मंगलवार, 9 जुलाई 2019

रीमैरिज




रोज़ की ही तरह सूरज निकल रहा था, रोज़ की तरह ही बगीचे में चिड़ियों का आना शुरू हो गया था, और रोज़ की ही तरह एक बार फिर से रोहित अपनी पत्नी अणु को चाय की पुकार लगाने जा रहा था. कैसे लोग अपनी आदतों के गुलाम होते हैं, और जो आदतों में रिश्ते भी आ जाते हैं, प्रेम है या नहीं यह नहीं पता! इस आदत के चलते ही रोहित रोज़ सुबह सुबह अपने पत्नी को आवाज़ लगाता था.
‘अनु अनु।‘ चेहरे पर हल्‍की सी धूप आने पर रोहित कुनमुनाया और उसने बिस्‍तर से ही अनु को आवाज लगाई। “अनु कहाँ हो भई! देखो यहाँ सिर पर सूरज चढ़ आया है और तुम्हारी चाय का भी अता पता नहीं है!” वह चिडचिडा रहा था. ‘उफ यह अनु भी, किसी काम की नहीं है। यहां पूरे सात बजने वाले हैं, और मैडम ने अब तक चाय ही नही दी है। अनु भई, दे भी दो चाय, तो उठा जाए।‘ रोहित ने चादर से मुंह को ढाक लिया और चाय का इंतजार करने लगा। मगर कभी कभी छोटी छोटी चीजों का इंतजार भी कितना लंबा हो जाता है जो हमारे लिए चुटकी बजाने जितना सरल होता है। और यह चुटकी कभी कभी बजती ही नहीं,
यह अनु भी न।‘ दस मिनट तक चाय नही आने पर रोहित एक बार फिर से झल्‍ला गया और गुस्‍से में उसने अपनी चादर हटाई और बिस्‍तर से उठा। जैसे ही उसने अपने पैर नीचे रखे, उसके पैरो से उसकी चप्‍पलें टकरा गईं। अनु हर चीज को जगह पर ही रखती है। रोहित की नजर बाथरूम की तरफ गई, नहीं अनु की लाल चप्‍पलें वहां नहीं थीं। इसका मतलब था कि वह बाथरूम  में नहीं थी, नहीं तो उसकी लाल चप्‍पलें बाहर होतीं और बाथरूम स्‍लीपर अंदर, मगर ऐसा नहीं था। उसने चप्‍पलों में पैर डाला और कमरे से बाहर आ गया। रसोई में इंडक्‍शन पर चाय का बर्तन चढ़ा था। रोहित ने उस पर ढकी प्‍लेट को हटा कर देखा, अदरख वाली चाय की तेज गंध उसकी नाक में समा गई। अब उसे अनु पर और भी गुस्‍सा आ रहा था। आखिर है कहां वह। उसने चाय छानी और चाय का कप लेते हुए बाहर की तरफ बढ़ा, क्‍या पता वह पूजा के लिए फूल लेने गई हो। उसने बगीचा भी तो अच्‍छा खासा लगा रखा है, न जाने कितने और किस तरह के फूल लगा उसने अपने दोस्‍त बना रखे हैं। रोहित बाहर तो आया मगर उसे अनु का पता नही चला। पौधो की मिट्टी गीली थी, शाम को जो पानी अनु ने इनमें डाला था, उसकी नमी अभी तक थी। अनु, अनु’ फिर से रोहित ने आवाज लगाई। मगर बाहर भी कोई नही था।
‘हद है लपरवाही की। अगर जाना था तो बताकर जाती। ये लड़कियां ऐसी ही होती हैं, गैर जिम्‍मेदार।‘ रोहित भुनभुनाता जा रहा था, ‘बस फूल पत्‍तियों की परवाह करवा लो, मजाल है कि काम धाम कर लें। मां ने भी न जाने कैसी लड़की से शादी करा दी है।‘ रोहित ने चाय का प्‍याला सिंक पर रखा तेजी से तीसरे कमरे की तरफ बढ़ने लगा। उसने एक अजीब से डर से दरवाजा खोला। कमरे में बेड पर करीने से चादर बिछी हुई थी। यहां पर भी अनु नहीं थी। उसके गुस्‍से की जगह अब खीज ने ले ली थी। तभी उसकी नजर इस बिस्‍तर के किनारे पर रखी मेज पर रखे हुए कागज के टुकडे पर गई, जो बिना हवा के भी फड़फड़ा सा रहा था, जैसे कि कह रहा हो कि मुझे उठाते क्‍यो नहीं। रोहित ने कांपते हाथों से उसे उठाया, अनु का ही था। उसमें लिखा था ‘मैं जा रही हूं।‘
बस यह चार शब्‍द। रोहित ने कागज को उलट पुलट कर देखा, वहां और कुछ नहीं था। उसका मोबाइल भी वहीं रखा था। अनु के नाम पर कागज का यह टुकड़ा उसके हाथ में था, और उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था।
तूफान आता तो एक ही पल के लिए है, पर वह सब कुछ तहस नहस कर जाता है और हम लोग उस विनाश के बीच खड़े रहते हैं चुपचाप। रोहित भी उन चार शब्‍दो में आए तूफान के बीच खड़ा था और उसके पास थे सवाल।
‘अनु क्‍यो और कहां चली गई हो।‘ अचानक से उसे एक धक्‍का लगा। कहां तो पता नहीं, पर क्‍यों, कारण तो उसे पता ही है न।
अनु के लिखे वह चार शब्‍द उसे अतीत की गलियों में वापस खींचे जा रहे थे। ऑफिस न आने का मैसेज कर वह बिस्‍तर पर ही बैठ गया। उस दिन भी तो आराम से घर आकर बैठा ही था कि मां का फोन आ गया था।
‘बेटा तुम्‍हारे लिए लड़की देख ली है, अब फोटो तुम्‍हें फोन पर भेज रहे है तुम्‍हारे पापा। तुम ओके करो, तो हम लोग बात आगे करें।‘
‘तुम भी न अम्‍मा, हर समय एक ही बात। अभी नहीं करनी है मुझे शादी।‘ वह झुंझला गया था।
‘देखो बेटा अब तुम 33 बरस के हो गए हो। अभी जो रिश्‍ते आ रहे हैं वह अब आगे आएंगे या नहीं, कह नहीं सकते। और अगर तुम्‍हारे मन में कोई हो तो तुम बता दो, हम दोनों खुद चलेंगे बात करने।‘ मां बोलती जा रही थी और रोहित सुनता जा रहा था, जैसे वह खड़ा हुआ है और बगल से एक तेज स्‍पीड में रेलगाड़ी गुजर रही है, उसके कानों को सुन्‍न करती हुर्ई।
‘मां, आप लोग भी न। चैन से जीने नहीं देते। ठीक है जो मन है करो, जब बुलाना तब आ जाऊंगा।‘ कहकर रोहित ने फोन रख दिया था और अपने मन की पसंद की बात आते ही एक चेहरा उसके दिल और दिमाग दोनों में कौंध गया था। ओह मनीषा। इतनी जल्‍दी क्‍या थी जाने की, अब हम साथ रह सकते थे। मनीषा, उसका प्‍यार। कॉलेज से लेकर इस नौकरी तक उसका साथ। जब वह एमबीए करने आया था तभी वह मनीषा से मिला था। कब वह साधारण सी लडकी उसकी जिंदगी में आ गई थी उसे पता नही चला था। नोट्स लेने से यह सिलसिला शुरू हुआ था और बहुत ही जल्‍द वह दोनों कॉलेज की कैंटीन से लेकर बाहर घूमने तक साथ थे। कॉलेज के खत्‍म होने के बाद दोनों ने अपने अपने घरो में बात करने का मन भी बना लिया था। पर मनीषा ने उससे कहा था कि एक दो साल नौकरी कर लेते हैं, बाद मे बता देंगे। और मान गया था रोहित उसकी बात। रोहित और मनीषा को नौकरी करते हुए अब दो साल हो गए थे और धीरे धीरे उन दोनों की पसंद से इकट्ठा होने लगा था उनके घर का सामान। दोनो ने जल्‍द ही अपने अपने घरों में बात करने का फैसला कर लिया था। उम्‍मीदों के सूरज का स्‍वागत करने के लिए उस दिन भी दोनों एक साथ अपनी फैवरेट आइसक्रीम खाकर निकले थे।
रोहित के हाथों में मनीषा का हाथ था, वह हाथ जो उसके साथ हमेशा रहने वाला था, वह हाथ जो वह जन्‍म जन्‍मांतर के लिए थाम लेगा। उस रात कोहरा बहुत था, दोनों ने ही अपनी अपनी हथेली में एक दूसरे को लिख लिया था।
पर तकदीर के पांव बहुत तेज होते हैं, इंसान से ज्‍यादा। वह दो कदम चलता है तो तकदीर चार। ऐसे ही चार कदम धरती हुई तकदीर एक ट्रक की शक्‍ल में आई, जो कोहरे में बैंलेस खो चुका था और बस एक ही पल, और सब कुछ लाल लाल। मनीषा ने उसे तो बचाने के लिए एक तरफ धक्‍का दे दिया था, पर खुद को तकदीर की चपेट में आने से नहीं बचा पाई। रोहित को होश आया तो उसके हाथ में कुछ भी नहीं बचा था। बस याद था तो मनीषा की बंद होती आंखों का दर्द। काश वह उस दिन नहीं गया होता, काश कि मनीषा को अपने घर पर उस नए टीवी को दिखाने के बहाने रोक लेता जो वह अपनी शादी के बाद साथ देखने के लिए लाया था, काश कि वह मनीषा से कहता कि चलो आज घर पर ही रहते हैं। पर यह सारे काश थे, और रोहित के दुख को और बढ़ाते थे।
‘रोहित तुम शादी कर लेना और प्लीज खुश रहना।‘ मनीषा ने उससे यह आईसीयू में कहा था।
‘मनीषा, इतनी बड़ी सजा मत दो मुझे। पहले ही मेरे लिए तुमने अपना यह हाल कर दिया है’ रोहित फफक पड़ा था।
‘मुझे तो जाना ही था रोहित। याद है तुम मेरी हथेली देखकर कहा करते थे कि यार तुम्‍हारी लाइफ लाइन तो बहुत छोटी है, तो मैं कहा करती थी कि तुम मिल कर इसे बड़ा कर देना।‘ मनीषा के मुंह से बहुत ही मुश्‍किल से निकले यह शब्‍द रोहित को और रूला रहे थे। वह मनीषा के हाथो को थाम कर न जाने कितनी ही देर तक वहां खडा रहा था, जब तक डॉ0 ने आकर नही कह दिया कि अब वह मनीषा को ले जा सकते हैं।
वह मनीषा को इस तरह विदा नहीं कर सकता। और इस तरह उसे अधूरा कर मनीषा चली गई थी। एक ऐसे सफर पर जहां वह चाह कर भी नहीं जा सकता था क्‍योंकि जाते जाते वह वादा लेकर गई थी कि वह जिंदगी जिएगा।  
मनीषा तो चली गई थी, पर वह टूट गया था, जब मन होता तो घर आता, जब मन होता तो खाना खाता। जो सामान मनीषा के मन से खरीदा था उन सब पर उसने कपड़ा डाल कर रख दिया था। मां और पापा जब जब शादी की बात करते, वह उखड़ जाता, और ऐसे ही इस दर्द मे जलते हुए दो साल बीत गए थे।
कहते हैं समय सारे घाव भर देता है, पर रोहित का घाव तो समय के साथ और भी गहरा होता जा रहा था। उसमें शादी की बार बार बात नमक छिड़क रही थी। पर जैसा मनीषा ने कहा था कि प्‍लीज शादी कर लेना।, रोहित को बार बार मनीषा सपने मे आती और उसके साथ ही मां के फोन भी ज्‍यादा आने लगे।
अंत में थक हार कर उसने हां कर दी और बिना फोटो देखे ही उसने अनु के लिए हां कर दी थी। प्‍यार का बोझ बहुत भारी होता है, रोहित ने जब अनु के लिए हां की थी तो उसकी टीस महसूस की थी, अनु के साथ फेरे लेते हुए उसे लगा था जैसे मनीषा उसके आसपास ही थी। वह फेरे ले रहा था, और उसकी आंखें गीली थीं, उस गीले पन में स्‍वाहा हो रहा था बहुत कुछ।

