छाने लगी है, जैसे भूत या आत्माएं किसी भी काया में प्रवेश करती हैं वैसे ही वह मुझमें प्रवेश कर रही है, मैं वह और वह मैं बनने सी लगी है, तभी मैं एकदम से किताब अपने हाथ से फ़ेंक देती हूँ, वह किताब में से झाँक कर कहती है, “तुम बच पाओगी” हा हा, अब वह हिंसक हो गयी है, खिड़की से आवाजें भी तेज हो रही हैं और डेस्डीमोना  का मेरे स्वामी, मुझे माफ करो कहना भी तेज होता जा रहा है। उफ, ये हिंसक हंसी! मैं दोनों ही तरफ से फांसी पा रही हूँ, अब मेरी आवाज़ घुट रही है, पर ये दोनों, ये दोनों तो जैसे जंगली बिल्ली की तरह लडती ही जा रही हैं, एक ओर वह खिड़की के अन्दर से माफ कर दो, अब बात नहीं करूंगी, अब मैं नहीं झाकूंगी, अब माफ करो”  बोलती जा रही है, और दूसरी ओर किताब के अन्दर से वह भी बोल रही है, और इतना बोल रही है कि मेरा मन हो रहा है किताब को उठाकर मैं उसे नाली में फ़ेंक दूं। ठीक है, शेक्सपियर जी, इतना खूबसूरत नाटक लिखे पर ऐसा भी नहीं कि वह पाठक का ही सर्वनाश कर दे। अब देखिये ये कैसे सर पर नाच रही है और अपन को भी नचाए हुए हैं। उधर गार्ड कह रहा है “मैडम, अभी कोई चोर घुस आएगा, आप प्लीज़ घर में जाएं” मुझे वह किताब के अन्दर से जीभ चिढा रही है, मैंने उससे कहा भी “नहीं, अब हिंसा कम हुई है” और इस बात पर वह अपना पेट पकड़ कर हंस रही है, मुझे बोलने का मौक़ा तो दे ही नहीं रही है, अब मेरे पति के खर्राटे भी दीवार तोड़कर बाहर आने लगे है। मुझे हंसी आई, और बहुत ही आश्चर्य हुआ कि अरे, देखो ये मर्द लोग कैसे सो लेते हैं, बेझिझक! एकदम बिना किसी परेशानी के। इन्हें मतलब नहीं होता कि घर के सामने कोई किसी को पीट रहा है, कोई मरे, जिए इन्हें मतलब ही नहीं। इन्हें मतलब नहीं होता कि घर के सामने कोई हिंसा का शिकार हो रहा है या फिर कोई प्रतिहिंसा का शिकार हो रहा है। उफ!
हां, तो किताब से फिर से झांकती है और मुझसे बात करती है मेरी डेस्डीमोना , अब मुझे वह बहुत ही टूटी हुई कातर सी दिखती है, जो मुझे आजकल लगभग हर ही स्त्री लगती है। कोई किसी भी तरह से टूटी है तो कोई किसी। पर हां, सब में एक बात कॉमन है कि उनके अस्तित्व को नज़रंदाज़ करने की हिंसा हो रही है। जैसे राम आदर्श पुरुष है, आदर्श बेटे हैं, आदर्श भाई हैं, आदर्श राजा हैं, पर पत्नी के अस्तित्व को नज़रन्दाज़ कर वे आदर्श पति न बन पाए। ऐसा क्यों होता है कि स्त्री का अस्तित्व दबाने की एक हिंसा होती है, जो हमारे सामने होते हुए भी हमें नज़र नहीं आती। कितना अजीब होता है कि एक पुरुष के लिए हर किसी का अस्तित्व महत्वपूर्ण होता है, हर किसी को वह महत्व देता है, पर वह केवल अपने जीवन से जुड़ी हुई सबसे महत्वपूर्ण स्त्री अर्थात पत्नी को ही महत्व नहीं देता, वह उसके अंगों पर अधिकार जमाना चाहता है, उसे चादर बनाकर ओढ़ना चाहता है, उसे बिस्तर की तरह बिछाता है पर न जाने क्यों एक नौकर की तरह उसके अस्तित्व को नकारता रहता है।  हां, तो शायद डेस्डीमोना  इसी हिंसा का शिकार हुई थी, या वह किसी छल का शिकार हुई थी, पर छल कोई भी हो, हारी तो एक पत्नी ही। वह जंघा की परिधि में होने वाले युद्ध में पराजित होने वाली प्रजाति हो जाती है, हां एक पत्नी के रूप में स्त्री शायद जंघा की परिधि वाले युद्ध हारती है तभी, तभी तो छली जाती है। नहीं नहीं वह जंघा की परिधि का युद्ध नहीं होता, शायद जंघा की परिधि पर वर्चस्व कायम करने वाला युद्ध होता है। वह निरंतर संघर्ष होता है। वह चरित्र का संघर्ष है, वह तथाकथित मर्यादा का चरित्र है। एक पत्नी के रूप में स्त्री निरंतर संघर्ष रत है, वह जूझती है, पर शायद इस स्थान के वर्चस्व के युद्ध को हार जाती है।
मेरे घर के सामने की खिड़की में वाकयुद्ध अब शांत होने लगा था, वह क्यों शांत हो रहा था, ये तो नहीं पता, पर अब घर की लाइटें बंद हो गयी थी, और जोर जोर से जो चीखें आ रही थी, शायद अब दबी सिस्कारियों में बदल गयी होंगी। अब शायद उस वर्चस्व का समय आ गया होगा जिसके कारण यह पूरा युद्ध हो रहा था। अब शायद वर्चस्व की चाह में उसकी देह को मसला जा रहा होगा या मसाला लगाकर मुक्त रूप से वह भोग लगा रहा होगा। हा हा, चलो सोचूँ, नींद तो आ नहीं रही, पर अब वह स्त्री सो जाएगी या अपने स्वामी को भोग लगाने के बाद जागकर मेरे साथ मेरी डेस्डीमोना  के साथ आएगी? शायद सो ही जाएगी, अपने मर्द को ओढ़ कर, ऐसी कायर औरतें अपने मर्द को ओढ़कर सोने में ही भरोसा करती हैं, वे जागती नहीं, वे सोती रहती हैं, नींद उनकी केवल तभी टूटती है जब उनके जीवन पर संकट आता है, जैसे डेस्डीमोना  की भी तन्द्रा तभी टूटी थी न जब उसे उसका पति मारने आया होगा, या उसे लगा होगा अब यह मेरे प्राण ले लेगा। ये रात के समय शोर मचाने वाली स्त्रियाँ ऐसे ही किसी समय जागती हैं, या तो जब उनके प्राण ही संकट में आते हैं या फिर तब जब उनपर कोई बाहर से लाकर बैठा दी जाती है, नहीं तो तब तक वे अपने पतियों को ही ओढ़कर सोने में दुनिया का सबसे बड़ा सुख मानती हैं।
अब मेरी भी आँखों में नींद आने लगी, डेस्डीमोना  ने कहा सोने जा रही हो, मैंने कहा “हां”। उसने कहा रुको थोड़ी देर और, जरा मेरे जैसी एक दो और गिनाओ।” अब बारी मेरे हँसने की थी, मैंने कहा “किस किस का किस्सा सुनाऊँ, सभी में तो तुम समाई हो” वह विजयी मुस्कान के साथ बोली “देखा मैंने कहा था न, युग कोई भी हो, बरस कोई भी हो, डेस्डीमोना  तो हर घर में होगी” मैंने उससे कहा “हां, पर अब डेस्डीमोना , को मारना इतना सरल नहीं रह गया है” “हैं वह कैसे, उसने कहा, अभी सामने वाले घर में तो तुमने देखा ही है, वर्चस्व का संघर्ष”, मैंने कहा “हां सही कह रही हो, पर अब उसे विद्रोह करना आ गया है, अब देखना, थोड़े दिन वह केवल उसकी यह मार खाएगी, उसे ओढ़ेगी और बिछाएगी, फिर उसकी ही आँखों के नीचे जो काले घेरों का स्थान है, वहां पर अपना एक कोना खोजकर उसमें अपनी जगह बनाएगी” वो बोली “चल झूठी, ऐसा भी होता है” मैंने कहा “हां, होता तो है, कहो तो एक उदाहरण दूं” वो बोली “दो न”। अब वह किताब से बाहर निकल कर जैसे मेरे बगल में पड़ी कुर्सी में आ गयी। और उसकी आँखों में एक उत्सुकता थी, वह जानना चाह रही थी कि इस युग की डेस्डीमोना  आखिर करती क्या हैं!
