शनिवार, 30 अप्रैल 2016

वो सुबह कभी तो आएगी



पिछले दिनों मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा एकदम से गरमा गया। भूमाता ब्रिगेड की तृप्ति देसाई के नेतृत्व में उन मंदिरों में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर मांग उठी जहां सैकड़ों वर्षों से उनका प्रवेश प्रतिबंधित था। इस अमानवीय प्रतिबंध के खिलाफ आवाज़ उठाई गयी और न्यायालय के माध्यम से आंशिक जीत भी प्राप्त हुई है। आंशिक इसलिए क्योंकि यह कानूनी जीत है और यह उस सोच पर अभी प्रहार नहीं कर पाई है जो स्त्रियों को उनके शरीर की अपवित्रता के कारण धार्मिक स्थलों में प्रवेश के लायक नहीं मानती। स्त्रियों को मंदिरों में प्रवेश करने देना या न करने देना यह निर्णय क्यों धर्म के कुछ चुनिंदा ठेकेदारों तक सिमटा हुआ है? हमारा संविधान लैंगिक आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की अनुमति नहीं देता है। किंतु यह भी हास्यास्पद ही है कि स्त्रियों को आज भी मंदिरों में प्रवेश जैसी बुनियादी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। हालाँकि यह भी उतना ही सत्य है कि मंदिरों में प्रवेश की लड़ाई उन्हें मंदिरों और कर्मकांडों के और करीब कर देगी, जिससे उनकी स्वतंत्र चेतना पर विराम लगने का भी भय है, किंतु लैंगिक स्वतंत्रता के लिए इतना जोखिम तो उठाना ही होगा।
इन मंदिरों में स्त्रियों के प्रवेश न करने को लेकर कोई भी तार्किक कारण नहीं है। कारण शायद स्त्रियों की माहवारी के कारण अपवित्रता का भ्रम है। सिमोन का सही ही कहना था कि स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। और यह बात एकदम सत्य है, स्त्री को बनाया जाता है, उसके लिए नियम कानूनों और परम्पराओं की एक दीवार खड़ी की जाती है, और स्त्री को उस दीवार से परे झाँकने की भी अनुमति नहीं है, उसे उस दीवार से परे सोचने की अनुमति नहीं है। संवैधानिक रूप से किसी भी लैंगिक भेदभाव को अमल में लाना अपराध है, पर समाज की संरचना ही ऐसी है कि स्त्रियों के सामने प्रतिबंधों का इतना आकर्षक वर्णन किया जाता है कि वे सहर्ष ही इन प्रतिबंधों का हिस्सा बनने के लिए तैयार हो जाती हैं और अपनी पहचान और अस्मिता को भी धर्म और परम्पराओं के नाम पर गिरवी रख देती हैं।
भूमंडलीकरण के इस दौर में स्त्रियों के अंदर स्वतंत्र चेतना का विकास होना एक चरण था जिसके कारण स्त्रियों में अपने मुद्दों पर सोच विकसित हुई। जहां आस्था एक तरफ मध्ययुगीन धारणा है वहीं आधुनिक स्त्रियों ने आस्था के साथ साथ अधिकारों को भी चुना। स्त्रियाँ अब अपने अधिकारों को लेकर मुखर हैं, और इसमें कोई भी अनुचित बात नहीं है। आखिर उनके साथ लैंगिक भेदभाव क्यों हो? क्या किसी भी सभ्य समाज में समाज की आधी आबादी को लैगिक आधार पर कुछ स्थानों पर जाने से या कुछ कार्यों को करे जाने से रोका जा सकता है? शायद नहीं। यह लड़ाई प्रतीकों की लड़ाई है। यह लड़ाई प्रतीक व्यवस्था की लड़ाई है। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो इस पूरे अभियान को बेवकूफी बताकर केवल प्रचार पाने का माध्यम घोषित करता है और इसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह उठाता है। एक धर्मगुरु शंकराचार्य तो यह तक कह देते हैं कि शनि मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के कारण स्त्रियों के साथ बलात्कार में वृद्धि होगी! ओह, क्या वाकई? क्या सयंम के पुजारी केवल स्त्रियों की उपस्थिति मात्र से ही अपना वर्षों का अर्जित संयम खो देंगे? या धार्मिक स्थलों पर स्त्रियों को न जाने देने का यह अंतिम अस्त्र है? क्या स्त्री की उपस्थिति मात्र ही इतनी खतरनाक है कि इन स्वयंभू ठेकेदारों का सिंहासन डावांडोल हो जाता है? और वे स्त्रियों पर धार्मिक स्थलों पर प्रतिबंध लगाने के लिए आननफानन में तैयार हो जाते हैं। वाकई, आखिर उन मंदिरों में प्रवेश की ही जिद्द क्यों जिन्होंने स्त्री के अस्तित्व को ही अछूत माना है। धर्म ने अपनी सत्ता की चारदीवारी से स्त्री को हमेशा ही बाहर निकाल कर हाशिए पर फ़ेंक दिया है। स्त्री के प्रवेश को लेकर प्रतिबंध शनि शिगनापुर से लेकर हाजी अली दरगाह तक है। धर्म के आधार पर स्त्रियों के साथ भेदभाव में कोई कमी नहीं है। अगस्त 2014 में मुस्लिम महिलाओं के एक समूह ने मुम्बई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है कि उन्हें भी हाजी अली दरगाह में प्रवेश करने दिया जाए। मामला अभी विचाराधीन है और इस पर शीघ्र ही निर्णय आने की उम्मीद है।
प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर अब ऐसा क्या हुआ है जो स्त्रियों के अंदर अपनी इस स्वतंत्रता को हासिल करने के जूनून तक चली गयी हैं। धार्मिक स्थल पर प्रवेश न दिए जाने का तर्क केवल और केवल मासिक से जुड़े हुए अपवित्रता के कारण है। एक तरफ हिंदू धर्म की अवधारणा है कि इंद्र के श्राप के कारण स्त्री को रजो धर्म झेलना होता है तो वहीं यहूदियों में पवित्र आदम को निषिद्ध फल खिलाने के पाप में हव्वा और उसकी योनी की संतानों को इस श्राप का सामना करना पड़ रहा है। इंद्र और हव्वा के कारण श्राप झेल रही स्त्रियां अब बाज़ार का एक मुख्य हिस्सा बन गयी हैं। वे अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे रही हैं। किसी भी देश की जीडीपी अब केवल पुरुषों की बपौती नहीं रह गयी है बल्कि स्त्रियां अब अपनी मेहनत के साथ अपने देश की प्रगति में खून पसीना बहा रही हैं। उन्होंने घरों से बाहर निकल कर अपनी एक नई दुनिया बनाई है। जहां पर वे अपने फैसले खुद ले रही हैं। राजनीति में स्त्रियां अपनी सूझबूझ का डंका मनवा रही हैं। फिर चाहे वह दुनिया का कोई भी देश क्यों न हो। अपने आस पास के देशों पर ही नज़र डालें तो श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश में स्त्री राजनेताओं ने अपने राजनैतिक कौशल का परचम लहराया है। भारत में इंदिरा गांधी को ही शक्ति का प्रतीक ही माना जाता है। तो क्या स्त्रियों की इस बढ़ती शक्ति को केवल पुरातन नियम कायदों के कारण सीमित किया जा सकता है? शायद अब उन्हें वंचित रखने का समय चला गया हैस्त्रियों में लैंगिक आधार पर भेदभाव के प्रति एक जागरूकता आ रही है और यही जागरूकता उनमें एक विद्रोह की भावना भर रही है। उनमें अपने लिए वही आज़ादी पाने की ललक है जो पुरुषों को प्राप्त है। सुखद यह देखना है कि यह जागरूकता सभी धर्मों के स्त्रियों के बीच है। अभी हाल ही में मुस्लिम समुदाय की स्त्रियों के बीच अमानवीय प्रथा हलाला और तीन बार तलाक पर भी बहस आरंभ हुई है। पाकिस्तान और अन्य कई मुस्लिम देशों में इस अमानवीय प्रथा पर रोक लग गयी है या उसका दायरा काफी सीमित कर दिया है, पर भारत में यह व्यवस्था अब बुराई का रूप बनती जा रही है। पड़ोसी श्रीलंका जहां पर मात्र दस प्रतिशत ही मुस्लिम जनसंख्या है, वह इस प्रथा को लगभग समाप्त कर चुका है। इसी प्रकार पाकिस्तान और बांग्लादेश भी लगभग इस प्रथा से मुक्ति पा चुके हैं। भारत में भी मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा तबका तीन तलाक के नियम को ख़त्म करने के पक्ष में है पर शायद अभी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने महिलाओं की इस मांग की तरफ से आँखें बंद कर रखी हैं। इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने जहां सरकार से जबाव माँगा है वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे धार्मिक मामलों में दखल बता रहा है। तलाक के विषय ने मुस्लिम समाज को भी बांट दिया है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री को भी एक पत्र लिखकर इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का अनुरोध किया है। इस संगठन ने भारतीय मुस्लिम महिलाओं के बीच तीन तलाक को लेकर एक सर्वे किया और उस सर्वे के मुताबिक़ 92.1% महिलाएं मौखिक और एकतरफा तलाक पर प्रतिबन्ध की पक्षधर हैं , वहीं 91.7% महिलाएं बहु-विवाह के विरोध में हैं। 83.3% महिलाओं ने कहा कि कोडिफायड मुस्लिम पारिवारिक लॉ बनाये जाने पर मुस्लिम महिलाओं को भी न्याय मिल सकेगा। एक और बात गौरतलब है कि राय देने वाली अधिकतर गरीब तबके से थीं अर्थात ऐसे परिवार जिनकी सालाना आय 50 हज़ार से भी कम है।
स्पष्ट है कि धर्म के आधार पर स्त्रियों को उनके मौलिक आधार से वंचित करने का षड्यंत्र केवल एक ही धर्म या मजहब तक सीमित नहीं है बल्कि यह सर्वव्याप्त है। स्त्रियों की स्वतंत्रता को जितना नुकसान धर्म ने पहुंचाया है या यह कहें कि धर्म की तथाकथित भ्रमित व्याख्या ने पहुंचाया है उतना किसी ने नहीं। स्त्रियों का यह संघर्ष अब अपनी अस्मिता का है। यह भी हास्यास्पद ही है कि धर्म और मजहब के नाम पर कहीं कहीं तो जींस पहनने और मोबाइल प्रयोग न करने को लेकर फतवे तक जारी हो जाते हैं। अभी पिछले दिनों ही बंगलुरु में ही नैशनल लॉ कॉलेज में एक प्रोफेसर ने एक छात्रा के वस्त्रों को लेकर उसके चरित्र तक पर उंगली उठा दी थी और यहाँ तक कह दिया था कि आप कक्षा में बिना वस्त्रों के भी आ सकती हैं, यह आपका चरित्र है। इसके बाद विरोध स्वरुप छात्राएं शॉर्ट्स में कॉलेज आई थीं और अभी इस मामले की जांच चल रही है।
स्त्रियों को शोषित करने का और अपमानित करने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ा जा रहा है वहीं स्त्रियों की तरफ से विरोध मुखर हो रहा है, फिर चाहे वह मंदिरों या दरगाहों में प्रवेश का मामला हो, तीन तलाक हो या वस्त्रों को लेकर अपमानजनक टिप्पणी। वह लड़ रही है और न्याय की इस जंग में स्त्री जीतेगी इस में भी कोई संदेह नहीं है। सुबह का आना कोई टाल नहीं सकता।