सपना किसी और ने देखा हो और पांव किसी और ने धरे हो उसमें तो कहीं कुछ दरक जाता है, समझ नहीं आता कि दर्द क्‍यों और कहां हो रहा है। ऐसे ही रोहित ने जब अनु के गले में मंगलसूत्र पहनाया तो उसे अपनी हथेली में मनीषा की हथेली की वह गर्माहट याद आ गई जब उस शाम उसके लिए मंगलसूत्र लाया था। गुलाबी कागज में लिपटे हुए मगलसूत्र को मनीषा ने एकदम से झपट लिया था और फिर एकटक देखते हुए रोहित की हथेली में ही थमा दिया था।
‘समय आने पर अपने आप पहनाना।‘
‘क्‍या कर रहे हो बेटा, जल्‍दी पहनाओ।‘ और मां की आवाज आते ही उसने अपनी हथेली के गुलाबी कागज में बंधे हुए मंगलसूत्र को अनु के हवाले कर दिया था। देखा भी नहीं कि वह सही से सेट हुआ है या नहीं, उसने बस एक गांठ लगा दी थी। मां ने उसका यह अनमनापन देखकर मंगलसूत्र की गांठ सही से बांध दी थी और कहा था
‘बेटा, यह जीवन भर की गांठ होती है।‘ रोहित को लगा जैसे मां इशारे इशारे में कुछ कह रही हैं, पर वह उस समय कुछ भी सुनने और कहने की हालत में नहीं था। उसे लगा जैसे वह एक रोबेाट है और जो जैसे जैसे कह रहा है, वह करता जा रहा है। उसने अपने आप कुछ भी सोचना समझना बंद कर दिया था। वह एक लड़ाई लड़ रहा था, अगर मनीषा उसे नहीं बचाती तो आज मनीषा जिंदा होती और वह शादी कर रही होती। वह मनीषा का कर्जदार है, इसमें अनु कहां फिट होगी। उसने एक उड़ती उड़ती सी नजर लाल रंग की एक गठरी नुमा लड़की पर डाली। ठीक ठाक ही लग रही थी। लाल रंग की चुनरी पीली साड़ी पर डालकर वह पंडित जी के कहे अनुसार कभी अपना बिछुआ दबवा रही थी तो कभी आल्‍ता लगवा रही थी। उसका सांवला चेहरा सिंदूर और बिंदी के बाद अलग ही लगने लगा था। मेंहंदी लगे हाथ उसने अपने घुटने पर रखे हुए थे। रोहित ने बहुत जोर लगाया कि अनु का चेहरा उसके दिमाग में रजिस्‍टर हो जाए, पर वह ऐसा कर नहीं पाया था और दिल और दिमाग से पूरी तरह से अनजान अनु को अपने घर ले आया था।
वह घर जिसे वह मनीषा की अमानत समझता था। अनु के घर से आया हुआ सारा सामान मां और पापा के पास ही छोड़ आया था।
‘सब कुछ खरीद कर रखा है मां, आप लोगों ने देखा ही है, फिर यह सब लेने की क्‍या जरूरत थी।‘ रोहित ने सामने रखे हुए सामान की तरफ देखते हुए कहा था।
‘अब बेटा हमने तो पहले ही मना कर दिया था, यह सब उन्‍होनें भेज दिया।‘  पापा ने उसे समझाते हुए कहा था।
‘ठीक है तो फिर रखिए खुद के पास ही। बस इसे भेज दीजिए मेरे साथ।‘ और  कहते हुए बस एक ही सप्‍ताह में अनु उसके साथ इस घर में थी।
मनीषा सही कहती थी कि जरूरी नहीं कि हम जो सोचे वही हो, बल्‍कि जरूरी यह है कि जो हो रहा है उसे अपना लें। वह इस सही और जरूरी के बीच फंसा हुआ एक नशे मे चलता हुआ अनु को घर ले आया था। समय ने उसके घर मे आल्‍ता का लाल रंग तो ला दिया था पर किसका लाल रंग था यह। रोहित को लगा जैसे मनीषा के जिस्‍म से निकला हुआ खून उसके घर की देहरी पर पसर गया है।
जिंदंगी हर कदम एक नई जंग होती है, हम रोज खुद से लड़ते हैं कभी अपने लिए, कभी अपने सपने के लिए, मगर कभी कभी एक अजीब जंग होती है, जिसमें हम किससे और किसलिए लडते हैं पता नहीं। ऐसा ही रोहित के साथ हुआ। मनीषा के साथ जो सामान उसने खरीदा था, उसमें वह मनीषा को ही देखता था। मनीषा के साथ देखे गए सपनों के पूरा न होने का जो गुस्‍सा उसके भीतर था वह जाने अनजाने मनीषा पर उतरने लगा। उसके हाथों की मेहंदी सूखी भी न थी कि उसके सपनों का सूखना शुरू हो गया था।
जैसे ही वह दीवार पर लगे हुए टीवी को देखने के लिए रिमोट उठाती, रोहित को कुछ हो जाता। एक दिन उसने ऊंची आवाज में कह ही दिया था
‘कभी अपने मायके में देखा है इतना बड़ा टीवी, अभी कुछ हो गया तो।‘ और रिमोट उसके हाथ से लेकर ऐसे सहलाने लगा था जैसे अनु ने उसे छूकर कोई अपराध कर दिया हो।
अनु जैसे ही घर की कोई चीज छूने की कोशिश करती वैसे ही रोहित उस पर चीखने लगता
‘लाख बार समझाया है कि मंहंगी चीजों से दूर रहा करो, मगर तुम्‍हारी अक्‍ल में कुछ आता ही नहीं है।‘ अनु की मोटी मोटी आंखों में आसूं   आ जाते। वह रोहित से कुछ पूछ भी नहीं पाती।
अनु के सामने सवालों के पहाड़ थे। उसे यह महसूस होने लगा था कि यह घर उसका होकर भी उसका नहीं है। वह कहने के लिए इस घर में ब्‍याह कर आ गई है पर वह इस घर का उतना ही हिस्‍सा है जितना रोहित चाहता है। उसे लगने लगा था कि वह उधारी के घर पर है। जैसे वह उतरन वाले घर मे है।
उतरन और वह भी सपनों की उतरन, सच पहना नहीं जाता उस उतरन को। और रोहित न चाहते हुए भी अनु को यह अहसास बार बार कराता था कि यह घर उसका नहीं है, यह टीवी, यह कमरा और यहां तक कि कमरे का बिस्‍तर भी किसी की झूठन में उसे मिला है। ऐसा नही था कि रोहित को यह अहसास नही था कि वह गलत कर रहा था, पर रोहित क्‍या करता, वह मनीषा को भुला नहीं पा रहा था और उसे बार बार लगता कि अनु के साथ समय बिता कर वह मनीषा के साथ सही नही कर रहा।
ऐसे में अनु के लिए यह दूसरा कमरा ही सुकून देने वाला होता था। वह अक्‍सर रात यहीं बिताया करती, तमाम सवालों के साथ। कई ऐसे सवाल जिनके जबाव उसके पास नहीं थे, पर उसे जल्‍द ही पता लगाने थे।
कई बार सवाल भी तहों में होते हैं और जबाव भी। गलत कोई नहीं होता, पर लोगों के साथ गलत जरूर होता है। रोहित अपने आंसुओं को सुखाने में इतना खो गया था कि उसने अनु को ही रूला दिया। आंसू इधर भी थे और उधर भी। पर रास्‍ता खो गया था।
“आपने मुझसे शादी ही क्यों की थी?” एक दिन अनु ने पूछ ही लिया था.
रोहित ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था, इसलिए शायद उसके पास समय नहीं था या इस सवाल के लिए उसके पास समय हो ही नहीं सकता था. वह अनु के अस्तित्व को एकदम नकारना चाहता था, मगर अनु उसके अस्तित्व पर छाती जा रही थी. वह ऊपरी क्या भीतरी रूप से भी अनु पर निर्भर था, मगर कुछ था जो उसे अनु को स्वीकारने से रोक रहा था! वह कुछ क्या था, यही वह अनु को बता नहीं सकता था और अनु शायद समझ नहीं सकती होगी! मनीषा से जुड़ा हर सबूत उसने अपने घर से मिटा दिया था.
“सुबह सुबह क्या बेवकूफी वाली बात लेकर बैठ गयी हो अनु, मुझे ऑफिस जाना है!” वह अनु को लगभग झिड़कते हुए बोला!
“चले जाना, रोज़ ही जाते हो, और जब नहीं जाते हो तो कहीं और जाते हो! मेरे पास तुम रात के अलावा नहीं रहते, और रात में भी मन से मेरे साथ हो या नहीं, पता नहीं! पता नहीं क्या बडबडाते हो, मेरा नाम तो रात में भी नहीं होता है!” अनु ने उसे पर्स थमाते हुए कहा
“जो औरतें घर पर दिन भर रहती हैं, उनके दिमाग में यही कूड़ा भर जाता है!” वह झल्लाया
“ठीक है, कूड़ा बुहार दो!”
“तुम पगला गयी हो! अम्मा न जाने किसे पल्ले मढ़ दी हैं!” वह भुनभुनाता जा रहा था.
और इसी तरह वह ऑफिस चला गया.
उसके ऑफिस जाते ही अनु जैसे एक कटे पेड़ की तरह सोफे पर ढह गयी! वह इस शहर में अपना अस्तित्व खोजती तो क्या था? एक आलीशान घर की कथित रूप से मालकिन थी, जिसका सुबह से लेकर शाम तक काम करती, एक एक कोना साफ़ रखती, बर्तन धोती, कपड़े धोती और उसके साथ सोचती कि वह दर्द भी घुलकर बह जाए जो उसके साथ उसकी सुहागरात से पीछे है! रात को बत्ती बंद करने के बाद के अन्तरंग पलों में वह साथी भी सही से नहीं बन पाती है! वह बस एक निर्जीव सी देह है, जिस पर रोहित जो चाहता है जैसे कोई दर्द उसके भीतर है उसे निकालना चाहता है, अपना सारा दर्द उसके हवाले करता है और फिर वह तो सो जाता है, अनु जगती रहती है, अपने दर्द और रोहित के दर्द में! कई बार अपनी सास से बात करने की कोशिश की, मगर कुछ नहीं हुआ! उन्हें भी रोहित के इस बर्ताव से बहुत हैरानी हुई थी मगर उन्होंने अपनी बहुरिया को ही समझा दिया
“जे सब तो सादी में लगो रहत है बहुरिया! थोड़ो समझो!”
अपने मायके जा नहीं सकती थी, तो क्या करे? वह रोज़ गुत्थी सुलझाती रोज़ रात वह गुत्थी एक नया रूप लेकर सामने आ जाती!
रोहित उससे ऐसा व्यवहार क्यों करता है? उसके ऑफिस तक छानबीन कर ली, कोई दूसरी लड़की नहीं, कोई नशे की आदत नहीं! कभी कभार पीना, लड़कियों से सम्मानजनक रूप से बातें! तो फिर अब क्या था? क्यों था?
रोहित उसे दर्द देकर खुश क्यों महसूस करता था, यह हर रात वह सोचती! दर्द से दोहरी होकर हर रात जब वह उन क्षणों के बाद साड़ी पहनती तो उसका जी होता कि वह भाग जाए! मगर कहाँ? वह सोच नहीं पाती! कहाँ भागेगी? किस्मत से वह रोज़ दो दो हाथ लडती! और चार चार हाथ हारती! क्या कभी रोहित उसे दिल से अपना पाएगा? वह सोचती और फिर गुस्से में जाकर मिक्सर ग्राइंडर चला देती. अपने सारे दर्द को वह ऐसे शोर में डुबो देती जो किसी और को दर्द देकर पैदा होता!
दर्द में इंसान असहिष्णु हो जाता है, वह अपने दर्द को दूसरे पर डालकर खुश हो जाता है, रोहित यह अनु के साथ करता था और अनु निर्जीव वस्तुओं के साथ!
हथेली से रेत के सरकते ही पता चलता है कि हमारे हाथ में कुछ अपना था। अनु का लिखा कागज हाथ मे थामे खड़े रोहित को लग रहा था कि उसने क्‍या खोया। पिछले छह महीने से अनु ही तो थी इस घर में। उसके लिए चाय बनाने से लेकर रात के खाने के लिए उसका इंतजार करती हुई। उसके बिना कहे उसकी बात समझने वाली। मां से पूछ पूछ कर उसकी पसंद का खाना बनाने वाली, उसके तानों को बिना जबाव के सह जाने वाली।
परछाईं के जैसे ही वह इस घर में थी। मनीषा अगर इस घर की आत्‍मा थी तो अनु परछाईं। कैसे वह भूल गया, मनीषा को दिया गया वादा कि वह खुश रहेगा। अनु को उसने कितना दर्द दिया। पर वह गई कहां होगी, कहाँ हो अनु, प्लीज़ सामने आ जाओ! वह बार बार यही कह रहा था.
रोहित ने गाड़ी उठाई और मां पापा के घर की तरफ मोड़ दी। आज उसने सोच लिया था कि दर्द के जिस सैलाब में वह जल रहा है, उसे अपनी मां से कह देगा और कह देगा कि उसने मनीषा की आत्‍मा के साथ कोई अन्‍याय न हो, इस कारण अनु को दुख दिया। रोहित को पूरा भरोसा था कि मां उसकी बात जरूर मानेंगी और जैसे उन्‍होनें उस दिन मंगलसूत्र को टूटने से बचाया था वैसे ही उसका घर भी टूटने से बचा लेंगी। अनु को भी सब सच बता देगा, नहीं नहीं। अनु, प्‍लीज माफ कर दो।
वह मन ही मन अनु से माफी मांगता हुआ जा रहा था। उसे लग रहा था जैसे मनीषा की आत्‍मा को भी उसने दुखी कर दिया है। बस एक बार वह सबसे माफी मांग ले तो ही उसे चैन पड़ेगा।
दो घंटो में उसने दो सौ बार अनु से माफी मांगी होगी।
दस बजे जब वह मां  पापा के घर पहुंचा तो धूप बाहर तक पसर चुकी थी। पापा बिजली का बिल भरने के लिए बाहर जा रहे थे।
‘अरे रोहित हम तुम्‍हारा ही इंतजार कर रहे थे।‘ पापा ने उसे देखते ही कहा
‘मेरा। पर क्‍यों’ रोहित ने एक अजीब से डर के साथ पूछा
‘मुझे देर हो रही है, अपनी मां से पूछ लो, वह अंदर इंतजार कर रही है’  वह मंद मंद मुस्‍काते हुए चले गए।
रोहित अंदर गया तो मां रसोई के बाहर ही मिल गईं।
‘तो अब आ रहा है। तुमसे यह उम्मीद नहीं थी।‘ मां ने उसे देखते हुए कहा
‘मां मैं वह  आपको सब बताने ही वाला था  ‘ रोहित हकलाते हुए बोला
‘तूने बहू को ऐसी हालत में अकेले आने दिया, और वह भी बस से।‘ मां की बातों में खुशी के साथ उलाहना था
‘ऐसी हालत।‘ रोहित को समझ नहीं आया, वह और उलझ गया
‘हां, दो महीने हो गए हैं दिन चढ़े, तू बाप बनने वाला है और हम दादा दादी। और बहू ऐसी हालत में सुबह सुबह यहां आ गर्ई, लाख पूछने पर भी कारण नहीं बताया।‘ मां बोलती जा रही थी और रोहित को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था
रसोई के दरवाजे पर अनु खड़ी थी। रोहित के लिए चाय का प्‍याला लेकर।
रोहित की आंखों में आंसू थे, उसने जाकर अनु के हाथों से चाय का प्‍याला ले लिया और कहा ‘मां आज से तुम्‍हारी बहू को कोई शिकायत नहीं होगी।‘ रोहित ने देखा कि अनु के हाथो में मनीषा की डेथ रिपोर्ट थी।
रोहित ने उस रिपोर्ट को फाड़ना चाहा, पर अनु ने उसका हाथ पकड़ लिया, एकदम उसी तरह जैसे मनीषा पकड़ा करती थी अधिकार से। यह अधिकार कौन देता है! अनु की आँखें उससे बोल रही थीं “एक बार कहकर तो देखते! हम मनीषा की यादों को साथ याद करते, उसकी यादों पर साथ हँसते! बस इतना ही अपना माना था?”
बस प्रत्यक्ष कुछ बोल न सकी! माँ के मंदिर जाने के बाद रोहित आँखों में आंसू लेकर अनु के पास आया! आज उसे अनु कुछ अलग ही लग रही थी, आज उसे अनु अपनी कोई अमानत लग रही थी जिसे वह साधिकार लेने आया था!