मैं उससे बात करती जा रही थी, जैसे कोई शराब पीकर अपनी ही रौ में बोलता रहता है वैसे ही। वह कुछ बढ़िया सुनना चाह रही थी और मैं भी उसे बढ़िया ही सुनाना चाह रही थी। उसने कहा “अब बोलो भी” मैंने कहा “सुन, शैम्पेन पीयेगी” वो बोली, तुम पियो” मैंने अन्दर जाकर एक ग्लास में अपने लिए शैम्पेन लिया और फिर उसके पास आई। मूढा उसकी कुर्सी के पास खींचा और कहा “देखो, हम लोगों ने रो रोकर आँखों के नीचे बहुत काले घेरे बना लिए हैं, जहाँ पर हमारे सपने मर गए थे” वो बोली “हां, और सपने ही क्यों मैं तो खुद ही मर गयी, मार डाला मुझे मेरे ही पति ने, जिसके कारण अपने पिता का घर छोड़कर आई, जिसके कारण मैंने पूरी दुनिया में अपने पिता को बदनाम किया और जिसके कारण मेरे पिता ने मुझसे सारे सम्बन्ध तोड़ लिए, उसी व्यक्ति ने मुझे मार डाला। उसने मेरे चरित्र पर लांछन लगाए, मुझे कुलटा, वैश्या, शरीर बेचने वाली, गैर ईसाई कहा। मैं तो ईसाई ही रही, मैंने क्या धर्म विरोधी काम किया”। उफ, सुनो, इस चरखी में ही हमें बांधा जाता है, कि तुम धार्मिक बनो, धर्म के अनुसार बनो।  पर हमारे धर्म में जो हमारे लिए कहा गया है, उसे हमारे सामने ही तोड़मरोड़ कर हमारी थाली में बचपन से परोसा जाता है और हमें उसे नाश्ते, खाने और रात के खाने में खूब मिला मिला कर पिलाया जाता है।  कि हम कहीं भाग न जाएँ, बिगड़ न जाएँ। सुनो, खूब मारपीट करने के बाद एक दिन तो ऐसा आया ही होगा जब तुम्हें भी लगा होगा कि तुम भाग जाओ, या खुद से बात करने का मन हुआ होगा? खैर तुम्हारा पता नहीं। हम स्त्रियों पर जब वर्चस्व की जंग तेज होने लगी और हमारी आँखों के नीचे काले घेरों का साम्राज्य बहुत ही बढ़ने लगा तो लगा कुछ तो ऐसा खोजा जाए जिससे न केवल यह वर्चस्व की जंग थमें बल्कि कुछ ऐसा भी हो जिससे हमारी आँखों को इस कालिमा से मुक्ति मिल सके। अरे पर ऐसा होगा क्या? हमें अपने हिस्से की ज़िन्दगी तो जीनी ही थी। सुनो, हमने सोचा कुछ करने का!
मैं रुक गयी, मैंने सोचा इसे बताऊँ क्या!, उसने मेरी बांह झकझोरी, “नशा हो रहा है क्या” मैंने कहा “न री, सोच रही हूँ कहाँ से शुरू करूँ!, हां तो जब हमारी आँखों के नीचे घेरे बहुत ही काले होते गए तो सोचा उन्हें सुनहरा किया जाए, तो हमने अपने हुनर को निखारना शुरू कर दिया। हमने स्लो डेथ मरने से मना कर दिया। हम बहुत युगों तक इस स्लो डेथ का शिकार हुए हैं, अब हमने इस हिंसा का प्रतिकार करने का मन बनाया। हमने उस संवाद हीनता को काट दिया, जो हमें अलग करता था दुनिया से, हमने अब संवाद करने का मन बनाया। हमने आँखों के नीचे के काले घेरों से ही संवाद शुरू किया, हमने पहले उन्हें विदा किया, फिर वर्चस्व की लड़ाई से स्त्री को जीतना सिखाया। स्त्री को जांघ की परिधि वाले वर्चस्व में स्वामिनी बनने के लिए कहा। हाँ ठीक है, अभी नहीं हो पाया है यह, पर शीघ्र ही यह होगा ऐसा मुझे लगता है। पर उसके लिए हमें, जरूरत थी, जरूरत थी भरी जेब की, भरी जेब से हम अपने इन कालेघेरों को सुनहरा कर सकती थी, ये हमने अहसास किया। तो हमने अपने हुनर को तराशना शुरू कर दिया।  सुनो, हमने घेरों के अन्दर ही जीना शुरू कर दिया, पर हां जो हम पर वर्चस्व करते थे उन्हें इस बात की भनक भी न लगने दी, कि आखिर ये काले घेरे सुनहरे कैसे होने लगे। वे हम पर वर्चस्व की एक लिप्सा में खुद से ही संघर्ष करते रहे और हम कुंदन बनकर और भी निखरते रहे। ठीक है, अभी कुछ स्त्रियाँ बिछा रही हैं, और ओढ़ भी रही हैं, उन्हीं के जिस्म को, जो उनपर वर्चस्व स्थापित किए थे, पर समय के साथ जैसे जैसे वे अपने हुनर को और प्रतिभा को पहचानेंगी वैसे ही वे अपना कोना कहीं और थोड़ी देर के लिए बना लेंगी, और तुम देखती रहना, यह दिन भी बहुत जल्द आएगा।”
तभी मेरी नज़र मेरे बगल की खाली कुर्सी पर गयी, “अरे डेस्डीमोना  कहाँ गयी”
वह कहीं कोने में रो रही थी, मैंने उसे छुआ तो बोली “अरे, ये  कोना तब नहीं बन सकता था, जब मैं अपने जीने के लिए संघर्ष कर रही थी, जब ओथेलो अपनी ही प्रिया पर रोज ही शक कर रहा था, जब पतिव्रता होते हुए भी मैं खुद के चरित्र पर लांछन खा रही थी, जब केवल एक रूमाल के कारण मेरे कोरी चुनरी पर दाग लग रहे थे। ओह, ये कोना तब क्यों किसी ने न बनाया?, तुम्हें पता, अगर कोई कोना तब बन गया होता तो शायद मैं भी बार बार अपने स्त्रीत्व को कसौटी पर परखने के लिए मजबूर न होती, शायद डेस्डीमोना  की किस्मत कुछ और ही होती”
मैंने उसके आंसू पोंछे, गले लगाया और कहा “सुनो, तुम एक बात भूल जाती हो, कि तुम्हें गढ़ा किसने था, और कब गढ़ा था, तुम्हें गढ़ा गया था घोर सामंतवादी युग में, जहां स्त्रियों का पुरुष की मर्जी के बिना सांस लेना भी गुनाह माना जाता था, और तुम अपने लेखक से उम्मीद करती हो तुम्हारे लिए कोई कोना खोजता। अरे वह न तो वह खुद ही ऐसा करता और न ही उसे कोई यह करने देता, तुम्हें पता उसे शायद ज़िंदा ही जला दिया जाता। चूंकि उसे अपनी जान से प्रेम था और तुमसे भी, तभी तो तुममे इतनी खूबियाँ डाली, कि आज तक तुमसे प्रेम है और तुम्हारे कारण तुम्हारे लेखक से हम प्रेम करते हैं। पर है तो वह सामंतवादी और पुरुष ही न!, तुमसे गलबहियां तो नहीं कर सकता न!, तुम्हें त्याग के रूप में ही अमर बना सकता था, पर स्वतंत्र नायिका के रूप में नहीं। समझो”
वह भी आंसू पोंछती हुई बोली “हां, ये सच है तब मैं शिकार हुई शक की, जांघ के वर्चस्व के संघर्ष की, पर अब जानती हूँ अब अगर गढ़ी जाऊंगी, तो तुम्हारे ही जैसी किसी भी स्त्री के हाथों, जो इस वर्चस्व में मेरा भी योगदान बताएगी। मैं अब शक के कारण मारी न जाऊं, इस बात का ख्याल रखना, अच्छा चलूँ, सुबह होने को है”
सुबह की पहली निशानी यानि आसमान पर हल्की गुलाबी रंगत छाने लगी थी, और डेस्डीमोना  किताब में पन्नों में समा गई, मैंने उससे कहा “वादा करती हूँ, अब कोई डेस्डीमोना  किसी भी कहानी में शक की बिनाह पर मारी न जाएगी, अब डेस्डीमोना  की आँखों पर काले घेरे न होंगे और अब डेस्डीमोना  के साथ वैश्या के शब्द न होंगे, क्योंकि अब डेस्डीमोना  का सृजन शायद किसी और नजरिए से होगा, अब स्त्री शायद डेस्डीमोना  को गढ़ेगी, अब डेस्डीमोना  कहानियों में चरित्र की बलि न चढ़ेगी, विदा डेस्डीमोना”
सामने के घर में हलचल होने लगी थी, और सूजी आँखों के साथ एक नई डेस्डीमोना  शायद जन्म लेने लगी थी, वह क्या करेगी? ये पता नहीं.................................।शायद जीना तो डेस्डीमोना  को खुद ही है, हाँ, कहानियों में जीने का जिम्मा मेरा है, पर खुद का जीवन जीना, ये तो हर डेस्डीमोना  पर ही निर्भर है। हाँ विदा डेस्डीमोना, फिर मिलना कहीं किसी मोड़ पर,

वाद विवाद एवं किताब