सोनाली मिश्रा
सी-208, G-1, नितिन अपार्टमेंट शालीमार गार्डन,
एक्स-II, साहिबाबाद,
ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
फ़ोन – 9810499064



रविवार, 17 अप्रैल 2016

स्वप्न साज़िश और स्त्री

स्वप्न साज़िश और स्त्री: (कहानी संग्रह)
लेखिका: गीता श्री
मूल्य: 300 रु.
प्रकाशक: सामयिक बुक्स
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
 (स्त्री के संसार को उधेड़ती कहानियां)

कहते हैं स्त्रियाँ जीती हैं रचना को, या कहें रचना जीती है स्त्री को, स्त्री करती है प्रतिकार हिंसा का या होती है शिकार हिंसा का। स्त्री गढ़ती है समाज या स्त्री को ये समाज समेट देता है एक प्रयोगशाला में। स्त्री रोचक है तो कितनी रोचक है, आकर्षक है तो कितनी आकर्षक है ये सब सोच के स्तर पर निरंतर ही शोध का विषय है, न केवल स्त्रियों के बीच में बल्कि पुरुषों के बीच में भी। स्त्री की गिरहें होती हैं, हर गिरह पर एक नया दर्द और खुशी होती है, जिसे वह बिछाना और ओढ़ना चाहती है, पर वह कुछ छिपा कर भी रखना चाहती है जो केवल उसी का हो, केवल उसी के इशारे पर नाचे, उसी के इशारे पर झांकें, और जब ऐसा कुछ सामने आता है तो स्वप्न साज़िश और स्त्री में उन तमाम कहानियों के रूप में सामने आता है जो स्त्री की कही अनकही तहों को समेटकर पाठकों के सामने प्रस्तुत करती है. फिर चाहे वह डायरी, आकाश और चिड़िया की रोली की तरह अपनी ही दुनिया बनाने वाली लडकी हो या फिर उजड़े दयार में सदिच्छा जैसी एक बिटिया जो अपनी माँ को स्त्री रूप में देख न सकी. स्त्री की स्त्री के द्वारा उपेक्षा को इस कहानी में स्पष्टतया दिखाया है.
संग्रह की बारह कहानियों में स्त्री के संसार की अनकही कहानियां हैं, जिनमें अंधविश्वास के माध्यम से परिवार की विरासत को जोड़े रखने की छटपटाहट है. भूतखेली में रिश्तों का अजीब ही खेल है. धर्म के कारण किस प्रकार एक स्त्री के सपनों की हत्या होती है और कैसे वह चकाचौंध में दोहरी ज़िन्दगी जीती है, इसे कहाँ तक भागोगी, में धर्म की जकड़ में फँसी स्त्री के अस्तित्वहीन होने की कहानी में दिखाया है.  कहानी रिटर्न गिफ्ट प्रेम के माध्यम से खुद को खोजने की कहानी है. सबसे दमदार कहानी मेकिंग ऑफ बबिता सोलंकी है, जो आधुनिक स्त्रियों के देह के आधार पर एक सीढ़ी चढ़ने या दो सीढ़ी चढ़ने और देह की सोंधी खुशबू के केवल प्रतिभा में तड़का लगने की कहानी है. लकीरें में स्त्री और नदी की पीड़ा को एकरूप कर दिया है. बदनदेवी की मेहंदी का मनडोला देह और प्रेम को अनावृत्त कर, एक ओर बदन देवी का देह का रहस्यमयी संसार है तो दूसरी ओर कायर सामंतवादी और देह भोगने वाले समाज की नंगी हकीकत पर से पर्दा उठाती है। आवाजों के पीछे में खोखले होते रिश्तों की आवाज़ है। माई री मैं टोना करिहों में माँ अपने नेह और अतिसुरक्षा के कारण अपनी बेटी को दैहिक सुख से ही वंचित कर देती है। सुरताली के इन्द्रधनुषी सपने में अनाथ सपने और ममता की कहानी है। ड्रीम्स अनलिमिटेड में वन लाइनर सपनों की कहानी है मतलब ये वन लाइनर में सपने सिमट जाते हैं, और यह कहानी एड वर्ल्ड की प्रतिस्पर्धा को स्वार्थी प्रेम की चाशनी में लपेट कर जलेबी की तरह हमारे सामने प्रस्तुत करती है। हर कहानी अपने में एक पूरी दुनिया है, हर कहानी का शिल्प और भाषा अपने आप में अद्वितीय है। गीता श्री मीडिया में रह चुकी हैं और भांति भांति के लोगों से मिलती रही हैं, और यह उनके कहानी संग्रह के विभिन्न चरित्रों की विविधता में परिलक्षित होता है।


सोनाली मिश्रा
sonalitranslators@gmail.com
C-208, G 1,नितिन अपार्टमेंट, शालीमार गार्डन
एक्स- II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश

फोन: 9810499064

लुभाता इतिहास, पुकारती कला

लुभाता इतिहास, पुकारती कला
देव प्रकाश चौधरी

कला कभी मरती नहीं, वह तब तक अमर रहती है जब तक उसके साधक उसे दुनिया के कोने कोने में पल्लवित करने के लिए उत्सुक रहें. कलाकार कला को अमर बनाने के लिए उसे जब दीवारों पर उकेरता है तो वह एक इतिहास, एक सभ्यता, एक परम्परा को उकेरता है और जब एक कला मृतप्राय होने लगती है तो वह पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति ही खतरे में आ जाती है. भागलपुर, बिहार के आसपास के क्षेत्रों में सांस लेती मंजूषा कला, भी ऐसी ही एक कला है तो चेतनता से सुप्तावस्था में चली गई है, पर अब उसे वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के प्रयास किए जा रहे हैं, अंग प्रदेश के आँगन में अपने बचपन और यौवन को जीती इस कला के बारे में बताने का प्रयास देव प्रकाश चौधरी ने अपनी पुस्तक लुभाता इतिहास, पुकारती कला में किया है. विषहरी देवी की कहानी को बताने का तरीका जितना रोचक है, भाषा उतनी ही बाँधने वाली. अंग के ऐतिहासिक सन्दर्भ विस्मित करने वाले हैं. कथा के उद्गम से विस्तार और उसके बाद उसके बंध जाने की भी पीड़ा है. कला लोक की पहचान होती है और लोकगीतों से ही विस्तारित होती है. इस पुस्तक में विषहरी से सम्बंधित लगभग हर लोकगीत के साथ इस कला से जुड़े हुए लोकगीतों को भी अर्थ सहित समझाने का प्रयास लेखक ने किया है.
मंजूषा कला की कथा छठी शताब्दी ईसापूर्व की है. कहानी शिव की मानस पुत्री विषहरी और चांदो व्यापारी की है. उन दोनों के बीच लड़ाई और अंत में चांदो की बहू बिहुला द्वारा अपने सुहाग की रक्षा करने से लेकर मनसा देवी की पूजा कर अपने सुहाग को काल के हाथों से वापस लाने की कहानी है, मंजूषा कला. कला की कहानियाँ आस्था से जुडी होती हैं, जो हर युग में एक नए ही रूप में आती हैं, कौन जानता है कि ये कथा सच होगी, पर मंजूषा कला सच है, उस कला में उकेरी जाने वाली विषहरी सच हैं. हर चरित्र एक कहानी गढ़ता है, हर चरित्र एक कहानी कहता है, वह चित्र के माध्यम से हम सबमें उस कला के प्रति प्रेम उत्पन्न करता है. और शायद यही प्रेम रहा होगा जिसने ब्रिटिश अधिकारी आर्चर को 1940 के आसपास मंजूषा को देखकर उन्हें लन्दन भिजवाने के लिए प्रेरित किया. इन्हीं आर्चर साहब ने मधुबनी को भी पहचान दी, और इन्होने ही मंजूषा को दुनिया तक पहुंचाया. कैसे कला के साधक को केवल छोटी पहचान तक सीमित कर दिया जाता है, उस पीड़ा को भी चक्रवर्ती देवी के रूप में इस किताब में दिखाया है, जिनकी कूची ने सालों की अनवरत यात्रा और कई पड़ाव पार करते हुए 2008 में विराम लिया. कला सरहदें नहीं जानती, तो मंजूषा कैसे केवल अंग तक ही थम जाती, वह भी पड़ोसी ओडिशा और कोलकता में चली गयी, पर उसने प्रेरणा दी दूसरी कलाओं को और रंग के नए प्रयोगों को. मंजूषा में परम्परा है, पर तमाम प्रयोग भी हैं. ये कला है, जिसे अनवरत चलना है, साधक तो आएँगे जाएंगे पर साधना, वह तो अमर है, कला के नए नए रूपों के साथ साधक अपनी कला को जीवित रखते हैं. मंजूषा भी आज देश की सीमा को तोड़कर बाहर जा रही है, फैशन डिजाइनिंग के छात्र अब मंजूषा को खोज खोज कर अपने कार्यों में सम्मिलित कर उसे एक नई पहचान दिला रहे हैं. कला से हम है और हम से कला, इस पारस्परिक सम्बन्ध को बतलाती है ये किताब, सच कहें तो मंजूषा के निकट ले जाती है हमें ये किताब.

सोनाली मिश्र


महाअरण्य में गिद्ध

महाअरण्य में गिद्ध
लेखक: राकेश कुमार सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य: 520 रु
समीक्षा: सोनाली मिश्रा
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