“अनु मुझे माफ़ कर दो! मैंने तुम्हें इतने दुःख दिए! मगर यह सच है कि मैं तुम्हें दुःख नहीं देना चाहता था! मैं बस अपने दर्द से लड़ रहा था! आज तुम्हारे हाथों में मनीषा की डेथ रिपोर्ट देखकर हैरान हूँ!”
“वैसे तो अब कुछ कहने की जरूरत नहीं है रोहित, मगर यह सब आप पहले बता देते तो हम दोनों ही दर्द के उस समंदर में जाने से बच जाते जिसमें हम रोज़ गोते लगाते थे! क्या यह सही नहीं होता कि आप शादी से पहले ही यह बात मुझसे कहकर हलके हो जाते, अपना दर्द हल्का कर लेते?” अनु बोलती जा रही थी. बार बार उसके चेहरे के रंग बदलते, और बार बार वह दर्द का एक पन्ना खोलती
“तुम्हें पता रोहित, जब तुम मुझे छोटी छोटी उन बातों पर झिड़कते थे और उन चीज़ों को छूने नहीं देते थे जो मनीषा और तुमने मिलकर खरीदी थीं, तो मैं न जाने कितनी मौतें मरती थीं, तुम बार बार मेरे अस्तित्व को उस अस्तित्व से तुलना करते थे जो होकर भी नहीं था और मैं जो तुम्हारे सामने थी, वह अपने होने के लिए रोज़ लड़ाई कर रही थी!”
रोहित चुपचाप बैठा था. उसे लगा जैसे मनीषा भी उसे नाराज़ है, वह कह रही हो, “यह  तो मैंने नहीं चाहा था रोहित!, तुम्हारी खुशी चाही थी!”
रोहित की चाय खत्म हो चुकी थी! उसने आगे आकर अनु का हाथ थाम लिया!
“आज से सब पिछ्ला खत्म करते हैं अनु! मेरी सारी गलतियों को माफ़ कर अगर साथ चल सकती हो तो चलो! तुम्हारी कोख में जो आया है, वह तमाम उम्मीदें लेकर आया होगा, और मैं उसकी माँ को अब हर खुशी देना चाहता हूँ!”
“अगर आना न होता तो अपने मायके जाती, यहाँ न आती! एक दो दिन रूककर चलते हैं!”
रोहित ने आगे बढ़कर अनु को गले लगा लिया! इस स्पर्श में पीड़ा घुल घुलकर बह रही थी. यह जो स्पर्श था वह आज तक का सबसे अनछुआ स्पर्श था! दोनों ही रो रहे थे, दोनों ही हंस रहे थे!
अच्छा छोड़ो, जाओ नहा लो! गंध्या रहे हो!” अनु ने अधिकार भाव से छेड़ा, जैसे मनीषा छेड़ा करती थी! उसने अनु का हाथ दबाया और धीरे से कहा “आई लव यू!”
अधिकार और प्यार ने अपना चेहरा बदल लिया था।