7 जनवरी से लेकर 15 जनवरी, एक ऐसा समय जब सर्दी से सब कुछ ठिठुर रहा रहा, हर जगह जड़ता छाई थी वहीं नई दिल्ली में प्रगति मैदान में किताबों की ऊष्मता छा रही थी। अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला 2017 का आगाज़ हो गया था और पूरे देश के पुस्तक प्रेमी हांड कंपाती ठण्ड को मात देते हुए पूरे आठों दिन किताबों के नशे में डूबे रहे। देश के कोने कोने से प्रकाशक तो पुस्तक मेले में थे ही, विश्व के भी कई प्रकाशक इस मेले में थे। इस मेले में हर कोई अपने अपने लक्ष्यों के साथ थे, जहाँ प्रकाशक अपनी किताबों के लिए पाठकों की खोज में थे तो वहीं लेखक और पाठकों की अपनी चिंता थी। मेला शब्द अपने आप में ही आकर्षक है। मेले का मोह ही दूर दूर से लोगों को खींच ले आता है और यह तो फिर पुस्तक मेला था जहाँ पर आध्यात्म से लेकर विज्ञान तक, बच्चों से लेकर युवाओं तक सभी के लिए कुछ न कुछ था। जो आ रहा था वह कुछ लेकर ही जा रहा था। इन आठ दिनों में प्रकाशकों ने जमकर किताबें बेचीं। किसी भी प्रकाशक के चेहरे पर चिंता की रेखाएं इन आठ दिनों में कम दिखीं। चिंता की लकीरें अगर कहीं थीं तो शायद मौसम को लेकर कि क्या ठण्ड की परत तोड़कर लोग इस मेले में शिरकत कर पाएंगे? यही चिंता नए नए लेखकों की थी। कई ऐसे लोग थे जो पहली पहली बार इस मेले में आ रहे थे, तो कई अपनी पहली किताबों के साथ इस मेले में थे। कई मायनों में यह मेला अनूठा था, ख़ास था और अपने रंगों में रंगा था।
छोटे शहरों के लेखक और लेखिकाएँ अपने सपनों के साथ थीं तो विचारधारा के आधार पर तमाम पुस्तकों के स्टॉल थे। इस मेले में लेखक मंच पर तमाम वैचारिक कार्यक्रम थे, कई विमोचन थे। इस वर्ष विमोचन का एक और सिलसिला आरंभ हुआ जिसमें प्रकाशनों के स्टॉल पर ही पुस्तक विमोचन हुए। इसका एक मुख्य कारण लेखक मंच का बढ़ा हुआ किराया रहा होगा तो वहीं शायद लेखकों की संख्या में वृद्धि भी थी। ये लेखक बड़े प्रकाशकों से लेकर छोटे प्रकाशन की स्टॉल तक थे। जिस तरफ भी नज़र डालिए, पाठकों के साथ साथ ऐसे लेखक भी बहुतायत में उपलब्ध थे। कुछ लोगों के अनुसार मेले में ऐसे लेखक दयनीयता का लबादा ओढ़े थे, मगर इसे एक वृहद परिद्रश्य में देखें तो पाएंगे कि यह एक नई पहल थी। कई ऐसे स्टॉल थे जहाँ लेखक और पाठक के बीच दूरी बहुत कम हो गयी थी। लेखक संदीप देव की पुस्तक कहानी कम्युनिस्टों की, विमोचन से पहले ही मेले का हिस्सा बन गयी थी और संदीप देव से औटोग्राफ लेने वाले उनके कई प्रशंसक थे।
मेले की थीम इस बार राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने महिला रचनाकारों को समर्पित कर मानुषी रखी थी और इस वर्ष वाकई महिला रचनाकारों की धूम रही। फिर चाहे वह अल्पना मिश्रा रही हों, गीताश्री या मुजफ्फरपुर से आई अनीता सिंह। गीता पंडित रही हों या प्रीतपाल तेज कौर या फिर इरा टाक, कलाम की जीवनी लिखने वाली डॉ. रश्मि हों या रश्मि चतुर्वेदी, स्त्री रचनाशीलता की धमक इस पूरे मेले में रही। इस थीम के विषय में कहानीकार और पत्रकार गीताश्री का कहना है कि यह महिला रचनाधर्मिता को सम्मान प्रदान करता हुआ शीर्षक है। महिला लेखन को जो इतने बरस तक उपेक्षित किया गया है, और उन्हें उनके लिखे गए का कोई भी मोल नहीं मिला है यह जैसे उसी का प्रायश्चित है। यह महिला लेखन और लेखिकाओं की सार्थकता को स्थापित करने के लिए है। कुछ ऐसे ही विचार मुम्बई से आई कवियत्री चित्र देसाई के हैं। उनके अनुसार हालांकि लेखन लेखन केवल लेखन है उसे महिला और पुरुष लेखन में नहीं बांटा जाना चाहिए, फिर भी इतनी सारी स्त्रियों का लेखन में आना सुखद है। कहानीकार प्रीतपाल कौर ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मानुषी का अर्थ है स्त्री लेखन को अपनाया जाना। स्त्री लेखन को मुख्यधारा में लाना।
मेले में हिंदी साहित्य में जो सबसे नया प्रयोग हुआ वह था मातृभूमि बैनर के तले विभिन्न स्त्री रचनाकारों द्वारा एक उपन्यास “आईना झूठ नहीं बोलता” लिखना। यह अभिनव प्रयोग कहानीकार नीलिमा शर्मा, अंजू शर्मा, प्रियंका पांडे, संजना त्रिपाठी आदि स्त्री रचनाकारों ने किया। इस ऑनलाइन उपन्यास की हर कड़ी अलग अलग लेखिकाओं ने लिखी है और यह उपन्यास मातृभूमि के एप पर उपलब्ध है। 8 नवम्बर 2016 के नोट बदली के निर्णय के बाद कहा जा रहा था कि मेला सूना रहेगा। मगर पहले ही दिन उमड़ी भीड़ ने हर आशंका को दूर कर दिया। देखा जाए तो प्रकाशक पहले से ही पेटीएम के साथ आए थे और सेज जैसे बड़े प्रकाशकों ने हिंदी के हॉल में भी क्रेडिट कार्ड से पेमेंट की सुविधा प्रदान की। यह मेला एक डिजिटल मेला कहा जा सकता है क्योंकि इसमें जमकर पेटीएम का प्रयोग किया गया।
पेटीएम की कृपा कहें या धर्म के आधार पर अपनी जड़ों की तलाश में जाना, मेले में धार्मिक प्रकाशकों के हर स्टॉल पर न केवल पेटीएम दिखा बल्कि हर धार्मिक प्रकाशन पर लोगों का हुजूम भी नज़र आया। मानव जीवन की यह कैसी प्रवृत्ति है जो हर स्थान पर धर्म को खोजती है। संभवतया यह मात्र एक असुरक्षा की भावना है, फिर चाहे वह स्वयं के प्रति हो या धर्म के प्रति, एक प्रकार की असुरक्षा ने धर्म के हर स्टॉल को भीडभाड से परिपूर्ण रखा, फिर चाहे वह गीताप्रेस रहा हो या वेद और कुरआन को एक बताने वाले मुस्लिम स्टॉल। हॉल संख्या 12 और 12 ए में साहित्यिक पुस्तकों के स्टॉल के आसपास तमाम धार्मिक साहित्य बाहुल्य प्रकाशक थे। फ्री में बाइबिल देने वाले कई थे तो आखिर शिया क्या है, और हुसैन कौन हैं की छोटी छोटी पर्चियां भी आने जाने वालों के बैग का हिस्सा बन रही थीं। हम भारतीयों की मानसिकता ही शायद मुफ्तखोरी की होती है। मुफ्त के चक्कर में अपने अच्छे खासे घर को कूड़ा कचरा बना लेने वाले हम भारतीय मुफ्त में छद्म विचारधारा भी आयातित कर चुके हैं, मगर फिर भी मुफ्त बाइबिल का मोह कोई छोड़ न पा रहा था। इस बाइबिल के एकदम बगल में प्रतिलिपि.कॉम का स्टॉल था, जो हिंदी रचनाओं के लिए एक ऑनलाइन एप है। प्रतिलिपि।