एक नए प्रदेश का निर्माण, अपनी माटी अपने लोग के नारे और उन नारों के बीच विद्रोहियों का समर्पण.  इस लुभावन तस्वीर के पीछे बहुत कुछ होता है, आदिवासियों का जीवन, उनका दोहन और शोषण, मिशनरियों की कारस्तानियाँ और सरकार का लूटतंत्र. राकेश कुमार सिंह की महाअरण्य में गिद्ध, में झारखण्ड बनने की प्रसव पीड़ा में न जाने कितने आदिवासियों के साथ हुए छल की गाथा है. कहानी में कामरेड का रोटी, रोमांस और रिवोल्यूशन के सिद्धांत को बहुत ही बेबाकी से बीडीओ सुबीर के माध्यम से कहा है. भोली भाली आदिवासी लड़कियों की तस्करी करती स्टेला कपूर उर्फ स्टीलवा दीदी, जो बाद में किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की रखैल निकलती है, या भूमाफिया व अफसरों का गठजोड़ जो जंगल से अपने घर को ही भरना चाहते हैं, सब पाठक को विस्मित करता है. उससे पहले बुलाकी मुंडा के मुंह से बुचानी मुरमू और देकुली की प्रेम कहानी में राजा के अत्याचारों की पराकाष्ठा है.  बाघ, अजगर और मगरमच्छ के सामने विद्रोहियों को ज़िंदा परोसने की कहानी.  राहत की तलाश में जब आदिवासी मिशनरी की शरण में जाते हैं तो उन्हें यहाँ भी जैसे छले जाने का आभास होता है.  धर्मपरिवर्तन से वे एक नया नाम तो ले लेते हैं पर पहचान, पहचान तो उनकी वही है. युगों युगों की गाथाएं कैसे उनका पीछा छोड़ेंगी. यह पीड़ा इन पंक्तियों से समझी जा सकती है “जब आदिवासी मिशनरी के हाथों दिल हार बैठे तो यह सच सामने आया कि सेवा और करुणा भी बेमोल प्राप्त नहीं होते”. उन्हें उनके मूल जीवन से काटने का कुचक्र, कोयले की खान की दलाली, भूमंडलीकरण में आदिवासियों का दुरूपयोग, उनकी कहानियों के बल पर अपनी तिजोरी भरने वाले NGO का सच, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उनकी पीड़ा बेचकर दिल्ली में कोठियों में रहने वाले लोगों की वास्तविकता यह किताब पाठकों के सम्मुख लाती है. मूलभूत सुविधाओं और जानकारी के अभाव में किस प्रकार भोले भले आदिवासी जादू टोने, अंधविश्वास और चुड़ैल के जाल में फंसते हैं इसके साथ उनसे लड़ने की लालसा को भी इस किताब में दिखाया है. समाजसेवा के माध्यम से लोग अब आदिवासियों के जीवन को बदलने आ रहे हैं, पर सरकारी कुचक्र जिसमें, स्कूलों का न खुलना, विभिन्न योजनाओं में नाम तो लिखवाना पर केवल मौद्रिक लाभ ही लेना, शिक्षकों का स्कूल न जाना आदि सब कुछ बहुत ही सहज प्रवाह में है.  और इसके साथ है झारखंड मुक्ति दल के बहाने राजनीति और सियासत की कहानी. कैसे आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाला दल अपने लोगों की रक्षा करता है, उन्हें दिल्ली से आए हुए बाबुओं से बचाता है, अपनी लडकियों की रक्षा करता है, अपने जंगल और जंगल के अधिकारों के लिए लड़ता है, पर अंत में जब उनका सपना एक आदिवासी राज्य बनने का साकार होने जाता है तो सत्ता के दलदल में बिखर जाता है. गुटबाज़ी षड्यंत्र, राजनीतिक लिप्सा, लालसा, काली बाबू का अपने ही दल से विश्वासघात और ददुआ मानकी का पूरे जीवन का संघर्ष, बीडीओ बाबू का अपनी नौकरी बचाने के लिए विद्रोहियों को सरकार के हवाले कर देना और अंत में मुक्तिदल का विद्रोह. और सरकारी गिद्धों के द्वारा उन्हें नोचा जाना. वाकई में ही महाअरण्य में गिद्ध जिसमें हर तरफ गिद्ध ही गिद्ध हैं जो आदिवासियों और जंगल के सम्पदा को नोच नोच कर खा रहे हैं, की भाषा जो देशज है, स्थानीय है और जो आदिवासियों के होने के बावज़ूद पाठकों को अपरिचित महसूस नहीं होने देती, बाँध कर रखती है. राकेश कुमार सिंह अपनी किताब के माध्यम से स्याह पक्ष को रखने में सफल रहे हैं. 

देखना एक दिन

पहाड़ों को चीर कर आती चीखों का क्रंदन
पुस्तक: देखना एक दिन
प्रकाशक: अमरसत्य प्रकाशन
लेखक: दिनेश पाठक
मूल्य: 240रूपए

तमाम विमर्शों से दूर ये पहाड़ों के दर्द को उकेरने वाली कहानियां पाठकों को एक अलग ही संसार में ले जाती हैं। दिनेश पाठक अपनी हर कहानी में पहाड़ों के जीवन की फिसलन वाली काई के नए रंग को दिखाने में सफल रहे हैं। देखना एक दिन कहानी संग्रह की हर कहानी लुप्त होते हुए मूल्यों की कहानी है। वह दुखों के संक्रमण की कहानी है। कहानी संग्रह के पहली कहानी आबोहवा में ही रचनाकार यह झलक दे देता है कि संग्रह की कहानियों में पहाड़ों का ही रंग होगा। आबोहवा में गाँव भर के बिशन दा, अपने ही बच्चों से हारे बैठे हैं, बच्चे विदेश में बसे हैं, वे गाँव की आबोहवा में ही रहना चाहते हैं। अपने खेत बचाने का दर्द है। वहीं धरोहर में भी संस्कारों के रूप में खुद की जमीन को संजोने के बेचैनी है। एक फौजी के बिल्डर माफिया से लड़ने की कहानी है। कारगिल में जिसने अपनी माता को नहीं नुकसान होने दिया वह अपनी माँ को यहाँ इन शैतानों से बचाएगा। रणचंडी में पहाड़ों की स्त्री के रणचंडी में बदलने के कहानी है। इसमें स्त्री की पीड़ा है। पिता स्वरुप उसे बेचता है और पति स्वरुप उसे खरीदता है। ऐसे में स्त्री कहाँ है? वह केवल एक वस्तु है। पर जब वस्तु रूपी बेटी पर उसका पति प्रहार करता है तो माँ रणचंडी हो जाती है। कहानी से ही स्त्री की शक्ति का वर्णन “पुराने लोग कहते हैं, औरतों के बदन में कभी ही रणचंडी उतरती है और जब उतरती है तो उसके हाथों हर अन्यायी, अत्याचारी का विनाश होकर रहता है” परपतिया उर्फ राजनीति और संवेदनहीनता का तानाबाना बुनती कहानी।सामजिक बदलाव के सिपाही को एक मोहरे में बदलनी की कहानी है। सामाजिक बदलाव का एक सिपाही कैसे राजनीतिक बिसात पर मुद्दों की लड़ाई हार जाता है, उस मकड़जाल की कहानी है। आगे बढ़ें तो देखना एक दिन पहाड़ों की औरतों की पीडाओं को रिश्तों में गूंथती है। सौतेली माँ है तो क्या हुआ, है तो औरत ही जो दिन के हर प्रहर में काम और केवल काम ही करती रह जाती है। पहाड़ पर औरतों के ही पहाड़ बन जाने की कहानी है। शायद औरतों ने ही पहाड़ों को थाम रखा है, जिस दिन औरत टूटेगी, चीखेगी पहाड़ भी पिघल जाएगा।
वहीं अरसे बाद कहानी में विकास के दौड़ में पीछे छूटते रिश्तों की कहानी है। आत्मबोध नदी में पड़े कंकड़ की हलचल जैसी कहानी है। भावों के शून्य पर पहुँच कर आत्मबोध के माध्यम से फिर से शिखर पर पहुँचने की कहानी है। आत्मालाप में वृद्धों को बोझ न समझे जाने का आग्रह है। तो वहीं सेवानिवृत्ति के दिन बाकी कर्मियों और विद्यार्थियों द्वारा उपेक्षा की जकड़न में कहीं न कहीं स्नेह की आस की कहानी है उपसंहार। रिश्तों की ठंडक के लिए तरसते गुरु जी की कहानी है। इस कहानी संग्रह में आंचलिकता की भाषा है। पहाड़ों की संस्कृति को बताने की तड़प है। यह कहानी संग्रह हर कहानी में सवालों की श्रंखला है, और पाठक के मन को झकझोरती है। लेखक ने कहानी की बुनावट को सघन किया है पर जटिलता से दूर रखा है और यही कहानीकार की सफलता है।

सोनाली मिश्रा
सी-208, G-1, नितिन अपार्टमेंट शालीमार गार्डन,
एक्स-II, साहिबाबाद,
ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
फ़ोन – 9810499064



तमाशा मेरे आगे

पुस्तक: तमाशा मेरे आगे
लेखक: हेमंत शर्मा
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन दिल्ली
मूल्य:300 रूपए

“काशी में गद्य की समृद्ध परम्परा है। ठेठ गद्य की। काशी में लिखने वालों में भारतेंदु का नाम शीर्ष पर है। खड़ी बोली हिंदी। बोलती हुई हिंदी। उस परम्परा में दूसरा नाम है पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का। प्रेमचंद का नाम मैं इसलिए नहीं ले रहा हूँ कि वे मुख्यत: उर्दू से हिंदी में आए थे। मैं यहाँ सिर्फ ठेठ हिंदी में लिखने वालों की बात कर रहा हूँ। काशीनाथ का नाम इसलिए नहीं ले रहा हूँ क्योंकि वे मेरे भाई हैं। इन दोनों के बाद अगला नाम हेमंत शर्मा का ही है। ठेठ हिन्दी गद्य में बनारसी रंग के यही तीन लेखक हैं – भारतेंदु हरिश्चंद्र, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और आज हेमंत!”
नामवर सिंह की ये पंक्तियाँ हेमंत शर्मा की पुस्तक तमाशा की जादूई भाषा के तिलिस्म को बताती हैं। पुस्तक में कुल 41 लेख हैं और बकौल लेखक के इन लेखों में उन्होंने ज़िन्दगी, समाज और अपने इर्द-गिर्द के इंसानों से जितना कुछ समझा, उसका चित्रण पूरी ईमानदारी से किया है।  ये लेख विचारों की यात्रा हैं जिनमें कबीरचौरा से लेकर विश्वनाथ और सोमनाथ तक के पड़ाव हैं। कहीं इनमें विलुप्त गौरैया के महत्व और यादें है तो दिल्ली की संवेदनहीन प्रवृत्ति पर भी प्रहार है। राम की सहजता और कृष्ण का देवत्व है। शिव की आस्था है और राम, कृष्ण और शिव के रूपों की तुलना भी है। इस पुस्तक के वृहद कैनवास में सभी ऋतुएँ हैं। यौवन उन्मुक्त बसंत है, सावन राग है। सावन की रिमझिम में फिसलना है तो शरद की उत्सवधर्मिता के चित्र हैं। पुस्तक में और भी कई विषय झांकते हैं जैसे समय के साथ कलुष होती होली, तो वहीं युगों युगों से आस्था का प्रतीक कुम्भ भी सहजता से अपने सौन्दर्य से परिचित कराते हैं। मामा-भांजे और दामाद को लेकर चुटीले व्यंग्य हैं। दामाद से जुड़े भ्रष्टाचार को लेकर व्यंग्य की ख़ूबसूरती इन पंक्तियों में झलकती है “सांस्कृतिक परम्पराएं देश की सरहद नहीं पहचानती। पाकिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति आसफ अली ज़रदारी भुट्टो परिवार के दामाद ही तो हैं”। इन लेखों में द्रौपदी के बहाने कई प्रश्न उठाने का भी प्रयास है। द्रौपदी के बहाने स्त्री अपमान की गाथा है और अपमान को क्षमा न करने की बात है। द्रौपदी के साथ इतिहास के अन्याय का भी प्रश्न है। प्रभाष जोशी जी की स्मृतियाँ हैं,जो पत्रकारिता के निहितार्थ सिद्धांतों की नींव रखती सी दिखाई देती हैं। सन्दर्भों के इतिहास है। व्यंग्य है चुटीलापन है। मुहावरे हैं जैसे दिल्ली को वे षड्यंत्रों का शहर बताते हैं तो काशी को राग और विराग का शहर। डॉ। लोहिया की नज़र में दिल्ली भारतीय इतिहास की शाश्वत नगरवधू है। तमाशा मेरे आगे लेख में बनारस और दिल्ली की तुलना करते हुए वे कटाक्ष करते हैं “काशी में मरने में मुक्ति है, लेकिन दिल्ली में मरने से प्रसिद्धि है, जलवा है। हतप्रभ करने वाले प्रकरण हैं। किताब के शीर्षक के अनुसार तमाशा है। जो हंसाता है जब मृत्यु का मज़ा तो दिल्ली में हैं जैसे कटाक्ष आते हैं, या केसन असी करी में सफेद बालों के कष्टों से लेखक रूबरू कराता है। हेमंत शर्मा के लिखे लेखों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि पूरी स्रष्टि भी उसमें से अपने कण खोज सकती है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता न केवल इसके सहज भाव से लिखे गए संवेदनाओं से परिपूर्ण लेख हैं बल्कि इन लेखों की भाषा भी है। भाषा में आह्लाद है, उल्लास है, गंगा की लहरों के समान भाषा है। गद्य और पद्य का बेजोड़ मेल है। भाषा में पांडित्य है, लालित्य है, गंभीरता है और शब्दों की मनुहार भी। कहा जा सकता है इस पुस्तक में विचार यायावर की तरह यात्रा करते हुए नज़र आते हैं।