मंगलवार, 18 जून 2019

सांस्कृतिक शब्दों का भाषांतरण




हर शब्द की अपनी एक ख़ास उत्पत्ति होती है और एक विशेष इतिहास होता है। जब भी हम किसी शब्द का प्रयोग करते हैं, वह कुछ विशेष अर्थ समेटे हुए होता है! किसी का छोटा अर्थ होता है तो किसी का विशिष्ट, परन्तु होता अवश्य है और यह अपने मूल से अपना स्वरुप प्राप्त करता है। हिंदी के अधिकाँश शब्दों ने अपना स्वरुप संस्कृत से प्राप्त किया है एवं संस्कृत ने संस्कृति से, संस्कार एवं सदियों से चलती आ रही परम्पराओं से! इसी प्रकार अंग्रेजी शब्द ने अपने समाज से, अपने धर्म से कुछ शब्द प्राप्त किए हैं, जिनमें उनकी संस्कृति, उनका सामाजिक आचरण झलकता है। जिस प्रकार भूमि के खनन के बाद अवशेष खोजे जाते हैं, उसी प्रकार शब्दों के अर्थों के खनन के उपरान्त हम उस शब्द ही नहीं बल्कि समाज की संस्कृति को जान पाते हैं। हिंदी के शब्दों की यदि हम बात करें तो लगभग हर शब्द विशिष्ट है और हर शब्द स्वयं एक संस्कार और एक संस्कृति को प्रस्तुत करता है, और यह कोई भारी भरकम शब्द न होकर बहुत ही छोटे एवं आम शब्द हैं एवं सहज प्रयोग में लाए जाते हैं जैसे छात्र, भिक्षा, भिक्षुक, विद्यार्थी, शिक्षक, विवाह, देश, राष्ट्र, धर्म, अनुवाद, श्रमण ब्राह्मण, आदि!
      इसी प्रकार हर शब्द के कुछ न कुछ पर्यायवाची होते हैं, और जिन्हें वाक्य में अर्थ के अनुसार प्रयोग किया जाता है। हर पर्याय का सन्दर्भगत अर्थ होता है जैसे जल! जब किसी धार्मिक कार्य के लिए प्रयोग करना होगा तब उसे जल कहा जाएगा! और कुछ शब्द संस्कृति गत होते है जैसे गंगा, राम, रावण, यशोदा आदि!
      यही स्थिति अंग्रेजी के शब्दों के साथ है। जैसे जैसे सभ्यता का विस्तार होता गया वैसे वैसे शब्द अपनी प्रासंगिकता के साथ विस्तार पाते गए!
      अब यदि बात करें इन अवधारणात्मक या सांस्कृतिक शब्दों के अनुवाद की तो यह बात तो निश्चित है कि समतुल्यता के सिद्धांत का पालन करते हुए, लगभग हर शब्द का निकटतम शब्द हम प्रयोग करते हैं एवं अनुवाद को सेतु के रूप में प्रयोग करते हुए स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में आते हैं। यदि हम अनुवाद और उसके अंग्रेजी पर्याय ट्रांसलेशन की ही बात करें तो पाएंगे कि अनुवाद को शायद ट्रांसलेशन नहीं कहा जा सकता है और ट्रांसलेशन के लिए भाषांतरण शब्द का प्रयोग ही करना उपयुक्त होगा। अनुवाद की यदि बात करें तो संस्कृत के कुछ कोशों में इसका अर्थ प्राप्तस्य पुन: कथनम या ज्ञातार्थस्य प्रतिपादनम् प्राप्त होता है। इसी प्रकार भारत में ज्ञान की मौखिक परम्परा रही है, अर्थात गुरु के द्वारा कहे गए वाक्यों को दोहराकर उसे कंठस्थ करने की। इसी प्रक्रिया को अनुवचन या अनुवाद कहा जाता था। अर्थात अनुवाद का अर्थ होता था कथन के ज्ञान को पुन: प्राप्त करना। इसमें एक भाषा से दूसरी भाषा में भाषांतरण का सन्दर्भ प्राप्त नहीं होता है। भ्रतर्हरी ने भी अनुवाद शब्द का अर्थ पुन: कथन के रूप में प्रदान किया है, अनुवृत्तिरनुवादो वा  जैमिनीय न्यायमाला में भी अनुवाद का ज्ञात का पुन:कथनके अर्थ में हैं।
      प्राचीन परिभाषाओं पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि अनुवाद का जो अर्थ हम अभी प्रयोग कर रहे हैं, वह मूल में था ही नहीं! ज्ञान को प्राप्त करने वाला शब्द कालान्तर में भाषांतरण में परिवर्तित हो गया। यही एक शब्द की यात्रा होती है। वह समय के साथ भिन्न अर्थ में प्रयोग होने लगता है। मेरे विचार से जब हम ट्रांसलेशन का हिंदी पर्याय खोजते हैं तो वह भाषान्तरण होना चाहिए, अनुवाद नहीं। जैसा कि कैटफोर्ड ने कहा है कि ट्रांसलेशन में समतुल्य शब्दों का प्रतिस्थापन किया जाना चाहिए। the replacement of textual material in one language (SL) by equivalent textual material in another language
      ट्रांसलेशन के लिए जो समतुल्य शब्द है वह अनुवाद न होकर भाषांतरण है जो आजकल हम देख रहे हैं। हो सकता है कि प्राचीन काल में जो धार्मिक रचनाएं होती थीं, वह कथन के ज्ञान को लेकर अपने  अनुसार रूप ग्रहण करती हों, इसलिए उन्हें अनुवाद की श्रेणी में रखा जाए! भारत में कथनों को पुन: दूसरे रूप में या समय के अनुसार कहने की एक लम्बी परम्परा रही है जैसे वेद, उपनिषद और उनकी टीकाएँ। रामायण और महाभारत के तो इतने रूप हैं कि जितने लेखक उतनी ही रामायण एवं उनके उतने ही राम! दक्षिण की रामायण का अपना एक स्वरुप है, तो पूर्व की रामायण का दूसरा! गुजराती रामायण एकदम भिन्न है, परन्तु स्रोत एक ही है! वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा लेकर उपजी नई नई रामायण! यदि अनुवाद की प्राचीन परिभाषाओं के अनुसार हम इन राम कथाओं को देखते हैं, तो यह पाते हैं कि उन्हें ही अनुवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है, न कि आज जो हम करते हैं उसे अनुवाद कहा जाए!
      अब यदि हम सांस्कृतिक शब्दों के भाषांतरण की बात करते हैं तो पाते हैं कि कुछ शब्द तो भाषांतरित हो जाते हैं, परन्तु बहुसंख्यक शब्द दूसरी भाषा में आकर अपना अर्थ  खो बैठते हैं या एकदम विपरीत हो जाते हैं। एक शब्द का उदाहरण मैं देना चाहूंगी और वह है भिक्षुक या भिक्षा! भिक्षुक को भारतीय संस्कृति में कभी भी भिखारी नहीं माना गया। भिक्षुक का स्थान समाज में बहुत उच्च था क्योंकि वह समाज से भिक्षा लेकर एक स्थान से दुसरे स्थान जाकर ज्ञान का प्रचार करता था। या जो भगवान की भक्ति का प्रचार करता था। समाज से बस वह अपने जीवनयापन हेतु भिक्षा लेता था। गुरुकुल के छात्र भी गाँव से भिक्षा मांगकर लाते थे और उसी प्रकार यह परम्परा चलती थी। जिसमें या तो ज्ञानी या ज्ञान की चाह रखने वाला व्यक्ति समाज से भिक्षा मांगता था जिससे वह अपने समाज से निरपेक्ष रहकर अपने ज्ञान की धारा को बनाए रखे। परन्तु जब हम अंग्रेजी में इसका अर्थ beggar कर देते हैं, तो हम उसे एक दीन-हीन निराश्रितों की श्रेणी में रख देते हैं, जिसका सब कुछ लुट गया है और जिसके पास कुछ बचा नहीं है! भिक्षुक का अंग्रेजी समतुल्य कहीं से भी beggar नहीं है। जब भिक्षुक का अंग्रेजी पर्याय हम beggar लेकर आगे बढ़ते हैं, रचना का सच्चा अर्थ कभी भी पाठक नहीं उठा पाएगा। गौतम बुद्ध भिक्षा मांगते थे, परन्तु दीक्षा देने के लिए! यहाँ सांस्कृतिक शब्दों और अवधारणाओं को समझे जाने की आवश्यकता है, यहाँ भाषांतरण तो हो रहा है, परन्तु अनुवाद नहीं! या तो इसके लिए कोई नया ही शब्द गढ़ने की आवश्यकता है या फिर भिक्षुक को भिक्षुक के रूप में लेने की, क्योंकि इसका पर्याय भिखारी भी नहीं है!
      इसी प्रकार छोटा सा शब्द है विद्यार्थी, अर्थात वह व्यक्ति जिसका अर्थ अर्थात जिसका उद्देश्य विद्या अर्जन करना है। जो अपने मातापिता के साथ रहकर शिक्षा अर्जित करता है। जबकि इसका जो पर्याय है छात्र, उसमें वह छात्र सम्मिलित होते थे जो गुरुकुल में रहकर विद्यार्जन किया करते थे। यदि इन अर्थों के अनुसार ही हम अंग्रेजी पर्याय खोजेंगे तो परेशानी होगी, अत: student के रूप में हम इनके निकटतम समतुल्य प्रयोग करते हैं।
      इसी प्रकार अंग्रेजी के कुछ शब्द हैं जिनके हिंदी पर्याय हम जब खोजते हैं तो हम अटक जाते हैं। हम निकटतम समतुल्य खोजने के स्थान पर उस शब्द की मूल आत्मा को ही लगभग मार देते हैं। और यह भी बहुधा धार्मिक ही होते हैं, जो धर्म की किसी गूढ़ बात को लेकर आगे बढ़ते हैं। जैसे अंग्रेजी में एक शब्द है confess। इसका जब भाषांतरण किया जाता है तो उसे प्रायश्चित कर दिया जाता है, जबकि प्रायश्चित और confess दोनों अर्थ के आधार पर विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। चूंकि ईसाई धर्म में यह अवधारणा है कि क़यामत के दिन ही सबके पुण्य और पापों के आधार पर फैसला होगा और किसी भी गलत कार्य के किए जाने पर तब तक आत्मा पर कोई बोझ न रहे तो वह प्रभु के सामने यह स्वीकार करता है या करती है कि उसने यह गलती की है, इसे गलत कार्य की स्वीकृति या achknolwdgement तो कह सकते हैं, परन्तु प्रायश्चित नहीं क्योंकि प्रायश्चित की अवधारणा मात्र भारत भूमि की अवधारणा है।
      हालांकि तकनीकी एवं गैर साहित्यिक तथा धार्मिक संस्कार से परे जो शब्द होते है, उनका समतुल्य खोजना बहुत आसान होता है और जब उनका निकटतम समतुल्य नहीं मिल पाता तब या तो हम लिप्यान्तरण कर लेते हैं या फिर कोई नया शब्द ही गढ़ लेते हैं। अधिकतर भाषा के क्षेत्र में कार्य करने वाले पहला अर्थ ही लेते हैं।
      कई बार कुछ शब्द अपनी रचनाओं से सन्दर्भ प्राप्त करते हैं, जैसे हरक्यूलियन टास्क! यदि भाषांतरण करने वाले व्यक्ति को इस शब्द विशेष का सन्दर्भ ज्ञात नहीं होगा तो वह अपनी भाषा में इसे हूबहू नहीं ला पाएगा!
      ऐसे एक नहीं तमाम शब्द हैं, जिनकी व्युत्पत्ति किसी विशेष संस्कार, संस्कृति एवं अवधारणा से हुई है। जिनमें एक संस्कृति के संस्कार है जो दूसरी संस्कृति के संस्कारों से सर्वथा भिन्न भी हो सकते हैं एवं अपरिचित भी। ऐसा नहीं है कि मात्र यह दुविधा भाषांतरण करने में आती है, यह दुविधा दूसरी संस्कृति के मूल लेखन में भी आती है। एडविन आर्नोल्ड की महान कृति द लाईट ऑफ एशिया का अध्ययन यदि हम करते हैं तो कई बार पाते हैं कि आर्नोल्ड भारतीय संस्कृति के संस्कारों को बताने में शब्दों के साथ कई प्रयोग कर रहे हैं। चूंकि उनकी संस्कृति में अवतार की कोई अवधारणा नहीं है, स्वर्ग तो है उनकी संस्कृति में परन्तु स्वर्ग से धरती पर अवतार लेने वाले देव नहीं है। तो वह अपनी इस कविता में बुद्ध को waiting in that sky लिखते हैं वहीं इस कविता को हिंदी में लाने वाले आचार्य राम चन्द्र शुक्ल या लोक लिखते हैं।
      निष्कर्ष स्वरुप यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार तकनीकी शब्दों को लिप्यान्तरण कर हमने एक भाषा का हिस्सा बना लिया है उसी प्रकार कुछ अवधारणात्मक एवं सांस्कृतिक शब्दों को भी भाषांतरण करते समय यदि लिप्यान्तरण कर प्रयोग किया जाए तो सांस्कृतिक शब्दों की आयु भी लम्बी होगी तथा उनका मूल अर्थ पाठक को ज्ञात हो सकेगा! अभी उनके निकटतम समतुल्य खोजकर लिखने से शब्द का मूल अर्थ कहीं न कहीं खो जाता है।