कॉम की संचालिका वीणा वत्सल सिंह ने बताया कि इस सप्ताह लगभग 20,000 से अधिक इंस्टोलेशन उनके एप के हो चुके हैं। धार्मिक साहित्य एक अद्भूत संसार रचते है। वे हर समस्या का समाधान प्रस्तुत करते प्रतीत होते हैं, जैसे मात्र दस रूपए में सत्यार्थ प्रकाश। गीताप्रेस पर छोटी छोटी दर्शन की पुस्तकें। गीताप्रेस पर इतनी भीड़ थी कि कोई व्यक्ति सहज पुस्तकों से इतर कोई सवाल नहीं पूछ सकता। मगर लेखक मंच के आसपास धार्मिक संस्थाओं के प्रकाशनों को छोटे छोटे स्टॉल दिए गए थे जिन्हें लेकर उन प्रकाशकों में नाराजगी भी दिखी। ये स्टॉल केवल देखने भर के ही छोटे थे, नज़दीक जाने पर इनमें सब कुछ था जैसे सनातन धर्म को कैसे बचाया जाए, कैसे संस्कार डाले जाएँ। धर्म की विलुप्ति की चिंता करते हुए सनातन संस्था के प्रणव का कहना था कि जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में हिन्दू धर्म पर जो आक्रमण हुए हैं, और जिस तरह से मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग केवल और केवल हिन्दू धर्म के पीछे पड़ा है, इसलिए हिन्दू धर्म को आज संगठित होने की आवश्यकता है।” थोड़े ही कदम आगे चलने पर कई इस्लामिक दुकाने भी थीं। अलकरीम, रिमाले नूर, अल्मावरीद दीन फाउन्डेशन आदि तमाम स्टॉल आँखों के सामने से गुजर गए। इन सभी स्टॉल पर काफी भीड़ थी। बच्चों को अपनी जड़ों की तरफ जोड़ने की कवायद इधर भी थी। एक मगर मजेदार बात यह भी है कि इस्लामिक इन्फॉर्मेशन सेंटर दिल्ली की तरफ से नारी और इस्लाम के बारे में भी स्पष्टीकरण दिया गया है और के5 ओवरसीज़ के छोटे से स्टॉल पर धर्म और तकनीक का शानदार समागम दिखाई दिया। कुरआन पढने के लिए पेन, सर्दियों और गर्मियों के समय के अनुसार नमाज के समय को तय करने वाली घड़ी, और अन्य गैजेट भी आपको इस कोने में मिले।
इसी के एकदम सामने राजीव गुप्ता की प्रधानमंत्री के मन की बात पर मन की बात झाँक रही थी। आने जाने वाले साहित्य संचय के स्टॉल पर रुक कर एक नज़र इस किताब पर डालकर आगे बढ़ रहे थे। युवा लेखक राजीव गुप्ता की इस किताब का विमोचन हालांकि पुस्तक मेले में 11 जनवरी को हुआ, परन्तु स्टॉल पर प्रधानमंत्री के मन की बात पर लिखी गयी यह किताब पहले ही पाठकों के मन में स्थान बना चुकी थी। लेखक राजीव गुप्ता की लिखी सभी छह किताबें साहित्य संचय के स्टॉल पर बेस्ट सेलर थी। और इन किताबों की बिक्री के कारण छोटे से कोने में सिमटे साहित्य संचय के मनोज कुमार के चेहरे पर संतुष्टि की मुस्कान देखी जा सकती थी। मनोज जी के अनुसार राजीव गुप्ता की सभी छह किताबें चूंकि भिन्न विषयों पर लिखी गईं हैं तो वे अपने आप ही पाठकों को अपनी तरफ खींचने में समर्थ हैं।
इस पुस्तक मेले में जहां एक तरफ विचारधारा की पुस्तकें थीं तो बच्चों के लिए भी बहुत कुछ था। बच्चों के लिए कई तरह के शिक्षाप्रद एवं मनोरंजन सामग्री से भरा था यह पुस्तक मेंला। शायद यही कारण था कि जब शीत लहर के कारण बच्चों के स्कूल बंद थे तब हर आयु वर्ग के बच्चों से यह पुस्तक मेला गुलज़ार रहा। कहा भी गया है कि किसी भी देश का भविष्य उसके बच्चों की आँखों में परिलक्षित होता है, पुस्तक मेले में आए बच्चों ने जिस तरह विज्ञान, भूगोल और उसके साथ ही साहित्यिक गतिविधियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उससे भारत के भविष्य के विषय में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए।
बच्चों के लिए हॉल संख्या 14 में विशेष स्टॉल थे, पवेलियन थी, उनके लिए कई तरह के नाटक एवं मंचों की व्यवस्था थी। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की तरफ से कई तरह की प्रतियोगिताओं के आयोजन का गवाह यह पुस्तक मेला बना।
पुस्तकें हों, साहित्य हो और विवाद न हों, यह असंभव है। यह पुस्तक मेला भी कई विवादों के लिए याद किया जाएगा। जिनमें कथित असहिष्णुता के खिलाफ आन्दोनल चलाने वाले साहित्यकारों के साथ की गयी उपेक्षा मुख्य थी। इस वर्ष राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की तरफ से आयोजित कार्यक्रमों में उन साहित्यकारों को पूर्णतया उपेक्षित कर दिया गया। इस वर्ष ऐसे लगभग सभी साहित्यकारों राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के सभी कार्यक्रमों से दूर ही रखा गया। वे बड़े बड़े साहित्यकार और समीक्षक जिनके आगे पीछे पिछले बरस तक कई लेखक और प्रशंसक चला करते थे, इस बरस मेले में जैसे अप्रासंगिक हो गए थे। अशोक वाजपेयी जैसे बड़े कवि भी मेले में चुपचाप से घुमते रहे। मगर यह सन्नाटा महिला लेखन में बिलकुल भी नहीं था। महिला लेखन में छोटे शहर की लेखिकाओं की भागीदारी रही। और भागीदारी भी साधारण न होकर धमाकेदार रही। बुलंदशहर से आई निर्देश निधि की पुस्तक झान्न्वादन का विमोचन वाणी प्रकाशन के बाहर वनिका प्रकाशन के स्टॉल में हुआ तो वहीं लक्ष्मी शर्मा के उपन्यास का विमोचन सामयिक प्रकाशन के स्टॉल पर। छोटे शहर की इन लेखिकाओं ने मानुषी थीम को सार्थक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लक्ष्मी शर्मा के उपन्यास को तो चित्रा मुद्गल ने इस पुस्तक मेले का सबसे अच्छा उपन्यास बताया। 14 जनवरी को सुबह हॉल संख्या 12 में लेखक मंच पर एक उसी तरह से भीडभाड वाला माहौल था जैसे आम तौर पर लेखक मंच का होता है, मगर यह आयोजन कुछ ख़ास था। इस कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण थीं सम्मानित होने वाली लेखिकाएँ। तीन लेखिकाएं, और तीनों ही छोटे शहर की। काव्य संग्रह “कसक बाकी है अभी” की रचनाकार अनिता सिंह मुजफ्फरपुर से हैं और लिखने का शौक रखती थीं। उनके काव्य संग्रह का विमोचन अकादमी के द्वारा कराया गया। इस विषय में जब हिन्दुस्तान भाषा अकादमी के अध्यक्ष सुधाकर सिंह से बात की तो उन्होंने कहा “हमें लगता है कि शहर से अधिक प्रतिभा छोटे शहरों में हैं। हमें लगता है कि वहां की स्त्रियाँ बहुत कुछ कहना चाहती हैं, मगर कह नहीं पातीं, बहुत कुछ लिखना चाहती हैं, मगर लिख नहीं पातीं। तो ऐसे में बहुत ही जरूरी हो जाता है कि हम उनकी प्रतिभाओं को सामने लाएं।” यश प्रकाशन से डॉ. केकी सिंह के काव्य संकलन का विमोचन भी यही बोलता है कि छोटे शहर की स्त्रियाँ अपनी रचनाओं के लिए एक बड़े आकाश की खोज में यहाँ आती हैं। यह मेला उन्हें वह जमीन देता है। यह मेला उन्हें उन लोगों से परिचित कराता है जिन्हें अभी तक वे केवल या तो फेसबुक पर या मेल के माध्यम  से जानती थीं। यह मेला इसी तरह आकाश देता रहे। यही केबीएस प्रकाशन से जुड़ी भावना शर्मा का भी कहना है कि छोटे शहर की लेखिकाओं की किताबें अब सहज स्वीकार्य हो रही हैं। वहीं डॉ. अनीता भी छोटे शहर के कारण होने वाले भेदभाव को एक सिरे से नकारती हैं। उनके अनुसार उन्हें छोटे शहर के होने के कारण कोई भी समस्या नहीं हुई। बकौल डॉ. अनीता सिंह “छोटे शहर के कारण कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई। फ़ेसबुक एक विस्तृत ज़रिया है जो सारी सीमाओं को समाप्त कर देती है। किसी तरह के भेदभाव से अबतक तो पाला नही पड़ा। सबने मेरी हौसला अफजाई की है।“ पुस्तक मेले में अपनी पुस्तक लाने के विषय में लेखिकाओं का स्पष्ट मानना है कि दिल्ली में पुस्तक विमोचन का एक आकर्षण तो होता ही है। इस विषय में डॉ. अनीता सिंह का कहना था कि “जिसने किताबों को अपनी ज़िन्दगी बना ली हो उसके लिये बिलकुल उपयुक्त लगा अपनी पुस्तक का प्रकाशन पुस्तकों के मेले में हो।“ पुस्तक मेले में आई साहित्यिक हस्तियों के कारण उनकी पुस्तक न केवल चर्चित हो जाती है बल्कि लेखिकाओं को भी दिल्ली संस्कृति से परिचित होने का मौक़ा मिलता है। इस विषय में झान्न्वादन की लेखिका निर्देश निधि से बात की तो उनका कहना था कि पुस्तक मेले में विमोचन उनकी प्राथमिकता में नहीं था परन्तु जब उनकी पुस्तक तैयार हुई तो पुस्तक मेला नज़दीक था। बकौल निर्देश निधि पुस्तक मेले में विमोचन का आकर्षण तो है ही। आखिर आप दिल्ली राजधानी है और दिल्ली की साहित्यिक चर्चाओं का हिस्सा क्यों कोई न होना चाहेगा। जयपुर की इरा टाक का संग्रह रात पहेली तो भारत पुस्तक भंडार के बेस्ट सेलर में से रहा। इन लेखिकाओं का शहर जरूर छोटा था मगर सपने बड़े थे। और इन सपनों को देखते हुए मानुषी थीम एकदम ही उचित थी।