सोनाली मिश्रा


भैया जी और दिल का प्रबंधन

भैया जी और दिल का प्रबंधन

भैया जी आज बहुत खुश थे, पूरे चार साल के इंतजार के बाद कल अपने दिल की बात बाउजी से बोली थी, तो थोड़े बहुत बम बिस्फोट के बाद बाउजी मान गए थे और नंदिनी और उनका सपना जीत गया था। बाउजी ने तो एक बार फिर से जीत लिया था भैया जी को।
भैया जी, खुशी में उछलते हुए फेसबुक पर ही अपनी खुशी का एलान करना चाहते थे, पर बाउजी की आज्ञा थी कि
“इसक तो कर लिया लल्ला अपएं मन से, जे ब्याह की घोसना तो हम कर दें”
बाउजी की बात तो कोई नहीं टालता तो भैया जी कैसे टालते!
इधर बाउजी ने हां की और उधर भैया जी चले नंदिनी को अपने दिल की बात बताने।
सात विधान सभा वाली लोकसभा सीट पर अपने बाउजी की जीत की सफल रणनीति बनाने वाले भैया जी उर्फ अभिलाष आज फिर से वही नए नवेले शर्मीले अभिलाष जैसे लग रहे थे जिन्होंने जब मुम्बई में एक प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान में दाखिला लिया था। और वहीं टकरा गए थे छोटे शहर की गलियों के सपने और बड़े शहर में पली बढ़ी फैशन की मल्लिका नंदिनी के ख्वाब। जहां अभिलाष एक कठोर अनुशासन वाले राजनीतिक परिवार के इकलौते ख्वाब थे तो वहीं नंदिनी, नंदिनी अपने पिता का सपना पूरा करने के लिए एमबीए करने आई थी। एक सूरज की धूप में रूप लेकर बढ़ा था तो एक चाँद की शीतलता में, जहां पर उसने बड़ों के होंठों पर तेज धुप महसूस ही नहीं की थी, एक गुलाबों में रहता हुआ पर कांटों से बचता हुआ अपनी ज़िन्दगी के उधेड़बुन में था कि थोड़े दिन वह यहां है फिर तो उसे अपने पिता की ही राजनीतिक दुकान की मालाओं को ही बेचने जाना है। उनके पिता माने बाउजी का इस बार का लोकसभा का टिकट पक्का था क्योंकि इस बार सत्ताधारी दल के हारने की बहुत संभावना थी। पंद्रह बरस तक एक ही दल की सरकार के बाद इस बार विपक्षी दल का डंका खूब जोरों पर था और बढ़ती हुई तकनीक का फायदा जहां एक तरफ विपक्षी दल उठा रहा था तो वहीं बाउजी का दल अभी सरकार के किए गए कामों के आधार पर तली हुई मछली खाने की आस संजोए था। पर आंकड़े इस बार इस मछली में कांटे अधिक दे रहे थे, आंकड़ों के बाजीगर इस बार दल के पक्ष में नहीं थे, उस पर सालों साल गरीबी का न कम होना, विकास का उतना न होना आदि आदि सब बाउजी की पार्टी की सरकार के जाने की भविष्यवाणी सालों पहले करने लगे थे और उस पर लड़कियों पर बढ़ते बलात्कार और भ्रष्टाचार के मामलों ने भी हालत पलीत कर दी थी। ऐसे में बाउजी का कहना था कि डूबते जहाज की इस बार सवारी में जो पार उतर गए तो सालों साल कोई हिला नहीं पाएगा। और बाउजी को अपने दल की इस बर्बादी पर रोटी सेंकने से कोई भी नहीं रोक सकता था, बाउजी ने अपनी तैयारी चुनाव के दो-तीन साल पहले से ही शुरू कर दी थी। और अभिलाष को भी ताकीद कर दी थी कि उसके आगे की राह क्या है, पर अभिलाष उर्फ भैया जी! उनका सपना क्या था? इससे बाउजी को क्या?

अभिलाष भैयाजी के नाम से प्रसिद्ध थे, बहुत ही कम उम्र में राजनीति की समझ आने लगी थी, पर उन्हें तो कुछ और ही आकर्षित करता था, जब से नेट का जमाना आया था तब से वे राजनीति की गलियों से नैन मटक्का छोड़कर नेट और प्रबंधन की तरफ आकर्षित हो गए थे। वही जाति का गणित, इधर तोड़ना, उधर तोड़ना उन्हें पसंद न था। उन्हें तो खुला आसमान बुलाता था, पर भैया जी का लेबल ऐसा लगा था कि अभिलाष तो कहीं खो गया था। ऐसे भैयाजी के संबोधन से दूर उन्हें अभिलाष बनाया नंदिनी ने। सांवले रंग की साधारण नंदिनी ने न जाने एक दिन कौन सी दुखती रग पर हाथ धरा कि भैयाजी की इमेज धुल गयी। उस दिन सूरज एकदम बसंती होकर निकला था।
“नंदिनी, तुम नहीं जानती तुमने क्या किया?” एक दिन अभिलाष ने भावुक होकर कहा था।
“कुछ नहीं कहना अभिलाष, तुम एक चोला पहने थे, मैंने वाल चोला हटाया है, और तुम्हें तुमसे मिलवाया है” नंदिनी ने उसका हाथ अपनी हथेलियों में बंद करते हुए कहा
“नंदिनी, क्या तुम मेरा हाथ इसी तरह अपनी हथेलियों में थाम सकती हो?”
कांप गयी थी नंदिनी! उसने हाथ छोड़ दिया था,
“पता नहीं!”

बाउजी के किस्से जूहू पर भी अभिलाष को घेरे रहते थे, क्या ऐसे में उसने कभी भी अपनी मां का ज़िक्र किया नंदिनी से? क्या जरूरत थी? मां ही तो थी? घर और बाउजी और उसके बाद समय मिले तो उसके सारे काम करती थी। पर मां उसके ख्यालों में इस समय क्यों थी क्योंकि इस समय तो नंदिनी के हाथों की उसे सबसे ज्यादा जरूरत थी, उसके लिए उसे मां की जरूरत होगी ही। हां उसके इस कोने को उसकी मां ही अपने कोने की धूप देकर घर में जगह दिलवा सकती है।
“मैं बहुत ही साधारण परिवार की लड़की हूं, पापा सेना में हैं। उनका हर जगह ट्रांसफर होता रहा है, अभिलाष, नेताओं के बारे में उनका विचार कुछ सकारात्मक नहीं है! हो सकता है कि तुमसे कोई समस्या न हो, पर तुम्हारे पिता? पता नहीं वे उनके बारे में क्या सोचें?”
“अरे नहीं, बाउजी नहीं कुछ कहेंगे, और मां, वो तो देखना”
“ठीक है, देखेंगे” ढलता हुआ सूरज अपने सिंदूर से न केवल समंदर बल्कि उन दोनों के होंठों पर भी स्वीकृति का सिंदूरी रंग देकर जा रहा था। इधर सिंदूर लहरों पर बिखर रहा था तो वहीं नंदिनी की देह और आत्मा का समर्पण बरसों की बनी बनाई अगढ़ मूर्ति को एक नया ही रूप दे रहा था।
नंदिनी के प्यार की कूची से जो अभिलाष का चित्र बना उसमें वह खोजता रहा भैया जी का निशान, पर उसे नहीं मिला।  ऐसा क्या कर दिया नंदिनी ने! पर दो साल तक उनके प्रेम के निर्बाध रूप से चलने के बाद जैसे उन दोनों के सपनों पर एक सुनामी का वार हुआ।
कभी भी चुनावों की घोषणा हो सकती थी, बाउजी का कहना था कि पढने के बाद नौकरी का जितना शौक था, पूरा हो चुका और अब किसी और के लिए मार्केटिंग करने से बेहतर है चुनावों की ब्रांडिंग और मार्केटिंग की जाए। और ऐसा कहना बाउजी का गलत नहीं था क्योंकि इस चुनाव में परम्परागत सभी तरीके विफल हो रहे थे और चुनावों में विपक्षी दल एक से बढ़कर एक तकनीक के साथ आ रहा था, नए नए नारे आ रहे थे और उनके दल का परम्परागत वोटबैंक विपक्षी दल की तरफ लुढका जा रहा था। इधर वे थे पुराने, पचास की उम्र पार करने जा रहे थे और एक तरफ उनके विरोध में कड़े मुकाबले में उनसे युवा प्रत्याशी था और वह था सोशल मीडिया का धुरंधर। और इस बार का चुनाव प्रचार भी हाईटेक था, हर रोज़ कोई न कोई डिजिटल रथ आ जाता। और उनका वोटबैंक उधर जा रहा था। भैया जी को बुलाने की मांग, उनका कैडर कर रहा था। इधर भैया जी नंदिनी के साथ भूल भी चुके थे कि उनका असली रूप तो भैया जी का है, अभिलाष तो नंदिनी का दिया हुआ है! अब क्या करेंगे? जाना तो होगा ही। पर नंदिनी?

एक बार हिम्मत करके मां से बात की तो मां ने सबसे पहले घर आने की सलाह दी। फिर ही कुछ करने की। क्या हो सकता था, इतनी हिम्मत न थी कि नंदिनी के साथ कोर्ट मैरिज करके जा सके! आखिर बाउजी की राजनीतिक साख भी तो थी, नंदिनी का उधर बुरा हाल था। आखिर वह परेशान क्यों थी, अभिलाष ने तो कुछ भी छिपाया नहीं था, सब कुछ तो बता दिया था। फिर?