सोनाली मिश्रा

बुधवार, 8 मई 2019

इन्तजाम


डॉ. ने अब और इंजेक्शन लाने के लिए मना कर दिया था! अब जरूरत नहीं थी। अब इंतज़ार था। इंतजाम चल रहे थे। दिल्ली भीग रही थी। हर जगह पानी था। पानी से भर गया था सब कुछ! एम्स के बाहर झमाझम झड़ी लगी थी। बाहर से आए मरीज और उनके घरवाले इधर उधर बैठ गए थे. जहां जिसको जगह मिली थी, वह वहीं बैठ गया था. हर कोई किसी न किसी का इंतज़ार कर रहा था, कोई डॉक्टर का, कोई दवाई का तो उसके जैसे भी थे, जो उस पल का इंतज़ार कर रहे थे, जिसकी कल्पना भी संभव नहीं थी! वह और लोगों के दर्द और अपने दर्द के बीच कोई सिरा खोजने की फिराक में थी.  वह धीरे धीरे कमरे से बाहर निकलने लगी. धीमे धीमे चलते चलते वह गलियारे में आ गयी! जिधर देखो उधर ही दर्द का संसार था, कहीं कोई रो रहा था, तो कहीं किसी में राहत के भाव थे. डॉक्टर के प्रति किसी के मन में गुस्सा था तो कोई अपने बच्चे के सही हो जाने के कारण, डॉक्टर के प्रति कृतज्ञ था. वह इस कृतज्ञता के बंधन से बाहर निकल गयी थी. उसके पेट में दर्द उठा! दर्द का हौला उठा! पेट का निचला हिस्सा बहुत दर्द कर रहा था। इतना दर्द तो आज से तीस साल पहले ही हुआ था! आंगन की ओखली में बैठी बैठी मिर्च कूट रही थी. एम्स से पैदा हुआ दर्द छोटे से गाँव में पहुँच गया.

गर्भ चढ़े पूरे नौ महीने हो गए थे. दसवां चालू हो गया था. मगर पेट की हलचल बाहर निकलने का नाम भी नहीं ले रही थी. वकील साहब उसे चिढ़ाते, “काहे, मन नहीं है का लल्ला को बाहर आन को?” और वह लजाकर दोहरी हो जाती. अम्मा जो कुछ कहतीं, वह सब करतीं! भाभी भी नौंवा महीना ख़त्म होते ही आ गयी थीं और अकेली कहाँ आई थीं, उनके साथ न जाने कितनी तरह की हिदायतें चली आईं थीं उसकी माँ की तरफ से. ननद और भाभी की चुहलें चलतीं और दोनों ही आने वाले मेहमान की बातें करते! उस दिन भी दाई के ही कहने पर ओखली में मसाला कूटने लगी थी. कि उसे लगा जैसे दर्द का एक समुद्र ही उसके पेट में समा गया हो! पानी की थैली फट गयी थी! घर का आंगन था, तब ओखली पर काम करते करते उसके हाथों से मूसर छूट गया था।

उसने देखा पानी बहकर उसकी साड़ी को भिगो रहा था और अंदर से बच्चे  की हरकतें भी तेज हो गयी हैं।
“काहे बड़ी बहू, अब एकदम से ही बहुत जल्दी होय गई, लल्ला को आन की!” उसकी सास ने आंगन में आते हुए कहा था।
नेवी ब्लू और कत्थई रंग की साड़ी उसने इसीलिए पहनी थी कि कुछ गड़बड़ हो तो गहरे रंग की साड़ी में पता न चले!
उस दिन भी बहुत तेज बारिश हो रही थी। मई के महीने में बहुत ही कम होने वाली बारिश उस दिन आंधी के बाद एकदम से तेज हो गयी थी। और उसके साथ ही तेज हो गया था उसके पेट का दर्द!
बड़ी हवेली में उस छोटी सी कोठरी में वह दिन भर दर्द से तड़पती रही थी। दाई आई थी, उसने आकर अम्मा जी से कह दिया था।
“अभी देर है!”
दर्द से तड़पते हुए उसने दाई की तरफ देखा था,
“देर! यह दर्द तो प्रान ही ले लेगा जीजी!”
“सबर करो, बड़ी बहू, अभे देर है!”
भाभी का हाथ उसके कंधे पर और कस गया था!

अचानक से उसने फिर से कंधे पर एक कसाव महसूस किया!
“क्या हुआ? कुछ कहा तुमने?” उसने चौंक कर पूछा
“बड़ी अम्मा, अभी थोड़ी देर है! डॉ.  बोल रहे हैं एक दिन लग सकता है या फिर हो सकता है शाम तक ही!” सरस के कहे आगे के शब्द उसके मुंह में ही दब गए “आपके लिए चाय लाऊँ!” उसका छोटा बेटा उसके पास आकर बैठ गया था!
“हम्म! नहीं चाय नहीं! कमरे में बहू है क्या? बहू से क्या कहा है?” उसने अपने बेटे की आँखों में आँखें डालकर प्रश्न किया
“भाभी, बच्चों के साथ हैं! उन्हें अभी कुछ नहीं कहा है! कालका जी मंदिर जाने के लिए कह दिया है!” उसके बेटे ने उसकी गोद में एक छोटे बच्चे की तरह सिर रख दिया
वह उसके बालों में हाथ फिराने लगी,जैसे कुछ खोज रही हो
“जे ठीक करो! बहू को डॉ.  से बात न करने दियो! अभी उमर ही का है बाकी! चलो कमरे में चलें!”
“चलो बड़ी अम्मा!”
एम्स में उस कमरे में चलती चलती वह फिर से दर्द के उसी सागर में चली गयी, जो तीस बरस पहले कोठरी में हो रहा था.
भाभी पूरी रात उसके माथे पर हाथ फिराती रही थीं,“कछु न होइए! तुम्हारा लल्ला देखना कित्तो सुन्दर अइए! एकदम वकील माफिक! हीरो!”
वह उतने दर्द में भी मुस्करा उठी थी।
उसके दूल्हा के चर्चे तो पूरे गाँव में थे! जब उसे ब्याहने आए थे, तब पूरे गाँव के मुंह पर ताला लग गया था। ऐसा लगा था जैसे खुद राजा राम आए हों! और वह सीता की तरह उन्हें छिप छिप कर देख भी न सकी थीं! और यही भाभी थीं, जो उनके दूल्हा को देखकर उन्हें छेड़ने आ गईं थीं! भाभी बोली थीं, “बिट्टो, पता कर लियो, तुम्हाए ससुर की कोई गोरी मेम तो दुल्हन नहीं थी, जो इत्ते गोरे हैं हमाए जमाई!”
और लाल रंग में सांवली सी गठरी बनी वह अपने में सिमट गयी थी। इत्ते गोरे और सुन्दर वे और वह खुद!
दांत से जब उसने होंठ दबाए तो दर्द में भी वह अजीब मुस्करा उठी!
“भाभी, कित्तो और दरद? और कब तक बच्चा को सर नीचे अइये?” उसने भाभी का हाथ पकड़ कर पूछा था
“नेक देर तो सबर करो बिट्टो!” भाभी ने उसका हाथ दबाया था कि तभी दर्द की एक लहर आने से उसे लगा जैसे किसी ने उसे झकझोर दिया!