दिल्ली के लेखिकाओं में अल्पना मिश्रा, गीताश्री और गीतापंडित की किताबें इस मेले में आईं। गीताश्री का तीसरा कहानी संग्रह शिल्पायन प्रकाशन से तो गीता पंडित की कविताओं के संकलन शलभ प्रकाशन से आए। वहीं पत्रकार से साहित्य के क्षेत्र में आईं प्रीतपाल कौर का पहला कहानी संग्रह भारत पुस्तक भंडार से आया और काफी चर्चित भी रहा। भारत पुस्तक भंडार ने इस बार कहानियों के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग किया और बीस चुनिन्दा कहानीकारों की गौरतलब कहानियां के नाम से श्रंखला आरम्भ की है और पहली श्रंखला में सुभाष नीरव, तेजेंदर शर्मा, गीताश्री की कहानियों का प्रकाशन किया है।
इस पुस्तक मेले में नए लेखकों की किताबों की भी धूम रही और हिन्द युग्म पर दिव्य प्रकाश दुबे की मुसाफिर कैफे के सुधा और चंदर की मांग भी रही।

महिला लेखन के बाद अगर मेले में राष्ट्रवादी स्वर की बात की जाए तो यह कहा जा सकता है कि इस बरस लेखक मंच से लेकर पूरे पुस्तक मेले में राष्ट्रवादी स्वर बहुत मुखर रहा। मेले में पहली बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने कदम रखे। कई प्रकाशक ऐसे रहे जिन्होनें प्रभात प्रकाशन के राष्ट्रवादी प्रकाशन होने के एकाधिकार को चुनौती दी। ऐसे ही एक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सुरुचि प्रकाशन रहा। इस पुस्तक मेले में जैसे ही हॉल संख्या 12 में प्रवेश किया वैसे ही आपके स्वागत में सुरुचि प्रकाशन तत्पर था। सुरुचि प्रकाशन में बच्चों के लिए पचास से अधिक पुस्तकें थीं, संघ से जुड़े विचारकों की पुस्तकें थीं, तो वहीं सुरुचि प्रकाशन की तरफ से कई परिचर्चाओं का भी आयोजन कराया गया। सुरुचि प्रकाशन के द्वारा 12 जनवरी को राष्ट्रीय साहित्य एवं डिजिटल मीडिया विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया तो वहीं इसी अवसर पर सुरुचि प्रकाशन द्वारा 'कल्पवृक्ष' नामक पुस्तक का विमोचन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख ने किया। इस कार्यक्रम के अतिरिक्त कई अन्य कार्यक्रम भी ऐसे हुए जिन्होंने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मुखरता से बात की।
पुस्तक मेले के पहले ही दिन प्रवक्ता।कॉम के द्वारा 'इंटरनेट और हिंदी साहित्य' विषय पर आयोजित संगोष्ठी से हुई जिसमें इन्टरनेट और हिंदी साहित्य के विविध पहलुओं पर चर्चा हुई। इस चर्चा में कई जानी मानी हस्तियों ने विमर्श किया जिनमें कथाकार आकांक्षा पारे और अलका सिन्हा भी सम्मिलित थीं। इसके बाद मीडिया स्कैन  के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रवादी पत्रकार उमेश चतुर्वेदी की पुस्तक “अजमेर ब्लास्ट मीडिया कवरेज का मायाजाल” का विमोचन था। इस कार्यक्रम में राष्ट्रवादी पत्रकारिता के विविध आयामों एवं उसके मार्ग में आने वाली चुनौतियों के बारे में वक्ताओं ने विमर्श किया। इस कार्यक्रम का संचालन करते हुए पांचजन्य के सम्पादक हितेश शंकर ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता के बारे में कई सवाल उठाए जिनका उत्तर वहां उपस्थित वक्ताओं ने विस्तार पूर्वक दिया। कार्यक्रम में श्री नन्द कुमार ने वाम पक्षधरता पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि वामदलों रवैया निराशा जनक रहा है और उन्होंने संवाद करने में कोई रूचि नहीं दिखाई। पत्रकारिता का उद्देश्य समाज के लिए सकारात्मकता को बढ़ावा देना होना चाहिए। समाज के लिए पहली आंच झेलने वाला पत्रकार होना चाहिए। इस कार्यक्रम में ऑनलइन ट्रोलिंग के बारे में भी चर्चा हुई और इस बात पर भी विस्तार से विमर्श हुआ कि आखिर राष्ट्रवादी का मतलब गुनाहगार क्यों हो जाता है। राष्ट्रवाद का अर्थ भारत की समस्याओं और गरीबी को हाईलाईट करना होना चाहिए। इस कार्यक्रम में शिक्षा प्रणाली पर भी प्रश्न उठाए गए और इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि इतने वर्षों तक कथित सेकुलरिज्म के नाम पर गलत इतिहास पढ़ाया गया और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को आतंकवादी घोषित  किया गया। मीडिया की एकतरफा भूमिका पर भी प्रश्न उठाए गए और संविधान के खिलाफ बोलने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ठहराए जाने की प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की गयी। इस कार्यक्रम में भाजपा के मुरलीधर राव भी वक्ताओं में से एक थे।
दिनांक 14 जनवरी को दिल्ली पत्रकार संघ ने विश्व पुस्तक मेला में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के सहयोग से हाल नंबर-8 के साहित्य मंच पर विचारधारा और सृजनविषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया।

इस परिचर्चा में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति डा। एम एस परमार, एनयूजे (इंडिया) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. नंदकिशोर त्रिखा, वरिष्ठ टीवी पत्रकार और समीक्षक श्री अनन्त विजय, लोकसभा टीवी के संपादक श्री श्याम किशोर सहाय, प्रभात प्रकाशन के निदेशक श्री प्रभात कुमार, कवियत्री सुश्री चित्रा देसाई और कहानीकार, चित्रकार व फिल्मकार सुश्री इरा टाक ने हिस्सा लिया। विचारधारा के मामले में इरा टाक का मानना यही था कि सृजन में विचारधारा केवल मानवता की विचारधारा होनी चाहिए और इसमें कुछ भी दायाँ या बायाँ नहीं होना चाहिए। दाएं और बाएँ से बढ़कर केवल मानवता है तो वहीं चित्रा देसाई के अनुसार लेखन पर विचारधारा का कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, मगर दुर्भाग्य यह रहा है कि अभी तक एक ख़ास विचारधारा से जुड़े लोगों को ही आगे बढ़ाया गया है और बाकी लोगों की जानबूझकर उपेक्षा की गयी है। एक खास विचारधारा से जुड़े लेखकों, आलोचकों ने एक गोला खींच रखा है और उसी विचारधारा के लेखकों को प्रमाणपत्र दिए जाते हैं। इस कार्यक्रम में अनंत विजय ने कहा कि "किसी ख़ास विचारधारा के सृजन को सृजन के खांचे से बाहर रखकर नकारने की पुरानी प्रवृत्ति अब हाशिये पर जा रही है, वैचारिक छुआछूत ख़त्म हो रही है, साहित्य के मठाधीशों को पाठक ठेंगा दिखा रहे हैं"।