जो जूहूबीच उनके पहले मिलन का गवाह बना था वही अब उनके बिछड़ने और मिलने के वादे का गवाह बनने जा रहा था
“नंदिनी, मेरा विश्वास रखना! मैं आऊँगा। बाउजी को मनाकर तुम्हें अपने घर की लक्ष्मी बनाकर ले जाऊंगा”
“तुम पर भरोसा है, मेरा भरोसा न टूटने देना।”
“हां यार, अब तो बात राजनीति और सेना के मेल की है। आखिर कैसे एक का भरोसा टूटने दिया जाएगा? देश और नई रचना तो दोनों के मिलन से ही होगी न”
“चलो, बन गए तुम नेता अभी से ही”
“नहीं यार, मैं नेता नहीं हूं”

घर आकर अभिलाष उर्फ भैयाजी का नया ही रूप देखा लोगों ने। कुछ तो बदले थे भैया जी। ये तो पहले वाले भैया जी नहीं थे। भैया जी अब पहले से मैच्योर लगने लगे थे, भैया जी अब गंभीर वाली शायरी करने लगे थे। कुछ तो बहुत अलग हो गए थे भैया जी।
तो इस कसबे नुमा सात विधानसभा सीटों वाली लोकसभा की सीट का गणित बाउजी को बहुत डरा रहा था। उन्हें डर था कि कहीं उनका पैसा डूब न जाए। बाउजी की पूरी प्रतिष्ठा दांव पर थी। पूरे पांच साल किस तरह हाथपैर जोड़ने के बाद उन्हें टिकट मिला था। और जितना सरल उन्हें लग रहा था उतना सरल अब कुछ रह नहीं गया था। फेसबुक और ट्विटर ने परम्परागत वोटर को भी मुख्यधारा में ला दिया था। वह भी सवाल करने लगा था
“काहे भैया, जे न भओ इत्ते सालन में?”
“जे सरक को ठेका तो पिछरे ही साल दओ गओ हथो, तो अब! जा साल फिर?”
तो कुछ बहुत ही स्मार्ट हो गए थे:
“जा काम में तो आरटीआई ने बताओ है कि इत्तो ही बजट हथो, फिर जाको बजट इत्तो कैसे पहुँचो”
सूचना का अधिकार अधिनियम, उन्हीं की सरकार के लिए एक बेताल बनता जा रहा था। ऐसे में अभिलाष ही उन्हें एक रोशनी की किरण लगता था, उनका मैनेजमेंट पढ़ा हुआ लड़का! कुछ न कुछ तो करेगा ही। ऐसे ही उनके घर पहुँचने के दूसरे दिन ही उनके कंधे पर हाथ धरते हुए बाउजी ने कहा
“मैं तुम्हारे भरोसे हूं, मुझे निराश न करना”
“बाउजी! ये क्या कह रहे हैं, ये तो मेरा फर्ज है”
“बेटा, ये वैतरणी पार करा दो, इसके बदले में तुम जो भी कहोगे वह करूंगा”
“बाउजी! देखिएगा, मुकर न जाना!”
“सवाल ही नहीं”
ढलते हुए सूरज के साथ जैसे भैयाजी बने अभिलाष ने मुम्बई में नंदिनी के पास संदेसा भिजवाया और सूरज ने उसके संदेशे के साथ फिर से सिंदूर घोल दिया।
विरोधी पार्टी की रणनीति का अनुसरण करते हुए भैयाजी जुट गए अपने बाउजी के लिए विजय की रणनीति बनाने में, उन्होंने केवल एक ही बात को ध्यान अपने लोगों को ध्यान में रखकर प्रचार करने के लिए कहा कि दिल्ली की गद्दी पर कोई भी बैठे, आखिर यहां पर तो आपको यहीं का व्यक्ति चाहिए, जो आपके शहर में पला बढ़ा हो, जिसे आपके शहर की नस नस पता हो। आपका अपना ही यहाँ से आपका प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए। विरोधी दल ने किसी बाहर से आए हुए को टिकट दिया था. रणनीति बनाते समय भैया जी ने उनके असंतुष्ट कार्यकर्ताओं को भी ध्यान में रखा.

भैयाजी उर्फ अभिलाष ने इस चुनाव अभियान को नंदिनी को पाने का एक रास्ता समझा। हर अभियान, हर नारा उन्होंने नंदिनी को केंद्र में रखकर बनाया। जैसे ही वे कोई रणनीति बनाते और कमजोर लगती, वैसे ही उन्हें नंदिनी किसी और के गले में वरमाला डालते हुए दिखती। नंदिनी के हाथों की वरमाला वाले सीन को उन्होंने पॉज़ पर डाला और कहा “मैं ही आऊँगा यहां”।

इधर चुनाव प्रचार जोर पकड़ रहा था, उनके दल के राष्ट्रीय नेता इस बार जनता का रुख भांप कर ज्यादा सक्रिय नहीं थे। आ गया कोई तो ठीक नहीं तो केवल विरोधी दल के ही प्रशंसक इनदिनों उड़ रहे थे।फेसबुक और ट्विटर पर बाढ़ आ गयी थी। इधर भैया जी विरोधी दलों के नेताओं की हर रणनीति का अनुसरण करते हुए बाउजी के इमेज मेकिंग यानि छवि निर्माण में लगे हुए थे। और अपनी मार्केटिंग रणनीति का प्रयोग करते हुए उन्होंने बाउजी को अब एक बिकाऊ उत्पाद में बदल दिया था। जहां हर क्षेत्र में विरोधी दल के जीतने की प्रबल संभावना थी इस क्षेत्र में बाउजी को एक गंभीर प्रत्याशी माना जाने लगा था। और बाउजी कहते थे कि पोलिटिक्स इज द गेम ऑफ पर्सेप्शन।

परसेप्शन में बाउजी को जिताकर जैसे ही भैयाजी कमरे में घुसते उन्हें नंदिनी के मेसेज एक ठंडी हवा के झोंके से लगते। और वे गुनगुना उठते
“आखिर तुम्हें आना है, जरा देर लगेगी”। वे सपने में लजाई हुई और अपने में सिमटी हुई नंदिनी को देखते। फिर जैसे ही शादी का सपना आता वैसे ही बाउजी की सांसद की कुर्सी भी ध्यान आती। और उन्हें बाउजी और वे खुद दोनों ही एक शादी के मंडप में बैठे हुए दिखाई देते, एक की दुल्हन दुसरे के कंधे पर आती हुई दिखती।

भैयाजी पसीना पसीना होकर बैठ जाते, जैसे ही बाउजी की मतगणना में उनके पीछे चलने की सूचना आती और नंदिनी भी उनसे हाथ छुड़ाकर उतना ही दूर हो जाती। भैया जी मतगणना का महत्व समझ गए थे। नंदिनी से सम्मानजनक तरीके से ब्याह करने के लिए अब मतगणना में हर गणित अपने ही पक्ष में करना था। जातिगत गणित की चालें जहां बाउजी अपने तरीके से चल रहे थे वहीं युवाओं और उदासीन वोटर को अपने पक्ष में करने के लिए प्रचार के तमाम फंडे युवा टीम अपना रही थी। क्षेत्र के कल्याण के लिए सपने वे हर पार्क में जाकर मोर्निंग वाक करने वालों को कफसीरप की तरह पिलाते। हर परेशानी को कोई अपना ही समझ सकता है, कहकर हल करने का नुस्खा देते। उधर हर इस तरह के मैनेजमेंट के साथ भैया जी अपने दिल के मैनेजमेंट को भी समझाते।

चुनाव नज़दीक आते ही चुनाव प्रचार में तेजी आ गयी और दूरी आ गयी नंदिनी और अभिलाष के संवादों में पर सपने में हर सफल चुनावी अभियान के बाद वह नंदिनी को और नज़दीक कर लेता। भैया जी बने अभिलाष ने रातों को सोना भी बंद कर दिया था कि कहीं सपना भी कोई नकारात्मक न आ जाए और नंदिनी उससे दूर हो जाए। अंतत: उसकी मेहनत और बाउजी का गणित रंग लाया। युवा जोश के साथ एक अपने की रणनीति जीत गयी और जीत गया उसका और नंदिनी का प्यार।

बाउजी की पार्टी जहां बुरी तरह हारी वहीं इस हार में नायक बनकर उभरे बाउजी, जिन्होंने रिकोर्ड मतों से जीत दर्ज की। विरोधी पार्टी की लहर में जहां कई किले ध्वस्त हुए वहां बाउजी ने अपने परिवार के लिए एक बुरे समय में जीत दर्ज कर किला और छावनी बना लिया। इधर रिकोर्ड टूटे और बाउजी का साम्राज्य बन गया। 
उस रात दिल्ली से शराब आई, युवा जोश को जमकर बहकने दिया गया, नदियाँ बहीं, और उस नदी में न बहते हुए भैया जी ने बाउजी से अपने दिल की बात कह दी।
जीत की खुमारी अभी उतर भी न पाई थी कि ये एक और धमाका कर दिया।
“का कह रहे हो लल्ला, जे”
“बाउजी, आप ने ही इस जीत के बाद मेरी मांग पूरा करने का वादा किया था न!”
“सही है लल्ला, पर हम तो सोचे हथे कि तुम कोई कार, बाइक जैसन कुच्छो मांग्यो, पर जे जात से बाहर ब्याह? और तापे एकदम साधारन लोग, जे लल्ला, कौन मुसीबत में डाल दयो। जे तिवारी जी भी कह रहे, तुम्हें पता दोई दोई सांसद है बा घरे से, होएं पराई पार्टी के लोग, हैं तो अपएं लोग ही! अपईं जात के, और सबसे बढ़कर चार चार भाई! जे मौडिया के तो एकउ भाई नहीं! चरो जात न सही, पर जे, न लल्ला!”
“बाउजी! आप अपनी जुबान से फिर रहे हैं, मैं मर जाऊंगा नंदिनी के बिना”
बिना पिए भी जिस तरह का जुनून भैयाजी की आँखों में दिखा वह बाउजी को सिहराने के लिए काफी था। अंतत: काफी जद्दोजहद के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया कि जहां भैया जी की सादी ऊ सेना वाले की बिटिया के संग होगी तो वहीं अपने तिवारी जी की बिटिया की मांग में भतीजा सिंदूर डालेगा।
भैया जी उर्फ अभिलाष अपनी नंदिनी को अपना बनाने के सपनों में खो रहे थे, आज वह सांसद की कुर्सी पर बाउजी को बैठाकर अपनी जिंदगी को पा चुके थे, उधर बाउजी और चाचाजी में सातों विधानसभा सीटों में कौन से भतीजे को कौन सी सीट पर तिवारी जी के सहयोग से जितवाया जाए, उस पर बात करने के लिए मीटिंग की व्यवस्था की जा रही थी
“अब ऊ सेना वाले के भरोसे तो न जीते जा सकते चुनाव, परिवार वालन के लएं भी तो करनों हैं बहुत”
दिल्ली से लाई शराब की खुमारी जहां भैया जी के सपनों की खुमारी के आगे कुछ नहीं थी वहीं बाउजी की आँखों में तिवारी जी और विधानसभा सीटें थीं, आखिर किसी भी दल की सरकार हो, काम तो अपने ही आने हैं न!
मैनेंजमेंट चल रहा था बाउजी की कुर्सी का और भैया जी के दिल का!



सोनाली मिश्रा
सी-208, G-1 नितिन अपार्टमेंट
शालीमार गार्डन एक्स-II
साहिबाबाद
गाज़ियाबाद