“मम्मी, मम्मी! कहाँ खोई हैं! हम लोग मंदिर जा रहे हैं! आपके लिए कुछ मांगकर लाएं क्या? अब डॉ. जल्दी ही इन्हें तो छुट्टी देने ही वाले हैं। हमने सोचा मंदिर ही हो आएं! आप तो हो ही यहाँ!” उसकी बहू उसे झकझोर रही थी! अरे! वह दर्द के एक सागर से जैसे दुसरे में एकदम से स्थानांतरित हो गयी! वह उस कोठरी से बाहर निकल कर एम्स के इस कमरे में आ गयी!
“हम्म! नहीं बहू! अब सब कुछ तो मिल ही रहो है! अब इन्हें लेकर घरे तो चल ही रहे हैं! हम सब एक साथ ही रहन वारे हैं, तो अब और का मांगे! बस इत्तो मांग लियो, कि तुम्हाई महतारी को दर्द कम कर दें!” उसने अपनी सीधे पल्ले की साड़ी से इस तरह से आंसू पोंछे कि बहू न देख पाए!
चौबीस बरस की तो है! अभी कुछ समझ नहीं आता इसे! डॉ. से बचाएं या उसके जेठ या देवर से! उसका मन अपनी बहू को देख देखकर फटा जाता है! कैसी जिम्मेवारी दे दई लल्ला! वह उस कमरे में लेटे शांत अपने बेटे की तरफ देखकर सवाल पूछती है! उसे पता है कि अब यह इस सवाल का जबाव नहीं मिलेगा! कुछ सवालों के जबाव नहीं होते, वह बस सवाल होते हैं! खुद ही जबाव खोजने होते हैं!
यह वह अपने बेटे को तब समझाती थी, जब वह अपने सौतेले भाइयों के साथ खेलते हुए असहज महसूस करता था! वह उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहती जाती “कुछ बातों के जबाव नहीं होते, समय पर छोड़ दो!” और तमाखू खाते हुए फिर काम में लग जाती! आज फिर से उसी मोड़ पर आकर खड़ी है, जहां सवाल मुंह बाए खड़े हैं, और वह अपनी बहू के साथ अकेली! कहाँ जाए? क्या करे? उसका मन हुआ अपना सिर फोड़ ले, या सामने से आ रही किसी भी बस के सामने आ जाए! कितनी देर लगेगी उसके मरने में! आज शाम से पहले वह ही मर जाती है, मगर यह नहीं...........
“हे मैया! सक्ति दो!” वह मन ही मन बुदबुदा रही है!
फिर उसने कमरे में झाँककर देखा!
अम्मा बैठ जाओ न एक तरफ! अभी साँसे हैं, समय है अभी!” साँस शब्द पर उसने चौंक कर नर्स को देखा! नर्स उन खोखली आँखों में देख न सकी! बस उसने उसका हाथ थाम कर कहा “अम्मा, धीरज धरना ही होगा!”  
दिल्ली में जो घर लिया है वह बहुत दूर है, और इतना बड़ा भी नहीं, कि चार पांच लोग टिक जाएं! अब यहाँ पर तो एम्स में रात में कहीं भी सो जाओ! कहीं भी सो जाओ! सब दर्द के साथी हैं, सब दर्द के साझीदार हैं! किसी को कहीं बोतल चढ़ रही है तो किसी के कहीं पट्टी बंधी है! सब एक दूसरे को देखकर इस दर्द की बेला में मुस्करा देते हैं! एक हफ्ते से वह घर नहीं गयी है! अब उस घर जाने का फायदा नहीं!” उसने एक दिन तमाखू चबाते चबाते नर्स से कहा था!
नर्स ने कहा था “अम्मा, एक हफ्ते से आप सोईं नहीं हैं! सो जाइए, आपकी तबियत खराब हुई तो हम कुछ नहीं कर पाएंगे!”
उसने कुछ नहीं कहा था, बस सिर हिला दिया था! नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी! कभी वह दिन हुआ करते थे, जब उसे नींद नहीं आती थी, बेटा माँ के गर्भ में ही घर बनाए बैठा था. उसपर न ही तो करवट बदली जाती थी! और पूरे पंद्रह रातों के रतजगे के बाद आखिर वह दिन आया था, जब उसके दर्द हुआ था!