विचारों के इस सफर में उसी शाम हॉल संख्या 12 में शाम को दो वैचारिक कार्यक्रमों का शानदार आयोजन हुआ। शाम चार बजे लेखक मंच डिजिटल इण्डिया पर प्रबुद्ध जनों के विचारों का साक्षी बना। मौक़ा था प्रसिद्ध आर्थिक विचारक विराग गुप्ता की पुस्तक डिजिटल इण्डिया और भारत के विमोचन का। विराग गुप्ता की इस पुस्तक की प्रस्तावना प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार, दो शब्द सीएनबीसी की सम्पादक प्रियंका सभव, उर्मिलेशजी द्वारा तथा सम्पादकीय एनडीटीवी खबर के सम्पादक दयाशंकर मिश्र द्वारा लिखा गया है। पुस्तक के लोकार्पण में डा। वेद प्रताप वैदिक, श्री एन।के सिंह जी, उर्मिलेशजी (राज्यसभा टीवी), राहुल देव, श्री गोविन्दाचार्यजी, श्री प्रेम पाल शर्मा, मौलिक भारत संस्थापक अनुज अग्रवाल आदि अन्य गणमान्य लोग उपस्थित थे।  
अपनी इस पुस्तक में विराग गुप्ता ने डिजिटल इण्डिया अभियान पर सवाल उठाए हैं। हालांकि डिजिटल इण्डिया और कैशलेस प्रणाली आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है, मगर आधी अधूरी तैयारियों के साथ बड़ी से बड़ी योजना भी असफल हो सकती है या ये कहें कि जनमानस के लिए समस्याओं का सबब बन सकती है। इस पुस्तक में विराग गुप्ता के त्वरित लेखों का संकलन है। इस पुस्तक के विषय में बोलते हुए पुस्तक में सहयोगी रहे श्री दयाशंकर ने कहा कि इसमें समस्या नहीं बल्कि हल पर चर्चा की गयी है। इसमें नोट बंदी की चर्चा संदर्भों के साथ की गयी है। पुस्तक के विषय में बोलते हुए पत्रकार उर्मिलेश ने बधाई देते हुए कहा कि विराग गुप्ता को उन्होंने हाल के वर्षों में जाना है। विराग पैनी टिप्पणी करने वाले पत्रकार हैं। आजकल जहां बौद्धिक ईमानदारी लुप्त होती प्रतीत होती है वहीं विराग गुप्ता में जनता के हित के प्रति तरफदारी दिखाई देती है। विराग गुप्ता की प्रशंसा करते हुए उर्मिलेश ने उन्हें बहुत योग्य बताया और उन्हें विरले लोगोंमें से एक बताया। उर्मिलेश के अनुसार वे विराग गुप्ता के कई लेख पढ़ चुके हैं और उन्होंने इस पुस्तक को पढने की अपील कि क्योंकि इस पुस्तक में डिजिटल इण्डिया अभियान के बारे में कई सवाल हैं।
इस पुस्तक के विषय का स्वागत करते हुए सुप्रसिद्ध पत्रकार एनके सिंह ने कहा कि विराग गुप्ता बहुत ही उत्सव धर्मी हैं और वे बहुत ही समीचीन लिखते हैं। यह पुस्तक बहुत ही प्रासंगिक पुस्तक है जिसे सरकार के साथ साथ आम लोगों को भी पढ़ना चाहिए। यह पुस्तक तमाम तरह के सवाल उठाती है।
इस पुस्तक के विषय में प्रसिद्ध राष्ट्रवादी विचारक श्री गोविन्दाचार्य ने कहा कि इसे सिविलाइजेशन मुद्दे से देखना चाहिए। उन्होंने सरकार के इस कदम पर सवाल उठाते हुए कहा कि भारत को विदेशी नक़ल बनने के स्थान पर अपनी जमीन पर ही बने रहने के लिए नई लड़ाई की आवश्यकता है।  इस पुस्तक में चुनौतियां और उपाय हैं। उन्होंने लोगों से इस पुस्तक को पढने की अपील की।
पुस्तक के लोकार्पण के मुख्य अतिथि श्री वेद प्रताप वैदिक ने विराग गुप्ता को पुस्तक की बधाई देते हुए कहा कि यह देखकर बहुत ही खुशी होती है कि देश में कुछ युवा ऐसे हैं जो ईमानदारी से लिखते हैं। श्री वैदिक ने सरकार के इस कदम को बेहद ही बचकाना और अपरिपक्व बताते हुए कहा कि डिजिटल इण्डिया और नोटबंदी एकदम बचकानी हरकतें हैं। न तो सरकार ने इस विषय में कोई शोध ही किया और न ही कोई होमवर्क। और विराग गुप्ता की यह पुस्तक केवल त्वरित टिप्पणियों का संकलन है। विराग जी गागर में सागर भरते हैं। तर्क देते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं, और इनकी पद्धति तर्क सम्मत है। विराग गुप्ता के लेखन के विषय में बोलते हुए श्री वैदिक ने कहा कि विराग गुप्ता विराग भाग से लिखते हैं। वे अपने दिल से लिखते हैं, प्रशंसा के मोह से कोसों दूर। विराग गुप्ता की निष्पक्षता की प्रशंसा करते हुए कहा कि “कबीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर, न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर”
श्री वेद प्रकाश वैदिक ने विराग गुप्ता को उनके लेखन में इसी निष्पक्षता पर कायम रहने के लिए कहा। और साथ ही यह भी उम्मीद जताई कि जैसे जैसे विराग गुप्ता लिखते जाएंगे वैसे वैसे मंजते जाएंगे कार्यक्रम के अंत में विराग गुप्ता ने उपस्थित सभी अतिथियों एवं साथियों का आभार व्यक्त किया। मौलिक भारत संगठन ने इस अवसर पर विराग गुप्ता को शुभकामनाएं देते हुए उनके लेखन के प्रति अपना विश्वास व्यक्त किया।

इसी क्रम में पुस्तक मेले के अंतिम दिन पुस्तक मेले की सर्वाधिक चर्चित एवं बहु प्रतीक्षित पुस्तक कहानी कम्युनिस्टों की का विमोचन समारोह हुआ। इस पुस्तक के विषय में कई महीनों से सोशल मीडिया पर चर्चाएँ हो रही थीं। इस विषय में इस पुस्तक के लेखक संदीप देव का कहना है कि वे हमेशा ही एक उद्देश्य लेकर लिखते हैं और वे सच को सामने लाना चाहते हैं। वे इस छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा ओढ़े कथित बुद्धिजीवियों के चेहरे पर पड़ा मुखौटा हटाना चाहते हैं। उनकी लड़ाई सत्य की लड़ाई है जो वे काफी समय से लड़ते हुए आ रहे हैं। अपनी इस पुस्तक को लेकर संदीप देव भी खासे उत्साहित थे क्योंकि उन्हें भी यह पता है कि इस बार उनकी लड़ाई परदे के पीछे छिपकर वार करने वालों से है जो कभी धर्म निरपेक्षता तो कभी असहिष्णुता की आड़ लेकर छिप जाते हैं। संदीप देव कम्युनिस्टों द्वारा फैलाए गए हर झूठ से पर्दा उठाना चाहते हैं। वे षड्यंत्रों को परत दर परत उधेड़ने मेमन भरोसा करते हैं। संदीप देव से इस पुस्तक के उद्देश्य को लेकर सवाल किया तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे पत्रकारिता के मूल सिद्धांतो का पालन करते हुए सत्य का साथ देने के लिए कटिबद्ध हैं और उनकी प्रतिबद्धता केवल और केवल सत्य के साथ है। पुस्तक के लोकार्पण में मुख्य अतिथि थे -डॉ. सुब्रहमनियन स्वामी, सांसद, राज्यसभा विशिष्ठ अतिथि थे- श्री रामबहादुर राय, अध्यक्ष, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र व प्रमुख वक्ता थे- श्री अंशुमन तिवारी, संपादक, इंडिया टुडे। इस अवसर पर अनुज अग्रवाल एवं राजेश गोयल सहित मौलिक भारत के भी कई सदस्य उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में लेखक संदीप देव ने इस पुस्तक को लिखे जाने के उद्देश्य पर बात करते हुए कहा कि चूंकि कम्युनिस्टों के लिए भारत की अवधारणा एक देश के रूप में कभी भी नहीं रही थी, तो उनके लिए यह भारत