उत्तर प्रदेश 

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

नताशा

नताशा
उसने कहा "आज तो रुको"
वो बोला नहीं आज नहीं,
"
क्यों क्या हुआ है, अभी तो सवेरा भी नहीं हुआ है"
बस ऐसे ही" उसने सिगरेट सुलगाई, शर्ट उठाई, और धीरे से बोला, "सवेरा तो नहीं हुआ है, पर मन में कैक्टस से कोई चुभो रहा है"
तुम्हारे कमरे में घुटन सी हो रही है, आओ छत पर चले,"
वो बोली "ऐसे"
उसने एक वितृष्णा सी हंसी हंसी,"अब और कोई भी होगा क्या, तुम्हारी पीठ देखने के लिए"
"
सुनो, यहीं बैठकर बात करो "
वो बोला ", अब नहीं, अब या तो छत पर चलो, या फिर मुझे जाने दो, ये जो छन छन कर चाँदनी रही है, वह धुप के जैसी जला रही है, तुम वह नहीं हो, और मेरी प्यास भी नहीं हो, बस यूं ही हो, तुम्हारे देह के उभार भी मेरे दिल से उसे नहीं निकाल पा रहे हैं, तभी ये चाँदनी, धुप बन कर जला रही है, चाँद को नजदीक से देखूं तो शायद इस भ्रम से बाहर निकल सकूं"
वो बोली "नहीं, फिर तुम जाओ, चम्पा को गुलाब मन समझ कर ग्रहण करोगे, तो कैक्टस ही चंपा लगेगी"
“नहीं, सुनो, अपना तिल तो दिखाओ”
“वो तो तुमने ही हटा दिया था”
“उहनू”, वो चादर हटाते हुए बोला “धत, चल झूठी”
उसने अपने बाल हटाते हुए कहा “न, सच कह रही हूँ, रात को ही तुमने हटाया था, वो जो कल मैं नया नेलपॉलिश रिमूवर लाई थी”
“देखा, आज फिर वह चली गयी”
“फिर से छुआ, और चली गयी” वह उठा और खिड़की से छन कर आ रही चांदनी से लड़ने का असफल प्रयास किया, “मुझे बख्श दो, चांदनी जाओ, आज तुम्हारे पास कोई बादल नहीं है, जाओ”
“और तुम क्या बेशर्मों की तरह सो रही हो, उठो”
“क्या करूं मैं”
“कुछ और नहीं, तो मुझे उसकी याद ही दिलाओ”
“क्यों”
“क्या तुम्हें पता नहीं”
“नहीं, ये हमारे रिश्ते की शर्त नहीं थी”
“नहीं थी” उसने उसकी गर्दन पर अपनी उंगलियाँ गढाते हुए कहा
“पर मैं ऐसा ही हूँ, तुम वह नहीं हो सकती हो, वो आ नहीं सकती है, मेरी बाहों की उसकी आदत है”
मेरी देह को उसकी गंध पसंद है, तुमने डीओ भी नहीं लगाया था, उसके वाला, अब क्या करूं? कैसे उसे हटाऊँ”
“तुम मेरी बिलकुल भी मदद नहीं करती हो”
अपने शरीर पर एक झीनी सी चादर उसने लपेटी, जिससे उसके हर अंग पर चांदनी भी अधिकार पूर्वक आ जा सकती थी, और उससे कहा “चलो छत पर चलते हैं”
उसने उसे लगभग समेट सा लिया, और अपनी बाहों में उठाया, वह झीनी चादर कहीं छिप गयी और उसके शरीर की परछाईं लगभग उसके शरीर पर छा गयी. अँधेरे में जैसे दो बिल्लियाँ आतुर होकर एक दूसरे से चिपक रही थी, वैसे ही इन दोनों की देह एक दूसरे पर छा रही थी.
छत पर जाकर हरसिंगार के फूलों से वह उसका सिंगार करने लगा. हरसिंगार के फूल अभी खिले नहीं थे, हलके हलके से खिल रहे थे, पर उनसे निकलने वाली मादक सुगंध से जब सांप खिंच आ रहे थे, तो वे कैसे इसके मोह से वंचित रह जाते.
एक एक हरसिंगार के फूल को वह अपने होंठों पर लाता, उसका नाम पुकारता और उसके शरीर पर पड़ी झीनी चादर पर रख देता. वह झीनी चादर एक समय में एकदम से सफेद और केसरिया हो गयी.
“अरे, वह क्या है?”
“सुनो, आओ न”
“नहीं, देखो तुम्हारा तिल भी नहीं है, तुमने ही कहा था न, तुम उसकी याद कभी भी न आने दोगी”
“तुमने ही तो तिल हटाया था”
“पर तुमने मना क्यों नहीं किया”
“अच्छा, सुनो, अपने बाल तो हटाओ”
“तुम्हीं हटा दो, और कहकर पलट गयी, झीनी सी चादर एकदम से उसके बदन से हट गयी”
छत की एक ओर तो कहीं बिल्ली अँधेरे में कुत्ते से डर रही थी, सहम रही थी, कबूतर बिल्ली से बच रहे थे, नीम के पेड़ से निम्बोरी भी गिर रही थी, और उनकी कोटरों में बैठे कठफोड़वे भी जैसे इस रात के बीतने का इंतज़ार कर रहे थे. हवा का झोंका आया, और गुलमोहर की एक शाखा को हिला गया, अब बदन एकदम हरा हो गया, गुलमोहर के नीचे लेटी नताशा, हां, वह उसे नताशा के नाम से ही बुलाता था, उसका अपना नाम क्या रहा होगा, उहूं, क्या फर्क पड़ता है, नाम से. ओस भी गिरने लगी थी, बदन पर अब चादर फिर आ गयी थी और ओस से भीगने लगी थी. नीम के पेड़ पर पडा झूला भी हिलने लगा था. और वह अब ओस से भीगे हुए बदन पर रात की रानी के अधखिले फूल सजाने लगा था.
नाभि पर रात की रानी का फूल रख कर उसे चूमते हुए कहा “सुनो, नताशा, मैंने तुम्हें बहुत दुःख दिया है, अब मैं कोई दुःख न दूंगा”
“सुनो, तुम्हारी पीड़ा के आगे तो मेरा यह दर्द कुछ भी नहीं है, मैं तुम्हें इस दर्द में जलते हुए नहीं देख सकती हूँ, तुम अपने शरीर से उसकी छुअन को हटाने के लिए कितनी बार नहाते हो?, डीओ लगाते हो, दिन भर टालकम पाउडर लगाते हो, तुम्हें पता  कल तुम कितनी बार नहाए थे?”
“पता नहीं, यार, बस लगता है वह चली जाए, मेरे दिल से, दिमाग से, और मेरी देह के हर कोण पर उसने जैसे अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया है, वह ससुरी जाती ही नहीं है, आँखों से निकालता हूँ, तो गाल पर चिकोटी काटती हुई आ जाती है.”
हम्म, तभी फिर से एक झोंका आया और रात की रानी के फूल भी उड़ गए, और चादर फिर से अकेली रह गयी. चांदनी फिर से आने लगी, उसने उसकी टांगों को छूते हुए कहा, पता नताशा, उसकी ही टाँगे इतनी उजली थी, इतनी ही, जैसे दूधिया चांदनी होती है, और उसकी कमर, मेरी हथेलियों में समा जाती थी, वह मुझसे दूर नहीं जा सकती थी, मेरे सीने पर अपना सर रखती थी, और फिर मुझे हलके से सहलाती थी, और धीरे से कहीं इतनी अन्दर चली जाती थी, जहां तक मैं भी नहीं जा पाया हूँ, उसकी पतली पतली उंगलियाँ जब मेरे बालों में कुछ निशाँ बनाती थी तो ऐसा लगता था कहीं से मारीच की खोज में कोई आ गया हो”
“हां, तुम्हारी टाँगे, उतनी उजली नहीं है, पर चलो,”, उसके होंठों पर सिगरेट फिर आ गयी थी, चांदनी रात में वह धुंए के छल्ले उछाल रहा था, पर लग रहा था एक सिगरेट उसके अन्दर भी सुलग रही थी. वह धुंए से लड़ने की कोशिश करने लगा, “तुम ही तो थे, जिसने उसे छुआ था, तुम जाओ, वो मेरी है”
अब तक वह करवट बदल चुकी थी, और उठने की कोशिश करने लगी थी. उसने आकर उसे पीछे से पकड़ लिया “देखा, तुम भी जा रही हो, उसके जाने के बाद तुम भी चली जाओगी?”
उसने कुछ नहीं कहा, बस हरसिंगार समेटने लगी. उसके शरीर के कई अंग इस समय चांदनी में साफ दिख रहे थे. उसने उस झीनी सी चादर में वे सारे हरसिंगार समेट लिए, जो उसने उसके अंगों पर रखे थे. और पास में रखी बाल्टी में डाल दिए. उसने ये देखकर गुस्से में दांत किटकिटाए, “कितना मना किया है तुम्हें, ये सब न किया करो” सुनो, इधर देखो, फेंको ये फूल, फेंको, मैं कहता हूँ फेंको”
नहीं सुनोगी तुम?”
उसने हाथ पकड़ा. “नहीं मैं सुबह इसीसे नहाऊँगी और तुम्हें खुद में समाऊँगी, तुम मुझसे ये हक़ नहीं छीन सकते, तुमने कहा, मैं उसका नाम रखूँ, मैंने रख लिया, तुमने कहा उसके जैसे बाल बनाओ, मैंने बना लिए, तुमने कहा उसकी गोलाइयां भी अलग हैं, मैंने वह भी कर ली, और फिर तुमने ये भी कहा कि तुम मेरे नहीं हो, मैंने वह भी माना, पर तुम मुझे खुद को तुम्हें मुझमें लेने से रोक नहीं सकते”
“मैं केवल उसी का हूँ, सुना तुमने, केवल उसी का, और ये तुमने अगर पानी लिया तो मैं तुम्हें कभी भी नहीं छुऊँगा”
“मत छुओ, वैसे भी तुम मुझे कहाँ छूते हो?, तुम तो केवल नताशा को छूते हो”
याद करो, तुमने मेरी देह को चंपा बताया था, और जब तुमने उसे देखा तो कैसे कहा था, हां, नताशा के यहाँ तिल था, यहाँ बारीक तिल था, तो बाजू में नीचे की ओर लाल रंग का मस्सा था”
कूल्हे पर कहाँ पर तिल था, कहाँ पर उसकी त्वचा चम्पई थी, कैसे तुम्हें सब याद था”
ऐसे में जाने कैसे एक चमगादड़ की चीं चीं से उसकी बची खुची चादर भी उसके शरीर से हट गयी, और फिर से उसकी परछाईं बादलों की ओट में गए चाँद के कारण अनावृत्त होने से बच गयी.  इससे पहले चाँद बादलों की ओट से बाहर आता, वह जुगनू से भी जैसे खुद को छिपाने लगी. सिगरेट के जैसे सुलगने लगी, चादर उठाई, और चाँद के बाहर आने से पहले उसने चादर को अपने ऊपर तह सा कर लिया.
“मेरे शरीर में दोनों उभारों के बीच में कितनी दूरी है, ये तक तुमने नताशा के अनुसार कर दिया है, तुम कौन से उभार में कितनी देर के लिए जाओगे, ये सब तुम्हीं ने तय किया है? मैं हूँ ही कहाँ? हर ओर तो नताशा है?, मेरे दांतों को भी गिनने लगे थे तुम उस दिन, याद करो” और उसकी सांस फूलने लगती है. और वह गिरने लगती है, वह नहीं थामता, सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा है. “सुनो, ये मैंने तुम्हें बताया था, नताशा मेरे जीवन से जुडी है, वह मेरी है, हां, वह मुझे छोड़ कर चली गयी है, पर है तो मेरी न, मैंने उसे बनाया है, वह मेरा चरित्र है”
जैसे ये सिगरेट के छल्ले उड़ रहे हैं, न वैसे ही वह मेरे इशारों पर कभी उडती थी, मैं उसे अपनी बाहों में लेकर रॉबर्ट ब्राउनिंग की कविताओं पर डांस करता था,
I and my mistress, side by side
Shall be together, breathe and ride,
So, one day more am I deified.
  Who knows but the world may end to-night?