न तो बारिश ही बंद हो रही थी और न ही उसका दर्द!
भाभी उसका तलवा मलती! हर एक घंटे पर दाई आती, उसकी साड़ी उठाती, मुआयना करती, फिर अम्मा से कहती
“अरे, मिसराइन, अभे समय है! थोड़ी तो अपनी बहू को बोले दरद सहने की आदत डाले!”
उसकी भाभी ने आखिर दाई को झिड़क ही दिया।
“तुम तो रोज बच्चा जनाती हो, हियाँ तो इसका पहला है!”
दाई ने उसके पसीने वाले चेहरे पर हाथ फेरा!
“बेटा ही है! तुम्हें बहुत सुख देगा! तुम्हाए सारे दुःख हरेगा!”
दाई की बात सुनकर उसके चेहरे पर फिर से रोशनी छा गयी थी।  सच उसका बेटा, उसका अपना बेटा! वह तो जैसे खुशी से पगला रही थी। उसे दर्द में भी एक सुकून मिल रहा था! बार बार वह हनुमान चालीसा पढ़ रही थी। बार बार वह अपने पेट पर हाथ लगाती। उसे लगता जैसे वह उसका हाथ पकड़ने की कोशिश कर रहा हो!
उसे लगा जैसे उसका हाथ किसी ने पकड़ा!
“दादी दादी!” उसका पांच साल का पोता था!
“दादी, हम सब गाँव चल रहे हैं! पापा भी!” आज उसने एकदम नए कपडे पहने हुए थे। जैसे किसी शादी में जा रहा हो! ओह हाँ, वही तो उसके लिए लाई थी! जैसे उसने अपने बेटे के लिए सब कुछ पहले से बना कर रख लिया था।
“हाँ बेटा। हम  सब गाँव चलेंगे, चाचा, पापा, सब!”
“सच्ची! जैसे हमाए मुंडन पे गए थे!” वह उछला
“नहीं, हमेशा के लिए!” उसने प्यार से उसके सिर पे हाथ फिराया!
“नहीं, हमेशा के लिए नहीं! मुझे दिल्ली पसंद है, गाँव नहीं!” वह तुनका
यही तुनक उसके बेटे की थी। जब उसकी नौकरी लगी थी। नौकरी मिलते ही वह दिल्ली आ गया था!
“दादी, बोलो न! हमेशा के लिए नहीं न! केवल मुंडन के बाद हम आ जाएंगे!” उसने उसके मुंह पर हाथ रख दिया!
“तुम कहीं जा रहे हो?” उसने बात बदली
“हां, मम्मी और गुड़िया के साथ मंदिर! बारिश हो रही है न! तो चाचा टैक्सी लाने गए हैं, ऑटो में बोले हम भीग जाएंगे!” वह नन्हे जासूस सा बोला
उसके पेट का दर्द आज उसकी जान लेने के लिए उतारू था। बारिश तो भयानक ही तांडव मचा रही थी। उसका मन हुआ कि वह रोक ले, मगर उसने नहीं रोका।
उसने अपने पति को भी नहीं रोका था। उसने हमेशा सबको उनके मन का करने दिया! किसी को नहीं रोका था। जब अपने दूसरे ब्याह के लिए उनके पति ने उनसे पूछा तो दो मिनट के लिए वह सन्न सी रह गईं थीं! ऐसा ही आंधी पानी उस दिन भी आया था। शादी के बाद से डेढ़ साल तक उनकी देह में एक सूखापन था। ठठरी होती देह में नमी का नामोनिशान नहीं था। डेढ़ साल में नमी उड़ गयी थी, कभी चूल्हे पर दाल बनाते समय, कभी रोटी बनाते समय फूंकनी से फूंक मारते हुए! उसके आंसू वही एक क्षण था, जब उनके राम ने आकर उन्हें छुआ था। उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर अपने मन की बात कही थी। उस दिन चूल्हे में उसने गीले कंडे डाले थे, आँखें अभी तक जल रही थीं। पानी की रोटी खाने वाले वकील साहेब के दिल में बहुत नमक था, जो उसकी सूखी देह के घावों पर फिरा रहे थे।
उनकी सूखी देह पर उनके राम का स्पर्श कितना नमक लेकर आया था, वह ही जानती थी। उस रात भयानक बारिश हुई थी। टीन की छत पर अमरुद के पेड़ से गिरती हुई बूँदें शोर मचा रही थीं। चमगादड़ भी उस रात अपनी खोह में ही थे। उसके जीवन में बारिश हर मौके पर आई है! उस रात जब उनके राम एक अनुरोध लेकर आए थे, तब भी बादलों ने तांडव मचाकर रखा था। डेढ़ साल में देह कितनी खोखली हुई थी, देह कितनी पीली हुई थी, उन्होंने उस दिन लालटेन की रोशनी में देखा! सांवली देह मांसलता के अभाव में कितनी खुरदुरी  हो जाती है, सौन्दर्य हीन! देह की देहरी से मांसलता तो न जाने कब से उड़ गयी थी। अब तो हड्डियों का ढेर थी वह! मगर उस रात, तो बारिश हुई थी! अनुरोध की बारिश, वादों की बारिश! और उस बारिश में उसके सामने ही बह रहे थे अग्नि के सामने लिए सात वचन!
“मैं उसे नहीं छोड़ सकता!” उन्होंने कहा था
“उसे माने!” उन्होंने जिनका अभी तक कोई मुकम्मल नाम और पहचान उस घर में नहीं थी, ने सूखे होंठों पर जीभ फिराते हुए पूछा था।
“उसे माने, सुकन्या को!” वे बोले!
“उसे मैं अपनी पत्नी मानता हूँ!” वे एक क्षण के विराम के बाद बोले
“और मुझे?” उसने आज पहली बार सवाल किया था। अभी तक तो वह उनके सुदर्शन व्यक्तित्व से ही दबी हुई थी। इतने बड़े घर में अम्मा उन्हें अकेला छोडती ही नहीं थी। पहले तो बड़ी ननद का ब्याह होने तक उन दोनों के मिलने पर रोक थी। अभी दस ही दिन हुए, ननद का ब्याह हुए, तो अब उनकी पहली मुलाक़ात थी।
“हम कौन हैं आपके लएं?” उउन्होंने फिर से पूछा
उन दोनों के बीच उस दिन सवालों की नदी थी। उस सवालों की नदी पर उन दोनों को ही तमाम जबाव चाहिए थे। मगर वह जबाव कौन देगा? अम्मा को पता था क्या? वह अपने मन से सोच रही थी? यह समय यह सोचने का नहीं था। यह समय उस अनुरोध को स्वीकृत करने या अस्वीकृत करने का था। वैसे उसके पास विकल्प क्या था? उसने अपना दिमाग चलाया! वह अनपढ़, सांवली, पिता नहीं! भाई किसान। जो पूरी तरह से खेती के आसरे! कहाँ जाएगी? जिस भाभी की आँख का तारा है, वह उसी पर बोझ बन जाए!
उन्होंने अपने ब्याह में भैया का गर्वोंमुक्त चेहरा देखा था। वह चेहरा उनके सामने आकर अपने गर्व को बनाए रखने की दुहाई दे रहा था।
“अगर हम मना कर दें तो?” उन्होंने जिरह की। मगर उस जिरह का कोई मतलब नहीं था। फैसला वकील साहब जी ले चुके थे और परिवार में उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी की नहीं थी!
“मैं तुमसे बिना पूछे भी ला सकता था! मगर मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता, तुम मेरी जिम्मेदारी हो। और मैं अपनी बहन की शादी का इंतज़ार कर रहा था! तुमने सारी रस्में सही से निभाई हैं, तुम इस बंगले की लक्ष्मी हो, तुम्हें छोड़ नहीं सकता!” वे धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे! और वह उनके चेहरे को लालटेन की रोशनी में देखने की और उनके जीवन में क्या होने जा रहा है, उसे समझने की कोशिश कर रही थीं। बाहर की बारिश उनके अंदर की आग  को बुझा नहीं पा रही थी।
“हम आपकी जिम्मेदारी हैं, तो बा कौन है?” उन्होंने उनकी आँखों में आँखें डालकर पूछा
“वो मेरा प्यार है, ज़िन्दगी है!” उन्होंने उनके हाथों को अपनी हथेलियों को कसते हुए कहा
क्या किसी का स्पर्श इतना जला भी सकता है? देह के सूखे ठठरीपने में उन्होंने अपना भाग्य पा लिया था, मगर भाग्य का यह भी रूप होना था? उनका मन हुआ कि भाग जाएं!
बस एक शब्द ने उनकी पूरी ज़िन्दगी बदल दी थी।
“तुम जिम्मेदारी हो, वह प्यार है!”
ओह, तो वे केवल जिम्मेदारी हैं! “तुम इस घर की मालकिन हो, वह दिल की मालकिन है!”
उस छोटी सी कोठरी में भगवान की फोटो के पीछे घर की चाबियां थीं। उन्होंने वे चाबियां उठाकर उनकी हथेली में रख दीं थीं,
“घर की मालकिन भी उसे ही बना दें!”
एकदम से बिजली कड़की! उस सांवले चेहरे की दृढता ने जैसे एक पर्वत सरका दिया! पर्वत का सरकना इतना सरल था क्या? मगर पर्वत सरका तो था, गिरा नहीं था! उन्होंने उन चाबियों को उसी ठठरी बनी देह के हवाले कर दिया था।
“मैं यह पाप नहीं कर सकता!, मगर उसके बिना मैं मर जाऊंगा!”
वे रोने लगे थे! बाहर की बारिश वह बर्दाश्त कर सकती थी, मगर जिसके साथ सात जन्मों की खुशी और गम का वादा करके आईं, उसे अपने सामने रोते देखकर वे भी पिघल गईं!
उस रात बारिश खूब हुई!
बाहर भी और अंदर भी! उस रात सूखे तिनकों में कुछ नमी आई थी। जी भर बारिश हो जाने दी उन्होंने, न जाने बैरी बदरा, अब कब बरसे! एक बार देहरी से गए बादल कहाँ दोबारा आते हैं! ये बादल देहरी से जाने के लिए ही तो बरस रहा था।
क्या भीगी थीं वे! ठठरी बनी देह तो जैसे भाप बनकर उड़ गई थी। उस रात बहुत कुछ थाम लिया था, बहुत कुछ खो दिया था।
दो ही दिन में उनकी दुनिया उस कोठरी और उनके आंगन तक में सिमट गयी थी। आंगन से परे जाना उन्होंने बंद कर दिया था। उनके देव ही कभी कभी आते थे। उन्होंने गलत सोचा था। यह बादल तो उनकी देहरी पर खूब आता था। और शायद तभी वे उस पीड़ा से बाहर निकल पाईं थीं!
फिर एक दिन, दाई ने बताया था कि वे पेट से हैं!
“मेरा बच्चा!, मेरा बच्चा!” एकदम मेरा, केवल मेरा!”
दाई उनकी इस आत्ममुग्धता को देखे जा रही थी।

“बड़ी अम्मा, कुछ खाओगी!” एकदम से जैसे किसी ने उन्हें उस आत्ममुग्धता से बाहर निकाला
“हम्म, नहीं! बहू गयी! टैक्सी ही कराई है न!” उन्होंने पूछा
“हां!” सरस माने उनके छोटे बेटे, ने कहा
“और सामान सारा बाँध लिया है न! उस घर में वापस तो जाना नहीं होगा, तो सारा सामान बांधकर रखवा लेना। ट्रक वालों को बोल देना, और स्कूटर का क्या करोगे? यहीं बेच देना किसी को!” वे धाराप्रवाह बोलती जा रही थीं।
उस समय उन्हें ऐसा लग रहा था, जैसे कोई ऊपर से आदेश दे रहा हो!
एकदम से उनके पेट में दर्द दोबारा होने लगा था!
“उफ ये दर्द नहीं जा रहा!” उन्होंने अपना पेट पकड़ते हुए कहा
“बड़ी अम्मा, तुमने दो दिन से कुछ खाया नहीं है, खा लो न! नहीं तो तुम भी बीमार पड़ गईं तो?” सरस ने बहुत ही बुझे मन से उनसे कहा
“अरे, मुझे कुछ नहीं होगा! होना होता तो उसी दिन हो गया होता, जिस दिन तुम्हारे पापा, तुम्हारी मम्मी को हमाए सामने ले आए हथे!, जब वो दुःख झेल गए, तो जे तो केवल सरीर को दुःख है!” उन्होंने अपनी हथेली में तम्बाकू रखते हुए कहा
“बड़ी अम्मा! चाय तो...................... सरस के शब्द उसके मुंह में ही रह गए थे
उन्होंने अपने हाथ से इशारा कर दिया और बाहर की तरफ देखने लगीं। “सुनो, तुम बाकी काम कर लेना!”
“इंतजाम शुरू कर दो!”
उस दिन जब उनके दर्द शुरू हुए थे, तो तुरंत ही उनकी सास ने बिहैया माता की थाप लगवा दी थी। माता लेकिन शायद खुश थीं नहीं! उनकी सास ने कहा था “सुनो बड़ी बहू! जे बिहैया माता ही हमाए लल्ला की रक्षा करन के लएं हैं। लल्ला को जे ही हंसइयें और जे ही रुलइयें”
उस दर्द में वह बार बार बिहैया माता की तरफ देखतीं, और उनसे इस दर्द से मुक्ति की कामना करतीं! आज भी वे मुक्ति की कामना कर रही थीं! मगर कितना अंतर था, उस मुक्ति में और इस मुक्ति में!
हाथ में तम्बाकू में चूना मिलाते समय उनकी हथेली एकदम लाल हो गयी थी।। उन्होंने कुछ ज्यादा ही घिस दिया था। ये इंतज़ार कितना भयावह है! वे इस अस्पताल में बाहर निकलती हैं, तो इतने दुःख हैं लोगों के कि वे वापस आ जाती हैं। अपने दुःख की गठरी ही इतनी भारी है! बस बहुत हुआ, अब नहीं! अब वे नहीं जाएँगी बाहर! सरस है ही भागदौड़ करने के लिए!
न जाने मुआ दर्द कब ख़त्म होगा!” जब उन्होंने उस रात यह कहा था तो भाभी बहुत हंसी थीं!
“अरे, बन्नो! जे तो मीठा मीठा दर्द है! लल्ला आएगा तब दर्द देखना छू हो जाएगा!”
सुबह के तीन चार बजते बजते दर्द बहुत बढ़ गया था और दाई ने अब कुछ ही देर की बात कही थी!
तैयारियां होने लगी थीं। अगल बगल के लोग सारे आने लगे थे। घर के बाहर पड़ोसियों की भीड़ लग गयी थी। वकील साहब के सभी परिचित आ गए थे। उनके भैया, अम्मा भी आ गईं थीं! सब लोग अब शुभ घडी का इंतज़ार कर रहे थे! वह बार बार धक्का देती, और बार बार दाई कहती, बस कुछ और बस कुछ और!
उसका दर्द इतना भयानक था कि उसे लगा जैसे उसकी जान ही निकल जाएगी! ओह! कितना भयानक दर्द था। कभी पीठ के किसी कोने से होता, कभी पेट के किसी कोने से!
कोई बोला “लग रहा लल्ला आना ही नहीं चाह रहा है!”
अम्मा ने ठिठोली की “लग रहा कि अम्मा का पेट ही हमाए लल्ला को चाहिए! अम्मा को छोड़कर आना ही नहीं चाह रहा बाहर!”
उस दिन उसे कितना प्यार आया था, ओह, उसका लल्ला! केवल उसका! वकील साहब तो बंटे हुए हैं, मगर जे तो केवल मेरा ही होगा!  मेरा लल्ला! और यही सोचकर उसने एक बार और जोर से दम लगाया!
“बस बस, हो गया!” दाई चीखी
“थोडा और दम लगा लो, और हो जाएगा!” दाई बोल रही थी
कोठी में बाहर पीतल की थाल लेकर तैयारी हो चुकी थी। बस बँगला के राजकुमार के आने का इंतज़ार हो रहा था। बारिश के रुकने का इंतज़ार किए बिना लड्डू आ चुके थे, हरीरा बनाने के लिए सामान आने लगा था। वह दर्द की आख़िरी अवस्था में थी। देह तोड़ देने वाला दर्द! और उसके बाद केवल उसका बेटा, केवल उसका! यह स्वामित्व का अहसास उसे जो सुखद अहसास दे रहा था, वह हर दर्द से परे था!