तेरे टुकड़े होंगे नारे लगाना बहुत ही सहज है। संदीप देव के अनुसार उन्होंने यह पुस्तक शोध के बाद ही लिखी है तो यह लिखित में रिकोर्ड है कि 1972 तक वे भारत के 17 टुकड़े चाहते थे और यही कारण है कि वे बार बार कभी कश्मीर तो कभी मणिपुर को आज़ाद कराने की बात करते रहते हैं। पुस्तक की प्रासंगिकता पर बोलते हुए श्री राम बहादुर राय ने संदीप देव को बधाई देते हुए कहा कि यह पुस्तक बहुत ही प्रासंगिक है क्योंकि यह कई स तथ्यों पर से पर्दा उठाती है। श्री राय ने कम्युनिस्टों के बारे में याद करते हुए अपने बचपन के किस्से भी साझा किये कि किस प्रकार उन्हें नेताओं को सुनने का शौक था और वे अपने शहर से जीते हुए विधायक सरयू पाण्डेय के बहुत बड़े प्रशंसक थे। जब 1962 में चीन के साथ युद्ध हुआ तो हर पीढी के मन में आक्रोश था, वे लोग जुलूस निकालते थे, अपने देश को समर्थन देने के लिए और भी कई तरह के प्रदर्शन करते थे, मगर परशुराम राय के यहाँ इस दौरान सरयू पाण्डेय नहीं दिखाई दिए। चीनी हमले के बाद सभी वामपंथी जैसे भूमिगत हो गए थे, उन्होंने तो कभी माना ही नहीं कि चीन भारत पर हमला भी कर सकता है आज भी वे यही कहते हैं कि यह तो भारत ने चीन को उकसाया था। तो कम्युनिस्ट शुरू से ही भारत के विरोधी रहे हैं, वे एक राष्ट्र के रूप में भारत के विरोधी हैं। श्री राय ने यह भी कहा कि नेहरू का भी असली चेहरा इसी युद्ध के परिपेक्ष्य में समझ में आएगा। इस पुस्तक में नेहरु के विषय में बहुत ही तार्किकता से बताया गया है। नेहरू के सकारात्मक पक्ष को स्वीकारते हुए श्री राय ने यह भी स्पष्ट किया कि नेहरू का कम्युनिस्टों से प्रेम जग जाहिर है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि आयुध कारखानों में लिपस्टिक बना करती थीं, और यह 1962 के युद्ध में पता चला। पुस्तक पर चर्चा को आगे बढाते हुए अंशुमान से जब कम्युनिस्टों के द्वारा भारत की आर्थिक नीति पर सवाल किए गए तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि स्वतंत्र होने के समय भारत में सबसे अधिक उदारवादी नीति थी। नियंत्रण आधारित आर्थिक नीति हमेशा ही परिवारवाद को जन्म देती है। और चूंकि भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन में उद्योगपतियों ने खुलकर हर  संभव तरीके से योगदान दिया था और सरदार पटेल बाज़ार के खुलेपन की महत्ता को समझते थे तो उन्होंने सरकारी नियंत्रण से बाज़ार को दूर रखा। पुस्तक के बारे में संदीप देव को बधाई देते हुए उन्होंने कहा कि संदीप देव रेबेल जर्नलिस्ट हैं। भारतीय मेधा प्रश्नों से ही उपजती है और संदीप देव प्रश्न पूछने से हिचकते नहीं हैं। कम्युनिस्ट नीति ने किस तरह आर्थिक रूप से भारत को बर्बाद किया इस विषय में बोलते हुए अंशुमान ने कहा कि सरदार पटेल की मृत्यु तक भारत में निजी निवेश बहुत हुआ, डी-कंट्रोल था और उदारीकरण का दौर था। मगर सरदार पटेल की मृत्यु के उपरान्त ही नेहरू की आर्थिक नीति लागू होने लगी और सब कुछ क्लोज्ड अर्थव्यवस्था में बदल गया। सरदार पटेल के बाद अगर किसी ने बाज़ार को खोलने की बात की तो वे थे श्री लाल बहादुर शास्त्री। मगर 1966 के बाद नियंत्रणों का एक नया दौर चला, यह लाइसेंस राज का युग था। 1992 से 1997 तक सबसे उपयोगी समय था।
साम्यवाद ने किस तरह से समाज को प्रभावित किया, इस प्रश्न का उत्तर श्री राम बहादुर राय ने दिया कि आज़ादी की लड़ाई में कोंग्रेस का बहुत योगदान था। और वर्ष 1945 से ही नेताओं को लगने लगा था कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर चले जाएंगे तो गांधी जी बहुत ही चिंतित थे कि आखिर किस राह पर चला जाए। राष्ट्रीयता  के मार्ग पर या किस मार्ग पर! कोंग्रेस में ही दो धड़े थे एक तो पटेल और दूसरा रूस से प्रभावित नेहरू। पटेल धड़ा सेक्युलरिज्म की इस परिभाषा से सहमत नहीं था और नेहरू छद्म सेकुलरवाद से पीड़ित थे। सरदार पटेल की मृत्यु के उपरान्त कोंग्रेस पर पूरी तरह से नेहरू का कब्ज़ा हो गया और एक ही व्यक्ति की विचारधारा ने हमारी हर चीज़ को प्रभावित किया।
संदीप देव ने इस पुस्तक के बारे में बोलते हुए कहा कि इस देश में कम्युनिज्म का अंतरराष्ट्रीय जाल भी समझ आएगा। भारत की सीपीआई रूप से मान्यता प्राप्त है। और इन का स्पष्ट मानना है कि सशस्त्र क्रान्ति से ही सत्ता प्राप्त होती है। नेहरू ने रूस से लौटने के बाद वहां की जेल व्यवस्था की मुक्त कंठ से तारीफ की थी। रूस की थ्योरी का प्रस्ताव नेहरू ने पास कराया था और गांधी जी के विरोध करने पर उनके खादी प्रेम पर प्रश्न  उठाते हुए खादी का मजाक उड़ाया था।  कम्युनिस्टों के आर्थिक पहलुओं पर बात करते हुए एक बार फिर अंशुमान सिंह ने कहा चूंकि भारतीय दर्शन समृद्धि की अवधारणा पर आधारित है हमारे यहाँ न्यायशास्त्र में तब निजी संपत्ति को लेकर नियम बनाए गए जब और किसी सभ्यता का विकास भी नहीं हुआ था तो यह बहुत दुखद है कि हमारी व्यवस्था को आयातित व्यवस्था द्वारा संचालित किया जा रहा है। साम्यवादी चिंतन ने तो जैसे एक ही परिवार या एक ही कम्पनी के हाथ में पूरी संपत्ति सौंप दी है।  खुली अर्थव्यवस्था समृद्ध होने की दिशा में उठाया गया कदम है।
इस पुस्तक के विषय में बोलते हुए मुख्य अतिथि श्री सुब्रहमन्यम स्वामी ने कहा कि जिन लोगों को इतिहास में दिलचस्पी है उन्हें यह पुस्तक अवश्य ही पढनी चाहिए। लेनिन ने सोवियत संघ बनाने के लिए श्रम शक्ति को संगठित कर सत्ता कब्जाई। 1917 से 1990 तक कम्युनिस्ट शासन के दौरान ह्त्या, दमन शोषण का एक नया दौर चला था। फिर जैसे ही थोड़ी ढील दी गयी वैसे ही सोवियत संघ 16 देशों में विभाजित हो गया। कम्युनिस्टों की नीति है गरीबों को उकसाकर विद्रोह करवाना और उनकी आड़ में खुद शासन करना। स्वामी के अनुसार कम्युनिस्ट बौद्धिक युद्ध करते हैं, अधिकतर विश्वविद्यालयों में उनके ही प्रोफेसर नियुक्त रहते हैं अत: नीति निर्धारकों को यह विचारधारा जल्द ही अपने कब्ज़े में ले लेती है। श्री स्वामी ने नेहरू की शैक्षणिक योग्यता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए। और उन्होंने अपने साथ हुए अन्याय के बारे में भी बात की कि किस तरह राष्ट्र के बारे में बात करने पर उन्हें आईआईटी के प्रोफेसर पद से हटा दिया था।
अधिकतर हिंदूवादी नेताओं की हत्या बहुत हेई रहस्यमय तरीके से हुई फिर चाहे वह लाल बहादुर शास्त्री हों या एकात्म मानवतावाद की बात करने वाले श्री दीन दयाल उपाध्याय। कम्युनिस्ट आपातकाल के समर्थक थे मगर श्री स्वामी के अनुसार संजय गांधी के कारण वे इसके विरोध में हो गए थे। संजय गांधी की हत्या भी रहस्य है। श्री स्वामी ने ब्लू स्टार का भी विरोध किया था।