“मैं गाता, क्या पता दुनिया आज ही ख़त्म हो जाए, कल आए ही नहीं”
सुनो, फूल फेंको”
“नहीं, अरे देखो हठ मत करो”
सुना नहीं, तुम भी नताशा बन गयी हो, जिद्दी, ढीठ”
बीच बीच में उल्लू भी नताशा को डरा रहे थे, हवा के झोंकों से नीम की पत्तियां भी शोर कर रही थी.
“देखो, नताशा तुम मेरी नताशा नहीं हो, नहीं हो तुम, मैं उसका हूँ, तुम मुझे नहीं खुद में समा सकती हो” वो पागल जैसा इधर उधर जाता है, “नहीं नहीं, मैं केवल उसी का हूँ, तुम्हारा नहीं हूँ, मैं कहता हूँ हटाओ फूलों को?” अपने हाथ से फूल लेकर फ़ेंक देता है, और छत पर चाँद भी इसे नहीं देख पाता, वह भी फिर से बादलों में चला जाता है. एक बार फिर केवल जुगनू का उजाला रह जाता है.
“तुम्हें मना किया है न, फिर भी तुम, मैं केवल एक ही नताशा का हूँ, उसकी चादर में खुद को लपेटते हुए कहता है. फिर से छत पर चांदनी छाने लगी है, परछाई एक होने लगी है,
“तुम्हारी बाजू कितने कोमल है, नताशा के नहीं थे, तुम एकदम मैदा की लोई जैसी कोमल हो, वह आटे जैसी थी, लेकिन गोरी बहुत थी, तुम नहीं हो”
नताशा, मेरी नताशा, तुम्हें पता, तुम्हारी पीठ पर जब भी मैं अपने होंठ रखता हूँ, तो मैं उसका वह जला हुआ निशाँ खोजता हूँ, जो मैंने हलके से सिगरेट से लगा दिया था, और उसने सर माथ पर रख दिया था” चादर हटाता है “लेकिन तुम्हारी पीठ कैसे बेदाग़ है, ये क्यों बेदाग़ है, उसने क्या अपराध किया था, जो मैंने उसे जलाया, जला तो तुम मुझे रही हो, ये बेदाग़ पीठ दिखाकर, तुम्हें इतना कोमल होने का अधिकार नहीं है”
वह चुप रहती है, मौन प्रतिकार करती है. “अब छोडो भी, देखो, जुगनू शांत होने लगे हैं, कभी भी उजाला हो जाएगा, अब जाने दो, मुझे मेरे कोने में जाने दो”
“चलो”
दो परछाइयां फिर से चलने लगती हैं, और पीछे से हरसिंगार, रात की रानी और चम्पा भी हवा के साथ बिखर जाते हैं, जैसे वे कल के लिए सेज बिछाने का इंतज़ार कर रहे हों.
धीरे धीरे पूरब के कोने से किरणें उगने लगीं, पूरे गगन पर पहले स्वर्ण आभा और उसके बाद जैसे सोने को चीर कर चांदी की किरणें फैलने को उत्सुक हो गयी. गगन पर हलचल होने लगी. अभी तक जहां पर चांदनी का साम्राज्य था अब धुप का हो गया. कैक्टस के फूल खिलने लगे और रात की रानी की सुगंध कहीं खोने लगी. अब चिड़िया आ गयी थी उस गुलमोहर पर जिसने कल उसे अपनी पत्तियों से ढका था. अब धीरे धीरे पत्ते बिखरने लगे थे. उसने भी कमरे में आकर अपनी कमीज पहनी, और जाने के लिए तैयार हो गया. वो बोली “सुनो, नाश्ता नहीं करोगे”
उसने कहा “नहीं, आज शूट के दौरान ही खा लूंगा, तुम अपना ध्यान रखना”
अब तक वह भी नहा कर आ चुकी थी. उसने घुटनों तक स्कर्ट पहनी थी, चम्पई टाँगे धुलने के बाद और भी सुन्दर लगने लगी थी, ऊपर ढीला ढाला टॉप, बेपरवाह से बाल थे. वो पास आया “सुनो, यहाँ आओ”
वह आई, “आज ऑफिस से ज़रा जल्दी आओगी न?, मैं भी शूट से जल्दी आऊँगा”
उसने सर हिला दिया,
शूट पर जाता हुआ, वह, उसे आप कुछ भी समझ लें, कुछ भी नाम दे दें, मेरा नायक है, जिसकी गढ़ी गयी नताशा उसे छोड़ कर चली गयी है, और एक नताशा वह गढ़ रहा है. लीवाइस की जींस पहने है, बेनेटन की टीशर्ट पहले वह महंगे डियो का शौक़ीन है, पर आजकल केवल उसे वही डियो पसंद आ रहे हैं, जो उसकी पसंद के नहीं थे, आजकल उसे हर बात पर लड़ने का शौक हो गया है. संशय उसकी रग रग का हिस्सा हो गया है. उसके अंग अंग से जैसे आजकल सर्प लिपटे रहते हैं. कमबख्त जब से उसे नताशा छोड़ कर गयी है, लेकिन क्या करे, चित्र बनाते बनाते उनमें रंग भरते भरते कब वह जीवन में चरित्रों में रंग भरने लगा था उसे भी नहीं पता चला था. हर बार एक नए चेहरे के साथ जुड़ता था, उनके देह के कोण को अपनी कूची से नए आयाम देता था, कैसे उनके चेहरे से खुद को दूर से ही बाँध लेता था. नताशा भी थी, कैसे उसकी ज़िंदगी में बिना कहे आ गयी थी. बाँध नहीं पाया था था खुद को. गोरे रंग की नताशा की देह के हर निशान उसके जीवन का हिस्सा बन गए थे. नताशा के आने के बाद उसे जीवन से भय लगने लगा था, उसे अपने आप से भय लगने लगा था, खुद को और नताशा को वह लोगों से छिपाने लगा था. बूँद बूँद नताशा को पीता था, और फिर उसे छूकर देखता था, अरे मैली तो नहीं हो गयी, अपने हर चुम्बन के बाद हर उस अंग विशेष को प्रतिक्रियाफलस्वरूप देखता. पता नहीं वह कैसे नशे में हो गया था. नायक रंग भरते भरते चरित्र में खुद को समाहित कर चुका था. उसे पता ही नहीं चला था कब नताशा की देह के हर कोने से अपनी देह के कोनों को जोड़ चुका था और अब हर लडकी में उसे नताशा दिखने लगी थी. उसका बेदाग़ शरीर उसे शर्मिंदा करता था, उसे वह स्वयं का उपहास करता सा लगता था, जैसे ही वह अपना चेहरा उसके पास ले जाता, उसमें उस रूप का सामना कर पाने की क्षमता कम होने लगती, पर वह नताशा का प्रेमी था, प्रेयस था. उसकी हथेलियों में नताशा ही नताशा थी, उसके हर शूट में नताशा थी, उसके कैनवास में नताशा थी, और वह पागल था नताशा के लिए. उसके अस्तित्व का एक हिस्सा थी नताशा. पर न जाने क्यों, एक दिन कहीं चली गयी, उसे बिना बताए, नताशा के बिना जैसे वह अस्तित्वविहीन सा हो गया, न उसके रंगों में रंग बचे, चित्रों से रंग चले गए. उसके जीवन से चम्पई रंग जैसे गायब ही हो गया. रंगहीन जीवन में उसने रंग लाने की कोशिश की, रोज नई नताशा बनाता, जैसे ही उनके शरीर पर नताशा के तिल उभरने लगते, उसे वितृष्णा होने लगती, वह तिल के साथ नई नताशाओं को भी छोड़ कर भाग आता, उसे पलायन भाने लगा था. जैसे सूरज छिप जाता था वैसे ही वह भी छिप जाता था, अपने पलायन और नैराश्य के बादलों में. उसका ह्रदय निरंतर विद्रोह करता था पर देह को उसी की गंध पसंद थी, वह अपनी देह पर से उसके निशाँ छुटाने के लिए रोज़ ही नहाता, पर जितनी भी बार नहाता, उसकी देह उसे नताशा के और पास कर देती, वह खुरचता पर जैसे ही उसकी खुरच से त्वचा की एक भी परत खुलती वह उसे नताशा के और नज़दीक कर देती, ऐसा क्या था? नताशा ने उसे अस्तित्वविहीन कर दिया था. पर वह क्या करे? नताशा उसके जीवन पर अमरबेल की तरह छा गयी थी, वह अब कुछ नहीं था. उसने खुद को नताशा के ही रूप में ढालने का प्रयास किया. एक नई नताशा फिर बनाए, अब वह उसकी नई नताशा थी. नताशा के अनुसार ही उसके उसकी देह के हर कोने को बनाया. उसकी देह में कितने कोण थे, कितने कोने थे, कितने तिल थे, कहाँ मस्सा था, सब कुछ उसने अपनी नई नताशा में बनाया. हर रात वह उसके शरीर पर तिल बनाता, उसकी टांगों और बाहों में तिल बनाता, गर्दन के नीचे वाला काला गहरा तिल उसे बहुत पसंद था, जैसे ही नताशा अपने घुंघराले बाल हटाती थी, उसका वह तिल उसे आमंत्रण देता हुआ लगता था. आखिर वह तिल, नायक हर रात को अपनी इस नताशा के बनाता, और फिर उसे चूमता और इस तरह अन्दर तक लेने की कोशिश करता जैसे वह तिल के रूप में उस जहर को पी रहा हो जो उसे नताशा देकर गयी है, फिर जब थक कर निढाल हो जाता तो एक घ्रणा के रूप में उसे मिटा देता, इस कदर मिटा देता कि गर्दन पूरी तरह लाल हो जाती.
पर नताशा गयी क्यों थी और ये नताशा उसके साथ क्यों थी? ये एक तिलिस्म था, शक और संदेह का तिलिस्म है जो उसने गढ़ लिया था, और जिससे इस नकली नताशा उसे बाहर निकाल कर लाई है, उसे सहज बनाया है, उसकी देह के अंधेरों को निकालते निकालते वह खुद ही संदेह और शक से बाहर निकल आया है, इस निस्वार्थ समर्पण ने ऐसा बदल दिया है नायक को कि उसे स्वयं भी यकीन नहीं आता. अब शायद वे दोनों ही ओस की पहली बूँद की तरह हो चुके हैं. मेरा नायक, एक बार फिर से पूरे दिन रंगों और शूट से मारामारी करने के बाद, अपनी नताशा के पास जाने के लिए आतुर हो रहा है. उसे पता है ये नताशा की प्रतिछाया है पर, है तो सही पर है तो उसका ही निर्माण, उसका ही सृजन, उसकी ही कृति. जैसी मूल नताशा थी. नताशा उसके दिमाग का ही हिस्सा थी. आज भी नताशा का मनपसन्द चाइनीज़ भोजन खरीद कर वह जा रहा है, अपनी नई नताशा के पास. पता नहीं उसके मन में क्या है, वह स्वयं को उसके लिए क्यों मिटा रही है, ये तो उसे भी नहीं पता था,खैर, चलिए नायक के संग चलते हैं कि उसकी नई नताशा उसके साथ आज क्या करेगी? उसने आज रात को भी उसके साथ भला नहीं किया था, पर क्या करें वह ऐसा ही है. उसके जीवन में रस कई हैं, पर प्रेम तो उसने नताशा से ही किया था, ठीक है नताशा उसे छोड़ कर चली गयी तो क्या करे वह, ऐसे ही किसी को नताशा की जगह दे दे, उसे नताशा को अपनी स्म्रतियों से खरोच कर फेंकना भी है और उसे नताशा को याद भी रखना है, क्या करे वह? वह हारता जा रहा है. उसकी मुट्ठियाँ भींच जाती है, जब वह नताशा को सोचता है, अपने मन में लड़ता है, पर जीत नहीं पाता है, उसे नताशा चाहिए भी और नहीं भी, इसी अंतर्द्वंद में फंसा रह जाता है. उसके पास इस नताशा के घर के दरवाजे की चाबी है, इस एक कमरे के घर में वह अकेली रहती है, पर आज तो उसे दरवाज़ा खोलने की जरूरत नहीं पडी, दरवाज़ा