रविवार, 17 अप्रैल 2016

लुभाता इतिहास, पुकारती कला

लुभाता इतिहास, पुकारती कला
देव प्रकाश चौधरी

कला कभी मरती नहीं, वह तब तक अमर रहती है जब तक उसके साधक उसे दुनिया के कोने कोने में पल्लवित करने के लिए उत्सुक रहें. कलाकार कला को अमर बनाने के लिए उसे जब दीवारों पर उकेरता है तो वह एक इतिहास, एक सभ्यता, एक परम्परा को उकेरता है और जब एक कला मृतप्राय होने लगती है तो वह पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति ही खतरे में आ जाती है. भागलपुर, बिहार के आसपास के क्षेत्रों में सांस लेती मंजूषा कला, भी ऐसी ही एक कला है तो चेतनता से सुप्तावस्था में चली गई है, पर अब उसे वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के प्रयास किए जा रहे हैं, अंग प्रदेश के आँगन में अपने बचपन और यौवन को जीती इस कला के बारे में बताने का प्रयास देव प्रकाश चौधरी ने अपनी पुस्तक लुभाता इतिहास, पुकारती कला में किया है. विषहरी देवी की कहानी को बताने का तरीका जितना रोचक है, भाषा उतनी ही बाँधने वाली. अंग के ऐतिहासिक सन्दर्भ विस्मित करने वाले हैं. कथा के उद्गम से विस्तार और उसके बाद उसके बंध जाने की भी पीड़ा है. कला लोक की पहचान होती है और लोकगीतों से ही विस्तारित होती है. इस पुस्तक में विषहरी से सम्बंधित लगभग हर लोकगीत के साथ इस कला से जुड़े हुए लोकगीतों को भी अर्थ सहित समझाने का प्रयास लेखक ने किया है.
मंजूषा कला की कथा छठी शताब्दी ईसापूर्व की है. कहानी शिव की मानस पुत्री विषहरी और चांदो व्यापारी की है. उन दोनों के बीच लड़ाई और अंत में चांदो की बहू बिहुला द्वारा अपने सुहाग की रक्षा करने से लेकर मनसा देवी की पूजा कर अपने सुहाग को काल के हाथों से वापस लाने की कहानी है, मंजूषा कला. कला की कहानियाँ आस्था से जुडी होती हैं, जो हर युग में एक नए ही रूप में आती हैं, कौन जानता है कि ये कथा सच होगी, पर मंजूषा कला सच है, उस कला में उकेरी जाने वाली विषहरी सच हैं. हर चरित्र एक कहानी गढ़ता है, हर चरित्र एक कहानी कहता है, वह चित्र के माध्यम से हम सबमें उस कला के प्रति प्रेम उत्पन्न करता है. और शायद यही प्रेम रहा होगा जिसने ब्रिटिश अधिकारी आर्चर को 1940 के आसपास मंजूषा को देखकर उन्हें लन्दन भिजवाने के लिए प्रेरित किया. इन्हीं आर्चर साहब ने मधुबनी को भी पहचान दी, और इन्होने ही मंजूषा को दुनिया तक पहुंचाया. कैसे कला के साधक को केवल छोटी पहचान तक सीमित कर दिया जाता है, उस पीड़ा को भी चक्रवर्ती देवी के रूप में इस किताब में दिखाया है, जिनकी कूची ने सालों की अनवरत यात्रा और कई पड़ाव पार करते हुए 2008 में विराम लिया. कला सरहदें नहीं जानती, तो मंजूषा कैसे केवल अंग तक ही थम जाती, वह भी पड़ोसी ओडिशा और कोलकता में चली गयी, पर उसने प्रेरणा दी दूसरी कलाओं को और रंग के नए प्रयोगों को. मंजूषा में परम्परा है, पर तमाम प्रयोग भी हैं. ये कला है, जिसे अनवरत चलना है, साधक तो आएँगे जाएंगे पर साधना, वह तो अमर है, कला के नए नए रूपों के साथ साधक अपनी कला को जीवित रखते हैं. मंजूषा भी आज देश की सीमा को तोड़कर बाहर जा रही है, फैशन डिजाइनिंग के छात्र अब मंजूषा को खोज खोज कर अपने कार्यों में सम्मिलित कर उसे एक नई पहचान दिला रहे हैं. कला से हम है और हम से कला, इस पारस्परिक सम्बन्ध को बतलाती है ये किताब, सच कहें तो मंजूषा के निकट ले जाती है हमें ये किताब.

सोनाली मिश्र


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