श्री स्वामी ने इस बात पर भी जोर दिया कि हालांकि कम्युनिस्टों ने हर तरह से प्रभावित किया मगर अब वे हर जगह से गायब हो चुके हैं और छद्म तरीके से युद्ध करते हैं। अब वे नए रूप में आए हैं, वे हिन्दू समाज पर कभी जाति तो कभी सेक्युलरिज्म के रूप में युद्ध कर रहे हैं। वे धर्म के आधार पर तोड़ रहे हैं, और हाल के दिनों में हुई  तमाम घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं। विदेशी पूंजी पर संचालित होने वाले गैर सरकारी संगठन भारत को तोड़ने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं, इस गैर सरकारी संगठन के समूह से भारत को खतरा है। और यह पुस्तक इसी खतरे से बचाने पर जोर देती है। देश की अखंडता के लिए बहुत आवश्यक है कि इस पुस्तक को खरीदा जाए और पढ़ा जाए।
कार्यक्रम के अंत में संदीप देव ने स्पष्ट किया कि यह अभी शुरुआत है और अभी और भी काम करना है। अंशुमान के अनुसार राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक कम्युनिस्ट अब सामाजिक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। राम बहादुर राय ने कहा कि यह वैचारिक संघर्ष है और हमारे पास हमारी परम्परा के रूप में आर्थिक विकल्प उपस्थित है। हमें अपनी जड़ों की तरफ आना होगा। श्री राम बहादुर राय ने संदीप देव द्वारा इस श्रंखला को जल्द पूरा किए जाने की उम्मीद जताई और साथ ही दस जनपथ से लोहा लेने वाले श्री सुब्रह्मण्यम स्वामी की भी भूरी भूरी प्रशंसा की।
राष्ट्रवादी स्वर की मुखरता जहां इस मेले में उभर कर आई तो वहीं कई ऐसे भी स्टॉल थे जो एक दूसरी ही रोशनी से जगमगा रहे थे। ये वे स्टॉल थे जिनके कन्धों पर इए देश का भविष्य तय करने का भार है। ये वे लोग हैं, जो प्रतिभाओं को तराशते हैं। ये वे हैं जो युवाओं के सपनों को पूरा करते हैं। पुस्तक मेले में साहित्यिक किताबों के बीच ऐसी ही जगमगाहट दो स्टॉल बिखेर रहे थे, उपकार प्रकाशन जिनकी प्रतियोगिता दर्पण आज भी प्रतियोगी परीक्षाओं में सबसे अधिक पढी जाती है और आईएएस की तैयारी कराने वाली संस्था दृष्टि। ये दोनों ही स्टॉल अपने आप में अनूठे थे। उपकार प्रकाशन इस बार विद्यार्थियों के लिए अपना एप भी लेकर आया था और उपकार प्रकाशन ने कस्टमाइज स्टेशनरी के क्षेत्र में भी कदम रखा है। वे स्टेशनरी को डिजिटल जगत से जोड़ रहे हैं। वे टैग व्हाइट नाम से एप लेकर आए हैं। इस विषय पर बात करते हुए उपकार प्रकाशन के महाप्रबंधक श्री अतुल कपूर ने कहा कि हम विद्यार्थियों को डिजिटल जगत से जोड़ना चाहते हैं। बाज़ार में जिस तरह से नए लोग आ रहे हैं, नए प्रकाशक आ रहे हैं क्या उन्हें इससे ख़तरा नहीं लगता तो उनका स्पष्ट मानना है कि प्रतियोगिता दर्पण ऐसा नाम है जिससे प्रतिस्पर्धियों को डरना चाहिए। हमें किसी से डर नहीं लगता। और साथ ही उन्होंने कहा कि वे टैग व्हाईट के अंतर्गत विद्यार्थियों के लिए कई और उत्पाद लेकर आएँगे। और कम से कम उनकी पुस्तकों को किसी भी तरह से बाज़ार से कोई खतरा नहीं है। और उनका यह भरोसा उपकार प्रकाशन पर युवाओं की भीड़ से परिलक्षित होता है। युवा प्रतियोगिता दर्पण पर आँखें मूँद कर भरोसा करता है।
इसी प्रकार शिल्पायन के स्टॉल के एकदम सामने द्रष्टि का स्टॉल था। उस स्टॉल पर नज़र जाते ही एक खास तरह की रोशनी और ख़ास तरह के सपने का आभास हो रहा था। द्रष्टि द विज़न के संस्थापक श्री विकास दिव्यकीर्ति के नाम की तरह उनका सफर भी बहुत रोचक और प्रेरणास्पद रहा है। विकास जी सिविल सेवा की नोकरी छोड़कर सिविल सेवाओं के लिए हिंदी साहित्य पढ़ाने के रूप में अपने करियर की शुरुआत सन् 1997 की। और बाद में उन्होंने दृष्टि - द विजन के नाम से अपने कोचिंग संस्थान की शुरुआत की। आज हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए दृष्टि देश के सर्वश्रेष्ठ कोचिंग संस्थानों में एक है। अब विकास जी ने प्रकाशन के क्षेत्र में भी कदम रखा है और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए 2 पत्रिकाएँ हर माह प्रकाशित करने के साथ साथ कम से कम दस पुस्तकों का प्रकाशन भी वे करा चुके हैं। हालांकि प्रकाशन की गति थोड़ी धीमी है, इस विषय में उनका कहना है कि चूंकि उनकी पुस्तकें एक लक्षित वर्ग के लिए हैं और वे पूरे शोध के उपरान्त ही लिखी जाती हैं। कभी कभी तो एक एक लेख में 15 दिन तक लग जाते हैं। यह पूछने पर कि क्या दृष्टि के पुस्तक मेले में आने से उनके व्यापार पर कोई फर्क पड़ा है तो इसका जबाव शीवेश मिश्रा से मिला कि उन्होंने यह स्टॉल ब्रांडिंग के लिए लगाया है। जाहिर है व्यापार भी एक उद्देश्य है मगर ब्रांडिंग यहाँ आने का मुख्य उद्देश्य है। सुबह के सूरज की तरह झिलमिलाते हुए दृष्टि के स्टॉल पर न केवल उनकी पत्रिकाओं के लिए युवा आ रहे थे बल्कि अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य की चिंता में हलकान हुए मातापिता भी आ रहे थे। दृष्टि इस देश को नई दृष्टि देने के लिए कृत संकल्प है।
दृष्टि में विकास जी से बात करते करते यह अहसास हुआ कि आज ही मेले का आख़िरी दिन है और आज मेला उजड़ जाएगा। प्रकाशक अपना सामान समेटने लगे थे। जो सात दिनों से बेटी के विवाह जैसी रौनक थी वह बेटी की विदाई जैसी हो रही थी। छोटे छोटे प्रकाशक मेले के अंतिम समय तक पाठकों के आने की आस में थे। फ्री बाइबिल देने वाले अपने बाइबिल का स्टॉक जांच रहे थे तो एक बार फिर से दस रूपए में सत्यार्थ प्रकाश की आवाज़ और तेज हो गयी। इन्हीं सबके बीच पंचकुला से आए आधार प्रकाशन पर देश निर्मोही कहते हैं कि उनके स्टॉल से कहानियों की पुस्तकों का पूरा का पूरा सेट बहुत बिका है।
15 जनवरी की शाम पांच बजे तक मेला उठने लगा था। किताबें जो पाठकों ने खरीदीं वह अपनी मंजिल पर पहुँच गईं थीं तो वहीं पाठकों की आस में कुछ किताबें बिनाबिके ही स्टोर की तरफ जा रही थी। बेटी विदा हो रही थे और जल्द ही मायके आने का आश्वासन अपने पीहर की देहरी को दे रही थी।  मेले का उजड़ना बहुत ही रुला देता है, हम भारतीय बहुत ही उत्सवधर्मी हैं, पुस्तकों के साथ हमारे प्रेम की यह उत्सव धर्मिता इसी तरह आने वाले हर पुस्तक मेले में रहे। पुस्तक मेला तो चला गया मगर मानुषी, असहिष्णुता, डिजिटल इण्डिया और कम्युनिस्टों की कहानी जैसे कई शब्द देकर चला गया जिन पर आने वाले समय में न केवल चर्चा बल्कि विवाद भी हो सकते हैं। पंछी का साँझ ढले अपने घर जाना ही उचित है। पुस्तक मेले से इस सात दिनों के सफर का 15 जनवरी को अंत हो गया, लोकार्पण, चर्चा और राष्ट्रवाद। पुस्तकों के इस कुम्भ से कई लोग ज्ञान लेकर गए तो कई इस आस में गए कि अगली बार कुम्भ में लेखक के रूप में वे भी स्नान करेंगे

सोनाली मिश्रा

नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...