खुला था और वह आराम से अन्दर आ गया. बिस्तर पर तह करी हुई वह झीनीचादर रखी थी जिसे ओढ़कर वह उसे प्रेम करती है, जिसकी तहों के बीच में वह उसकी नताशा बन जाती है. वहीं पास में काजल और आईलाइनर रखा हुआ है, जिससे वह उसके शरीर पर तिल बनाता था. उसका जीवन जैसे इसी कमरे में घिर कर रह गया था, वह उसे इस कमरे में कितना सुकून मिलता था. धीरे से जब वह सांकल बंद करता था, और नताशा के करीब आता था तो जैसे अपने अस्तित्व से ही कुछ टूटता हुआ सा उसे अनुभव होता था. इस छोटे कमरे में उसके सभी रंग अपनी नई परिभाषा पाते थे और इस कमरे से बाहर निकलते ही बिखर जाते थे. अपने आप ही रोज़ नई तस्वीर बनाते थे, उसका कैमरा भी उनके चित्रों को अपने ही नए कोणों से खींचता था. वो जैसे ही नताशा की देह को अपनी देह के नज़दीक लाता, परदे अपने आप ही गिर जाते और कैमरे के बटन अपने आप ही उनदोनों के प्रेम के चित्र लेने का प्रयास करते. वह उस चादर जैसी ही एक और चादर कैमरे पर डाल देती जिससे सब कुछ धुंधला आए. उसका चेहरा न आए, वो कुछ कहता तो कहती “तुम नताशा के साथ हो, जो एक भ्रम है, उसकी तस्वीर लेने का क्या, उस दिन कैमरे पर कोई चादर नहीं होगे जब तुम्हारी खुद की नताशा होगी तुम्हारे साथ”, नेपथ्य में अंगरेजी गाना चलता है “I don’t know who you are, what you do, fron where you are, as long as you love me” माने, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम कौन हो, क्या करते हो, कहाँ से हो, जब तक मुझे तुम प्यार करते हो”
पर आज इतना मौन क्यों पसरा है, इस कमरे में, जाने कौन सा अशुभ सा आश्चर्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा है. नताशा कहाँ है, कैमरा भी पूछ रहा है, अरे नताशा कहां हो तुम? मुझे तुम दोनों की धुंधली तस्वीर निकालनी है, कहाँ हो तुम? नायक भी पागल हो रहा है, “नहीं, अब तुम नहीं जा सकती हो, मुझे छोड़ कर, बहुत मुश्किल से सम्हला हूँ, अब नहीं” मोबाइल पर सन्देश आ रहे थे ढेर सारे, घंटी बज रही थी, कैमरा भी व्याकुल हो रहा था. परदे खिड़की पर गिरने के लिए मचल रहे थे, पर नताशा नहीं थी, नताशा कहाँ हो तुम? उसने कहा “अच्छा अब हरसिंगार से नहा लेना, पर आ जाओ” तिल भी नहीं बनाऊंगा पर आ जाओ?” उसकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी, उसके शरीर पर लाखों चींटियाँ रेंगने लगी थी. उससे अब ये घुटन बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी, नताशा आ जाओ, आ जाओ”
पर नताशा नहीं आ रही. आखिर नताशा चाहती क्या थी? आज जब वह है नहीं तो वह उसे महसूस कर रहा है, नताशा जब उससे मिली तो संभवतया अपने जीवन में एक टूटन के स्तर पर थी. वह जीवन के रंगों को महसूस नहीं कर पा रही थी. वह जीना तो चाहती थी पर जीवन उसकी मुट्ठी से निकल रहा था. ऐसे में उसका आगमन इस नकली नताशा के लिए वरदान सा साबित हुआ. उसके कंधे का उसे सहारा मिला और उसने टूटन के बाद समेटना सीखा. देह को समेटा, खुद को समेटा, जैसे उसने अपने जीवन के हर क्षण को समेटा. वह टूटन से उबरी, उसने देह के माध्यम से अपने अस्तित्व को संवारा. नायक को भी उसका अस्तित्व वापस दिया. जीवन के कुछ क्षण बिताने के बाद, जैसे अपनी धरोहर को वापस अपने पास पाने के बाद, उसे अहसास होने लगा कि यह उधार का प्रेम है. और इस उधार के प्रेम पर वह अधिक दिन नहीं जी सकती, उसे जीना होगा, अपने प्रेम को, उसे जीना होगा अपनी देह को. आत्ममुग्धता के क्षणों में जब वह अपनी देह को देखती तो जैसे वह पहचान ही न पाती खुद को. वह समझ ही नहीं पाती कि आखिर क्यों उसने अपनी देह को इस प्रकार समर्पण के लिए विवश कर दिया. पर शायद वह समय के अनुसार ही रहा होगा. पर अपनी देह और अस्तित्व को वापस पाने के बाद उसका अस्तित्व उसे कचोटने लगा था और इस उधार की ज़िन्दगी से बाहर निकलने पर विवश करने लगा था. वह असली नताशा को खोजने लगी थी. जो चली गयी थी, कहाँ, ये नहीं पता, क्यों ये नहीं पता. अंतत: कुछ दिनों की मेहनत के बाद शायद उसने असली नताशा को खोज ही लिया. नायक के पागलपन की चित्रावली प्रस्तुत की. चूंकि वह नायक की चित्रावली की असली नायिका थी तो उसके मन का उछाह उसे नायक के पास जाने के लिए प्रेरित भी कर रहा था. शायद नायिका की अति महत्वाकांक्षा और नायक के फक्कडपन के कारण उत्पन्न असंतुलन का परिणाम था रिश्तों का यह मोड़. नताशा ने नकली नताशा को अपनी पूरी कहानी सुनाई, नायक का टूट कर प्रेम करना, देह को अपनी ही मुट्ठी में बांधना, देह को अपने अनुसार ढालना, सब कुछ. हाँ, वह ही थी जिसे नायक ने गढ़ा था पर उसने जैसे नताशा के अस्तित्व पर ही मकड़ी की तरह जाल बन दिया था. नताशा जो वास्तविक जीवन में भी नायिका ही थी, वह केवल उसी के रंगों में कैद होकर नहीं रह सकती थी, उसे भी जीनी थी अपनी ज़िन्दगी, बिस्तर के कोनों पर ही नहीं उसे अपने सौन्दर्य को नायक के कैमरे और नायक के कमरे से बाहर भी विस्तारित करना था. अपने स्त्रीत्व का विस्तार करना था.  नायक यह समझ नहीं रहा था तभी एक दिन वह घर के हर कोने को रोता छोड़ कर चली आई थी. नायक के शक से दूर, नायक के संदेह से दूर. या कहें नायक से दूर. वह खो गयी थी रंगों की दुनिया में, वह खो गयी थी फोटो शूट की दुनिया में. उसे अपने स्त्रीत्व को केवल नायक तक ही सीमित कर देना उचित नहीं लग रहा था. जो उस पर नित नए संदेह करने लगा था, तन मन और आत्मा से समर्पण के बाद भी नायक द्वारा खींची गयी शक और लक्ष्मण रेखा उसे इस सम्बन्ध से बाहर निकलने के लिए जैसे उकसा रही थी. और जिस दिन नायक का शक अपनी चरम सीमा पर गया उसी दिन घर को रोता बिलखता छोड़कर अपनी आँखों में मुक्ति के आंसू लेकर वह निकल आई थी. पर नायक, वह, वह तो जैसे नताशा गढ़ने लगा था, यह उसे पता न था और शक और संदेह त्याग कर अब केवल समर्पण का पर्याय बन गया था ये भी उसे पता न था. इस नकली नताशा ने नायक के भीतर के शक को जैसे एब्सोर्बर बनकर खुद में एब्सोर्ब कर लिया था और वह नीलकंठ जैसी हो गयी थी. जहर निकाल चुकी थी, देह की अंधेरी गुफाओं से बाहर निकल चुकी थी और नायक को शक की कंदराओं से बाहर निकाल कर उसे एक आम इंसान बना चुकी थी. अब वह इस उधार के खाते में अपने जीवन की बैलेंस शीट नहीं बनाना चाहती थी. उसे अब एक कोरी स्लेट चाहिए थी जिससे वह अपने जीवन को दोबारा से लिख सके, और वह इस उधार के प्रेम पर नहीं हो सकता था. वह ले आई थी नताशा को वापस, अपने सुधरे हुए नायक के पास. अपने भीतर की स्त्री को और अधिक वह मार नहीं सकती थी, इसलिए इस प्रेम कथा का पटाक्षेप तो करना ही था, प्रेम को भी उसके अंत तक पहुंचाना ही था, तभी दोनों नताशा ही जैसे एक दूसरे के गले लगकर रोने लगी. उन आंसुओं में क्या था, ये उन दोनों को ही नहीं पता था, पर जो भी था उसने जैसे उन दोनों के हर क्षण की कड़वाहट को बहा दिया और बह गया शक, पूर्वाग्रह, सब कुछ. बच गया तो केवल प्रेम. जो केवल नताशा का था और नकली नताशा देह की अंधेरी गुफाओं से बाहर निकलकर अपने जीवन को जीने जा रही थी. देह के समर्पण का उसे कोई पछतावा नहीं था. आज वह कोरा कागज़ बन गयी थी, नायक अपनी नताशा के पास और इसके पास अपनी देह, अपना शरीर और अपनी पहचान.
इधर नायक के मोबाइल पर सन्देश आ रहा  है, उस पूरे कमरे में सांप जैसे चल रहे हों, वैसा लिजलिजापन छा रहा है और नताशा तो आ ही नहीं रही है. तभी कमरे में कोई आता है, उसकी देह एक चिरपरिचित सुगंध से महक उठती है. नताशा, नहीं तुम नहीं, तुम कहाँ से, फिर मेरी नई नताशा कहाँ है? तुम नहीं, नहीं नहीं तुम एक बार और नहीं, तुम नहीं.
उसकी देह के रोम रोम में समाई वह गंध उसे खुद में समेट कर समर्पण हेतु विवश करने की तैयारी में थी. वह विवश होता जा रहा था. उसे वह अपने वश में करती जा रही थी, परदे मचल रहे थे, और कैमरा हतप्रभ सा था, आज किसी ने कोई भी चादर उसपर नहीं डाली है. क्या आज वह उनकी रेखाओं को अपनी निगाहों में समेट ले? आज उससे कोई कुछ कह क्यों नहीं रहा था? चादरों में एक होती परछाई ने बस कैमरे से इतना ही कहा “आज भ्रम नहीं है, इसलिए तुम पर चादर नहीं है”
नायक के मोबाइल की स्क्रीन पर दोपहर से ही एक सन्देश उभर रहा है “आज से कैमरे पर चादर की जरूरत नहीं होगी, मेरे मित्र मेरे प्रयाण में ही तुम्हारा कल्याण है”
इधर रात की रानी, हरसिंगार, और मेरा गुलमोहर एक नई कथा की प्रतीक्षा में है, क्या इस नताशा के साथ भी वे रूहों की रूमानियत के चरम पर पहुंचेंगे?
गुलमोहर को तो इंतज़ार है, और हरसिंगार, मत पूछिए उसकी कलियाँ खिल कर फूल बनने लगी हैं, सेज जो कल अधूरी छूटी थी, फिर से सजने लगी है, और नायक की देह में नताशा की देह घुलने लगी है.
और मेज पर से काजल, आईलाइनर सब कुछ गिरने लगा है.
कैमरा खुल कर इन लम्हों को जीने लगा है ............................................

सोनाली

9810499064

नया साल

फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने...