रविवार, 17 अप्रैल 2016

महाअरण्य में गिद्ध

महाअरण्य में गिद्ध
लेखक: राकेश कुमार सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य: 520 रु
समीक्षा: सोनाली मिश्रा
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एक नए प्रदेश का निर्माण, अपनी माटी अपने लोग के नारे और उन नारों के बीच विद्रोहियों का समर्पण.  इस लुभावन तस्वीर के पीछे बहुत कुछ होता है, आदिवासियों का जीवन, उनका दोहन और शोषण, मिशनरियों की कारस्तानियाँ और सरकार का लूटतंत्र. राकेश कुमार सिंह की महाअरण्य में गिद्ध, में झारखण्ड बनने की प्रसव पीड़ा में न जाने कितने आदिवासियों के साथ हुए छल की गाथा है. कहानी में कामरेड का रोटी, रोमांस और रिवोल्यूशन के सिद्धांत को बहुत ही बेबाकी से बीडीओ सुबीर के माध्यम से कहा है. भोली भाली आदिवासी लड़कियों की तस्करी करती स्टेला कपूर उर्फ स्टीलवा दीदी, जो बाद में किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की रखैल निकलती है, या भूमाफिया व अफसरों का गठजोड़ जो जंगल से अपने घर को ही भरना चाहते हैं, सब पाठक को विस्मित करता है. उससे पहले बुलाकी मुंडा के मुंह से बुचानी मुरमू और देकुली की प्रेम कहानी में राजा के अत्याचारों की पराकाष्ठा है.  बाघ, अजगर और मगरमच्छ के सामने विद्रोहियों को ज़िंदा परोसने की कहानी.  राहत की तलाश में जब आदिवासी मिशनरी की शरण में जाते हैं तो उन्हें यहाँ भी जैसे छले जाने का आभास होता है.  धर्मपरिवर्तन से वे एक नया नाम तो ले लेते हैं पर पहचान, पहचान तो उनकी वही है. युगों युगों की गाथाएं कैसे उनका पीछा छोड़ेंगी. यह पीड़ा इन पंक्तियों से समझी जा सकती है “जब आदिवासी मिशनरी के हाथों दिल हार बैठे तो यह सच सामने आया कि सेवा और करुणा भी बेमोल प्राप्त नहीं होते”. उन्हें उनके मूल जीवन से काटने का कुचक्र, कोयले की खान की दलाली, भूमंडलीकरण में आदिवासियों का दुरूपयोग, उनकी कहानियों के बल पर अपनी तिजोरी भरने वाले NGO का सच, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उनकी पीड़ा बेचकर दिल्ली में कोठियों में रहने वाले लोगों की वास्तविकता यह किताब पाठकों के सम्मुख लाती है. मूलभूत सुविधाओं और जानकारी के अभाव में किस प्रकार भोले भले आदिवासी जादू टोने, अंधविश्वास और चुड़ैल के जाल में फंसते हैं इसके साथ उनसे लड़ने की लालसा को भी इस किताब में दिखाया है. समाजसेवा के माध्यम से लोग अब आदिवासियों के जीवन को बदलने आ रहे हैं, पर सरकारी कुचक्र जिसमें, स्कूलों का न खुलना, विभिन्न योजनाओं में नाम तो लिखवाना पर केवल मौद्रिक लाभ ही लेना, शिक्षकों का स्कूल न जाना आदि सब कुछ बहुत ही सहज प्रवाह में है.  और इसके साथ है झारखंड मुक्ति दल के बहाने राजनीति और सियासत की कहानी. कैसे आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाला दल अपने लोगों की रक्षा करता है, उन्हें दिल्ली से आए हुए बाबुओं से बचाता है, अपनी लडकियों की रक्षा करता है, अपने जंगल और जंगल के अधिकारों के लिए लड़ता है, पर अंत में जब उनका सपना एक आदिवासी राज्य बनने का साकार होने जाता है तो सत्ता के दलदल में बिखर जाता है. गुटबाज़ी षड्यंत्र, राजनीतिक लिप्सा, लालसा, काली बाबू का अपने ही दल से विश्वासघात और ददुआ मानकी का पूरे जीवन का संघर्ष, बीडीओ बाबू का अपनी नौकरी बचाने के लिए विद्रोहियों को सरकार के हवाले कर देना और अंत में मुक्तिदल का विद्रोह. और सरकारी गिद्धों के द्वारा उन्हें नोचा जाना. वाकई में ही महाअरण्य में गिद्ध जिसमें हर तरफ गिद्ध ही गिद्ध हैं जो आदिवासियों और जंगल के सम्पदा को नोच नोच कर खा रहे हैं, की भाषा जो देशज है, स्थानीय है और जो आदिवासियों के होने के बावज़ूद पाठकों को अपरिचित महसूस नहीं होने देती, बाँध कर रखती है. राकेश कुमार सिंह अपनी किताब के माध्यम से स्याह पक्ष को रखने में सफल रहे हैं. 

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