“बड़ी अम्मा! डॉ.  बुला रहे हैं!” सरस उसके पास आया!
“हम्म! क्या हुआ!” जैसे मुक्ति की अवस्था उसके पास आ गयी थी।
बारिश थमने लगी थी।
“बड़ी अम्मा, सारा इंतजाम हो गया है! घर से भी फोन आया था कि वहां भी सारा इन्तजाम हो गया है! भाभी के घर वाले, आपके भैया, भाभी, भाभी की अम्मा, सब पहुँच चुके हैं! अभी डॉ.  साहब आपको बुला रहे हैं!”
“हमें काहे?” उन्होंने पूछा
“बोल रहे, ले जाएं हम! भैया को!”
वे डग मगाईं!
दर्द अब चरम पर पहुँच चुका था!  उन्होंने एक बार फिर से जोर लगाया और फिर निढाल हो गईं!
दाई ने नाड़ काटी, और चीखीं “मिसराइन, पोता हुआ है! वकील जी के बेटा हुआ है!”
कोठी में खुशी की लहर दौड़ गयी, थाली बजी, और लड्डू बाँटने के लिए न जाने कितने लोग आ गए थे। बच्चे को नहला धुलाकर जब उनकी बगल में लिटाया तो उन्होंने उसे अपने सीने से लगा लिया “मेरा बेटा”
“हम्म! तो बेटे के साथ लाड़ हो रहा है! मगर ध्यान रखना, बेटा तो उड़ जाएगा, हम ही रहेंगे तुम्हारे साथ!” वकील जी ने उसकी चारपाई पर बैठते हुए अपने बेटे को देखते हुए उन्हें छेड़ा था।

दर्द से उन्हें मुक्ति मिली थी। मगर इस दर्द का क्या! ले जाएं! कहाँ ले जाएं?
सरस बोल रहा है। “घर पर सारा इंतजाम हो गया है! सब मौजूद हैं!”
वे एम्स के गलियारे में भागती हुई जा रही हैं!
उनके बेटे ने उनसे कहा था “अम्मा, कसम है तुम्हें, न तो तुम हमारी आँखें मुंदती हुई देखना और न ही अपनी बहू को देखने देना! मैं तुम दोनों के लिए जिंदा रहना चाहता हूँ! तुम्हाए पोते में मैं ही रहूँगा! जैसे ही डॉ.  बोले मुझे ले जाओ, वैसे ही बहू और हमाए बच्चन को लेकर घर चली जइयो। तुम्हें ध्यान है न हम जब तुमसे कहत हथे कि तुम्हें लेकर अमरीका जइयें, तब तुमने हमें रोकन के लाएं हमाओ ब्याह कर दओ हथो! अब? अब तो जा रहे हैं हम? अब कैसे  रोकोगी! मुझे पता है, मेरे पास दिन नहीं हैं बाकी! मगर तुम्हारी बहू की पूरी ज़िन्दगी पड़ी है, हो सके तो दूसरा ब्याह कर देना उसका!”
वे उसी तरह से सन्न बैठी थीं, जैसे उस दिन सन्न हो गईं थीं, जब उनके पति इजाज़त लेने आए थे। अब उनका बेटा इजाजत मांग रहा था, जाने की! बिहैया माता की थाप सही नहीं लगी होगी! घर जाकर जरूर देखेंगी, बिहैया माता की थाप को!
“नहीं, नहीं! तुम ठीक हो जाओगे! तुम्हें पता है न तुम्हें पालने के लिए मैंने कितने जतन किए हैं! किन किन अपमानों को झेल कर तुम्हें बड़ा किया है! तुम्हारी छोटी अम्मा के कितने ताने झेले हैं! तुम्हें नहीं जाने दूंगी!”
वे न जाने कितने आवेश में बोलती गईं थीं।
“अम्मा, जाना तो होगा ही! हो सकता है कुछ ही दिनों में मैं बोलना ही बंद कर दूं और फिर डॉ.  केवल मेरी मौत का दिन गिनें! अम्मा, भगवान के लिए मेरे बच्चों का ध्यान रखना! तुम्हारे ही जिम्मे छोड़कर जा रहा हूँ! मेरी निम्मो को बचाकर रखना! और तुम और निम्मो दोनों ही भगवान के लिए मुझे मरा हुआ न देखना”
वह अपने छ फुट के बेटे को एम्स में उस हालत में देख रही थी, जिस हालत में उसे देखना असंभव था, एक माँ के लिए! उसके लिए यह सब करना और कहना असंभव था. दर्द के सागर में गोता लगाना और बार बार उसमे तैरते रहना! उससे बार बार उसके अपने ऐसी अनुमति लेने क्यों लेने आ जाते थे? नहीं वह नहीं जाने दे सकती, अभी उम्र की क्या है! शादी को छ साल हुए हैं! बेटा है पांच साल का और बेटी! उसकी रुलाई छूट गयी! बेटी को तो पता ही न चलेगा कि उसके बाप भी था! पर क्या करे! बीमारी भी तो ऐसी लेकर आ गया था और पता भी चली थी आख़िरी चरण में! जैसे उस दिन सम्हाल लिया था, उस दिन एम्स के उस कमरे में सम्हाल लिया था खुद को!
“सुनो, घर में तो इंतजाम होय गयो है न!” उन्होंने सरस से पूछा
“बड़ी अम्मा, भैया को देखोगी नहीं?” सरस ने उन्हें हिलाकर पूछा
“नहीं! उसकी बंद आँखें और जिस छाती में बार बार सांस देखत रहे, उन्हें एकदम शांत नहीं देख सकती! और हमसे कहके गए कि हमें न देखियो! हमें ज़िंदा रहन है!”
“हम बाहर जाय रहे! घरे फोन करके अपएं बाप से कह दियो, कि लल्ला उड़ गए!”
घर पर जाकर सारा इंतजाम करना है, उस दिन की तरह जब कोठी के सामने लल्ला के आने का जश्न मन रहा था। भीड़ थी, वही भीड़ थी! स्वागत करने की भीड़ थी। सरस के घर पहुँचते ही भीड़ होगी, घर से बार बार खबर आ रही थी, ले आओ, ले आओ!
सरस ने कहा “अब एक ही बार लाएंगे!”
उसके पेट में दर्द फिर से होने लगा है! उसे अपनी सास की बात ध्यान आ रही है “लल्ला को अपनी अम्मा को पेट ज्यादा पसंद है!”
एम्स के गेट की तरफ वह दौड़ रही है!
बहू आने वाली होगी!
बहू को कैसे बताना है, समस्या है! मगर औरत को कहाँ कुछ समझाना होता है! वो तो समझदार होती ही है। सरस अपना काम करने में लगा था। बहू कालका जी मंदिर से आ गयी है!
उसका पोता ऑटो से उतर कर उसके पास ही आ गया। “दादी दादी, आप बाहर! घर चल रहे हैं क्या?”
“हाँ बेटा! तुम्हें अपना मुंडन याद है न?” उन्होंने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा!
“हाँ दादी! आपने बहुत बड़ा पेड़ा खिलाया था!” उनका पोता उनकी साडी पकड़ते हुए बोला
“फिर से मुंडन कराना है?” उन्होंने अपनी बहू को देखते हुए अपने पोते से पूछा
बहू हिली! उसकी आँखों में वह पूरा बादल उस एक ही वाक्य से बरस गया, जिसे वे इतने दिनों से थाम कर रखी थीं!
“मम्मी, हमें इन्हें देखना है!” बहू भागी!
“कोई फायदा नहीं! उसकी सख्त हिदायत थी, कि हम और तुम उसे न देखें! जाते हुए का मान रखो बहू!”
“मम्मी, तुमने कुछ भी नहीं बताया!” वह सिर पकड़ कर बैठ गयी थी
“अब यहाँ कुछ नहीं रखा! किराए का कमरा सरस ने कल ही खाली करा दिया था, आज ट्रक वालों ने सारा घर खाली कर लिया है, वे लोग हमारी गाड़ी के साथ चलेंगे! घर चलो निम्मो!”
“बड़ी अम्मा! घर चलिए! सब इंतजाम हो गया है! वहां पर भी सब इंतजाम हो गया है! सब लोग पहुँच गए हैं, हमारा इंतज़ार हो रहा है!”

एकदम से उसी दिन की तरह से बारिश रुक गयी! थाली बजनी बंद हो गयी है, नाड़ जुड़ गयी है और उनके पेट में हलचल हुई!
उनके अंदर फिर से कोई समा गया!
कहीं पर कोई बाबा बोलता हुआ जा रहा था “पुण्यात्मा होगा, इतना ही समय होगा!”
और वे अपनी बहू और पोते – पोती के साथ जा रही थीं!
घर पर इंतजाम राह देख रहे हैं...................................


सोनाली मिश्रा
सी-208, जी-1, नितिन अपार्मेंट्स
शालीमार गार्डन, एक्स-II
साहिबाबाद, गाज़ियाबाद
उत्तरप्रदेश

नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...